विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ९
विष्णु पुराण के प्रथम अंश के अध्याय
९ में देवता और दैत्यों का समुद्र मन्थन का वर्णन है।
विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ९
Vishnu Purana first part chapter
9
विष्णुपुराणम् प्रथमांशः नवमोऽध्यायः
विष्णुपुराणम्/प्रथमांशः/अध्यायः ९
श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश नवाँ अध्याय
श्रीपराशर उवाच
इदं च श्रृणु मैत्रेय
यत्पृष्टोऽहमिह त्वया ।
श्रीसम्बन्धं
मयाप्येतच्छूतमासीन्मरीचितः ॥१॥
दुर्वासाः शंकरस्यांशश्चचार
पृथिवीमिमाम् ।
स ददर्श स्त्रजं दिव्यामृषिर्विद्याधरीकरे
॥२॥
सन्तानकानामखिलं यस्या गन्धेन
वासितम् ।
अतिसेव्यमभूद्वह्मन् तद्वनं
वनचारिणाम् ॥३॥
उन्मत्तव्रतधॄग्विप्रस्तां दृष्ट्वा
शोभनां स्त्रजम् ।
तां ययाचे वरारोहां विद्याधरवधूं
ततः ॥४॥
याचिता तेन तन्वंगी मालां
विद्याधरांगना ।
ददौ तस्मै विशालाक्षी सादरं
प्रणिपत्य तम् ॥५॥
श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय !
तुमने इस समय मुझसे जिसके विषयमें पूछा है वह श्रीसम्बन्ध ( लक्ष्मीजीका इतिहास )
मैंने भी मरीचि ऋषिसे सुना था, वह मैं
तुम्हें सुनाता हूँ, ( सावधान होकर ) सुनो ॥१॥ एक बार शंकरके
अंशावतार श्रीदुर्वासाजी पृथिवीतलमें विचर रहे थे । घूमते घुमते उन्होंने एक
विद्याधरीके हाथोंमें सन्तानक पुष्पोंकी एक दिव्य माला देखी । हे ब्रह्मन ! उसकी
गन्धसे सुवासित होकर वह वन वनवासियोंके लिये अति सेवनीय हो रहा था ॥२-३॥ तब उन
उन्मत्त वृत्तिवाले विप्रवरने वह सुन्दर माला देखकर उसे उस विद्याधर सुन्दरीसे
माँगा ॥४॥ उनके माँगनेपर उस बडे-बडे़ नेत्रोंवाली कृशांगी विद्याधरीने उन्हें
आदरपूर्वक प्रणाम कर वह माला दे दी ॥५॥
तामादायात्मनो मूर्धि
स्त्रजमुन्मत्तरूपधृक् ।
कृत्वा स विप्रो मैत्रेय परिबभ्राम
मेदिनीम् ॥६॥
स ददर्श तमायान्तमुन्मत्तैरावते
स्थितम् ।
त्रैलोक्याधिपतिं देवं सह देवैः
शचीपतिम् ॥७॥
तामात्मनः स शिरसः
स्त्रजमुन्मत्तषट्पदाम् ।
आदायामरराजाय
चिक्षेपोन्मत्तवन्मुनिः ॥८॥
गृहीत्वाऽमरराजेन
स्त्रगैरावतमूर्द्धनि ।
न्यस्ता रराज कैलासशिखरे जाह्नवी
यथा ॥९॥
मदान्धकरिताक्षोऽसौ गन्धाक्रृष्टेन
वारणः ।
करेणाघ्राय चिक्षेप तां स्त्रजं
धरणीतले ॥१०॥
ततश्चुक्रोध भगवान्दुर्वासा
मुनिसत्तमः ।
मैत्रेय देवराजं तं
क्रुद्धश्चैतदुवाच ह ॥११॥
हे मैत्रेय ! उन उन्मत्तवेषधारी
विप्रवरने उसे लेकर अपने मस्तकपर डाल लिया और पृथिवीपर विचरने लगे ॥६॥ इसी समय
उन्होंने उन्मत्त ऐरावतपर चढ़कर देवताओंके साथ आते हुए त्रैलोक्याधिपति शचीपति
इन्द्रको देखा ॥७॥ उन्हें देखकर मुनिवर दुर्वासाने उन्मत्तके समान वह मतवाले
भौंरोंसे गुत्र्जायमान माला अपने सिरपरसे उतारकर देवराज इन्द्रके ऊपर फेंक दी ॥८॥ देवराजने
उसे लेकर ऐरावतके मस्तकपर डाल दी; उस समय वह ऐसी
सुशोभित हूई मानो कैलास पर्वतके शिखरपर श्रीगंगाजी विराजमान हों ॥९॥ उस मदोन्मत
हाथीने भी उसकी गन्धसे आकर्षित हो उसे सूँडसे सूँघकर पृथिवीपर फेंक दिया ॥१०॥ हे
मैत्रेय ! यह देखकर मुनिश्रेष्ठ भगवान् दुर्वासाजी अति क्रोधित हुए और देवराज
इन्द्रसे इस प्रकार बोले ॥११॥
दुर्वासा उवाच
ऐश्वर्यमददुष्टात्मन्नतिस्तब्धोऽसि
वासव ।
श्रियो धाम स्त्रजं यस्त्वं
मद्दत्तां नाभिनन्दसि ॥१२॥
प्रसाद इति नोक्तं ते प्राणिपातपुरः
सरम् ।
हर्षोत्फुल्लकपोलेन न चापि शिरसा
धृता ॥१३॥
मया दत्तामिमां मालां यस्मान्न बहु
मन्यसे ।
त्रैलोक्यश्रीरतो मूढ
विनाशमुपयास्यति ॥१४॥
मां मन्यसे त्वं सदृशं नूनं
शक्रेतरद्विजैः ।
अतोऽवमानमस्मासु मानिना भवता कृतम्
॥१५॥
मद्दत्ता भवता यस्मात्क्षित्पा माला
महीतले ।
तस्मात्प्रणष्टलक्ष्मेकं त्रैलोक्यं
ते भविष्यति ॥१६॥
यस्य सत्र्जातकोपस्य भयमेति चरचरम्
।
तं त्वं मामतिगर्वेण देवराजावमन्यसे
॥१७॥
दुर्वासाजी ने कहा -अरे ऐश्वर्यके
मदसे दूषितचित्त इन्द्र ! तू बड़ा ढीठ है, तुने
मेरी दी हुई सम्पूर्ण शोभाकी धाम मालका कुछ भी आदर नहीं किया ! ॥१२॥ अरे ! तूने न
तो प्रणाम करके 'बड़ी कृपा की' ऐसा ही कहा
और न हर्षसे प्रसन्नवदन होकर उसे अपने सिरपर ही रखा ॥१३॥ रे मूढ़ ! तूने मेरी दी
हूई मालाका कुछ भी मूल्य नहीं किया, इसलिये तेरा त्रिलोकीका
वैभव नष्ट हो जायगा ॥१४॥ इन्द्र ! निश्चय ही तू मुझे और ब्राह्मणोंके समान ही
समझता है, इसीलिये तुझ अति मानीने हमारा इस प्रकार अपमान
किया है ॥१५॥ अच्छा, तुने मेरी दी हुई मालाको पृथिवीपर फेंका
है इसलिये तेरा यह त्रिभुवन भी शीघ्र ही श्रीहीन हो जायगा ॥१६॥ रे देवराज ! जिसके
क्रुद्ध होनेपर सम्पूर्ण चराचर जगत् भयभीत हो जाता है उस मेरा ही तूने अति गर्वसे
इस प्रकार अपमान किया ! ॥१७॥
श्रीपराशर उवाच
महेन्द्रो वारणस्कन्धादवतीर्य
त्वरान्वितः ।
प्रसादयामास मुनि दुर्वाससमकल्मषम्
॥१८॥
प्रसाद्यमानः स तदा प्रणिपातपुरः
सरम् ।
इत्युवाच सहस्त्राक्षं दुर्वास
मुनिसत्तमः ॥१९॥
श्रीपराशरजी बोले - तब तो इन्द्रने
तुरन्त ही ऐरावत हाथीसे उतरकर निष्पाप मुनिवर दुर्वासाजीको ( अनुनय विनय करके )
प्रसन्न किया ॥१८॥ तब उसके प्रणामादि करनेसे प्रसन्न होकर मुनिश्रेष्ठ दुर्वासाजी
उससे इस प्रकार कहने लगे ॥१९॥
दुर्वासा उवाच
नाहं कृपालुहृदयो न च मां भजते
क्षमा ।
अन्ये ते मुनयः शक्र दुर्वाससमवेहि
माम् ॥२०॥
गौतमादिभिरन्यैस्त्वं गर्वमारोपितो
मुधा ।
अक्षान्तिसारसर्वस्वं दुर्वाससमवेहि
माम् ॥२१॥
वसिष्ठाद्यैर्ययासारैस्स्तोत्रं
कुर्वद्भिरुच्चकैः ।
गर्वं गतोऽसि येनैवं
मामप्यद्यावमन्यसे ॥२२॥
ज्वलज्जटाकलापस्य भृकुटीकुटिलं
मुखम् ।
नरीक्ष्य कस्त्रिभुवने मम यो न गतो
भयम् ॥२३॥
नाहं क्षमिष्ये बहुना किमुक्तेन
शतक्रतो ।
विडम्बनामियों भूयः
करोष्यनुनयात्मिकाम् ॥२४॥
दुर्वासाजी बोले- इन्द्र ! मैं
कृपालु चित्त नहीं हूँ, मेरे अन्तः करणमें
क्षमाको स्थान नहीं है । वे मुनिजन तो और ही हैं; तुम समझो,
मै तो दुर्वासा हूँ न ? ॥२०॥ गौतमादि अन्य
मुनिजनोंने व्यर्थ ही तुझे इतना मूँह लगा लिया है; पर याद रख,
मुझ दुर्वासाका सर्वस्व तो क्षमा न करना ही है ॥२१॥ दयामूर्ति
वसिष्ठ आदिके बढ़-बढ़कर स्तुति करनेसे तू इतना गर्वीला हो गया की आज मेरा भी अपमान
करने चला है ॥२२॥ अरे ! आज त्रिलोकीमें ऐसा कौन है जो मेरे प्रज्वलित जटकलाप और
टेढ़ी भृकुटिको देखकर भयभीत न हो जाय? ॥२३॥ रे शतक्रतो ! तू
बारम्बार अनुनय विनय करनेका ढोंग क्यों करता है ? तेरे इस
कहने सुननेसे क्या होगा ? मैं क्षमा नहीं कर सकता ॥२४॥
श्रीपराशर उवाच
इत्युक्त्वा प्रययौ विप्रो
देवराजोऽपि तं पुनः ।
आरुह्यौरावतं ब्रह्मन्
प्रययावमरावतीम् ॥२५॥
ततः प्रभृति निःश्रीकं सशक्रं
भुवनत्रयम् ।
मैत्रेयासीदपध्वस्तं
संक्षीणौषधिवीरुधम् ॥२६॥
न यज्ञाः समवर्त्तन्त न तपस्यन्ति
तापसाः ।
न च दानादिधर्मेषु मनश्चक्रे तदा
जनः ॥२७॥
निःसत्त्वाः सकला लोका
लोभाद्युपहतेन्द्रियाः ।
स्वल्पेऽपि हि बभूवुस्ते साभिलाषा
द्विजोत्तम ॥२८॥
यतः सत्त्वं ततो लक्ष्मीः सत्त्वं
भूत्युनुसारि च ।
निःश्रीकाणां कुतः सत्त्वं विना तेन
गुणाः कुतः ॥२९॥
बलशौर्याद्यभावश्च पुरुषाणां
गुणैर्विना ।
लंघनीयः समस्तस्य बलशौर्यविवर्जितः
॥३०॥
भवत्यपध्वस्तमतिर्लड्घितः प्रथितः
पुमान् ॥३१॥
श्रीपराशरजी बोले - हे ब्रह्मन ! इस
प्रकार कह वे विप्रवर वहाँसे चल दिये और इन्द्र भी ऐरावतपर चढ़्कर अमरावतीको चले
गये ॥२५॥ हे मैत्रेय ! तभीसे इन्द्रके सहित तीनों लोक वृक्ष लता आदिके क्षीण हो
जानेसे श्रीहीन और नष्ट भ्रष्ट होने लगे ॥२६॥ तब से यज्ञोंका होना बन्द हो गया,
तपस्वियोंने तप करना छोड़ दिया तथा लोगोंका दान आदि धर्मोंमें चित्त
नहीं रहा ॥२७॥ हे द्विजोत्तम ! सम्पूर्ण लोक लोभादिके वशीभूत हो जानेसे
सत्त्वशून्य ( सामर्थ्यहीन ) हो गये और तुच्छ वस्तुओंके लिये भी लालायित रहने लगे
॥२८॥ जहाँ सत्त्व होता है वहीं लक्ष्मी रहती है और सत्त्व भी लक्ष्मीका ही साथी है
। श्रीहीनोंमें भला सत्त्व कहाँ ? और बिना सत्त्वके गुण कैसे
ठहर सकते हैं ? ॥२९॥ बिना गुणोंके पुरुषमें बल, शौर्य आदि सभीका अभाव हो जाता है और निर्बल तथा अशक्त पुरुष सभीसे अपमानित
होता है ॥३०॥ अपमानित होने पर प्रतिष्ठित पुरुष की बुद्धि बिगड़ जाती है॥३१॥
एवमत्यन्तनिः श्रीके त्रैलोक्ये
सत्त्ववर्जिते ।
देवान् प्रति बलोद्योगं
चक्रुदैतेयदानवाः ॥३२॥
लोभाभिभूता निःश्रीका दैत्याः
सत्त्वाविवार्जिताः ।
श्रिया विहीनैर्निः
सत्त्वैर्देवैश्चक्रुस्ततो रणम् ॥३३॥
विजितास्त्रिदशा दैत्यैरिन्दराद्याः
शरणं ययुः ।
पितामहं महाभागं हुताशनपुरोगमाः
॥३४॥
यथाअत्कथितो देवैर्ब्रह्म प्राह ततः
सुरान् ।
परावरेशं शरणं व्रजध्वमसुरार्दनम्
॥३५॥
उप्तत्तिस्थित्नाशानामहेतुं
हेतुमीश्वरम् ।
प्रजापतिपतिं विष्णुमनन्तमपराजितम्
॥३६॥
प्रधानपुंसोरजयोः कारणं कार्यभूतयोः
।
प्रणतार्त्तिहरं विष्णु स वः श्रेयो
विधास्यति ॥३७॥
इस प्रकार त्रिलोकीके श्रीहीन और
सत्त्वरहित हो जानेपर दैत्य और दानवोंने देवताओंपर चढा़ई कर दी ॥३२॥ सत्त्व और
वैभवसे शून्य होनेपर भी दैर्त्योने लोभवश निःसत्त्व और श्रीहीन देवताओंसे घोत
युद्ध ठाना ॥३३॥ अन्तमें दैत्योंद्वारा देवतालोग परास्त हुए । तब इन्द्रादि समस्त
देवगण अग्निदेवको आगे कर महाभाग पितामह श्रीब्रह्माजीकी शरण गये ॥३४॥ देवताओंसे
सम्पूर्ण वृतान्त सुनकर श्रीब्रह्माजीने उनसे कहा, हे देवगण ! तुम दैत्य दलन परावरेश्वर भगवान् विष्णुकी शरण जाओ, जो ( आरोपसे ) संसारकी उप्तत्ति, स्थिति और संहारके
कारण हैं किंन्तु ( वस्तवमें ) कारण भी नहीं हैं और जो चराचरके ईश्वर, प्रजापतियोंके स्वामी, सर्वव्यापक, अनन्त और अजेय हैं तथा जो अजन्मा किन्तु कार्यरूपमें परिणत हुए प्रधान (
मूलप्रकृति ) और पुरुषके कारण हैं एवं शरणागतवत्सल हैं । ( शरण जानेपर ) वे अवश्य
तुम्हारा मंगल करेंगे ॥३५-३७॥
श्रीपराशर उवाच
एवमुक्त्वा सुरान्सर्वान ब्रह्मा
लोकपितामहः ।
क्षीरोदस्योत्तरं तीरं तैरेव सहितो
ययौ ॥३८॥
स गत्वा त्रिदशैः सर्वैः समवेतः
पितामहः ।
तुष्टाव वाग्भिरिष्टाभिः परावरपतिं
हरिम् ॥३९॥
श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय !
सम्पुर्ण देवगणोंसे इस प्रकार कह लोकपितामह श्रीब्रह्माजी भी उनके साथ क्षीरसागरके
उत्तरी तटपर गये ॥३८॥ वहाँ पहूँचकर पितामह ब्रह्माजीने समस्त देवताओंके साथ
परावरनाथ श्रीविष्णुभगवान्की अति मंगलमय वाक्योंसे स्तुति की ॥३९॥
ब्रह्मोवाच
नमामि सर्वं सर्वेशमनन्तमजमव्ययम् ।
लोकधाम धराधारमप्रकाशमभेदिनम् ॥४०॥
नारायणमणीयांसमशेषाणामणीयसाम् ।
समस्तानां गरिष्ठं च भूरादीनां
गरीयसाम् ॥४१॥
ब्रह्माजी कहने लगे - जो समस्त
अणुओंसे भी अणु और पृथिवी आदि समस्त गुरुओं ( भारी पदार्थों ) से भी गुरु (भारी )
हैं उन निखिललोकविश्राम, पृथिवीके
आधारस्वरूप , अप्रकाश्य, अभेद्य,
सर्वरूप, सर्वेश्वर, अनन्त,
अज और अव्यय नारायणको मैं नमस्कार करता हूँ ॥४०-४१॥
यत्र सर्वं यतः सर्वमुत्पन्नं
मत्पुरः सरम् ।
सर्वभूतश्च यो देवः पराणामपि यः परः
॥४२॥
परः
परस्मात्पुरुषात्परमात्मस्वरूपधृक् ।
योगिभिश्चिन्त्यते योऽसौ
मुक्तिहेतोर्मुमक्षुभिः ॥४३॥
सत्त्वादयो न सन्तीशे यत्र च
प्राकृता गुणाः ।
स शुद्धाः सर्वशुद्धेभ्यः
पुमानाद्यः प्रसीदतु ॥४४॥
मेरेसहित सम्पूर्ण जगत् जिसमें
स्थित है,
जिससे उप्तन्न हुआ है और जो देव सर्वभूतमय है तथा जो पर (प्रधानादि)
से भी पर है; जो पर पुरुषसे भी पर है,मुक्ति
लाभके लिये मोक्षकामी मुनिजन जिसका ध्यान धरते हैं तथा जिस ईश्वरमें सत्त्वादि
प्राकृतिक गुणोंका सर्वथा अभाव है वह समस्त शुद्ध पदार्थोंसे भी परम शुद्ध
परमात्मस्वरूप आदिपुरुष हमपर प्रसन्न हों ॥४२-४४॥
कलाकाष्ठामुहूर्त्तादिकालसूत्रस्य
गोचरे ।
यस्य शक्तिर्न शुद्धस्य स नो
विष्णुः प्रसीदतु ॥४५॥
जिस शुद्धस्वरूप भगवान्के शक्ति (
विभूति ) कला काष्ठा और मुहूर्त आदि काल- क्रमका विषय नहीं है,
वे भगवान विष्णु हमपर प्रसन्न हों ॥४५॥
प्रोच्यते परमेशो हि यः
शुद्धोऽप्युपचारतः ।
प्रसीदत्तु स नो विष्णुरात्मा यः
सर्वेदेहिनाम् ॥४६॥
जो शुद्धस्वरूप होकर भी उपचारसे
परमेश्वर ( परमा=महालक्ष्मी+ईश्वर = पति ) अर्थात लक्ष्मीपति कहलाते हैं और जो
समस्त देहधारियोंके आत्मा हैं वे श्रीविष्णुभगवान् हमपर प्रसन्न हों ॥४६॥
यः करणं च कार्यं च कारणस्यापि
कारणम् ।
कार्यस्यापि च यः कार्यं प्रसीदतु स
नो हरिः ॥४७॥
जो कारण और कार्यरूप हैं तथा कारणके
भी कारण और कार्यके भी कार्य हैं वे श्रीहरि हमपर प्रसन्न हों ॥४७॥
कार्यकार्यस्य यत्कार्य
तत्कार्यस्त्यापि यः स्वयम् ।
तत्कार्यकार्यभूतो यस्ततश्च प्रणताः
स्म तम् ॥४८॥
जो कार्य ( महत्तत्त्व ) के कार्य (
अहंकार ) का भी कार्य ( तन्मात्रापत्र्चक ) है उसके कार्य ( भूतपत्र्चक ) का भी
कार्य ( ब्रह्माण्ड ) जो स्वयं है और जो उसके कार्य ( ब्रह्मा दक्षादि ) का भी
कार्यभूत ( प्रजापतियोंके पुत्र पौत्रादि ) है उसे हम प्रणाम करते हैं ॥४८॥
कारणं कारणस्यापि तस्य कारणकारणम् ।
तत्कारणानां हेतुम तं प्रणताः स्म
परेश्वरम् ॥४९॥
तथा जो जगत्के कारण ( ब्रह्मादि )
का कारण ( ब्रह्माण्ड ) और उसके कारण ( भूतपत्र्चक ) के कारण ( पत्र्चतन्मात्रा )
के कारणों ( अहंकार - महत्तत्वादि ) का भी हेतु ( मूलप्रकृति ) है उस परमेश्वरको
हम प्रणाम करते हैं ॥४९॥
भोक्तारं भोग्यभूतं च स्त्रष्टारं
सृज्यमेव च ।
कार्यकर्तृस्वरूपं तं प्रणताः स्म
परं पदम् ॥५०॥
जो भोक्ता और भोग्य,
स्त्रष्टा और सृज्य तथा कर्त्ता और कार्यरूप स्वयं ही है उस परमपदको
हम प्रणाम करते हैं ॥५०॥
विशुद्धबोधवन्नित्यमजमक्षयमव्ययम् ।
अव्यक्तमविकारं यत्तद्विष्णोः परमं
पदम् ॥५१॥
जो विशुद्ध बोधस्वरूप,
नित्य, अजन्मा, अक्षय,
अव्यय, अव्यक्त और अविकारी है वही विष्णुका
परमपद (परस्वरूप) है ॥५१॥
न स्थूलं न च सूक्ष्मं यन्न
विशेषणगोचरम् ।
तत्पदं परमं विष्णोः प्रणमामः
सदाऽमलम् ॥५२॥
जो न स्थुल है न सूक्ष्म और न किसी
अन्य विशेषणका विषय है वही भगवान विष्णुका नित्य-निर्मल परमपद है,
हम उसको प्रणाम करते हैं ॥५२॥
यस्यायुतायुतांशांशे विश्वशक्तिरियं
स्थिता ।
परब्रह्मास्वरूपं
यत्प्रणमामस्तमव्ययम् ॥५३॥
जिसके अयुतांश ( दस हजारवें अंश )
के अयुतांशमें यह विश्वरचनाकी शक्ति स्थित है तथा जो परब्रह्मस्वरूप है उस अव्ययको
हम प्रणाम करते हैं ॥५३॥
यद्योगिनह सदोद्युक्ताः
पुण्यपापक्षयेऽक्षयम् ।
पश्यन्ति प्रणवे चिन्त्यं
तद्विष्णोः परमं पदम् ॥५४॥
नित्य युक्त योगिगण अपने पुण्य
पापदिका क्षय हो जानेपर ॐ कारद्वारा चिन्तनीय जिस अविनाशी पदका साक्षात्कार करते
हैं वहीं भगवान विष्णूका परमपद है ॥५४॥
यन्न देवा न मुनयो न चाहं न च शंकरः
।
जानन्ति परमेशस्य तद्विष्णोः परमं
पदम् ॥५५॥
जिसको देवगण,
मुनिगण, शंकर, और मैं
कोई भी नहीं जान सकते वही परमेश्वर श्रीविष्णुका परमपद है ॥५५॥
शक्तयो यस्य देवस्य
ब्रह्माविष्णुशिवात्मिकाः ।
भवन्त्यभूतपूर्वस्य तद्विष्णोः परमं
पदम् ॥५६॥
जिस अभूतपूर्व देवकी ब्रह्मा,
विष्णू और शिवरूप शक्तियाँ हैं वही भगवान् विष्णुका परमपद हैं ॥५६॥
सर्वेश सर्वभूतात्मन्सर्व
सर्वाश्रयाच्युत ।
प्रसीद विष्णो भक्तानां व्रज नो
दृष्टिगोचरम् ॥५७॥
हे सर्वेश्वर ! हे सर्वभूतात्मन !
हे सर्वरूप ! हे सर्वाधार ! हे अच्युत ! हे विष्णो ! हम भक्तोंपर प्रसन्न होकर
हमें दर्शन दीजिये ॥५७॥
श्रीपराशर उवाच
इत्युदीरितमाकर्ण्य
ब्रह्माणस्त्रिदशास्ततः ।
प्रणम्योचुः प्रसीदेति व्रज नो
दृष्टिगोचरम् ॥५८॥
श्रीपराशरजी बोले- ब्रह्माजीके इन
उद्गारोंको सुनकर देवगण भी प्रणाम करके बोले- 'प्रभो
! हमपर प्रसन्न होकर हमें दर्शन दीजिय ॥५८॥
यन्नायं भगवान् ब्रह्मा जानाति परमं
पदम् ।
तन्नताः स्म जगद्धाम तव
सर्वगताच्युत ॥५९॥
हे जगद्धाम सर्वगत अच्युत ! जिसे ये
भगवान् ब्रह्माजी भी नहीं जानते, आपके उस
परमपदको हम प्रणाम करते हैं' ॥५९॥
इत्यन्ते वचसस्तेषां देवानां
ब्रह्माणस्तथा ।
ऊचुर्देवर्षयस्सर्वे
बृहस्पतिपुरोगमाः ॥६०॥
तदनन्तर ब्रह्मा और देवगणोंके बोल
चुकनेपर बृहस्पति आदि समस्त देवर्षिगण कहने लगे - ॥६०॥
आद्यो यज्ञपुमानीड्यः पूर्वषां यश्च
पूर्वजः ।
तन्नताः स्म जगत्स्त्रष्टुः
स्त्रष्टारमविषेणम् ॥६१॥
'जो परम स्तवनीय आद्य यज्ञ पुरुष
हैं और पूर्वजोंके भी पूर्वपुरुष हैं उन जगत्के रचयिता निर्विशेष परमात्माको हम
नमस्कार करते हैं ॥६१॥
भगवन्भूतभव्येश यज्ञमूर्त्तिधराव्यय
।
प्रसीद प्रणतानां त्वं सर्वेषां
देहि दर्शनम् ॥६२॥
हे भूत-भव्येश यज्ञमूर्तिधर भगवन !
हे अव्यय ! हम सब शरणागर्तोपर आप प्रसन्न होइये और दर्शन दीजिये ॥६२॥
एष ब्रह्मा सहास्माभिः सहरुद्रैस्त्रिलोचनः
।
सर्वादित्यैः समं पूषा पावकोऽयं
सहाग्निभिः ॥६३॥
अश्विनौ वसवश्चेमे सर्वे चैते
मरुद्गणाः ।
साध्या विश्वे तथा देव
देवेन्द्रश्चायमीश्वरः ॥६४॥
प्रणामप्रवणा नाथ दैत्यसैन्यैः
पराजिताः ।
शरणं त्वामनुप्राप्ताः समस्ताः
देवतागणाः ॥६५॥
हे नाथ ! हमारे सहित ये ब्रह्माजी,
रुद्रोंके सहित भगवान शंकर, बारहों आदित्योंके
सहित भगवान् पूषा, अग्नियोंके सहित पावक और ये दोनों
अश्विनीकुमार, आठों वसु, समस्त पावक और
ये दोनों अश्विणीकुमार, आठों वसु, समस्त
मरुद्गण, साध्यगण, विश्वदेव तथा देवराज
इन्द्र ये सभी देवगण दैत्य-सेनासे पराजित होकर अति प्रणत हो आपकी शरणमें आये हैं
॥६३-६५॥
श्रीपराशर उवाच
एवं संस्तुयमानस्तु
भगवात्र्छंखचक्रधृक् ।
जगाम दर्शनं तेषां मैत्रेय
परमेश्वरः ॥६६॥
तं दृष्ट्वा ते तदा देवां
शंखचक्रगदाधरम् ।
अपूर्वस्वरूपसंस्थानं तेजसां
राशिमूर्जितम् ॥६७॥
प्रणम्य प्रणताः सर्वे
संक्षोभस्तिमितेक्षणाः ।
तुष्टुवुः पुण्डरीकाक्षं
पितामहपुरोगमाः ॥६८॥
श्रीपराशरजी बोले - हे मैत्रेय ! इस
प्रकार स्तुति किये जानेपर शंख चक्रधारी भगवान ! परमेश्वर उनके सम्मुख प्रकट हुए
॥६६॥ तब उस शंख चक्रगदाधारी उत्कृष्ट तेजोराशिमय अपूर्व दिव्य मूर्तिको देखकर
पितामह आदि समस्त देवगण अति विनयपूर्वक प्रणामकर क्षोभवश चकित नयन हो उन कमलनयन
भगवान्की स्तुति करने लगे ॥६७-६८॥
देवा ऊचुः
नमो नमोऽविशेषस्त्वं त्वं ब्रह्मा
त्वं पिनाकधृक् ।
इन्द्रस्त्वमग्निः पवनो वरुणः सविता
यमः ॥६९॥
देवगण बोले- हे प्रभो ! आपको
नमस्कार है, नमस्कार है ! आप निर्विशेष हैं
तथापि आप ही ब्रह्मा है आप ही शंकर हैं तथा आप ही इन्द्र, अग्नि,
पवन , वरूण, सूर्य और
यमराज हैं ॥६९॥
वसवो मरुतः साध्या विश्वेदेवगणाः
भवान् ।
योऽयं तवाग्रतो देव समीपं देवतागणः
।
स त्वमेव जगत्स्त्रष्टा यतः सर्वगतो
भवान् ॥७०॥
हे देव ! वसुगण,
मरुद्गण, साध्यगण और विश्वेदेवगण भी आप ही हैं
तथा आपके सम्मुख जो यह देवसमुदाय है, हे जगत्स्त्रष्टा ! वह
भी आप ही हैं क्योंकी आप सर्वत्र परिपूर्ण हैं ॥७०॥
त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कारस्त्वमोंकारः
प्रजापतिः ।
विद्या वेद्यं च सर्वात्मंस्त्वन्मयं
चाखिलं जगत ॥७१॥
आप ही यज्ञ हैं आप ही वषट्कार हैं
तथा आप ही ओंकार और प्रजापति हैं । हे सर्वात्मन ! विद्या,
वेद्य और सम्पूर्ण जगत् आपहीका स्वरूप तो है ॥७१॥
त्वामार्ताः शरणं विष्णो प्रयाता
दैत्यानिर्जिताः ।
वयं प्रसीद सर्वात्मंस्तेजसाप्याययस्व
नः ॥७२॥
हे विष्णो ! दैत्योंसे परास्त हुए
हम आतुर होकर आपकी शरणमें आये हैं; हे
सर्वस्वरूप ! आप हमपर प्रसन्न होइये और अपने तेजसे हमें सशक्त कीजिय ॥७२॥
तावदार्त्तिस्तथा वात्र्छा
तावन्मोहस्तथाऽसुखम् ।
यावन्न याति शरणं त्वामशेषाघनाशनम्
॥७३॥
हे प्रभो ! जबतक जीव सम्पूर्ण
पापोंको नष्ट करनेवाले आपकी शरणमें नहीं जाता तभीतक उसमें दीनता,
इच्छा मोह और दुःख आदि रहते हैं ॥७३॥
त्वं प्रसादं प्रसन्नात्मन
प्रपन्नानां कुरुष्व नः ।
तेजसां नाथ सर्वेषां
स्वशक्त्याप्यायनं कुरु ॥७४॥
हे प्रसन्नात्मन् ! हम शरणागतोंपर
आप प्रसन्न होइये और हे नाथ ! अपनी शक्तिसे हम सब देवताओंके (खोये हुए) तेजको फिर
बढाइये ॥७४॥
श्रीपराशर उवाच
एवं संस्तुयमानस्तु
प्रणतैरमरैर्हरिः ।
प्रसन्नदृष्टिर्भगवानिदमाह स
विश्वकृत् ॥७५॥
तेजसो भवतां देवाः
करिष्याम्युपबृंहणम् ।
वदाम्यहं यत्क्रियतां भवद्भिस्तदिदं
सुराः ॥७६॥
आनीय सहिता दैत्यैः क्षीराब्धौ
सकलौषधीः ।
प्रक्षिप्यात्रामृतार्थ तः सकला
दैत्यदानवैः ।
मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं
कृत्वा च वासुकिम् ॥७७॥
मथ्यताममृतं देवाः सहाये
मय्यवस्थिते ॥७८॥
सामपूर्वं च दैतेयास्तत्र
साहाय्यकर्मणि ।
सामान्यफलभोक्तारो युयं वाच्या
भविष्यथ ॥७९॥
मथ्यमाने च तत्राब्धो
यत्समुत्पस्यतेऽमृतम् ।
तत्पानाद्वलिनो यूयममराश्च भविष्यथ
॥८०॥
तथा चाहं करिष्यामि ते यथा
त्रिदशद्विषः ।
न प्रास्यन्त्यमृतं देवाः केवलं
क्लेषभागिनः ॥८१॥
श्रीपराशरजी बोले- विनीत
देवताओद्वारा इस प्रकार स्तुति किये जानेपर विश्वकर्त्ता भगवान् हरि प्रसन्न होकर
इस प्रकार बोले- ॥७५॥ हे देवगण ! मैं तुम्हारे तेजको फिर बढा़ऊँगा;
तुम इस समय मैं जो कुछ कहता हूँ वह करो ॥७६॥ तुम दैत्योंके साथ
सम्पूर्ण ओषधियाँ लाकर अमृतके लिये क्षीर सागरमें डालो और मन्दराचलको मथानी तथा
वासुकि नागको नेती बनाकर उसे दैत्य और दानवोंके सहित मेरी सहायतासे मथकर अमृत
निकालो ॥७७-७८॥ तुमलोग सामनीतिका अवलम्बन कर दैत्योंसे कहो कि 'इस काममें सहायता करनेसे आपलोग भी इसके फलमें समान भाग पायेंगें' ॥७९॥ समुद्रके मथनेपर उससे जो अमृत निकलेगा उसका पान करनेसे तुम सबल और
अमर हो जाओगे ॥८०॥ हे देवगण ! तुम्हारे लिये मैं ऐसी युक्ति करूँगा जिससे तुह्मारे
द्वेषी दैत्योंके अमृत न मिल सकेगा और उनके हिस्सेमें केवल समुद्र मन्थनका क्लेश
ही आयेगा ॥८१॥
श्रीपराशर उवाच
इत्युक्ता देवदेवेन सर्व एव तदा
सुराः ।
सन्धानमसुरैः कृत्वा
जत्नवन्तोऽमृतेऽभवन् ॥८२॥
नानौषधीः समानीय देवदैतेयदानवाः ।
क्षिप्त्वा क्षीराब्धिपयसि
शरदभ्रामलत्विषि ॥८३॥
मन्थानं मन्दरं कृत्वां नेत्रं
कृत्वां च वासुकिम् ।
ततो मथितुमारब्धा मैत्रेय
तरसाऽमृतम् ॥८४॥
विबुधाः सहिताः सर्वे यतः पुच्छं
ततः कृताः ।
कॄष्णेन वासुदेर्दैत्याः पुर्वकाये
निवेशिताः ॥८५॥
ते तस्य मुखनिश्वासवह्नितापहतत्विषः
।
निस्तेजसोऽसुराः सर्वे
बभूवुरमितौजसः ॥८६॥
तेनैव मुखनिश्वासवायुनास्तबलाहकैः ।
पुच्छप्रदेशे वर्षद्भिस्तदा
चाप्यायिताः सुराः ॥८७॥
श्रीपराशरजी बोले - तब देवदेव
भगवान् विष्णुके ऐसा कहनेपर सभी देवगण दैत्योंसे सन्धि करके अमृतप्राप्तिके लिये
यत्न करने लगे ॥८२॥ हे मैत्रेय ! देव, दानव
और दैत्योंनें नाना प्रकारकी औषधियाँ लाकर उन्हें शरद् ऋतुके आकाशकी सी निर्मल
कान्तिवाले क्षीर सागरके जलमें डाला और मन्दाराचलको मथानी तथा वासुकि नागको नेती बनाकर
बडे़ वेगसे अमृत मथना आरम्भा किया ॥८३-८४॥ भगवान्ने जिस ओर वासुकिकी पूँछ थी उस
ओर देवताओंको तथा जिस ओर मुख था उधर दैत्योंको नियुक्त किया ॥८५॥ महातेजस्वी
वासुकिके मुखसे निकलते हुए निःश्वासाग्निसे झुलसकर सभी दैत्यगण निस्तेज हो गये
॥८६॥ और उसी श्वास वायुसे विक्षिप्त हुए मेघोंके पूँछकी ओर बरसते रहनेसे देवताओंकी
शक्ति बढ़ती गयी ॥८७॥
क्षीरोदमध्ये भगवान्कूर्मरूपी स्वयं
हरिः ।
मन्थनाद्रेरधिष्ठानं
भ्रमतोऽभून्महामुने ॥८८॥
रूपेणान्येन देवानां मध्ये
चक्रगदाधरः ।
चकर्ष नागराजानं दैत्यमध्येऽपरेण च
॥८९॥
उपर्याक्रान्तवात्र्च्छैलं
बॄहद्रूपेण केशवः ।
तथापरेण मैत्रेय यन्न दृष्टं
सुरासुरै ॥९०॥
तेजसा नागराजानं तथाप्यायितवान्हरीः
।
अन्येन तेजसा
देवानुपबृंहितवान्प्रभुः ॥९१॥
हे महामुने ! भगवान् भगवान् स्वयं
कूर्मरूप धारण कर क्षीरसागरमें घूमते हुए मन्दराचलके आधार हुए ॥८८॥ और वे ही चक्र
गदाधर भगवान अपने एक अन्य रूपसे देवताओंमें और एक रूपसे दैत्योंमें मिलकर नागराजको
खींचनें लगे थे ॥८९॥ एक अन्य विशाल रूपसे जो देवता और दैत्योंको दिखायी नहीं देता
था,
श्रीकेशवने ऊपरसे पर्वतको दबा रखा था ॥९०॥ भगवान् श्रीहरि अपने
तेजसे नागराज वासुकिमें बलका सत्र्चार करते थे और अपने अन्य तेजसे वे देवताओंका बल
बढ़ा रहे थे ॥९१॥
मथ्यमाने ततस्तस्मिन्क्षीराब्धौ
देवदानवैः ।
हविर्धामाऽभवत्पूर्व सुरभिः
सुरपूजिता ॥९२॥
जग्मुर्मुदं ततो देवा दानवाश्च
महामुने ।
व्याक्षित्पचेतसश्चैव बभूवुः
स्तिमितेक्षणाः ॥९३॥
किमेतदिति सिद्धांना दिवि चिन्तयतां
ततः ।
बभूव वारुणी देवी मदाघूर्णितलोचना
॥९४॥
कृतावर्तात्ततस्तस्मात्क्षीरोद्दाद्वासयत्र्जगत्
।
गन्धेन
पारिजातोऽभूद्देवस्त्रीनन्दनस्तरूः ॥९५॥
इस प्रकार,
देवता और दानवोंद्वारा क्षीर समुद्रके मथे जानेपर पहले हवि ( यज्ञ
सामग्री ) की आश्रमरूपा सुरपूजिता कामधेनु उप्तन्न हुई ॥९२॥ हे महामुने ! उस समय
देव और दानवगण अति आनन्दित हुए और उसकी ओर चित्त खिंच जानेसे उनकी टकटकी बँध गयी
॥९३॥ फिर स्वर्गलोकमें 'यह क्या है ? यह
क्या है ? इस प्रकार चिन्ता करते हुए सिद्धोंके समक्ष मदसे
घूमते हुए नत्रोंवाली वारुणीदेवी प्रकट हुई ॥९४॥ और पुनः मन्थन करनेपर उस क्षीर
सागरसे, अपनी गन्धसे त्रिलोकीको सुगन्धित करनेवाला तथा सुर
सुन्दरियोंका आनन्दवर्धक कल्पवृक्ष उत्पन्न हुआ ॥९५॥
रूपौदार्यगुणोपेतस्तथा चाप्सरसां
गणः ।
क्षीरोदधेः समुप्तन्नो मैत्रेय
परमाद्भुतः ॥९६॥
ततः शीतांशुरभवज्जगृहे तं महेश्वरः
।
जगृहूश्च विषं नागाः
क्षीरोदाब्धिसमुत्थितम् ॥९७॥
ततो धन्वन्तरिर्देवः
श्वेताम्बरधरस्स्वयम् ।
बिभ्रत्कमण्डलुं पूर्णममृतस्य
समुत्थितः ॥९८॥
ततः स्वस्थमनस्कास्ते सर्वे
दैतेयदानवाः ।
बभूवूर्मूदिताः सर्वे मैत्रेय
मुनिभिः सह ॥९९॥
हे मैत्रेय ! तत्पश्चात् क्षीर
सागरसे रूफ और उदारता आदि गुणोंसे युक्त अति अद्भुत अप्सराएँ प्रकट हुई ॥९६॥ फिर
चन्द्रमा प्रकट हुआ जिंसे महादेवजीने ग्रहण कर लिया । इसी प्रकार क्षीर सागरसे
उप्तन्न हुए विषको नागोंने ग्रहण किया ॥९७॥ फिर श्वेतवस्त्रधारी साक्षात् भगवान्
धन्वन्तरिजी अमृतसे भरा कमण्डलु लिये प्रकट हुए ॥९८॥ हे मैत्रेय ! उस समय मुनिगणके
सहित समस्त दैत्य और दानवगण स्वस्थ चित्त होकर अति प्रसन्न हुए ॥९९॥
ततः स्फुरत्कान्तिमती विकासिकमले
स्थिता ।
श्रीर्देवी पयसस्तस्मादुद्भूता
धृतपंकजा ॥१००॥
तां तुष्टुवुर्मदा युक्ताः
श्रीसुक्तेन महर्षयः ॥१०१॥
विश्वावसुमुखास्तस्या गन्धर्वाः
पुरतो जगुः ।
घृताचीप्रमुखास्तत्र
ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॥१०२॥
उसके पश्चात विकसित कमलपर विराजमान
स्फुटकान्तिमयी श्रीलक्ष्मीदेवी हाथोंमें कमल पुष्प धारण किये क्षीर समुद्रसे
प्रकट हुई ॥१००॥ उस समय महर्षिगण अति प्रसन्नतापूर्वक श्रीसूक्तद्वारा उनकी स्तुति
करने लगे तथा विश्वावसु आदि गन्धर्वगण उनके स्तुति करने लगे तथा विश्वावसु आदि
गन्धर्वगण उनके सम्मुख गान और घृताची आदि अप्सराएँ नृत्य करने लगीं ॥१०१-१०२॥
गंगाद्याः सरितस्तोयैः स्नानार्थमुपतस्थिरे
।
दिग्गजा हेमपात्रस्थमादाय विमलं
जलम् ।
स्नापयात्र्चक्रिरे देवीं
सर्वलोकमहेश्वरीम् ॥१०३॥
क्षीरोदो रूपधृक्तस्यै
मालामम्लानपंकजाम् ।
ददौ विभूषणान्यंगे विश्वकर्मा चकार
ह ॥१०४॥
दिव्यमाल्याम्बरधरा स्नाता
भूषणभूषिता ।
पश्यतां सर्वदेवानां ययौ वक्षः स्थलं
हरेः ॥१०५॥
उन्हें अपने जलसे स्नान करानेसे
लिये गंगा आदि नदियाँ स्वयं उपस्थित हूईं और दिग्गजोंने सुवर्ण कलशोंमें भरे हुए
उनके निर्मल जलसे सर्वलोकमहेश्वरी श्रीलक्ष्मीदेवीको स्नान कराया ॥१०३॥ क्षीरसागरने
मूर्तिमान् होकर उन्हें विकसित कमल पुष्पोंकी माला दी तथा विश्वकर्माने उनके अंग
प्रत्यंगमें विविध आभूषण पहनाये ॥१०४॥ इस प्रकार दिव्य माला और वस्त्र धारण कर,
दिव्य जलसें स्नान कर, दिव्य आभूषणोंसे
विभूषित हो श्रीलक्ष्मीजी सम्पूर्ण देवताओंके देखते देखते श्रीविष्णुभगवन्के
वक्षःस्थलमें विराजमान हुई ॥१०५॥
तया विलोकिता देवा हरिवक्षः
स्थलस्थया ।
लक्ष्म्या मैत्रेय सहसा परां
निर्वृतिमागताः ॥१०६॥
उद्वेगं परमं जग्मुर्दैत्या
विष्णुपरंमुखाः ।
त्यक्ता लक्ष्या महाभाग
विप्रचित्तिपुरोगमाः ॥१०७॥
ततस्ये जगृहूर्दैत्या
धन्वन्तरिकरस्थितम् ।
कमण्डलुं महावीर्या
यत्रास्तेऽमृतमुत्तमम् ॥१०८॥
मायमा मोहयित्वा तान्विष्णुः
स्त्रीरूपसंस्थितः ।
दानवेभ्यस्तदादाय देवेभ्यः प्रददौ
प्रभुः ॥१०९॥
हे मैत्रेय ! श्रीहरिके
वक्षःस्थलमें विराजमान श्रीलक्ष्मीजीका दर्शन कर देवताओंको अकस्मात् अत्यन्त
प्रसन्नता प्राप्त हुई ॥१०६॥ और हे महाभाग ! लक्ष्मीजीसे परित्यक्त होनेके कारण
भगवान विष्णूके विरोधी विप्रचित्ति आदि दैत्यगण परम उद्विग्र ( व्याकुल ) हुए
॥१०७॥ तब उन महाबलवान् दैत्योंने श्रीधन्वन्तरिजीके हाथसे वह कमंडलु छीन लिया
जिसमें अति उत्तम अमृत भरा हुआ था ॥१०८॥ अतः स्त्री ( मोहिनी ) रूपधारी भगवान्
विष्णुने अपनी मायासे दानवोंको मोहित कर उनसे वह कमंडलु लेकर देवताओंको दे दिया
॥१०९॥
ततः पपुः सुरगणाः
शक्राद्यास्तत्तदाऽमृतम् ।
उद्यतायुधनिस्त्रिंशा
दैत्यास्तांश्च समभ्ययुः ॥११०॥
पीतेऽमृते च
बलिभिर्देवैर्दैत्यचमूस्तदा ।
बध्यमाना दिशो भेजे पातालं च विवेश
वै ॥१११॥
ततो देवा मुदा युक्ताः
शंखचक्रगदाभूतम् ।
प्रणिपत्य
यथापूर्वमाशासत्तत्र्तिविष्टपम् ॥११२॥
ततः प्रसन्नभाः सूर्य प्रययौ स्वेन
वर्त्मना ।
ज्योतींषि च यथामार्ग
प्रययुर्मुनिसत्तम ॥११३॥
जज्वाल
भगवांश्चाच्चैश्चारुदीप्तिर्विभावसुः ।
धर्मे च सर्वभूतानां तदा मतिरजायत
॥११४॥
त्रैलोक्यं च श्रिया जुष्टं बभूव
द्विजसत्तम ।
शक्रश्च त्रिदशश्रेष्ठः पुनः
श्रीमानाजायत ॥११५॥
सिंहासनगतः शक्रस्सम्प्राप्य
त्रिदिवं पुनः ।
देवराज्ये स्थितो देवीं
तुष्टावाब्जकरां ततः ॥११६॥
तब इन्द्र आदि देवगण उस अमृतको पी
गये;
इससे दैत्यलोग अति तीखे खंग आदि शस्त्रोंसे सुसज्जित हो उनके ऊपर
टूट पडे़ ॥११०॥ किन्तु अमृत पानके कारण बलवान् हुए देवताओंद्वारा मारी काटी जाकर
दैत्योंकी सम्पूर्ण सेना दिशा विदिशाओंमें भाग गयी और कुछ पाताललोकमें भी चली गयी
॥१११॥ फिर देवगण प्रसन्नतापूर्वक शंख-चक्र-गदा-धारी भगवान्को प्रणाम कह पहलेहीके
समान स्वर्गका शासन करने लगे ॥११२॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! उस समयसे प्रखर तेजोयुक्त
भगवान् सूर्य अपने मार्गसे तथा अन्य तारागण भी अपने अपने मार्गसे चलने लगे ॥११३॥ सुन्दर
दीप्तिशाली भगवान् अग्निदेव अत्यन्त प्रज्वलित हो उठे और समयसे समस्त प्राणियोंकी
धर्ममें प्रवृत्ति हो गयी ॥११४॥ हे द्विजोत्तम ! त्रिलोकी श्रीसम्पन्न हो गयी और
देवताओंमें श्रेष्ठ इन्द्र भी पुनः श्रीमान हो गये ॥११५॥ तदनन्तर इन्दने
सर्गलोकमें जाकर फिरसे देवराज्यपर अधिकार पाया और राजसिंहासनपर आरुढ़ हो पद्महस्ता
श्रीलक्ष्मीजीकी इस प्रकार स्तुति की ॥११६॥
इन्द्र उवाच
नमस्ये सर्वलोकानां
जननीमब्जसम्भवाम् ।
श्रियमुन्निद्रपद्माक्षीं
विष्णुवक्षः स्थलस्थिताम् ॥११७॥
इन्द्र बोले - सम्पूर्ण लोकोंकी
जननी,
विकसिअ कमलके सदृश नेत्रोंवाली, भगवान
विष्णुके वक्षःस्थलमें विराजमान कमलोद्भवा श्रीलक्ष्मीदेवीको मैम नमस्कार करता हूँ
॥११७॥
पद्मालयां पद्मकरां
पद्मपत्रनिभेक्षणाम् ।
वन्दे पद्ममुखीं देवीं
पद्मनाभप्रियामहम् ॥११८॥
कमल ही जिनका निवासस्थान है,
कमल ही जिनके कर-कमलोंमे सुशोभित है, तथा कमल
द्लके समान ही जिनके नेत्र हैं उन कमलमुखी कमलनाभ प्रिया श्रीकमलादेवीकी मैं
वन्दना करता हूँ ॥११८॥
त्वं सिद्धिस्त्वं स्वधा स्वाहा
सुधा त्वं लोकपावनी ।
सन्ध्या रात्रिः प्रभा भूतिर्मेधा
श्रद्धा सरस्वती ॥११९॥
हे देवि ! तुम सिद्धि हो,
स्वधा हो, स्वाहा हो, सुधा
हो और त्रिलोकीको पवित्र करनेवाली हो तथा तुम ही सन्ध्या, रात्रि,
प्रभा, विभूति , मेधा,
श्रद्धा और सरस्वती हो ॥११९॥
यज्ञविद्या महाविद्या गुह्राविद्या
च शोभने ।
आत्मविद्या च देविं त्वं
विमुक्तिफलदायिनी ॥१२०॥
हे शोभने ! यज्ञ विद्या ( कर्म
काण्ड ) महविद्या ( उपासना ) और गुह्याविद्या ( इन्द्रजाल ) तुम्ही हो तथा है देवी
! तुम्ही मुक्ति फल दायिनी आत्मविद्या हो॥१२०॥
आन्वीक्षिकी त्रयीवार्त्ता
दण्डनीतिस्त्वमेव च ।
सौम्यासौम्यैर्जगद्रूपैस्त्वयैत्तद्देवि
पूरितम् ॥१२१॥
हे देवि ! आन्वीक्षिकी ( तर्कविद्य
),
वेदत्रयी, वार्ता ( शिल्पवाणिज्यादि ) और
दण्डनीति ( राजनीति ) भी तुम्हीं हो ! तुम्होंने अपने शान्त और उग्र रूपोंसे यह
समस्त संसार व्याप्त किया हुआ है ॥१२१॥
का त्वन्या त्वामृते देवि
सर्वयज्ञमयं वपुः ।
अध्यास्ते देवदेवस्य योगिनिन्त्यं
गदाभृतः ॥१२२॥
हे देवि ! तुम्हारे बिना और ऐसी कौन
स्त्री है जो देवदेव भगवान् गदाधरके योगिजनचिन्तित सर्वयज्ञमय शरीरका आश्रय पा सके
॥१२२॥
त्वया देवि परित्यक्तं सकलं
भुवनत्रयम् ।
विनष्टप्रायमभवत्त्वयेदानीं
समेधितम् ॥१२३॥
हे देवि ! तुम्हारे छोड़ देनेपर
सम्पूर्ण त्रिलोकी नष्टप्राय हो गयी थी; अब
तुम्हीनें उसे पुनः जीवन-दान दिया है ॥१२३॥
दाराः पुत्रास्तथागारसुहद्धान्यधनादिकम्
।
भवत्येतन्महाभागे नित्यं
त्वद्विक्षनान्नृणाम् ॥१२४॥
हे महाभागे ! स्त्री,
पुत्र, गृह, धन, धान्य तथा सुहृद ये सब सदा आपहीके दृष्टिपातसे मनुष्योंको मिलते हैं ॥१२४॥
शरीरारोग्यमैश्वर्यमरिपक्षक्षयः
सुखम् ।
देवि त्वद्दृष्टिदृष्टानां
पुरुषाणां न दुर्लभम् ॥१२५॥
हे देवि ! तुम्हारी कृपा-दृष्टिके
पात्र पुरुषोंके लिये शारीरिक आरोग्य, ऐश्वर्य,
शत्रु-पक्षका नाश और सुख आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं हैं ॥१२५॥
त्वं माता सर्वलोकांना देवदेवो हरिः
पिता ।
त्वयैतद्विष्णुना चाम्ब जगद्व्याप्तं
चराचरम् ॥१२६॥
तुम सम्पूर्ण लोकोंकी माता हो और
देवदेव भगवान् हरि पिता हैं । हे मातः ! तुमसे और श्रीविष्णुभगवान्से यह सकल
चराचर जगत् व्याप्त है ॥१२६॥
मा नः कोशं तथा गोष्ठं मा गृहं मा
परिच्छदम् ।
मा शरीरं कलत्रं च त्यजेथाः
सर्वपावनि ॥१२७॥
हे सर्वपावनि मातेश्वरि ! हमारे कोश
( खजाना ) , गोष्ठ ( पशू-शाला ) , गृह, भोगसामग्री, शरीर और
स्त्री आदिको आप कभी न त्यागें अर्थात इनमें भरपूर रहें ॥१२७॥
मा पुत्रान्मा सुहृद्वर्गं मा
पशून्मा विभूषणम् ।
त्यजेथा मम देवस्य विष्णोर्वक्षः
स्थलालये ॥१२८॥
अयि विष्णुवक्षः स्थल निवासिनि !
हमारे पुत्र, सुहृद्,
पशु और भूषण आदिको आप कभी न छोड़े ॥१२८॥
सत्त्वेन सत्यसौचाभ्यां तथा
शीलादिभिर्गुणैः ।
त्यज्यन्ते ते नराः सद्यः
सन्त्यक्ता ये त्वयामले ॥१२९॥
हे अमले ! जिन मनुष्योंको तुम छोड़
देती हो उन्हें सत्त्व ( मानसिक बल ), सत्य,
शौच और शील आदि गुण भी शीघ्र ही त्याग देते हैं ॥१२९॥
त्वया विलोकिताः सद्यः
शीलादैरखिलैर्गुणैः ।
कुलैश्वर्यैश्व युज्यन्ते पुरुषा
निर्गुणा अपि ॥१३०॥
और तुम्हारी कृपा दृष्टि होनेपर तो
गुणहीन पुरुष भी शीघ्र ही शील आदि सम्पूर्ण गुण और कुलीनता तथा ऐश्वर्य आदिसे
सम्पन्न हो जाते हैं ॥१३०॥
स श्लाघ्यः स गुणी धन्यः स कुलीनः
स बुद्धीमान् ।
स शूरः स च विक्रान्तो यस्त्वया
देवि वीक्षितः ॥१३१॥
हे देवि ! जिसपर तुम्हारी
कृपादृष्टि है वही प्रशंसनीय है, वही गुणी है,
वही धन्यभाग्य है, वही कुलीन और बुद्धिमान है
तथा वही शूरवीर और पराक्रमी है ॥१३१॥
सद्यो वैगुण्यमायान्ति शीलाद्याः
सकला गुणाः ।
परांमुखी जगद्धात्री यस्य त्वं
विष्णुवल्लभे ॥१३२॥
हे विष्णुप्रिये ! हे जगज्जननि !
तुम जिससे विमुख हो उसके तो शील आदि सभी गुण तुरन्त अवगुणरूप हो जाते हैं ॥१३२॥
न ते वर्णयितुं शक्ता
गुणात्र्जिह्वापि वेधसः ।
प्रसीद देवी पद्माक्षि
मास्मांस्त्याक्षीः कदाचन ॥१३३॥
हे देवि ! तुम्हारे गुणोंक वर्णन
करनेमें तो श्रीब्रह्माजीकी रसना भी समर्थ नहीं है । (फिर मैं क्या कर सकता हूँ?)
अतः हे कमलनयने ! अब मुझपर प्रसन्न हो और मुझे कभी न छोड़े ॥१३३॥
श्रीपराशर उवाच
एवं श्रीः संस्तुता सम्यक प्राह
देवी शतक्रतुम् ।
श्रृण्वतां सर्वदेवानां
सर्वभूतस्थिता द्विज ॥१३४॥
श्रीपराशरजी बोले- हे द्विज ! इस
प्रकार सम्यक् स्तुति किये जानेपर सर्वभूतस्थिता श्रीलक्ष्मीजी सब देवताओंके सुनते
हुए इन्द्रसे इस प्रकार बोलीं ॥१३४॥
श्रीरुवाच
परितृष्टास्मि देवेश स्तोत्रेणानेन
ते हरे ।
वरं वृणीष्व यस्त्विष्टो वरदाहं
तवागता ॥१३५॥
श्रीलक्ष्मीजी बोलीं- हे देवेश्वर
इन्द्र ! मैं तेरे इस स्तोत्रसे अति प्रसन्न हूँ; तुझको जो अभीष्ट हो वही वर माँग ले । मैं तुझे वर देनेके लिये ही यहाँ आयी
हूँ ॥१३५॥
इन्द्र उवाच
वरदा यदि मे देवि वरार्हो यदि
वाप्यहम् ।
त्रैलोक्यं न त्वया त्याज्यमेष
मेऽस्तु वरः परः ॥१३६॥
स्तोत्रेण यस्तथैतेन त्वां
स्तोष्यत्यब्धिसम्भवे ।
स त्वया न परित्याज्यो
द्वितीयोऽस्तु वरो मम ॥१३७॥
इन्द्र बोले- हे देवी ! यदि आप वर
देना चाहती हैं और मैं भी यदि वर पानेयोग्य हूँ तो मुझको पहला वर तो यही दीजिये कि
आप इस त्रिलोकीका कभी त्या न करें ॥१३६॥ और हे समुद्रसम्भवे ! दुसरा वर मुझे यह
दीजिये कि जो कोई आपकी इस स्तोत्रसे स्तुति करे उसे आप कभी न त्यागें ॥१३७॥
श्रीरुवाच
त्रैलोक्यं त्रिदशश्रेष्ठ न
सन्त्यक्ष्यामि वासव ।
दत्तो वरो मया यस्ते
स्तोत्राराधनतृष्ट्या ॥१३८॥
यश्च सायं तथा प्राप्तः
स्तोत्रेणानेन मानवः ।
मां स्तोष्यति न तस्याहं भविष्यामि
परांडखी ॥१३९॥
श्रीलक्ष्मीजी बोलीं - हे
देवश्रेष्ठ इन्द्र ! मैं अब इस त्रिलोकीको कभी न छोडूँगी । तेरे स्त्रोत्रसे
प्रसन्न होकर मैं तुझे यह वर देती हूँ ॥१३८॥ तथा जो कोई मनुष्य प्रातःकाल और
सायंकालके समय इस स्त्रोत्रसे मेरी स्तुति करेगा उससे भी मैं कभी विमुख न होऊँगी
॥१३९॥
श्रीपराशर उवाच
एवं ददौ वरं देवी देवराजाय वै पुरा
।
मैत्रेय श्रीर्महाभागा
स्तोत्राराधनतोषिता ॥१४०॥
भृगोः ख्यात्यां समुत्पन्ना श्रीः
पूर्वमुद्धेः पुनः ।
देवदानवयत्नेन प्रसुताऽमृतमन्थने
॥१४१॥
एवं यदा जगत्स्वामी देवदेवो
जनार्दनः ।
अवतारं करोत्येषा तदा
श्रीस्तत्सहायिनी ॥१४२॥
श्रीपराशरजी बोले - हे मैत्रेय ! इस
प्रकार पूर्वकालमें महाभागा श्रीलक्ष्मीजीने देवराजकी स्तोत्ररूप आराधनासे सन्तुष्ट
होकर उन्हें ये वर दिये ॥१४०॥ लक्ष्मीजी पहले भॄगुजीके द्वारा ख्याति नामक
स्त्रीसे उप्तन्न हुई थीं, फिर अमृत मन्थनके
समय देव और दानवोंके प्रयत्नसे वे समुद्रसे प्रकट हूई ॥१४१॥ इस प्रकार संसारके
स्वामी देवाधिदेव श्रीविष्णुभगवान जब-जब अवतार धारण करते हैं तभी लक्ष्मीजी उनके
साथ रहती हैं ॥१४२॥
पुनश्च पद्मादुप्तन्ना
आदित्योऽभूद्यदा हरिः ।
यदा तु भार्गवो रामस्तदाभूद्धरणी
त्वियम् ॥१४३॥
राघवत्वेऽभवत्सीता रुक्मिणी
कृष्णजन्मनि ।
अन्येषु चावतारेषु
विष्णोरेषानपायिनी ॥१४४॥
देवत्वे देवदेहेयं मनुष्यत्वे च
मानुषी ।
विष्णोर्देहानुरूपां वै
करोत्येषात्मनस्तनुम् ॥१४५॥
जब श्रीहरि आदित्यरूप हुए तो वे
पद्मसे फिर उत्पन्न हुई ( और पद्मा कहलायीं ) । तथा जब वे परशुराम हूए तो ये
पृथिवी हुई ॥१४३॥ श्रीहरिके राम होनेपर ये सीताजी हूईं और कृष्णावतारमें
श्रीरूक्मिणीजी हुई । इसी प्रकार अन्य अवतारोंमें भी भगवान्से कभी पृथक नहीं
होतीं ॥१४४॥ भगवानके देवरुप होनेपर ये दिव्य शरीर धारण करती हैं,
और मनुष्य होनेपर मानवीरूपसे प्रकट होती हैं । विष्णुभगवानके शरीरके
अनुरूप ही ये अपना शरीर भी बना लेती हैं ॥१४५॥
यश्चैतच्छृणुयाज्जन्म लक्ष्म्या
यश्च पठेन्नरः ।
श्रियो न विच्युतिस्तस्य गृहे
यावत्कुलत्रयम् ॥१४६॥
जो मनुष्य लक्ष्मीजीके जन्मकी इस
कथाको सुनेगा अथवा पढे़गा उसके घरमें ( वर्तमान आगामी और भूत ) तीनों कुलोंके रहते
हुए कभी लक्ष्मीका नाश न होगा ॥१४६॥
पठ्यते येषु चैवेयं गृहेषु
श्रीस्तुतिर्मुने ।
अलक्ष्मीः कलहाधारा न तेष्वास्ते
कदाचन ॥१४७॥
हे मुने ! जिन घरोंमें लक्ष्मीजीके
इस स्तोत्रका पाठ होता है उनमें कलहकी आधारभूता दरिद्रता कभी नहीं ठहर सकती ॥१४७॥
एतत्ते कथितं ब्रह्मान्यन्मां त्वं
परिपृच्छसि ।
क्षीराब्धौ श्रीर्यथा जाता पूर्व
भृगुसुता सती ॥१४८॥
हे ब्रह्मन ! तुमने जो मुझसे पूछा
था कि पहले भृगुजीकी पुत्री होकर फिर लक्ष्मीजी क्षीर समुद्रसे कैसे उप्तन्न हूई
सो मैंने तुमसे यह सब वृत्तान्त कह दिया ॥१४८॥
इति सकलविभूत्यवाप्तिहेतूः
स्तुतिरियमिन्द्रमुखोद्गता हि लक्ष्म्याः ।
अनुदिनमिह पठ्यते नृभिर्यै र्वसति न
तेषु कदाचिदप्यलक्ष्मीः ॥१४९॥
इस प्रकार इन्द्रके मुखसे प्रकट हुई
यह लक्ष्मीजीकी स्तुति सकल विभूतियोंकी प्राप्तिका कारण है,
जो लोग इसका नित्यप्रति पाठ करेंगे उनके घरमें निर्धनता कभी नहीं रह
सकेगी ॥१४९॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे
नवमोऽध्यायः ॥९॥
आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण अध्याय 10
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