श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ११

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ११         

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ११ "स्वायम्भुव-मनु का ध्रुव जी को युद्ध बंद करने के लिये समझाना"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ११
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ११

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकादश अध्यायः

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४ अध्यायः ११   

श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध ग्यारहवाँ अध्याय

चतुर्थ स्कन्ध:  श्रीमद्भागवत महापुराण    

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ११ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित

मैत्रेय उवाच -

(अनुष्टुप्)

निशम्य गदतामेवं ऋषीणां धनुषि ध्रुवः ।

सन्दधेऽस्त्रमुपस्पृश्य यन्नारायणनिर्मितम् ॥ १ ॥

सन्धीयमान एतस्मिन् माया गुह्यकनिर्मिताः ।

क्षिप्रं विनेशुर्विदुर क्लेशा ज्ञानोदये यथा ॥ २ ॥

तस्यार्षास्त्रं धनुषि प्रयुञ्जतः

     सुवर्णपुङ्‌खाः कलहंसवाससः ।

विनिःसृता आविविशुर्द्विषद्‍बलं

     यथा वनं भीमरवाः शिखण्डिनः ॥ ३ ॥

तैस्तिग्मधारैः प्रधने शिलीमुखैः

     इतस्ततः पुण्यजना उपद्रुताः ।

तमभ्यधावन् कुपिता उदायुधाः

     सुपर्णं उन्नद्धफणा इवाहयः ॥ ४ ॥

स तान् पृषत्कैरभिधावतो मृधे

     निकृत्तबाहूरुशिरोधरोदरान् ।

निनाय लोकं परमर्कमण्डलं

     व्रजन्ति निर्भिद्य यमूर्ध्वरेतसः ॥ ५ ॥

तान् हन्यमानानभिवीक्ष्य गुह्यकान्

     अनागसश्चित्ररथेन भूरिशः ।

औत्तानपादिं कृपया पितामहो

     मनुर्जगादोपगतः सहर्षिभिः ॥ ६ ॥

मनुरुवाच -

(अनुष्टुप्)

अलं वत्सातिरोषेण तमोद्वारेण पाप्मना ।

येन पुण्यजनानेतान् अवधीस्त्वं अनागसः ॥ ७ ॥

नास्मत्कुलोचितं तात कर्मैतत् सद्विगर्हितम् ।

वधो यदुपदेवानां आरब्धस्तेऽकृतैनसाम् ॥ ८ ॥

नन्वेकस्यापराधेन प्रसङ्‌गाद् बहवो हताः ।

भ्रातुर्वधाभितप्तेन त्वयाङ्‌ग भ्रातृवत्सल ॥ ९ ॥

नायं मार्गो हि साधूनां हृषीकेशानुवर्तिनाम् ।

यदात्मानं पराग्गृह्य पशुवद्‌भूतवैशसम् ॥ १० ॥

सर्वभूतात्मभावेन भूतावासं हरिं भवान् ।

आराध्याप दुराराध्यं विष्णोस्तत्परमं पदम् ॥ ११ ॥

स त्वं हरेरनुध्यातः तत्पुंसामपि सम्मतः ।

कथं त्ववद्यं कृतवान् अनुशिक्षन्सतां व्रतम् ॥ १२ ॥

तितिक्षया करुणया मैत्र्या चाखिलजन्तुषु ।

समत्वेन च सर्वात्मा भगवान् सम्प्रसीदति ॥ १३ ॥

सम्प्रसन्ने भगवति पुरुषः प्राकृतैर्गुणैः ।

विमुक्तो जीवनिर्मुक्तो ब्रह्म निर्वाणमृच्छति ॥ १४ ॥

भूतैः पञ्चभिरारब्धैः योषित्पुरुष एव हि ।

तयोर्व्यवायात् सम्भूतिः योषित्पुरुषयोरिह ॥ १५ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! ऋषियों का ऐसा कथन सुनकर महाराज ध्रुव ने आचमन कर श्रीनारायण के बनाये हुए नारायणास्त्र को अपने धनुष पर चढ़ाया। उस बाण के चढ़ाते ही यक्षों द्वारा रची हुई नाना प्रकार की माया उसी क्षण नष्ट हो गयी, जिस प्रकार ज्ञान का उदय होने पर अविद्यादि क्लेश नष्ट हो जाते हैं।

ऋषिवर नारायण के द्वारा आविष्कृत उस अस्त्र को धनुष पर चढ़ाते ही उससे राजहंस के-से पक्ष और सोने के फल वाले बड़े तीखे बाण निकले और जिस प्रकार मयूर केकारव करते वन में घुस जाते हैं, उसी प्रकार भयानक सांय-सांय शब्द करते हुए वे शत्रु की सेना में घुस गये। उन तीखी धार वाले बाणों ने शत्रुओं को बेचैन कर दिया। तब उस रणांगण में अनेकों यक्षों ने अत्यन्त कुपित होकार अपने अस्त्र-शस्त्र सँभाले और जिस प्रकार गरुड़ के छेड़ने से बड़े-बड़े सर्प फन उठाकर उनकी ओर दौड़ते हैं, उसी प्रकार वे इधर-उधर से ध्रुव जी पर टूट पड़े। उन्हें सामने आते देख ध्रुव जी ने अपने बाणों द्वारा उनकी भुजाएँ, जाँघें, कंधे, और उदर आदि अंग-प्रत्यंगों को छिन्न-भिन्न कर उन्हें उस सर्वश्रेष्ठ लोक (सत्यलोक) में भेज दिया, जिसमें उर्ध्वरेता मुनिगण सूर्यमण्डल का भेदन करके जाते हैं। अब उनके पितामह स्वयाम्भुव मनु ने देखा कि विचित्र रथ पर चढ़े हुए ध्रुव अनेकों निरपराध यक्षों को मार रहे हैं, तो उन्हें उन पर बहुत दया आयी। वे बहुत-से ऋषियों को साथ लेकर वहाँ आये और अपने पौत्र ध्रुव को समझाने लगे।

मनु जी ने कहा ;- बेटा! बस, बस! अधिक क्रोध करना ठीक नहीं। यह पापी नरक का द्वार है। इसी के वशीभूत होकर तुमने इन निरपराध यक्षों का वध किया है। तात! तुम तो निर्दोष यक्षों के संहार पर उतर रहे हो, यह हमारे कुल के योग्य कर्म नहीं है; साधु पुरुष इसकी बड़ी निन्दा करते हैं। बेटा! तुम्हारा अपने भाई पर अनुराग था, यह तो ठीक है; परन्तु देखो, उसके वध से सन्तप्त होकर तुमने एक यक्ष के अपराध करने पर प्रसंगवश कितनों की हत्या कर डाली। इस जड़ शरीर को ही आत्मा मानकर इसके लिये पशुओं की भाँति प्राणियों की हिंसा करना यह भगवत्सेवी साधुजनों का मार्ग नहीं है। प्रभु की आराधना करना बड़ा कठिन है, परन्तु तुमने तो लड़कपन में ही सम्पूर्ण भूतों के आश्रय-स्थान श्रीहरि की सर्वभूतात्मा भाव से आराधना करके उनका परमपद प्राप्त कर लिया है। तुम्हें तो प्रभु भी अपना प्रिय भक्त समझते हैं तथा भक्तजन भी तुम्हारा आदर करते हैं। तुम साधुजनों के पथप्रदर्शक हो; फिर भी तुमने ऐसा निन्दनीय कर्म कैसे किया?

सर्वात्मा श्रीहरि तो अपने से बड़े पुरुषों के प्रति सहनशीलता, छोटों के प्रति दया, बराबर वालों के साथ मित्रता और समस्त जीवों के साथ समता का बर्ताव करने से ही प्रसन्न होते हैं और प्रभु के प्रसन्न हो जाने पर पुरुष प्राकृत गुण एवं उनके कार्यरूप लिंगशरीर से छूटकर परमानन्दस्वरूप ब्रह्मपद प्राप्त कर लेता है।

बेटा ध्रुव! देहादि के रूप में परिणत हुए पंचभूतों से स्त्री-पुरुष का आविर्भाव होता है और फिर उनके पारम्परिक समागम से दूसरे स्त्री-पुरुष उत्पन्न होते हैं।

एवं प्रवर्तते सर्गः स्थितिः संयम एव च ।

गुणव्यतिकराद् राजन् मायया परमात्मनः ॥ १६ ॥

निमित्तमात्रं तत्रासीत् निर्गुणः पुरुषर्षभः ।

व्यक्ताव्यक्तमिदं विश्वं यत्र भ्रमति लोहवत् ॥ १७ ॥

स खल्विदं भगवान्कालशक्त्या

     गुणप्रवाहेण विभक्तवीर्यः ।

करोत्यकर्तैव निहन्त्यहन्ता

     चेष्टा विभूम्नः खलु दुर्विभाव्या ॥ १८ ॥

(अनुष्टुप्)

सोऽनन्तोऽन्तकरः कालो ऽनादिरादिकृदव्ययः ।

जनं जनेन जनयन् मारयन् मृत्युनान्तकम् ॥ १९ ॥

न वै स्वपक्षोऽस्य विपक्ष एव वा

     परस्य मृत्योर्विशतः समं प्रजाः ।

तं धावमानं अनुधावन्त्यनीशा

     यथा रजांस्यनिलं भूतसङ्‌घाः ॥ २० ॥

(अनुष्टुप्)

आयुषोऽपचयं जन्तोः तथैवोपचयं विभुः ।

उभाभ्यां रहितः स्वस्थो दुःस्थस्य विदधात्यसौ ॥ २१ ॥

केचित्कर्म वदन्त्येनं स्वभावमपरे नृप ।

एके कालं परे दैवं पुंसः काममुतापरे ॥ २२ ॥

अव्यक्तस्याप्रमेयस्य नानाशक्त्युदयस्य च ।

न वै चिकीर्षितं तात को वेदाथ स्वसम्भवम् ॥ २३ ॥

न चैते पुत्रक भ्रातुः हन्तारो धनदानुगाः ।

विसर्गादानयोस्तात पुंसो दैवं हि कारणम् ॥ २४ ॥

स एव विश्वं सृजति स एवावति हन्ति च ।

अथापि ह्यनहङ्‌कारात् नाज्यते गुणकर्मभिः ॥ २५ ॥

एष भूतानि भूतात्मा भूतेशो भूतभावनः ।

स्वशक्त्या मायया युक्तः सृजत्यत्ति च पाति च ॥ २६ ॥

तमेव मृत्युममृतं तात दैवं

     सर्वात्मनोपेहि जगत्परायणम् ।

यस्मै बलिं विश्वसृजो हरन्ति

     गावो यथा वै नसि दामयन्त्रिताः ॥ २७ ॥

यः पञ्चवर्षो जननीं त्वं विहाय

     मातुः सपत्‍न्या वचसा भिन्नमर्मा ।

वनं गतस्तपसा प्रत्यगक्षं

     आराध्य लेभे मूर्ध्नि पदं त्रिलोक्याः ॥ २८ ॥

तमेनमङ्‌गात्मनि मुक्तविग्रहे

     व्यपाश्रितं निर्गुणमेकमक्षरम् ।

आत्मानमन्विच्छ विमुक्तमात्मदृग्

     यस्मिन् इदं भेदमसत्प्रतीयते ॥ २९ ॥

त्वं प्रत्यगात्मनि तदा भगवत्यनन्त

     आनन्दमात्र उपपन्नसमस्तशक्तौ ।

भक्तिं विधाय परमां शनकैरविद्या

     ग्रन्थिं विभेत्स्यसि ममाहमिति प्ररूढम् ॥ ३० ॥

(अनुष्टुप्)

संयच्छ रोषं भद्रं ते प्रतीपं श्रेयसां परम् ।

श्रुतेन भूयसा राजन् अगदेन यथामयम् ॥ ३१ ॥

येनोपसृष्टात्पुरुषात् लोक उद्विजते भृशम् ।

न बुधस्तद्वशं गच्छेद् इच्छन् अभयमात्मनः ॥ ३२ ॥

हेलनं गिरिशभ्रातुः धनदस्य त्वया कृतम् ।

यज्जघ्निवान् पुण्यजनान् भ्रातृघ्नानित्यमर्षितः ॥ ३३ ॥

तं प्रसादय वत्साशु सन्नत्या प्रश्रयोक्तिभिः ।

न यावन्महतां तेजः कुलं नोऽभिभविष्यति ॥ ३४ ॥

एवं स्वायम्भुवः पौत्रं अनुशास्य मनुर्ध्रुवम् ।

तेनाभिवन्दितः साकं ऋषिभिः स्वपुरं ययौ ॥ ३५ ॥

ध्रुव! इस प्रकार भगवान् की माया से सत्त्वादि गुणों में न्यूनाधिक भाव होने से ही जैसे भूतों द्वारा शरीरों की रचना होती है, वैसे ही उनकी स्थिति और प्रलय भी होते हैं। पुरुषश्रेष्ठ! निर्गुण परमात्मा तो इनमें केवल निमित्तमात्र है; उसके आश्रय से यह कार्यकरणात्मक जगत् उसी प्रकार भ्रमता रहता है, जैसे चुम्बक के आश्रय से लोहा। काल-शक्ति के द्वारा क्रमशः सत्त्वादि गुणों में क्षोभ होने से लीलामय भगवान् की शक्ति भी सृष्टि आदि के रूप में विभक्त हो जाती है; अतः भगवान् अकर्ता होकर भी जगत् की रचना करते हैं और संहार करने वाले न होकर भी इसका संहार करते हैं। सचमुच उन अनन्त प्रभु की लीला सर्वथा अचिन्तनीय है। ध्रुव! वे कालस्वरूप अव्यय परमात्मा ही स्वयं अन्तरहित होकर भी जगत् का अन्त करने वाले हैं तथा अनादि होकर भी सबके आदिकर्ता हैं। वे ही एक जीव से दूसरे जीव को उत्पन्न कर संसार की सृष्टि करते हैं तथा मृत्यु के द्वारा मारने वाले को भी मरवाकर उसका संहार करते हैं। वे काल भगवान् सम्पूर्ण सृष्टि में समान रूप से अनुप्रविष्ट हैं। उनका न तो कोई मित्र पक्ष है और न शत्रु पक्ष। जैसे वायु के चलने पर धूल उसके साथ-साथ उड़ती है, उसी प्रकार समस्त जीव अपने-अपने कर्मों के अधीन होकर काल की गति का अनुसरण करते हैं-अपने-अपने कर्मानुसार सुख-दुःखादि फल भोगते हैं। सर्वसमर्थ श्रीहरि कर्मबन्धन में बँधे हुए जीव की आयु की वृद्धि और क्षय का विधान करते हैं, परन्तु वे स्वयं इन दोनों से रहित और अपने स्वरूप में स्थित हैं।

राजन्! इन परमात्मा को ही मीमांसक लोग कर्म, चार्वाक, स्वभाव, वैशेषिक मतावलम्बी काल, ज्योतिषी दैव और कामशास्त्री काम कहते हैं। वे किसी भी इन्द्रिय या प्रमाण के विषय नहीं हैं। महदादि अनेक शक्तियाँ भी उन्हीं से प्रकट हुईं हैं। वे क्या करना चाहते हैं, इस बात को भी संसार में कोई नहीं जानता; फिर अपने मूल कारण उन प्रभु को तो जान ही कौन सकता है। बेटा! ये कुबेर के अनुचर तुम्हारे भाई को मारने वाले नहीं हैं, क्योंकि मनुष्य के जन्म-मरण का वास्तविक कारण तो ईश्वर है। एकमात्र वही संसार को रचता, पालता और नष्ट करता है, किन्तु अहंकारशून्य होने के कारण इसके गुण और कर्मों से वह सदा निर्लेप रहता है। वे सम्पूर्ण प्राणियों के अन्तरात्मा, नियन्ता और रक्षा करने वाले प्रभु ही अपनी मायाशक्ति से युक्त होकर समस्त जीवों का सृजन, पालन और संहार करते हैं। जिस प्रकार नाक में नकेल पड़े हुए बैल अपने मालिक का बोझा ढोते रहते हैं, उसी प्रकार जगत् की रचना करने वाले ब्रह्मादि भी नामरूप डोरी से बँधे हुए उन्हीं की आज्ञा का पालन करते हैं। वे अभक्तों के लिये मृत्युरूप और भक्तों के लिये अमृतरूप हैं तथा संसार के एकमात्र आश्रय हैं।

तात! तुम सब प्रकार उन्हीं परमात्मा की शरण लो। तुम पाँच वर्ष की ही अवस्था में अपनी सौतेली माता के वाग्बाणों से मर्माहत होकर माँ की गोद छोड़कर वन को चले गये थे। वहाँ तपस्या द्वारा जिन हृषीकेश भगवान् की आराधना करके तुमने त्रिलोकी से ऊपर ध्रुवपद प्राप्त किया है और जो तुम्हारे वैरभावहीन सरल हृदय में वात्सल्यवश विशेष रूप से विराजमान हुए थे, उन निर्गुण अद्वितीय अविनाशी और नित्यमुक्त परमात्मा को अध्यात्म दृष्टि से अपने अन्तःकरण में ढूँढो। उनमें यह भेदभावमय प्रपंच न होने पर भी प्रतीत हो रहा है। ऐसा करने से सर्वशक्तिसम्पन्न परमानन्दस्वरूप सर्वान्तर्यामी भगवान् अनन्त में तुम्हारी सुदृढ़ भक्ति होगी और उसके प्रभाव से तुम मैं-मेरेपन के रूप में दृढ़ हुई अविद्या की गाँठ को काट डालोगे।

राजन्! जिस प्रकार ओषधि से रोग शान्त किया जाता है-उसी प्रकार मैंने तुम्हें जो कुछ उपदेश दिया है, उस पर विचार करके अपने क्रोध को शान्त करो। क्रोध कल्याण मार्ग का बड़ा ही विरोधी है। भगवान् तुम्हारा मंगल करें। क्रोध के वशीभूत हुए पुरुष से सभी लोगों को बड़ा भय होता है; इसलिये जो बुद्धिमान् पुरुष ऐसा चाहता है कि मुझसे किसी भी प्राणी को भय न हो और मुझे भी किसी से भय न हो, उसे क्रोध के वश में कभी न होना चाहिये। तुमने जो यह समझकर कि ये मेरे भाई के मारने वाले हैं, इतने यक्षों का संहार किया है, इससे तुम्हारे द्वारा भगवान् शंकर के सखा कुबेर जी का बड़ा अपराध हुआ है। इसलिये बेटा! जब तक कि महापुरुषों का तेज हमारे कुल को आक्रान्त नहीं कर लेता; इसके पहले ही विनम्र भाषण और विनय के द्वारा शीघ्र उन्हें प्रसन्न कर लो।

इस प्रकार स्वयाम्भुव मनु ने अपने पौत्र ध्रुव को शिक्षा दी। तब ध्रुव जी ने उन्हें प्रणाम किया। इसके पश्चात् वे महर्षियों के सहित अपने लोक को चले गये।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥

इस प्रकार श्रीमद्‌भागवत महापुराण का परमहंस संहिता स्कन्ध ४ अध्याय ११ समाप्त हुआ ॥ ११ ॥

आगे जारी-पढ़े............... स्कन्ध ४ अध्याय १२  

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