विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ७
विष्णु पुराण के प्रथम अंश के अध्याय
७ में मरीचि आदि प्रजापतिगण, तामसिक सर्ग,
स्वायम्भुवमनु और शतरूपा तथा उनकी सन्तान का वर्णन है।
विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ७
Vishnu Purana first part chapter
7
विष्णुपुराणम् प्रथमांशः सप्तमोऽध्यायः
विष्णुपुराणम्/प्रथमांशः/अध्यायः ७
श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश सातवाँ अध्याय
श्रीपराशर उवाच
ततोऽभिध्यायतस्तस्य जज्ञिरे मानसाः
प्रजाः ।
तच्छारीरसमुप्तन्नैः कार्यैस्तैः
करणैः सह ।
क्षैत्रज्ञाः समवर्त्तन्त
गात्रेभ्यस्तस्य धीमतः ॥१॥
श्रीपराशरजी बोले ;–
फिर उन प्रजापति के ध्यान करनेपर उनके देहस्वरूप भूतों से उत्पन्न
हुए शरीर और इन्दिर्यों के सहित मानस प्रजा उत्पन्न हुई । उस समय मतिमान ब्रह्माजी
के जड शरीर से ही चेतन जीवों का प्रादुर्भाव हुआ ॥१ ॥
ते सर्वे समवर्त्तन्त ये मया
प्रागुदाहृताः ।
देवाद्याः स्थावरान्तश्च
त्रैगुण्यविषये स्थिताः ॥२॥
एवंभूतानि सृष्टानि चराणि स्थावराणि
च ॥३॥
मैंने पहले जिनका वर्णन किया है,
देवताओं से लेकर स्थावरपर्यन्त वे सभी त्रिगुणात्मक चर और अचर जीव
इसीप्रकार उत्पन्न हुए ॥२ – ३॥
यदास्य ताः प्रजाः सर्वा न
व्यवर्धन्त धीमतः ।
अथान्यान्मानसान्पुत्रान्सदृशात्मनोऽसृजत्
॥४॥
भृगुं पुलस्त्यं पुलहं क्रतुमंगिरसं
तथा ।
मरीचिं दक्षमत्रिं च वसिष्ठं चैव
मानसन् ॥५॥
नव ब्रह्माण इत्येते पुराणे निश्चयं
गताः ॥६॥
जब महाबुद्धिमान प्रजापति की वह
प्रजा पुत्र-पौत्रादि-क्रम से और न बढ़ी तब उन्होंने भृगु,
पुलस्त्य, पुलह, क्रतु,
अंगिरा, मरीचि, दक्ष,
अत्रि और वसिष्ठ – इन अपने ही सदृश अन्य
मानस-पुत्रों की सृष्टि की। पुराणों में ये नौ ब्रह्मा माने गये है ॥४ – ६॥
रव्यातिं भूतिं च सम्भूतिं क्षमां
प्रीतिं तथैव च ।
सन्नतिं च तथैवोर्ज्जामनसूयां तथैव
च ॥७॥
प्रसूतिं च ततः सृष्ट्वा ददौ तेषां
महात्मनाम् ।
पत्न्यो भवध्वमित्युक्त्वा तेषामेव
तु दत्तवान् ॥८॥
फिर ख्याति,
भूति, सम्भूति, क्षमा,
प्रीति, सन्नति, ऊर्ज्जा,
अनसूया तथा प्रसूति इन नौ कन्याओं को उत्पन्न कर, इन्हें उन महात्माओं को ‘तुम इनकी पत्नी हो’ ऐसा कहकर सौंप दिया ॥७ – ८ ॥
सनन्दनादयो ये च पूर्वसृष्टास्तु
वेधसा ।
न ते लोकेष्वसज्जन्त निरपेक्षाः
प्रजासु ते ॥९॥
ब्रह्माजीने पहले जिन सनन्दनादि को
उत्पन्न किया था वे निरपेक्ष होने के कारण सन्तान और संसार आदि में प्रवृत्त नहीं
हुए ॥९॥
सर्वे तेऽभ्यागतज्ञाना वीतरागा
विमत्सराः ।
तेष्वेवं निरपेक्षेषु लोकसृष्टौ
महात्मनः ॥१०॥
ब्रह्मणोऽभून्महान्
क्रोधस्त्रैलोक्यदहनक्षमः ।
तस्य
क्रोधात्समुद्भूतज्वालामालातिदीपितम् ।
ब्रह्माणोऽभूत्तदा सर्व
त्रैलोक्यमखिलं मुने ॥११॥
वे सभी ज्ञानसम्पन्न,
विरक्त और मत्सरादि दोषों से रहित थे । उन महात्माओं को संसार-रचना
से बह्माजी को त्रिलोकी को भस्म कर देनेवाला महान क्रोध उत्पन्न हुआ। हे मुने ! उन
ब्रह्माजी के क्रोध के कारण सम्पूर्ण त्रिलोकी ज्वाला-मालाओं से अत्यंत देदीप्यमान
हो गयी ॥१०- ११॥
भ्रकुटीकुटिलात्तस्य
ललाटात्क्रोधदीपितात् ।
समुप्तन्नस्तदा रुद्रो
मध्याह्नार्कसमप्रभः ॥१२॥
उससमय उनकी टेढ़ी भृकुटि और
क्रोध-संतप्त ललाटसे दोपहर के सूर्य के समान प्रकाशमान रूद्र की उत्पत्ति हुई ॥१२॥
अर्धनारीनरवपुः प्रचण्डोऽतिशरीरवान्
।
विभाजात्मानमित्युक्त्वा तं
ब्रह्मान्तर्दधे ततः ॥१३॥
उसका अति प्रचंड शरीर आधा नर और आधा
नारीरूप था। तब ब्रह्माजी ‘अपने शरीर का विभाग
कर’ ऐसा कहकर अन्तर्धान हो गये ॥१३॥
तथोक्तोऽसौ द्विधा स्त्रीत्वं
पुरुषत्वं तथाऽकरोत् ।
विभेदुपुरुषत्वं च दशधा चौकधा पुनः
॥१४॥
सौम्यासौम्यैस्तदा शान्ताऽशान्तैः
स्त्रीत्वं च सप्रभुः ।
विभेद बहुधाः देवः स्वरूपैरसितैः
सितैः ॥१५॥
ऐसा कहे जानेपर उस रूद्र ने अपने
शरीरस्थ स्त्री और पुरुष दोनों भागों को अलग-अलग कर दिया और फिर पुरुष-भाग को
ग्यारह भागों में विभक्त किया तथा स्त्री-भाग को भी सौम्य,
क्रूर, शांत-अशांत और श्याम – गौर आदि कई रूपों में विभक्त कर दिया ॥१५॥
ततो ब्रह्माऽऽत्मसम्भूतं पूर्व
स्वायम्भुवं प्रभुः ।
आत्मानमेव कृतवन्प्रजापाल्ये मनुं द्विज
॥१६॥
तदनन्तर,
हे द्विज ! अपने से उत्पन्न अपने ही स्वरूप स्वायम्भुव को ब्रह्माजी
ने प्रजा-पालन के लिये प्रथम मनु बनाया ॥१६॥
शतरूपां च तां नारीं
तपोनिर्धूतकल्मषाम् ।
स्वायम्भुवो मनुर्देवः पत्नीत्वे
जगृहे प्रभुः ॥१७॥
उन स्वायम्भुव मनुने [अपने ही साथ उत्पन्न
हुई ] तप के कारण निष्पाप शतरूपा नाम की स्त्री को अपनी पत्नीरूप से ग्रहण किया ॥१७॥
तस्मात्तु पुरुषाद्देवी शतरूपा
व्यजायत ।
प्रियव्रतोत्तानपादौ
प्रसुत्याकूतिसंज्ञितम् ॥१८॥
कन्याद्वयं च धर्मज्ञ
रूपौदार्यगुणान्वितम् ।
ददौ प्रसूतिं दक्षाय आकूतिं रुचये
पुरा ॥१९॥
हे धर्मज्ञ ! उन स्वायम्भुव मनु से
शतरूपा देवीने प्रियव्रत और उत्तानपादनामक दो पुत्र तथा उदार,
रूप और गुणों से सम्पन्न प्रसूति और आकूति नामकी दो कन्याएँ उत्पन्न
की । उनमें से प्रसूति को दक्ष के साथ तथा आकूति को रूचि प्रजापति के साथ विवाह
दिया ॥१८ – १९ ॥
प्रजापतिः स जग्राह तयोर्जज्ञे
सदक्षिणः ।
पुत्रो यज्ञो महाभाग
दम्पत्योर्मिथुनं ततः ॥२०॥
हे महाभाग ! रूचि प्रजापति ने उसे
ग्रहण कर लिया । तब उन दम्पती के यज्ञ और दक्षिणा – ये युगल (जुड़वाँ) सन्तान उत्पन्न हुई ॥२०॥
यज्ञस्य दक्षिणायां तु पुत्रा द्वादश
जज्ञिरे ।
यामा इति समाख्याता देवाः
स्वायम्भुवे मनौ ॥२१॥
प्रसूत्यां च तथा दक्षश्चतस्त्रो
विंशतिस्तथा ।
ससर्ज कन्यास्तासां च सम्यड् नामानि
मे श्रृणु ॥२२॥
यज्ञ के दक्षिणा से बारह पुत्र हुए,
जो स्वायम्भुव मन्वन्तर से वाम नामके देवता कहलाये तथा दक्ष ने प्रसूति
से चौबीस कन्याएँ उत्पन्न की। मुझसे उनके शुभ नाम सुनो ॥२२॥
श्रद्धा
लक्ष्मीर्धॄतिस्तुष्टिर्मेधा पुष्टिस्तथा क्रिया ।
बुद्धिर्लज्जा वपुः शान्तिः सिद्धिः
कीर्तिस्त्रयोदशी ॥२३॥
पत्न्यर्थं प्रतिजग्राह धर्मो
दाक्षायणीः प्रभुः ।
ताभ्यः शिष्टाः यवीयस्य एकादश
सुलोचनाः ॥२४॥
ख्यातिः सत्यथ सम्भूतिः स्मृतिः
प्रीतिः क्षमा तथा ।
सन्ततिश्चानसूया च उर्ज्जा स्वाहा
स्वधा तथा ॥२५॥
श्रद्धा,
लक्ष्मी, धृति, तुष्टि,
मेधा, पुष्टि, क्रिया,
बुद्धि, लज्जा, वपु,
शान्ति, सिद्धि और तेरहवी कीर्ति – इन दक्ष कन्याओं को धर्म ने पत्नीरूप से ग्रहण किया। इनसे छोटी शेष ग्यारह
कन्याएँ ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा,
सन्तति, अनसूया, ऊर्ज्जा,
स्वाहा और स्वधा थीं ॥२३ – २५॥
भृगर्गवो मरीचिश्च तथा चैवांगिरा
मुनिः ।
पुलस्त्यः पुलहश्चैव
क्रतुश्चर्षिवरस्तथा ॥२६॥
अत्रिर्वसिष्ठो वह्निश्च पितरश्च
यथाक्रमम् ।
ख्यात्याद्या जगृहुः कन्या मुनयो
मुनिसत्तम ॥२७॥
हे मुनिसत्तम ! इन ख्याति आदि
कन्याओं को क्रमशः भृगु, शिव, मरीचि, अंगिरा, पुलस्त्य,
पुलह, क्रतु, अत्रि,
वसिष्ठ – इन मुनियों तथा अग्नि और पितरों ने
ग्रहण किया ॥२६ – २७॥
श्रद्धा कामं चला दर्पं नियमं
धृतिरात्मजम् ।
सन्तोषं च तथा तुष्टिर्लोभं
पुष्टिरसूयत ॥२८॥
मेधा श्रुतं क्रिया दण्डं नयं
विनयमेव च ॥२९॥
बोधम बुद्धिस्तथा लज्जा विनयं
वपुरात्मजम् ।
व्यवसायं प्रजज्ञे वै क्षेमं
शान्तिरसूयत ॥३०॥
सुखं सिद्धिर्यशः कीर्त्तिरित्येते
धर्मसुनवः ।
कामद्रतिः सुतं हर्ष धर्मपौत्रमसूयत
॥३१॥
श्रद्धासे काम,
चला (लक्ष्मी) से दर्प, धृति से नियम, तुष्टि से संतोष और पुष्टि से लोभ की उत्पत्ति हुई तथा मेधासे श्रुत,
क्रियासे दंड, नय और विनय, बुद्धिसे बोध, लज्जासे विनय, वपुसे
उसका पुत्र व्यवसाय, शान्ति से क्षेम, सिद्धिसे
सुख और कीर्तिसे यशका जन्म हुआ; ये ही धर्म के पुत्र हैं। रतिने
कामसे धर्म के पौत्र हर्ष को उत्पन्न किया ॥२९ – ३१ ॥
हिंसा भार्या त्वधर्मस्य ततो जज्ञे
तथानृतम् ।
कन्या च निकृतिस्ताभ्यां भयं नरकमेव
च ॥३२॥
माया च वेदना चैव मिथूनं
त्त्विदमेतयोः ।
तयोर्जज्ञेऽथ वै माया मृत्युं
भूतापहारिणम् ॥३३॥
अधर्म की स्त्री हिंसा थी,
उससे अनृत नामक पुत्र और निकृति नामकी कन्या उत्पन्न हुई। उन
दोनोंसे भय और नरक नामके पुत्र तथा उनकी पत्नियाँ माया और वेदना नामकी कन्याएँ हुई।
उनमें से मायाने समस्त प्राणियों का संहारकर्ता मृत्यु नामक पुत्र उत्पन्न किया ॥३२
– ३३॥
वेदना स्वसुतं चापि दुःखं जज्ञेऽथ
रौरवात् ।
मृत्योर्व्याधिजराशोकतृष्णाक्रोधाश्च
जज्ञिरे ॥३४॥
दुःखोत्तराः स्मृता ह्योते सर्वे
चाधर्मलक्षणाः ।
नैषां पुत्रोऽस्ति वै भार्या ते
सर्वे ह्यूर्ध्वरेतसः ॥३५॥
वेद्नाने भी रौरव (नरक) के द्वारा
अपने पुत्र दुःख को जन्म दिया और मृत्युसे व्याधि, जरा, शोक, तृष्णा और क्रोध की
उत्पत्ति हुई । ये सब अधर्मरूप है और ‘दु:खोंत्तर’ नामसे प्रसिद्ध है, [क्योंकि इनसे परिणाम में दुःख
ही प्राप्त होता है ] इनके न कोई स्त्री है और न सन्तान । ये सब ऊर्ध्वरेता हैं ॥३५॥
रौद्राण्येतानि रूपाणि
विष्णोर्मुनिवरात्मज ।
नित्यप्रलयहेतुत्वं जगतोऽस्य
प्रयान्ति वै ॥३६॥
हे मुनिकुमार ! ये भगवान विष्णु के
बड़े भयंकर रूप है और ये ही संसार के नित्य-प्रलय के कारण होते है ॥३६॥
दक्षो मरीचिरत्रिश्च भृग्वाद्याश्च
प्रजेश्वराः ।
जगत्यत्र महाभाग नित्यसर्गस्य हेतवः
॥३७॥
मनवो मनुपुत्राश्च भुपा वीर्यधराश्च
ये ।
सन्मार्गनिरताः शुरास्ते सर्वे
स्थितिकारिणः ॥३८॥
हे महाभाग ! दक्ष,
मरीचि, अत्रि और भृगु आदि प्रजापतिगण इस जगत
के नित्य-सर्ग के कारण है तथा मनु और मनुके पराक्रमी, सन्मार्गपरायण
और शूर – वीर पुत्र राजागण इस संसार की नित्य-स्थिति के कारण
है ॥३८॥
श्रीमैत्रेय उवाच
येयं नित्या
स्थितिर्ब्रह्यान्नित्यसर्गस्तथेरितः ।
नित्याभावश्च तेषां वै स्वरूपं मम
कथ्यताम् ॥३९॥
श्रीमैत्रेयजी बोले ;–
हे ब्रह्मन ! आपने जो नित्य-स्थिति, नित्य-सर्ग
और नित्य-प्रलयका उल्लेख किया सो कृपा करके मुझसे इनका स्वरूप वर्णन कीजिये ॥३९॥
श्रीपराशर उवाच
सर्गस्थितिविनाशांश्च
भगवान्मधुसूदनः ।
तैस्तै रूपैरचिन्त्यात्मा
करोत्यवाहतो विभूः ॥४०॥
श्रीपराशरजी बोले ;–
जिनकी गति कहीं नहीं रूकती वे अचिंत्यात्मा सर्वव्यापक भगवान
मधुसुदन निरंतर इन मनु आदि रूपों से संसार की उत्पत्ति, स्थिति
और नाश करते रहते है ॥४०॥
नैमित्तिकः
प्राकृतिकस्तथैवात्यन्तिको द्विज ।
नित्यश्च सर्वभूतानां प्रलयोऽयं
चतुर्विधः ॥४१॥
ब्राह्मो नैमित्तिकस्तत्र शेतेऽयं
जगतीपतिः ।
प्रयाति प्राकृते चैव ब्रह्माण्डं
प्रकृतौ लयम् ॥४२॥
हे द्विज ! समस्त भूतों का चार
प्रकारका प्रलय है – नैमित्तिक, प्राकृतिक, आत्यंतिक और नित्य । उनमें से नैमित्तिक
प्रलय ही ब्राह्म – पल्य है, जिसमें
जगत्पति प्रलय में ब्रह्मांड प्रकृति में लीन हो जाता है ॥४२॥
ज्ञानादात्यान्तिकः प्रोक्तो योगिनः
परमात्मनि ।
नित्यः सदैव भूतानां यो विनाशो
दिवानिशम् ॥४३॥
ज्ञान के द्वारा योगी का परमात्मा
में लीन हो जाना आत्यंतिक प्रलय है और रात – दिन
जो भूतों का क्षय होता है वही नित्य – पल्य है ॥४३॥
प्रसूतिः प्रकृतेर्या तू सा सृष्टिः
प्राकृता स्मृता ।
दैनन्दिनी तथा प्रोक्ता
यान्तरप्रलयादनु ॥४४॥
भूतान्यनुदिनं यत्र जायन्ते
मुनिसत्तम ।
नित्यसर्गो हि स प्रोक्तः
पुराणार्थविचक्षणैः ॥४५॥
प्रकृति से महत्तत्त्वादि क्रम से
जो सृष्टि होती है वह प्राकृतिक सृष्टि कहलाती है और अवांतर- प्रलय के अनन्तर जो
[ब्रह्मा के द्वारा] चराचर जगत की उत्पत्ति होती है वह दैनन्दिनी सृष्टि कही जाती
है और हे मुनिश्रेष्ठ ! जिसमें प्रतिदिन प्राणियों की उत्पत्ति होती रहती है उसे
पुराणार्थ में कुशल महानुभावों ने नित्य – सृष्टि
कहा है ॥ ४५ ॥
एवं सर्वशरीरेषु भगवान्भूतभावनः ।
संस्थितः कुरुते
विष्णुरुप्तत्तिस्थितिसंयमान् ॥४६॥
इसप्रकार समस्त शरीर में स्थित
भूतभावन भगवान विष्णु जगत की उत्पत्ति, स्थिति
और प्रलय करते रहते है ॥४६॥
सृष्टिस्थितिविनाशानं शक्तयः
सर्वदेहिषु ।
वैष्णव्यः परिवर्त्तन्ते
मैत्रेयाहर्निशं समाः ॥४७॥
हे मैत्रेय ! सृष्टि,
स्थिति और विनाशकी इन वैष्णवी शक्तियों का समस्त शरीरों में समान
भावसे अहर्निश संचार होता रहता है ॥४७॥
गुणत्रयमयं ह्योतद्बह्मान
शक्तित्रयं महत् ।
योऽतियाति स यात्येव परं नावर्त्तते
पुनः ॥४८॥
हे ब्रह्मन ! ये तीनों महती
शक्तियाँ त्रिगुणमयी हैं; अत: जो उन तीनों
गुणों का अतिक्रमण कर जाता है वह परमपद को ही प्राप्त कर लेता है, फिर जन्म – मरणादि के चक्र में नहीं पड़ता ॥४८॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे
सप्तमोऽध्यायः॥
आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण अध्याय 8
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