विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ६

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ६    

विष्णु पुराण के प्रथम अंश के अध्याय ६ में चातुर्वर्ण्यं-व्यवस्था, पृथ्वी-विभाग और अन्नादि की उत्पत्ति का वर्णन है।

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ६

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ६    

Vishnu Purana first part chapter 6

विष्णुपुराणम् प्रथमांशः षष्ठोऽध्यायः  

विष्णुपुराणम्/प्रथमांशः/अध्यायः ६

श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश छटा अध्याय

श्रीमैत्रेय उवाच

अर्वाक्स्त्रोतास्तु कथितो भवता यस्तु मानुषः ।

ब्रह्मन्विस्तरतो ब्रूहि ब्रह्मा तमसृजद्यथा ॥१॥

यथा च वर्णानसॄजद्यद्‍गुणांश्च प्रजापतिः ।

यज्च तेषां स्मृतं कर्म विप्रादीनां तदुच्यताम् ॥२॥

श्रीमैत्रेयजी बोले :हे भगवन ! आपने जो अर्वाक-स्त्रोता मनुष्यों के विषय में कहा उनकी सृष्टि ब्रह्माजी ने किसप्रकार की यह विस्तारपूर्वक कहिये श्रीप्रजपति ने ब्राह्मणादि वर्ण को जिन-जिन गुणों से युक्त और जिसप्रकार रचा था उनके जो-जो कर्तव्य-कर्म निर्धारित किये वह सब वर्णन कीजिये!

श्रीपराशर उवाच

सत्याभिध्यायिनः पूर्व सिसृक्षोर्ब्रह्मणो जगत् ।

अजायन्त द्विजश्रेष्ठ सत्त्वोद्रिक्ता मुखात्प्रजाः ॥३॥

वक्षसो रजसोद्रिक्तास्तथा वै ब्रह्मणोऽभवन् ।

रजसा तमसा चैव समुद्रिक्तस्तथोरुतः ॥४॥

पद्भ्‌यामन्याः प्रजा ब्रह्मा ससर्ज द्विजसत्तम ।

तमः प्रधानास्ताः सर्वाश्चातुर्वर्ण्यमिदं ततः ॥५॥

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च द्विजसत्तम ।

पादोरुवक्षःस्थलतो मुखतश्च्स समुद्गताः ॥६॥

श्रीपराशरजी बोले :हे द्विजश्रेष्ठ ! जगतरचना की इच्छा से युक्त सत्यसंकल्प श्रीब्रह्माजी के मुख से पहले सत्त्वप्रधान प्रजा उत्पन्न हुई ,तदनन्तर उनके वक्ष:स्थल से रज:प्रधान तथा जंघाओं से रज और तमविशिष्ट सृष्टि हुई । हे द्विजोतम ! चरणों से ब्रह्माजी ने एक और प्रकार की प्रजा उत्पन्न की, वह तम:प्रधान थी ये ही सब चारों वर्ण हुएइसप्रकार हे द्विजसत्तम ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र ये चारों क्रमश: ब्रह्माजी के मुख, वक्ष:स्थल, जानू और चरणों से उत्पन्न हुए।

यज्ञविष्पत्तये सर्वमेतद् ब्रह्मा चकार वै ।

चातुर्वर्ण्यं महाभाग यज्ञसाधनमुत्तमम् ॥७॥

यज्ञैराप्यायिता देवा वृष्ट्युत्सर्गेण वै प्रजाः ।

आप्याययन्ते धर्मज्ञ यज्ञाः कल्याणहेतवः ॥८॥

निष्पाद्यन्ते नरैस्तैस्तु स्वधर्माभिरतैस्सदा ।

विशुद्धाचरणोपेतैः सिद्भिः सन्मार्गगामिभिः ॥९॥

स्वर्गापवर्गों मानुष्यात्प्रप्रुवन्ति नरा मुने ।

यत्र्चभिरुचितं स्थानं तद्यान्ति मनुज द्विज ॥१०॥

हे महाभाग ! ब्रह्माजी ने यज्ञानुष्ठान के लिये ही यज्ञ के उत्तम साधनरूप इस सम्पूर्ण चातुर्वर्ण्य की रचना की थी , हे धर्मज्ञ ! यज्ञ से तृप्त होकर देवगण जल बरसाकर प्रजा को तृप्त करते है; अत: यज्ञ सर्वथा कल्याणका हेतु है। जो मनुष्य सदा स्वधर्मपरायण, सदाचारी, सज्जन और सुमार्गगामी होते है उन्हींसे यज्ञका यथावत अनुष्ठान हो सकता है। हे मुने ! यज्ञ के द्वारा मनुष्य इस मनुष्य-शरीर से ही स्वर्ग और अपवर्ग प्राप्त कर सकते है; तथा और भी जिस स्थान की उन्हें इच्छा हो उसीको जा सकते है ।

प्रजास्ता ब्रह्मणा सृष्टाश्चातुर्वर्ण्यव्यवस्थिताः ।

सम्यक्छ्र्द्धासमाचारप्रवणा मुनिसत्तम ॥११॥

यथेच्छावासनिरताः सर्वबाधाविवर्जिताः ।

शुद्धान्तःकरणाः शुद्धाः कर्मानुष्थाननिर्मलाः ॥१२॥

शुद्धे च तासां मनसि शुद्धेऽन्तः संस्थिते हरौ ।

शुद्धज्ञानं प्रपश्यन्ति विष्णवाख्यं येन तप्तदम् ॥१३॥

ततः कालात्मको योऽसौ स चांशः कथितो हरेः ।

स पातयत्यघं घोरमल्पमल्पाल्पसारवत् ॥१४॥

हे मुनिलत्तम ! ब्रह्माजीद्वारा रची हुई वह चातुर्वर्ण्य-विभाग में स्थित प्रजा अति श्रद्धायुक्त आचरणवाली, स्वेच्छानुसार रहनेवाली, सम्पूर्ण बाधाओं से रहित, शुद्ध अंत:करणवाली, सत्कुलोत्पत्र और पुण्य कर्मों के अनुष्ठान से परम पवित्र थी, उसका चित्त शुद्ध होने के कारण उसमें निरंतर शुद्धस्वरूप श्रीहरि के विराजमान रहने से उन्हें शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता था जिससे वे भगवान के उस विष्णुनामक परम पदको देख पाते थे, फिर (त्रेतायुग के आरम्भ में ), हमने तुमसे भगवान के जिस काल नामक अंश का पहले वर्णन किया है, वह अति अल्प सारवाले (सुखवाले) तुच्छ और घोर (दुःखमय) पापों को प्रजा में प्रवृत्त कर देता है।

अधर्मबीजसमुद्भूतं तमोलोभसमुद्भवम् ।

प्रजासु तासु मैत्रेय रागादिकमसाधकम् ॥१५॥

ततः सा सहजा सिद्धिस्तासां नातीव जायते ।

रसोल्लासादयश्चान्याः सिद्धयोऽष्टौ भवन्ति याः ॥१६॥

हे मैत्रेय ! उससे प्रजा में पुरुषार्थ का विघातक तथा अज्ञान और लोभ को उत्पन्न करनेवाला रागादिरूप अधर्म का बीज उत्पन्न हो जाता है। तभी से उसे वह विष्णु-पद-प्राप्ति-रूप स्वाभाविक सिद्धि और रसोल्लास आदि अन्य अष्टसिद्धियाँ* नहीं मिलती।

* रसोल्लासादि अष्ट सिद्धियों का वर्णन स्कन्दपुराण में इस प्रकार किया है -

रसस्य स्वत एवान्तरूल्लासः स्याकृते युगे ।

रसोल्लासाख्यिक सिद्धिस्तया हन्ति क्षुधं नरः ॥

स्त्र्यादीनां नैरपेक्ष्येण सदा तृप्ता प्रजास्तथा ।

द्वितीया सिद्धिरुद्दिष्टा सा तृत्पिर्मुनिसत्तमैः ॥

धर्मौत्तमश्च योऽस्त्यासां सा तृतीयाऽमिधीयते ।

चतुर्थी तुल्यता तासामायुषः सुखरूपयोः ॥

ऐकान्त्यबलबाहुल्यं विशोका नाम पत्र्चमी ।

परमात्मपरत्वेन तपोध्यानादिनिष्ठिता ॥

षष्ठी च कामचारित्वं सप्तमी सिद्धिरुच्यते ।

अष्टमी च तथा प्रोक्ता यत्रक्क्चनशायिता ॥

अर्थ- सत्ययुगमें रसका स्वयं ही उल्लास होता था । यहीं रसोल्लास नामकी सिद्धि है, उसके प्रभावसे मनुष्य भूखको नष्ट कर देता है । उस समय प्रजा स्त्री आदि भोगोंकी अपेक्षाके बिना ही सदा तृप्त रहती थी; इसीको मुनिश्रेष्ठोंने 'तृप्ति' नामक दूसरी सिद्धि कहा है । उनका जो उत्तम धर्म था वही उनकी तीसरी सिद्धि कही जाती है । उस समय सम्पूर्ण प्रजाके रूप और आयु एक-से थे, यही उनकी चौथी सिद्धि था । बलकी ऐकान्तिकी अधिकता- यह विशोका नामकी पाँचवीं सिद्धि है । परमात्मपरायण रहते हुए तप ध्यानादिमें तप्तर रहना छठी सिद्धि है । स्वेच्छानुसार विचरना सातवीं सिद्धि कही जाती है तथा जहाँ तहाँ मनकी मौज पडे़ रहना आठवीं सिद्धि कही गयी है ।

तासु क्षीणास्वशेषासु वर्द्धमाने च पातके ।

द्वन्द्वाभिभवदुः खार्तास्ता भवन्ति ततः प्रजाः ॥१७॥

ततो दुर्गाणि ताश्चक्रुर्धान्वं पार्वतमौदकम् ।

कृत्रिमं च तथा दुर्गं पुरखर्वटकादिकम् ॥१८॥

गृहाणि च यथान्यायं तेषु चक्रुः पुरादिषु ।

शीतातपादिबाधानां प्रशमाय महामते ॥१९॥

उन समस्त सिद्धियों के क्षीण हो जाने और पाप के बढ़ जाने से फिर सम्पूर्ण प्रजा द्वन्द,ह्रास और दुःख से आतुर हो गयी, तब उसने मरुभूमि, पर्वत और जल आदि के स्वाभाविक तथा कृत्रिम दुर्ग और पुर तथा खर्वट* आदि स्थापित किये। हे महामते ! उन पुर आदिकों में शीत और घाम आदि बाधाओं से बचने के लिये उसने यथायोग्य घर बनाये।

* पहाड़ या नदीके तटपर बसे हुए छोटे-छोटे टोलोंको 'खर्वट' कहते हैं ।

प्रतीकारमिमं कृत्वा शीतादेस्ताः प्रजाः पुनः ।

वार्तोपायं ततश्चक्रुर्हस्तसिद्धिं च कर्मजाम् ॥२०॥

इसप्रकार शीतोष्णादि बचने का उपाय करके उस प्रजाने जीविका के साधनरूप कृषि तथा कला-कौशल आदिकी रचना की ।

व्रीहयश्च यवाश्चैव गोधूमाश्चाणवस्तिलाः ।

प्रियंगवो ह्युदाराश्च कोरदूषाः सतीनकाः ॥२१॥

माषा मुद्गा मसूराश्च निष्पावाः सकुलत्थकाः ।

आढक्यश्चणकाश्चैव शणाः सप्तदश स्मृताः ॥२२॥

इत्येता ओषधीनां तु ग्राम्यानां जातयो मुने ।

ओषध्यो यज्ञियाश्चैव ग्राम्यारण्याश्चतुर्दश ॥२३॥

व्रीहयस्सयवा माषा गोधूमाश्चाणवस्तिलाः ।

प्रियड्गुसप्तमा ह्योते अष्टमास्तु कुलत्थकाः ॥२४॥

श्यामाकास्त्वथ नीवारा जर्तिलाः सगवेधुकाः ।

तथा वेणुयवाः प्रोक्तास्तथा मर्कटका मुने ॥२५॥

ग्राम्यारण्याः स्मृता ह्योता ओषध्यस्तु चतुर्दश ।

यज्ञनिष्पत्तये यज्ञस्तथासां हेतुरुत्तमः ॥२६॥

हे मुने ! धान, जौ, गेहूँ, छोटे धान्य, तिल, कांगनी, ज्वार, कोदो, छोटी मटर, उड़द, मूँग, मसूर, बड़ी मटर, कुलथी, राई, चना और सन ये सत्रह ग्राम्य ओषधियों की जातियाँ है ग्राम्य और वन्य दोनों प्रकार की मिलाकर कुल चौदह ओषधियाँ याज्ञिक है ,उनके नाम ये है धान, जौ, उड़द, गेहूँ, छोटे धान्य, तिल, काँगनी और कुलथी ये आठ तथा श्यामक, नीबार, वनतिल, गवेधु, वेणुयव और मर्कट (मक्का) ये चौदह ग्राम्य और वन्य ओषधियाँ यज्ञानुष्ठान की सामग्री है और यज्ञ इनकी उत्पत्ति का प्रधान हेतु है।

एताश्च सह यज्ञेन प्रजानां कारणं परम् ।

परावरविदः प्राज्ञास्ततो यज्ञान्वितन्वते ॥२७॥

अहन्यहन्यनुष्ठानं यज्ञानां मुनिसत्तम ।

उपकारकरं पुंसां क्रियामाणाघशान्तिदम् ॥२८॥

यज्ञों के सहित ये ओषधियाँ प्रजाकी बुद्धि का परम कारण है इसलिये इहलोक-परलोक के ज्ञाता पुरुष यज्ञों का अनुष्ठान किया करते हैं । हे मुनिश्रेष्ठ ! नित्यप्रति किया जानेवाला यज्ञानुष्ठान मनुष्यों का परम उपकारक और उनके किये हुए पापों को शांत करनेवाला है।

येषां तु कालसृष्टोऽसौ पापबिन्दुर्महामुने ।

चेतःसु ववृधे चक्रुस्ते न यज्ञेषु मानसम् ॥२९॥

वेदवादांस्तथा वेदान्यज्ञकर्मादिकं च यत् ।

तत्सर्व निन्दयासुर्यज्ञव्यासेधकारिणः ॥३०॥

प्रवृत्तिमार्गव्युच्छित्तिकारिणो वेदनिन्दकाः ।

दुरात्मानो दुराचार बभूवुः कुटिलाशयाः ॥३१॥

हे महामुने ! जिनके चित्त में काल की गति से पाप का बीज बढ़ता है उन्हीं लोगों का चित्त यज्ञ में प्रवृत्त नहीं होता उन यज्ञ के विरोधियों ने वैदिक मत, वेद और यज्ञादि कर्म सभी की निंदा की है। वे लोग दुरात्मा, दुराचारी, कुटिलमति, वेद-विनिन्द्क और प्रवृत्तिमार्ग का उच्छेद करनेवाले ही थे।

संसिद्धायां तु वार्तायां प्रजाः सृष्टा प्रजापतिः ।

मर्यादा स्थापयामास यथास्थानं यथागुणम् ॥३२॥

वर्णानामाश्रमाणां च धर्मान्धर्मभृतां वर ।

लोकांश्च सर्ववर्णानां सम्यग्धर्मानुपालिनाम् ॥३३॥

प्राजापत्यं ब्राह्मणानां स्मृतं स्थानं क्रियावताम् ।

स्थानमैन्द्रं क्षत्रियाणां संग्रामेष्वनिवर्तिनाम् ॥३४॥

वैश्यानां मारुतं स्थानं स्वधर्ममनुवर्तिनाम ।

गान्धर्व शूद्रजातीनां परिचर्यानुवर्तिनाम् ॥३५॥

हे धर्मवानों में श्रेष्ठ मैत्रेय ! इसप्रकार कृषि आदि जीविका के साधनों के निश्चित हो जानेपर प्रजापति ब्रह्माजी ने प्रजा की रचना कर उनके स्थान और गुणों के अनुसार मर्यादा, वर्ण और आश्रमों के धर्म तथा अपने धर्म का भलीप्रकार पालन करनेवाले समस्त वर्णों के लोक आदि की स्थापना की कर्मनिष्ठ ब्राह्मणों का स्थान पितृलोक है, युद्ध-क्षेत्र कभी न हटनेवाले क्षत्रियों का इंद्रलोक है। तथा अपने धर्म का पालन करनेवाले वैश्यों का वायुलोक और सेवाधर्मपरायण शूद्रों का गन्धर्वलोक है ।

अष्टाशीतिसहस्त्राणि मुनीनामूर्ध्वरेतसाम् ।

स्मृतं तेषां तु यत्स्थानं तदेव गुरुवासिनाम् ॥३६॥

सप्तर्षीणां तु यत्स्थानं स्मृतं तद्वै वनौकसाम् ।

प्राजापत्यं गॄहस्थानां न्यासिनां ब्रह्मासंज्ञितम् ॥३७॥

योगिनाममृतं स्थानं स्वात्मसन्तोषकारिणाम् ॥३८॥

अठ्ठासी हजार ऊर्ध्वरेता मुनि है; उनका जो स्थान बताया गया है वही गुरुकुलवासी ब्रह्मचारियों का स्थान है। इसीप्रकार वनवासी वानप्रस्थों का स्थान सप्तर्षिलोक, गृहस्थों का पितृलोक और सन्यासियों का ब्रह्मलोक है तथा आत्मानुभव से तृप्त योगियों का स्थान अमरपद (मोक्ष) है ।

एकान्तिनः सदा ब्रह्माध्यायिनो योगिनश्च ये ।

तेषां तु परमं स्थानं यत्तत्पश्यन्ति सूरयः ॥३९॥

गत्वा गत्वा निवर्त्तन्ते चन्द्रसूर्यादयो ग्रहाः ।

अद्यापि न निवर्त्तन्ते द्वादशाक्षरचिन्तकाः ॥४०॥

जो निरंतर एकांतसेवी और ब्रह्मचिन्तन में मग्न रहनेवाले योगिजन है उनका जो परमस्थान है उसे पंडितजन ही देख पाते हैं । चन्द्र और सूर्य आदि ग्रह भी अपने-अपने लोकों में जाकर फिर लौट आते हैं, किन्तु द्वादशाक्षर मन्त्र (ॐ  नमो भगवते वासुदेवाय ) का चिन्तन करनेवाले अभीतक मोक्षपद से नही लौटे ।

तामिस्त्रमन्धतामिस्त्रं महारौरवरौरवौ ।

असिपत्रवनं घोरं कालसुत्रमवीचिकम् ॥४१॥

विनिन्दकानां वेदस्य यज्ञव्याघातकारिणाम् ।

स्थानमेतत्समाख्यातं स्वधर्मत्यागिनश्च ये ॥४२॥

तामिस, अन्धतामिस्त्र, महारौरव, रौरव, असिपत्रवन, घोर, कालसूत्र और अवीचिक आदि जो नरक है, वे वेदों की निंदा और यज्ञों का उच्छेद करनेवाले तथा स्वधर्म-विमुख पुरुषों के स्थान कहे गये हैं।

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे षष्ठोऽध्यायः

आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण अध्याय 7

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