विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ५

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ५   

विष्णु पुराण के प्रथम अंश के अध्याय ५ में अविद्यादि विविध सर्गों का वर्णन है।

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ५

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ५   

Vishnu Purana first part chapter 5

विष्णुपुराणम् प्रथमांशः पञ्चमोऽध्यायः  

विष्णुपुराणम्/प्रथमांशः/अध्यायः

श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश चौथा अध्याय

श्रीमैत्रेय उवाच

यथा ससर्ज देवोऽसौ देवर्षिपितृदानवान् ।

मनुष्यतिर्यग्वृक्षादीन्भूव्योमसलिलौकसः ॥१॥

यद्गुणं यत्स्वभावं च यद्रूपं च जगद्‌द्विज ।

सर्गादौ सृष्टवान्ब्रह्मा तन्ममाचक्ष्व कृत्स्नशः ॥२॥

श्रीमैत्रेयजी बोले- हे द्विजराज ! सर्गके आदिमें भगवान् ब्रह्माजीने पृथिवी, आकाश और जल आदिमें रहनेवाले देव, ऋषि, पितृगण, दानव, मनुष्य, तिर्यक और वृक्षादिको जिस प्रकार रचा तथा जैसे गुण, स्वभाव और रूपवाले जगत्‌की रचना की वह सब आप मुझसे कहिये ॥१-२॥

श्रीपराशर उवाच

मैत्रेय कथायाम्येतच्छृणुष्व सुसमाहितः ।

यथा ससर्ज देवोऽसौ देवादीनखिलान्विभुः ॥३॥

श्रीपराशरजी बोले - हे मैत्रेय ! भगवान् विभुने जिस प्रकार इस सर्गकी रचना की वह मैं तुमसे कहता हूँ; सावधान होकर सुनो ॥३॥

सृष्टिं चिन्तयतस्तस्य कल्पादिषु यथा पुरा ।

अबुद्धिपूर्वकः सर्गः प्रादुर्भूतस्तमोमयः ॥४॥

सर्गके आदिमें ब्रह्माजीके पूर्ववत्‌ सृष्टिका चिन्तन करनेपर पहले अबुद्धिपूर्वक (अर्थात् पहले-पहल असावधानी हो जानेसे) तमोगुणी सृष्टिका आविर्भाव हुआ ॥४॥

तमो मोहो महामोहस्तामिस्त्रो ह्मन्धसंज्ञितः ।

अविद्या पत्र्चपर्वैषा प्रादुर्भूता महात्मनः ॥५॥

उस महात्मासे प्रथम तम ( अज्ञान ) , मोह, महामोह ( भोगेच्छा ), तामिस्त्र ( क्रोध ) और अन्धातामिस्त्र (अभिनिवेश ) नामक पत्र्चपर्वा ( पाँच प्रकारकी ) अविद्या उप्तन्न हुई ॥५॥

पत्र्चधाऽवस्थितः सर्गो ध्यायतोऽप्रतिबोधवान् ।

बहिरन्तोऽप्रकाशश्च संवृतात्मा नगात्मकः ॥६॥

उसके ध्यान करनेपर ज्ञानशून्य बाहर भीतरसे तमोमय और जड नगादि ( वृक्ष-गुल्म-लता-वीरुत्-तृण ) रूप पाँच प्रकारका सर्ग हुआ ॥६॥

मुख्या नगा यतः प्रोक्ता मुख्यसर्गस्ततस्त्वयम् ॥७॥

 ( वराहजीद्वारा सर्वप्रथम स्थापित होनेके कारण ) नगादिको मुख्य कहा गया है, इसलिये यह सर्ग भी मुख्य सर्ग कहलाता है ॥७॥

तं दृष्टाऽसाधकं सर्गममन्यदपरं पुनः ॥८॥

तस्याभिध्यायतः सर्गस्तिर्यकस्त्रोताभ्यवर्त्तत ।

यस्मात्तिर्यक्‌प्रवृत्तिस्स तिर्यक्‌स्त्रोतास्ततः स्मृतः ॥९॥

उस सृष्टिको पुरुषार्थकी आसाधिका देखकर उन्होने फिर अन्य सर्गके पुरुषार्थकी असाधिका देखकर उन्होंने फिर अन्य सर्गके लिये ध्यान किया तो तिर्यक् - स्त्रोत- सृष्टि उप्तन्न हुई । यह सर्ग ( वायुके समान ) तिरछा चलनेवाला है इसलिये तिर्यक् स्त्रोत कहलाता है ॥८-९॥

पश्वादयस्ते विख्यातास्तमः प्राया ह्मवेदिनः ।

उप्तथग्राहिणश्चैव तेऽज्ञाने ज्ञानमानिनः ॥१०॥

अहड्‌कृता अहम्मना अष्टांविंशद्वधात्मकाः ।

अन्तः प्रकाशास्ते सर्वे आवृताश्च परस्परम् ॥११॥

ये पशु, पक्षी आदि नामसे प्रसिद्ध हैं - और प्रायः तमोमय ( अज्ञानी ),विवेकरहित अनुचित मार्गका अवलाम्बन करनेवाले और विपरीत ज्ञानको ही यथार्थ ज्ञान माननेवाले होते हैं । ये सब अहंकारी, अभिमानी, अट्ठाईस वधोंसे युक्त* आन्तरिक सुख आदिको ही पूर्णतया समझनेवाले और परस्पर एकदूसरेकी प्रवृत्तिको न जाननेवाले होते हैं ॥१०-११॥

* सांख्य कारिका में अट्ठाईस वधों का वर्णन इस प्रकार किया है -

एकादशेन्द्रियवधाः सह बुद्धिवधैरशक्तिरुद्दिष्टा ।

सप्तदश वधा बुद्धेर्विपर्ययात्तुष्टिसिद्धीनाम् ॥

आध्यात्मिक्यश्चतस्त्रः प्रकृत्युपादानकालभाग्याख्याः ।

बाह्मा विषयोपरमात् पत्र्च च नव तृष्टयोऽभिमताः ॥

ऊहः शब्दोऽध्ययनं दुःखविघातास्त्रयः सुहृत्प्राप्तिः ।

दानत्र्च सिद्धयोऽष्टौ सिद्धेः पूर्वोऽड्कुशस्त्रिविधा ॥ (४९-५१)

ग्यारह इन्द्रियवध और तुष्टि तथा सिद्धि के विपर्यय से सत्रह बुद्धी वध- ये कुल अट्ठाईस वध अशक्ति कहलाते हैं । प्रकृति, उपादान, काल और भाग्य नामक चार अध्यात्मिक और पाँचों ज्ञानेंन्द्रियों के बाह्य विषयों के निवृत्त हो जाने से पाँच बाह्य इस प्रकार कुल नौ तुष्टियाँ हैं तथा ऊहा, शब्द अध्ययन, (आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक) तीन दुःखविघात, सुहृत्प्राप्ति और दान ये आठ सिद्धियाँ हैं । ये (इन्द्रियाशक्त, तृष्टि, सिद्धिरूप) तीनों वध मुक्ति से पूर्व विघ्ररूप हैं ।

अन्धत्व वधिरत्वादि से लेकर पागलपन तक मन सहित ग्यारह इन्द्रियों की विपरित अवस्थाएँ ग्यारह इन्द्रियवध हैं।

आठ प्रकर की प्रकृति में से किसी में चित्त का लय हो जाने से अपने को मुक्त मान लेना प्रकॄति नामवाली तूष्टि है । संन्यास से ही अपने को कृतार्थ मान लेना उपादान नाम की तृष्टि है । समय आने पर स्वयं ही सिद्धि लाभ हो जायगी, ध्यानादि क्लेश की क्या आवश्यकता है - ऐसा विचार 'भाग्य' नाम की तुष्टि है । ये चारों का आत्मा से सम्बन्ध है; अतः ये आध्यात्मिक तुष्टियाँ हैं । पदार्थों के उपार्जन, रक्षण और व्यय आदि में दोष देखकर उनसे उपराम हो जाना बाह्म तुष्टियाँ हैं । शब्दादि ब्राह्म विषय पाँच हैं, इसलिये ब्राह्म तुष्टियाँ भी पाँच ही हैं । इस प्रकार कुल नौ तुष्टियाँ है ।

उपदेश की अपेक्षा न करके स्वयं ही परमार्थ का निश्चय कर लेना 'ऊहा' सिद्धि है । प्रसंगवश कहीं कुछ सुनकर उसी से ज्ञानिसिद्धि मान लेना शब्द सिद्धि है । गुरु से पढ़्कर ही वस्तु प्राप्त हो गयी- ऐसा मान लेना ' अध्ययन सिद्धि है । आध्यात्मिकादि त्रिविध दूःखों का नाश हो जाना तीन प्रकार की 'दुःखविघात' सिद्धि है । अभीष्ट पदार्थ की प्राप्ति हो जाना 'सुहॄत्प्राप्ति' सिद्धि है । तथा विद्वान् या तपस्वियों का संग प्राप्त हो जाना 'दान' नाम का सिद्धि है । इस प्रकार ये आठ सिद्धियाँ हैं ।

तमप्यसाधकं मत्वा ध्यायतोऽन्यस्ततोऽभवत् ।

ऊर्ध्वस्त्रोतास्तृतीयस्तु सात्त्विकोर्ध्वमार्त्तत ॥१२॥

उस सर्गको भी पुरुषार्थका असाधक समझ पुनः चिन्तन करनेपर एक और सर्ग हुआ । वह ऊर्ध्व-स्त्रोतनामक तीसरा सात्विक सर्ग ऊपरके लोकोंमे रहने लगा ॥१२॥

ते सुखप्रीतिबहुला बहिरन्तस्त्वनावृताः ।

प्रकाशा बहिरन्तश्च ऊर्ध्वस्त्रोतोद्भवाः स्मृताः ॥१३॥

वे ऊर्ध्व स्त्रोत सृष्टिमें उप्तन्न हुए प्राणी विषय-सुखके प्रेमी, बाह्य और आन्तरिक दृष्टिसम्पन्न, तथा बाह्म और आन्तरिक ज्ञानयुक्त थे ॥१३॥

तृष्टात्मनस्तृतीयस्तु देवसर्गस्तु स स्मृतः ।

तस्मिन्सर्गेऽभवत्प्रीतिर्निष्पन्ने ब्रह्माणस्तदा ॥१४॥

यह तीसरा देवसर्ग कहलाता है । इस सर्गके प्रादुर्भूत होनेसे सन्तृष्टचित्त ब्रह्माजीको अति प्रसन्नता हुइ ॥१४॥

ततोऽन्यं स तदा दध्यौ साधकं सर्गमुत्तमम् ।

असाधकांस्तु तात्र्ज्ञात्वा मुख्यसर्गादिसम्भवान् ॥१५॥

फिर, इन मुख्य सर्ग आदि तीनो प्रकारकीक सृष्टीयोंमें उप्तन्न हुए प्राणियोंको पुरुषार्थका असाधक जान उन्होंने एक और उत्तम साधक सर्गके लिये चिन्तन किया ॥१५॥

तथाभिध्यायतस्तस्य सत्याभिध्यायिनस्ततः ।

प्रादुर्बभूव चाव्यक्तादर्वाक्स्त्रोतास्तु साधकः ॥१६॥

उन सत्यसंकल्प ब्रह्माजीके इस प्रकार चिन्तन करनेपर अव्यक्त ( प्रकृति ) से पुरुषार्थका साधक अर्वाक्स्त्रोत नामक सर्ग प्रकट हुआ ॥१६॥

यस्मादर्वाग्व्यार्त्तन्त ततोऽर्वाक्स्त्रोतसस्तु ते ।

ते च प्रकासहुलास्तमोद्रिक्ता रजोऽधिकाः ॥१७॥

इस सर्गके प्राणे, नीचे ( पृथिवीपर ) रहते हैं इसलिये वे 'अर्वाक् स्त्रोत' कहलाते हैं । उनमें सत्त्व, रज और तम तीनोंहीकी अधिकता होती है ॥१७॥

तस्माते दुःखबहुला भूयोभुयश्च कारिणः ।

प्रकाशा बहिरन्तश्च मनुष्याः साधकास्तु ते ॥१८॥

इसलिये वे दुःखबहुल, अत्यन्त क्रियाशील एवम बाह्म-आभ्यन्तर ज्ञानसे युक्त और साधक हैं । इस सर्गके प्राणी मनुष्य हैं ॥१८॥

इत्येते कथिताः सर्गाः षडत्र मुनिसत्तम ।

प्रथमो महतः सर्गो विज्ञेयो ब्रह्मणस्तु सः ॥१९॥

हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार अबतक तुमसे छः सर्ग, कहे । उनमें महत्तत्वको ब्रह्माका पहला सर्ग जानना चाहिये ॥१९॥

तन्मात्राणां द्वितीयश्च भूतसर्गो हि स स्मृतः ।

वैकारिकस्तुतीयस्तु सर्ग ऐन्द्रियकः स्मृतः ॥२०॥

दूसरा सर्ग तन्मात्राओं का है, जिसे भुतसर्ग भी कहते हैं और तीसरा वैकारिक सर्ग है जो ऐन्द्रियिक ( इन्द्रिय सम्बन्धी ) कहलाता है ॥२०॥

इत्येष प्राकृतः सर्गः सम्भूतो बुद्धिपूर्वकः ।

मुख्यसर्गश्चतुर्थस्तु मुख्या वै स्थावराः स्मृताः ॥२१॥

इस प्रकार बुद्धीपूर्वक उप्तन्न हुआ यह प्राकृत सर्ग हुआ । चौथा मुख्यसर्ग है । पर्वत-वृक्षादि स्थावर ही मुख्य सर्गके अन्तर्गत हैं ॥२१॥

तिर्यक्स्त्रोतास्तु यः प्रोक्तस्तैर्यग्योन्यः स उच्यते ।

तदूर्ध्वस्त्रोतसां षष्ठो देवसर्गस्तु संस्मृतः ॥२२॥

ततोऽर्वाक्स्त्रोतसां सर्गः सप्तमः स तु मानुषः ॥२३॥

पाँचवाँ जो तिर्यक्‌स्त्रोत बतलाया उसे तिर्यक ( कीट पतंगादि ) योनि भी कहते हैं । फिर छठा सर्ग ऊर्ध्व स्त्रोताओंका है जो देवसर्ग कहलाता है । उसके पश्चात् सातवाँ सर्ग अर्वाक् - स्त्रोताओंका है, वह मनुष्य सर्ग है ॥२२-२३॥

अष्टमोऽनुग्रहः सर्गः सात्त्विकस्तामसश्च सः ।

पत्र्चैते वैकृतः सर्गाः प्राकृतास्तुत्रयः स्मृता ॥२४॥

आठवाँ अनुग्रह सर्ग है । वह सात्त्विक और तामसिक है । ये पाँच वैकृत ( विकारी ) सर्ग हैं और पहले तीन प्राकृत सर्ग कहालाते हैं ॥२४॥

प्राकृतो वैकृतश्र्चैव कौमारो नवमः स्मृतः ।

इत्येते वै समाख्याता नव सर्गाः प्रजापतेः ॥२५॥

प्राकृता ऐकृताश्चैव जगतो मुलहेतवः ।

सृजतो जगदीशस्य किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ॥२६॥

नवाँ कौमार- सर्ग है जो प्राकृत और वैकृत भी है । इस प्रकार सृष्टी रचनामें प्रवृत्त हुए जगदीश्वर प्रजापतिके प्राकृत और वैकृत नामक ये जगत्‌के मूलभूत नौ सर्ग तुम्हें सुनाये । अब और क्या सुनन जगत्‌के मूलभूत नौ सर्ग तुम्हें सुनाये । अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥२५-२६॥

श्रीमैत्रेय उवाच

संक्षेपात्कथितः सर्गो देवादीनां मुने त्वया ।

विस्तराच्छ्रोतुमिच्छामि त्वतो मुनिवरोत्तम ॥२७॥

श्रीमैत्रेयजी बोले- हे मुने ? आपने इन देवादिकोंके सर्गोका संक्षेपसे वर्णन किया । अब, हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं इन्हें आपके मुखारविन्दसे विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ ॥२७॥

श्रीपराशर उवाच

कर्मभिर्भाविताः पूर्वैः कुशलाकुशलैस्तु ताः ।

रव्यात्या तया ह्मनिर्मुक्ताः संहारे ह्यूपसंहृताः ॥२८॥

श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय ! सम्पूर्ण प्रजा अपने पुर्व शुभाशुभ कर्मोसे युक्त है; अतः प्रलयकालमें सबका लय होनेपर भी वह उनके संस्कारोंसे मुक्त नहीं होती ॥२८॥

स्थावरान्ताः सुराद्यास्तु प्रजा ब्रह्मांश्र्चतुर्विधाः ।

ब्रह्मणः कुर्वतः सृष्टिं जज्ञिरे मानसास्तु ताः ॥२९॥

हे ब्रह्मन ! ब्रह्माजीके सृष्टि कर्ममें प्रवृत्त होनेपर देवताओंसे लेकर स्थावरपर्यन्त चार प्रकारकी सृष्टि हुई । वह केवल मनोमयी थी ॥२९॥

ततो देवासुरपितॄन्मनुष्यांश्च चतुष्टयम ।

सिसृक्षुरम्भांस्येतानि स्वमात्मानमयूयुजत् ॥३०॥

फिर देवता, असुर, पितृगण और मनुष्य- इन चारोंकी तथा जलकी सृष्टी करनेकी इच्छासे उन्होंने अपने शरीरका उपयोग किया ॥३०॥

युक्तात्मनस्तमोमात्रा हृद्रिक्ताऽभूत्प्रजापतेः ।

सिसृक्षोर्जघनात्पुर्वमसुरा जज्ञिरे ततः ॥३१॥

सृष्टि-रचनाकी कामनासे प्रजापतिके युक्तचित्त होनेपर तमोगुणकी वृद्धि हुई ।न अतः सबसे पहले उनकी जंघासे असुर उप्तन्न हुए ॥३१॥

उत्ससर्ज ततस्तां तु तमोमात्रात्मिकां तनुम् ।

सा तु त्यक्ता तनुस्तेन मैत्रेयाभूद्विभावरी ॥३२॥

तब, हे मैत्रेय ! उन्होंने उस तमोमय शरीरको छोड़ दिया, वह छोडा़ हुआ तमोमय शरीर ही रात्रि हुआ ॥३२॥

सिसृक्षूरन्यदेह्स्थः प्रीतिमाप ततः सुराः ।

सत्त्वोद्रिक्ता समुद्भूता मुखतो ब्रह्मणो द्विज ॥३३॥

फिर अन्य देहमें स्थित होनेपर सृष्टिकी कामनावाले उन प्रजापतिको अति प्रसन्नता हुई, और हे द्विज ! उनके मुखसे सत्त्वप्रधान देवगण उप्तन्न हुए ॥३३॥

त्यक्ता सापि तनुस्तेन सत्तप्रायमभूद्दिनम् ।

ततो हि बलिनो रात्रावसुरा देवता दिवा ॥३४॥

तदनन्तर उस शरीरको भी उन्होंने त्याग दिया । वह त्यागा हुआ शरीर ही सत्त्वस्वरूप दिन हुआ । इसीलिये रात्रिमें असुर बलवान् होते हैं और दिनमें देवगणोंका बल विशेष होता है ॥३४॥

सत्त्वमात्रत्मिकामेव ततोऽन्यां जगृहे तनुम् ।

पितृवन्मन्यमास्य पितरस्तस्य जज्ञिरे ॥३५॥

फिर उन्होंने आंशिक सत्त्वमय अन्य शरीर ग्रहण किया और अपनेको पितृवत् मानते हुए ( अपने पार्श्व भागसे ) पितृगणकी रचना की ॥३५॥

उत्ससर्ज ततस्तां तू पितृन्सृष्ट्वापि स प्रभुः ।

सा चोत्सृष्टाभवत्सन्ध्या दिननक्तान्तरस्थिता ॥३६॥

पितृगृणकी रचना कर उन्होनें उस शरीरको भी छोड़ दिया । वह त्यागा हुआ शरीर ही दिन और रात्रिके बीचमें स्थित सन्ध्या हुई ॥३६॥

रजोमात्रात्मिकामन्यां जगृहे स तनुं ततः ।

रजोमात्रोत्कटा जाता मनुष्या द्विजसत्तम ॥३७॥

तत्पश्चात् उन्होंने आंशिक रजोमय अन्य शरीर धारण किया; हे द्विजश्रेष्ठ ! उससे रजः प्रधान मनुष्य उप्तन्न हुए ॥३७॥

तामप्याशु स तत्याज तनुं सद्यः प्रजापतिः ।

ज्योत्स्ना समभवत्सापि प्राक्सन्ध्या याऽभिधीयते ॥३८॥

फिर शीघ्र ही प्रजापतिने उस शरीरको भी त्याग दिया, वही ज्योत्स्ना हुआ, जिसे पूर्व सन्ध्या अर्थात प्राप्तःकाल कहते है ॥३८॥

ज्योत्स्नागमे तु बलिनो मनुष्याः पितरस्तथा ।

मैत्रेय सन्ध्यासमये तस्मादेते भवन्ति वै ॥३९॥

इसीलिये, हे मैत्रेय ! प्रातःकाल होनेपर मनुष्य और सायंकालके समय पितर बलवान् होते हैं ॥३९॥

ज्योत्स्ना रात्र्यहनी सन्ध्या चत्वार्येतानि वै प्रभोः ।

ब्रह्मणस्तु शरीराणि त्रिगुणोपाश्रयाणि तु ॥४०॥

इस प्रकर रात्रि, दिन, प्रातःकाल और सायंकाल ये चारों प्रभु ब्रह्माजीके शरीर हैं और तीनों गुणोंके आश्रय हैं ॥४०॥

रजोमात्रात्मिकामेव ततोऽन्यां जगृहे तनुम् ।

ततः क्षुद्‌ ब्रह्मणो जाता जज्ञे कामस्तया ततः ॥४१॥

फिर ब्रह्माजीने एक और रजोमात्रात्मक शरीर धारण किया । उसके द्वरा ब्रह्माजीसे क्षुधा उप्तन्न हुई और क्षुधासे कामकी उप्तत्ति हुई ॥४१॥

क्षुत्क्षामानन्धकारेऽथ सोऽसृजद्भगवांस्ततः ।

विरूपाः श्मश्रुला जातास्तेऽभ्यधावंस्ततः प्रभुम् ॥४२॥

तब भगवान् प्रजापतिने अन्धकारमें स्थित होकर क्षुधाग्रस्त सृष्टिकी, रचना की । उसमें बडे़ कुरूप और दाढी़ मूँछवाले व्यक्ति उप्तन्न हुए । वे स्वयं ब्रह्माजीकी ओर ही ( उन्हें भक्षण करनेके लिये ) दौड़े ॥४२॥

मैवं भो रक्ष्यतामेष यैरुक्तं राक्षसास्तु ते ।

ऊचुः खादाम इत्यन्ये ये ते यक्षास्तु जक्षणात् ॥४३॥

उनमेंसे जिन्होंने यह कहा कि ऐसा मत करो, इनकी रक्षा कर, वे 'राक्षस' कहलाये और जिन्होंने कहा 'हम खायेंगे' वे खानेकी वासनावाले होनेसे ' यक्ष ' कहे गये ॥४३॥

अप्रियेण तु तान्दृष्ट्वा केशाः शीर्यन्त वेधसः ।

हीनाश्च शिरसो भूयः समारोहन्त तच्छिरः ॥४४॥

सर्पनात्तेऽभवन् सर्पा हीनत्वादह्यः स्मृताः ।

ततः क्रुद्धो जगत्स्त्रष्टा क्रोधात्मानो विनिर्ममे ।

वर्णन कपिशेनोग्रभूतास्ते पिशिताशनाः ॥४५॥

उनकी इस अनिष्ट प्रवृत्तिको देखकर ब्रह्माजीके केश सिरसे गिर गये और फिर पुनः उनके मस्तकपर आरूढ़ हुए । इस प्रकार ऊपर चढनेके कारण वे सर्प कहलाये और नीचे गिरनेके कारण ' अहि' कहे गये । तदनन्तर जगत् रचयिंता ब्रह्माजीने क्रोधित होकर क्रोधयुक्त प्राणियोंकी रचना की: वे कपिश ( कालापन लिये हुए पीले ) वर्णके, अति उग्र स्वभाववाले तथा मांसाहारी हुए ॥४४-४५॥

गायतोंऽगत्समुत्पन्ना गन्धर्वास्तस्य तत्क्षणात् ।

पिबन्तो जज्ञिरे वाचं गन्धर्वास्तेन ते द्विज ॥४६॥

फिर गान करते समय उनके शरीरसे तुरन्त ही गन्धर्व उप्तन्न हुए । हे द्विज ! वे वाणीका उच्चारण करते अर्थात् बोलते हुए उत्पन्न हुए थे, इसलिये ' गन्धर्व ' कहलाये ॥४६॥

एतानि सृष्ट्वा भगवान्ब्रह्मा तच्छ्क्तिचोदितः ।

ततः स्वच्छन्दतोऽन्यानि वयांसि वयसोऽसृजत् ॥४७॥

इन सबकी रचना करके भगवान् ब्रह्माजीने पक्षियोंको, उनके पूर्व कर्मोसे प्रेरित होकर स्वच्छन्दतापूर्वक अपनी आयुसे रचा ॥४७॥

अवयो वक्षसश्र्चक्रे मुखतोऽजाः स सृष्टवान् ।

सृष्टवानुदराद्गाश्च पार्श्वाभ्यां च प्रजापतिः ॥४८॥

पद्‌भ्यां चाश्वान्समातंगान्नासभान्गवयान्मृगान् ।

उष्ट्रानश्वतरांश्वैव न्यंकूनन्याश्च जातयः ॥४९॥

तननन्तर अपने वक्षःस्थलसे भेड़ मुखसे बकरी, उदर और पार्श्वभागसे गौ, पैरोंसे घोडे़ हाथी, गधें वनगाय, मृग, ऊँट, खच्चर और न्यंक आदि पशुओंकी रचना की ॥४८-४९॥

औषध्यः फलमुलिन्यो रोमभ्यस्तस्य जज्ञिरे ।

त्रेतायुगमुखे ब्रह्मा कल्पस्यादौ द्विजोत्तम सृष्ट्वा ।

पश्वोषधीः सम्यग्युयोज स तदाध्वरे ॥५०॥

उनके रोमोंसे फल मूलस्वरू ओषधियाँ उप्तन्न हूई । हे द्विजोत्तम ! कल्पके आरम्भमें ही ब्रह्माजीने पशु और ओषधि आदिकी रचना करके फिर त्रेतायुगके आरम्भमें उन्हें यज्ञादि कर्मोंमें सम्मिलित किया ॥५०॥

गौरजः पुरुषो मेषश्चाश्वाश्वतरगर्दभाः ।

एतान्ग्राम्यान्पशूनाहूरारण्यांश्च निबोध मे ॥५१॥

श्वापदा द्विखुरा हस्ती वानराः पक्षिपत्र्चमाः ।

औदकाः पशवः षष्ठाः सप्तमास्तु सरीसृपाः ॥५२॥

गौ, बकरी, पुरुष, भेड़, घोड़े, खच्चर और गधे ये सब गाँवोंमे रहनेवाले पशु हैं । जंगली पशु ये हैं- श्वापद ( व्याघ्र आदि ), दो खुरवाले ( वनगाय आदि), हाथी बन्दर और पाँचवें पक्षी, छठे जलके जीव तथा सातवें सरीसृप आदि ॥५१-५२॥

गायत्रं च ऋचश्चैव त्रिवृत्सोमं रथन्तरम् ।

अग्निष्टोमं च यज्ञानां निर्ममे प्रथामान्मुखात् ॥५३॥

फिर अपने प्रथम ( पूर्व ) मुखसे ब्रह्माजीने गायत्री, ऋक्, त्रिवृत्सोम रथन्तर और अग्निष्टोम यज्ञोंको निर्मित किया ॥५३॥

यजुंषि त्रैष्टुभं छन्दः स्तोमं पत्र्चदशं तथा ।

बृहत्साम तथोक्थं च दक्षिणादसृजन्मुखात् ॥५४॥

दक्षिण - मुखसे यजु, त्रैष्टुप्‌छन्द, पत्र्चदशस्तोम, बृहत्साम तथा उक्थकी रचना की ॥५४॥

सामानि जगतीछन्दः स्तोमं सप्तदशं तथा ।

वैरूपमतिरात्रं च पश्चिमादसृजन्मुखात् ॥५५॥

पश्चिम- मुखसे साम, जगतीछन्द, सप्तदशस्तोम, वैरूप और अतिरात्रको उप्तन्न किया ॥५५॥

एकविंशमथर्वाणमाप्तोर्यामाणमेव च ।

अनुष्टुभं च वैराजमुत्तरादसृजन्मुखात् ॥५६॥

तथा उत्तर मुखसे उन्होंने एकविंशतिस्तोम् , अथर्ववेद, आप्तोर्यामाण, अनुष्टुप्‌छन्द और वैराजकी सृष्टि की ॥५६॥

उच्चावचानि भूतानि गात्रेभ्यस्तस्य जज्ञिरे ।

देवासुरपितृन् सृष्टवा मनुष्यांश्च प्रजापतिः ॥५७॥

ततः पुनः ससर्जादौ संकल्पस्य पितामहः ।

यक्षान पिशाचान्गन्धर्वान् तथैवाप्सरसां गणान् ॥५८॥

नरकिन्नरक्षांसि वयः पशुमृगोरगान् ।

अव्ययं च व्ययं चैव यदिदं स्थाणुजंगमम् ॥५९॥

तत्ससर्ज तदा ब्रह्मा भगवानदिकृत्प्रभुः ।

तेषां ये यानि कर्माणि प्राक्सृष्ट्यां प्रतिपेदिरे ।

तान्येव ते प्रपद्यन्ते सृज्यमानाः पुनः पुनः ॥६०॥

इस प्रकार उनके शरीरसे समस्त ऊँच नीच प्राणी उप्तन्न हुए । उन आदिकर्ता प्रजापति भगवान् ब्रह्माजीने देव, असुर पितृगण और मनुष्योंकी सृष्टी कर तदनन्तर कल्पका आरम्भ होनेपर फिर यक्ष, पिशाच, गन्धर्व, अप्सरागण, मनुष्य, किन्नर, राक्षस, पशु , पक्षी, मृग और सर्प आदि सम्पूर्ण नित्य एवं अनित्य स्थावर जड्गम जगत्‌की रचना की । उनमेंसे जिनके जैसे जैसे कर्म पूर्वकल्पोंमें थे पुनः-पुनः सृष्टि होनेपर उनकी उन्हीमें फिर प्रवृत्ति हो जाती है ॥५७-६०॥

हिंस्त्राहिंस्त्रे मृदुक्रूरे धर्माधर्मावृतानृते ।

तद्भाविताः प्रपद्यन्ते तस्मात्तत्तस्य रोचते ॥६१॥

उस समय हिंसा-अहिंसा, मृदुता- कठोरता, धर्म- अधर्म, सत्य मिथ्या - ये सब अपनी पूर्व भावनाके अनुसार उन्हें प्राप्त हो जाते हैं, इसीसे ये उन्हें अच्छे लगने लगते हैं ॥६१॥

इन्द्रियार्थेषु भुतेषु शरीरेषू च स प्रभूः ।

नानात्वं विनियोग च धातैव व्यसृजत्स्वयम् ॥६२॥

इस प्रकर प्रभू विधाताने ही स्वयं इन्द्रियोंके विषय भूत और शरीर आदिमें विभिन्नता और व्यवहारको उप्तन्न किया है ॥६२॥

नाम रूपं च भूतानां कृत्यानां च प्रपत्र्चनम्‌ ।

वेदशब्देभ्य एवादौ देवादीनां चकार सः ॥६३॥

उन्हींने कल्पके आरम्भमें देवता आदि प्राणियोंके वेदानुसार नाम और रूप तथा कार्य विभागको निश्चित किया है ॥६३॥

ऋषीणां नामधेयानि यथा वेदश्रुतानि वै ।

तथा नियोगयोग्यानि ह्यान्येषामापि सोऽकरोत् ॥६४॥

ऋषियों तथा अन्य प्राणियोंके भी वेदनुकुल नाम और यथायोग्य कर्मोंको उन्हीने निर्दिष्ट किया है ॥६४॥

यथर्तूष्वृतुलिड्गनि नानारूपाणि पर्यये ।

दृश्यन्ते तानि तान्येव तथा भावा युगादिषु ॥६५॥

जिस प्रकर भिन्न भिन्न ऋतुओंके पुनः पुनः आनेपर उनके चिह्न और नाम रूप आदि पूर्ववत् रहते हैं उसी प्रकार युगादिमें भी उनकें पूर्व भाव ही देखे जाते हैं ॥६५॥

करोत्यवंविध्यां सृष्टिं कल्पादौ स पुनः पुनः ।

सिसृक्षाशक्तियुक्तोऽसौ सृज्यशक्तिप्रचोदितः ॥६६॥

सिसृक्षा-शक्त ( सृष्टि - रचनाकी इच्छारूप शक्त ) से युक्त वे ब्रह्मजी सृज्य शक्ति ( सृष्टिके प्रारब्ध ) की प्रेरणासे कल्पोंके आरम्भमें बारम्बार इसी प्रकार सृष्टिकी रचना किया करते हैं ॥६६॥

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे पत्र्चमोऽध्यायः ॥५॥

आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण अध्याय 6

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