विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ८

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ८     

विष्णु पुराण के प्रथम अंश के अध्याय ८ में रौद्र सृष्टि और भगवान तथा लक्ष्मीजी की सर्वव्यापकता का वर्णन है।

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ८

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ८     

Vishnu Purana first part chapter 8

विष्णुपुराणम् प्रथमांशः अष्टमोऽध्यायः  

विष्णुपुराणम्/प्रथमांशः/अध्यायः ८ 

श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश आठवाँ अध्याय

श्रीपराशर उवाच

कथितस्तामसः सर्गो ब्रह्माणस्ते महामुने ।

रुद्रसर्गं प्रवक्ष्यामि तन्मे निगदतः श्रृणु ॥१॥

श्रीपराशरजी बोले ;– हे महामुने ! मैंने तुमसे ब्रह्माजी के तामस-सर्ग का वर्णन किया, अब मैं रूद्र सर्ग का वर्णन करता हूँ, सो सुनो ॥ १ ॥

कल्पादावात्मनस्तुल्यं सुतं प्रध्यायतस्ततः ।

प्रादुरासीत्प्रभोरंके कुमारो नीललोहितः ॥२॥

कल्प के आदि में अपने समान पुत्र उत्पन्न होने के लिये चिन्तन करते हुए ब्रह्माजी की गोद में नीललोहित वर्ण के एक कुमार का प्रादुर्भाव हुआ ॥ २ ॥

रुदोर सुस्वरं सोऽथ प्राद्रवद्‌द्विजसत्तम ।

किं त्वं रोदषि तं ब्रह्म रुदन्तं प्रत्युवाच ह ॥३॥

हे द्विजोत्तम ! जन्म के अनन्तर ही वह जोर जोर से रोने और इधर उधर दौड़ने लगा । उसे रोता देख ब्रह्माजी ने उससे पूछा – ‘तू क्यों रोता है ?’ ॥ ३ ॥

नाम देहीति तं सोऽथं प्रत्युवाच प्रजापतिः ।

रुद्रस्त्वं देव नाम्रासि मा रोदीधैर्यमावह् ।

एवमुक्तः पुनः सोऽथ सप्तकृत्वो रुरोद वै ॥४॥

उसने कहा – ‘मेरा नाम रखो।तब ब्रह्माजी बोले – ‘ हे देव ! तेरा नाम रूद्र है, अब तू मत रो, धैर्य धारण कर ।ऐसा कहनेपर भी वह सात बार और रोया ॥ ४ ॥

ततोऽन्यानि ददौ तस्मै सप्त नामानि वै प्रभुः ।

स्थानानि चैषामष्टानां पत्नीः पुत्रांश्च स प्रभुः ॥५॥

तब भगवान ब्रह्माजी ने उसके सात नाम और रखे; तथा उन आठों के स्थान, स्त्री और पुत्र भी निश्चित किये ॥५॥

भवं शर्वमथेशानं तथा पशुपतिं द्विज ।

भीमम्रुग्रं महादेवमुवाच स पितामहः ॥६॥

हे द्विज ! प्रजापति ने उसे भव, शर्व, ईशान, पशुपति, भीम, उग्र और महादेव कहकर सम्बोधन किया ॥६॥

चक्रे नामान्यतहितानि स्थानान्येषां चकार सः ।

सूर्यो जलं मही वायुर्वह्निराकाशमेव च ।

दीक्षितो ब्राह्मणः सोम इत्येतास्तनवः क्रमात् ॥७॥

यही उसके नाम रखे और इनके स्थान भी निश्चित किये । सूर्य, जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि, आकाश, [यज्ञ में ] दीक्षित ब्राह्मण और चंद्रमा ये क्रमश: उनकी मूर्तियाँ है ॥७॥

सुवर्चला तथैवोषा विकेशी चापरा शिवा ।

स्वाहा दिशस्तथा दीक्षा रोहिणी च यथाक्रमम् ॥८॥

सूर्योदीनां द्विजश्रेष्ठ रुद्राद्यैर्नामभिः सह ।

पत्‍न्यः स्मृता महाभाग तदपत्यानि मे श्रृणु ॥९॥

एषां सूतिप्रसूतिभ्यामिदमापूरितं जगत् ॥१०॥

हे द्विजश्रेष्ठ ! रूद्र आदि नामों के साथ उन सूर्य आदि मूर्तियों की क्रमश: सुवर्चला, ऊषा, विकेशी, अपरा, शिवा, स्वाहा, दिशा, दीक्षा और रोहिणी नामकी पत्नियाँ है । हे महाभाग ! अब उनके पुत्रों के नाम सुनो; उन्हीं के पुत्र- पौत्रादिकों से यह सम्पूर्ण जगत परिपूर्ण है ॥८ १०॥

शनैश्चरस्तथा शुक्रो लोहितांगो मनोजवः ।

स्कन्दः सर्गोऽथ सन्तानो बुधश्चानुक्रमात्सुताः ॥११॥

शनैश्वर, शुक्र, लोहितांग, मनोजव, स्कन्द, सर्ग, सन्तान और बुध ये क्रमश: उनके पुत्र है ॥११॥

एवंप्रकारो रुद्रोऽसौ सतीं भार्यामनिन्दिताम् ।

उपयेमे दुहितरं दक्षस्यैव प्रजापतेः ॥१२॥

ऐसे भगवान रूद्र ने प्रजापति दक्ष की अनिंदिता पुत्री सती को अपनी भार्यारूप से ग्रहण किया ॥१२॥

दक्षकोपाच्च तत्याज सा सती स्वकलेवरम् ।

हिमवद्‍दुहिता साऽभून्मेनायां द्विजसत्तम ॥१३॥

उपयेमे पुनश्चोमामनन्यां भगवान्हरः ॥१४॥

हे द्विजसत्तम ! उस सतीने दक्षपर कुपित होने के कारण अपना शरीर त्याग दिया था । फिर वह मेना के गर्भ से हिमाचल की पत्नी (उमा) हुई । भगवान शंकर ने उस अनन्यपरायणा उमासे फिर भी विवाह किया ॥१३ -१४॥

दैवौ धातृविधातारौ भूगोः ख्यातिर्ससूयत ।

श्रियं च देवदेवस्य पत्नी नारायणस्य या ॥१५॥

भृगु के द्वारा ख्याति ने धाता और विधातानामक दो देवताओं को तथा लक्ष्मीजी को जन्म दिया जो भगवान विष्णु की पत्नी हुई ॥१५॥

श्रीमैत्रेय उवाच

क्षीराब्धौ श्रीः समुत्पन्ना श्रूयतेऽमृतमन्थने ।

भृगोः ख्यात्यां समुत्पन्नेत्येतदाह कथं भवान् ॥१६॥

श्रीमैत्रेयजी बोले ;– भगवन ! सुना जाता है कि लक्ष्मीजी तो अमृत मंथन के समय क्षीर-सागर से उत्पन्न हुई थी, फिर आप ऐसा कैसे कहते है कि वे भृगु के द्वारा ख्याति से उत्पन्न हुई ॥१६॥

श्रीपराशर उवाच

नित्यैवैषा जगन्माता विष्णोः श्रीरनपायिनी ।

यथा सर्वगतो विष्णुस्तथैवेयं द्विजोत्तम ॥१७॥

श्रीपराशरजी बोले ;– हे द्विजोत्तम ! भगवान का कभी संग न छोड़नेवाली जगज्जननी लक्ष्मीजी तो नित्य ही है और जिसप्रकार श्रीविष्णुभगवान सर्वव्यापक है वैसे ही ये भी है ॥१७॥

अर्थो विष्णुरियं वाणी नीतिरेषा नयो हरिः ।

बोधो विष्णुरियं बुद्धिर्धर्मोऽसौ सत्क्रिया त्वियम् ॥१८॥

विष्णु अर्थ है और ये वाणी है, हरि नियम है और ये निति है, भगवान विष्णु बोध है और ये बुद्धि है तथा वे धर्म है और ये सत्क्रिया है ॥१८॥

स्त्रष्टा विष्णुरियं सृष्टिः श्रीर्भूमिर्भूधरो हरिः ।

सन्तोषो भगवाँल्लक्ष्मीस्तुमैत्रेय शाश्वती ॥१९॥

हे मैत्रेय ! भगवान जगत के स्त्रष्टा है और लक्ष्मीजी सृष्टि है, श्रीहरि भूधर (पर्वत अथवा राजा) है और लक्ष्मीजी भूमि है तथा भगवान संतोष है और लक्ष्मीजी नित्य तुष्टि है ॥१९॥

इच्छा श्रीर्भागवान्कामो यज्ञोऽसौ दक्षिणा त्वियम् ।

आज्याहुतिरसौ देवी पुरोडाशो जनार्दनः ॥२०॥

भगवान काम है और लक्ष्मीजी इच्छा है, वे यज्ञ है और वे दक्षिणा है, श्रीजनार्दन पुरोडाश है और देवी लक्ष्मीजी आज्याहुति (घृत की आहुति ) है ॥२०॥

पत्नीशाला मुने लक्ष्मीः प्राग्वंधो मधुसूदनः ।

चितिर्लक्ष्मीर्हरिर्यूप इध्मा श्रीर्भगवान्कुशः ॥२१॥

हे मुने ! मधुसुदन यजमानगृह है और लक्ष्मीजी पत्नीशाला है, श्रीहरि युप है और लक्ष्मीजी चिति है तथा भगवान कुशा है और लक्ष्मीजी इध्मा है ॥२१॥

सानस्वरूपी भगवानु द्गीतिः कमलालया ।

स्वाहा लक्ष्मीर्जगन्नाथो वासुदेवो हुताशनः ॥२२॥

भगवान सामस्वरूप है और श्रीकमलादेवी उद्भिति है, जगत्पति भगवान वासुदेव हुताशन है और लक्ष्मीजी स्वाहा है ॥२२॥

शड्करो भगवात्र्छौरिगौरी लक्ष्मीर्द्विजोत्तम ।

मैत्रेय केशवः सूर्यस्तत्प्रभा कमलालया ॥२३॥

हे द्विजोत्तम ! भगवान विष्णु शंकर है और श्रीलक्ष्मीजी गौरी है तथा हे मैत्रेय ! श्रीकेशव सूर्य है और कमलवासिनी श्रीलक्ष्मीजी उनकी प्रभा है ॥२३॥

विष्णुः पितृगणः पद्मा स्वधा शाश्वतपुष्टिदा ।

द्यौः श्रीः सर्वात्मकी विष्णुरवकाशोऽतिविस्तरः ॥२४॥

श्रीविष्णु पितृगण है और श्रीकमला नित्य पुष्टिदायिनी स्वधा है, विष्णु अति विस्तीर्ण सर्वात्मक अवकाश है और लक्ष्मीजी स्वर्गलोक है ॥२४॥

शशाड्कः श्रीधरः कान्तिः श्रीस्तथैवानपायिनी ।

धृतीर्लक्ष्मीर्जगच्चेष्टा वायुः सर्वत्रगो हरिः ॥२५॥

भगवान श्रीधर चन्द्रमा है और श्रीलक्ष्मीजी उनकी अक्षय कान्ति है, हरि सर्वगामी वायु है और लक्ष्मीजी जगचेष्टा (जगतकी गति) और धृति (आधार) है ॥२५॥

जलधिर्द्विज गोविन्दस्तद्वेला श्रीर्महामुने ।

लक्ष्मीस्वरूपमिन्द्राणी देवेन्द्रो मधुसूदनः ॥२६॥

हे महामुने ! श्रीगोविंद समुद्र है और हे द्विज ! लक्ष्मीजी उसकी तरंग है, भगवान मधुसुदन देवराज इंद्र है और लक्ष्मीजी इंद्राणी है ॥२६॥

यमश्चकधरः साक्षाद्धूमोर्णा कमलालया ।

ॠद्धिः श्रीः श्रीधरो देवः स्वयमेव धनेश्वरः ॥२७॥

चक्रपाणि भगवान यम है और श्रीकमला यमपत्नी धुमोर्णा है, देवाधिदेव श्रीविष्णु कुबेर है और श्रीलक्ष्मीजी साक्षात ऋद्धि है ॥२७॥

गौरी लक्ष्मीर्महाभागा केशवो वरुणः स्वयम् ।

श्रीर्देवसेना विप्रेन्द्र देवसेनापतिर्हरिः ॥२८॥

श्रीकेशव स्वयं वरुण है और महाभागा लक्ष्मीजी गौरी है, हे द्विजराज ! श्रीहरि देवसेनापति स्वामिकार्तिकेय है और श्रीलक्ष्मीजी देवसेना है ॥२८॥

अवष्टम्भो गदापाणिः शक्तिर्लक्ष्मीर्द्विजोत्तम ।

काष्ठा लक्ष्मीर्निमेषोऽसौ मुहूत्तोऽसौ कला त्वियम् ॥२९॥

हे द्विजोत्तम ! भगवान गदाधर आश्रय है और लक्ष्मीजी शक्ति है, भगवान निमेष है और लक्ष्मीजी काष्ठा है, वे मुहूर्त है और ये कला है ॥२९॥

ज्योत्स्ना लक्ष्मीः प्रदीपोऽसौ सर्वः सर्वेश्वरो हरिः ।

लताभूता जगन्माता श्रीविष्णुर्द्रुमसंज्ञितः ॥३०॥

सर्वेश्वर सर्वरूप श्रीहरि दीपक है और श्रीलक्ष्मीजी ज्योति है, श्रीविष्णु वृक्षरूप है और जगन्माता श्रीलक्ष्मीजी लता है ॥३०॥

विभागरी श्रीर्दिवसो देवश्चकगदधरः ।

वरप्रदो वरो विष्णुर्वधूः पद्मवनालया ॥३१॥

चक्रगदाधरदेव श्रीविष्णु दिन है और लक्ष्मीजी रात्रि है, वरदायक श्रीहरि वर है और पद्मनिवासिनी श्रीलक्ष्मीजी वधु है ॥३१॥

नदस्वरूपी भगवात्र्छ्रीर्नदीरूपसंस्थिता ।

ध्वजश्च पुण्डरीकाक्षः पताका कमलालया ॥३२॥

भगवान नद है और श्रीजी नदी है, कमलनयन भगवान ध्वजा है और कमलालया लक्ष्मीजी पताका है ॥३२॥

तृष्णा लक्ष्मीजर्गन्नाथो लोभो नारायणः परः ।

रती रागश्च मैत्रेय लक्ष्मीर्गोविन्द एव च ॥३३॥

जगदीश्वर परमात्मा नारायण लोभ है और लक्ष्मीजी और गोविन्दरूप ही है ॥३३॥

किं चातिबहुनोक्तेन संक्षेपेणेदमुच्यते ॥३४॥

देवतिर्यड्‍मनुष्यादौ पुन्नामा भगवान्हरीः ।

स्त्रीनाम्नी श्रीश्च विज्ञेया नानयोर्विद्यते परम् ॥३५॥

अधिक क्या कहा जाय ? संक्षेप में, यह कहना चाहिये कि देव, तिर्यक और मनुष्य आदिमें पुरुषवाची भगवान हरि है और स्त्रीवाची श्रीलक्ष्मीजी, इनके परे और कोई नही है ॥ ३४ -३५ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे अष्टमोऽध्यायः॥

आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण अध्याय 9

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