वराहपुराण अध्याय २
वराहपुराण के अध्याय २ में विभिन्न
सर्गों का वर्णन तथा देवर्षि नारद को वेदमाता सावित्री का अद्भुत कन्या के रूप में
दर्शन होने से आश्चर्य की प्राप्ति का वर्णन है।
वराह पुराण अध्याय २
Varah Purana chapter 2
श्रीवराहपुराणम् द्वितियोऽध्यायः
वराहपुराणम् अध्यायः २
श्रीवराहपुराण दूसरा अध्याय
श्रीवराहपुराण द्वितीय अध्याय
श्रीवराहपुराण
अध्याय २
सूत उवाच ।
ततस्तुष्टो हरिर्भक्त्या
धरण्यात्मशरीरगाम् ।
मायां प्रकाश्य तेनैव स्थितो
वाराहमूर्त्तिना ।। २.१ ।।
जगाद किं ते सुश्रोणि प्रश्नमेनं
सुदुर्लभम् ।
कथयामि पुराणस्य विषयं
सर्वशास्त्रतः ।। २.२ ।।
पुराणानां हि सर्वेषामयं साधारणः
स्मृतः ।
श्लोकं धरणि निश्चित्य निःशेषं त्वं
पुनः श्रृणु ।। २.३ ।।
सूतजी कहते हैं - सभी जीवधारियों के
शरीरों में आत्मारूप से स्थित भगवान् श्रीहरि पृथ्वी की भक्ति से परम संतुष्ट हो
गये। उन्होंने वराह रूप धारण करके पृथ्वी को अपनी योगमाया का दर्शन कराया और फिर
उसी रूप में स्थित रहकर बोले - 'सुश्रोणि !
तुम्हारा प्रश्न यद्यपि बहुत कठिन है एवं यह पुरातन इतिहास का विषय है, तथापि मैं सभी शास्त्रों से सम्मत इस विषय का प्रतिपादन करता हूँ ।
पृथ्वीदेवि ! साधारणतः सभी पुराणों में यह प्रसङ्ग आया है ।'
श्रीवराह उवाच ।
सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो
मन्वन्तराणि च ।
वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम्
।। २.४ ।।
आदिसर्गमहं तावत् कथयामि वरानने ।
यस्मादारभ्य देवानां राज्ञां
चरितमेव च ।
ज्ञायते चतुरंशश्च परमात्मा सनातनः
।। २.५ ।।
आदावहं व्योम महत् ततोऽणुं-
रेकैव मत्तः प्रबभूव बुद्धिः ।
त्रिधा तु सा सत्त्वरजस्तमोभिः
पृथक्पृथक्तत्त्वरूपैरुपेता ।। २.६
।।
तस्मिंस्त्रिकेऽहं तमसो महान् स
सदोच्यते सर्वविदां प्रधानः ।
उतस्मादपि क्षेत्रविदूर्जितोऽभूद्
बभूव वुद्धिस्तु ततो बभूव ।। २.७ ।।
तस्मात्तु तेभ्यो श्रवणादिहेतवस्
ततोऽक्षमाला जगतो व्यवस्थिता ।
भूतैर्गतैरेव च पिण्डमूर्ति-
र्मया भद्रे विहिता त्वात्मनैव ।।
२.८ ।।
शून्यं त्वासीत् तत्र शब्दस्तु खं च
तस्माद् वायुस्तत एवानु तेजः ।
तस्मादापस्तत एवानु देवि
मया सृष्टा भवती भूतधात्री ।। २.९
।।
भगवान् वराह ने कहा- सर्ग,
प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर
और वंशानुचरित - जहाँ ये पाँच लक्षण विद्यमान हों, उसे पुराण
समझना चाहिये। वरानने! पुराणों में सर्ग अर्थात् सृष्टि का स्थान प्रथम है । अतः
मैं पहले उसी का वर्णन करता हूँ। इसके आरम्भ से ही देवताओं और राजाओं के चरित्र का
ज्ञान होता है। परमात्मा सनातन हैं। उनका कभी किसी काल में नाश नहीं होता। वे
परमात्मा सृष्टि की इच्छा से चार भागों में विभक्त हुए, ऐसा
वेदज्ञ पुरुष जानते हैं। सृष्टि के आदिकाल में सर्वप्रथम परमात्मा से अहंतत्त्व,
फिर आकाश आदि पञ्च महाभूत उत्पन्न हुए। उसके पश्चात् महत्तत्त्व
प्रकट हुआ और फिर अणुरूपा प्रकृति और इसके बाद समष्टि बुद्धि का प्रादुर्भाव हुआ ।
सत्त्व, रज और तम - इन तीन गुणों से युक्त होकर वह बुद्धि
पृथक्-पृथक् तीन प्रकार के भेदों में विभक्त हो गयी। इस गुणत्रय में से तमोगुण का
संयोग प्राप्त करके महद्ब्रह्म का प्रादुर्भाव हुआ, इसको सभी
तत्त्वज्ञ प्रधान अर्थात् प्रकृति कहते हैं । इस प्रकृति से भी क्षेत्रज्ञ अधिक
महिमायुक्त है। उस परब्रह्म से सत्त्वादि गुण, गुणों से आकाश
आदि तन्मात्राएँ और फिर इन्द्रियों का समुदाय बना । इस प्रकार जगत् की सृष्टि
व्यवस्थित हुई । भद्रे ! पाँच महाभूतों से स्वयं मैंने स्थूल शरीर का निर्माण
किया। देवि! पहले केवल शून्य था। फिर उसमें शब्द की उत्पत्ति हुई। शब्द से आकाश
हुआ। आकाश से वायु, वायु से तेज एवं तेज से जल की उत्पत्ति
हुई। इसके बाद प्राणियों को अपने ऊपर धारण करने के लिये तुम्हारी - (पृथ्वी की)
रचना हुई ।
योगे पृथिव्या जलवत् ततोऽपि
सबुद्बुदं कललं त्वण्डमेव ।
तस्मिन् प्रवृत्ते द्विगतेऽहमासी-
दापोमयश्चात्मनात्मानमादौ ।। २.१०
।।
सृष्ट्वा नारास्ता अथो तत्र चाहं
येन स्यान्मे नाम नारायणेति ।
कल्पे कल्पे तत्र संयामि भूयः
सुप्तस्य मे नाभिजः स्याद् यथाद्यः
।। २.११ ।।
एवंभूतस्य मे देवि नाभिपद्मे
चतुर्मुखः ।
उत्तस्थौ स मया प्रोक्तः प्रजाः सृज
महामते ।। २.१२ ।।
एवमुक्त्वा तिरोभावं गतोऽहं सोऽपि
चिन्तयन् ।
आस्ते यावज्जगद्धात्रि नाध्यगच्छत
किंचन ।। २.१३ ।।
तावत् तस्य महारोषो
ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः।
संभूय तेन बालः स्यादङ्के
रोषात्मसंभवः ।। २.१४ ।।
यो रुदन् वारितस्तेन
ब्रह्मणाऽव्यक्तमूर्त्तिना ।
ब्रवीति नाम मे देहि तस्य रुद्रेति
सो ददौ ।। २.१५ ।।
सोऽपि तेन सृजस्वेति प्रोक्तो लोकमिमं
शुभे ।
अशक्तः सोऽथ सलिले ममज्ज तपसे धृतः
।। २.१६ ।।
तस्मिन् सलिलमग्ने तु पुनरन्यं
प्रजापतिम् ।
ब्रह्मा ससर्ज्ज भूतेषु
दक्षिणाङ्गुष्ठतो वरम् ।
वामे चैव तथाऽङ्गुष्ठे तस्य
पत्नीमथासृजत् ।। २.१७ ।।
स तस्यां जनयामास मनुं स्वायंभुवं
प्रभुः ।
तस्मात् संभाविता सृष्टिः प्रजानां
ब्रह्मणा पुरा ।। २.१८ ।।
पृथ्वी और जल का संयोग होने पर
बुबुदाकार कलल बना और वही अण्डे के आकार में परिणत हो गया। उसके बढ़ जाने पर मेरा
जलमय रूप दृष्टिगोचर हुआ। मेरे इस रूप को स्वयं मैंने ही बनाया था। इस प्रकार नार
अर्थात् जल की सृष्टि करके मैं उसी में निवास करने लगा । इसी से मेरा नाम 'नारायण' हुआ। वर्तमान कल्प के समान ही मैं प्रत्येक
कल्प में जल में शयन करता हूँ और मेरे सोते समय सदैव मेरी नाभि से इसी प्रकार कमल
उत्पन्न होता है, जैसा कि आज तुम देख रही हो । देवि ! ऐसी
स्थिति में मेरे नाभिकमल पर चतुर्मुख ब्रह्मा उत्पन्न हुए । तब मैंने उनसे कहा-'महामते ! तुम प्रजा की रचना करो।' ऐसा कहकर मैं
अन्तर्धान हो गया और ब्रह्मा भी सृष्टि रचना के चिन्तन में लग गये । वसुन्धरे ! इस
प्रकार चिन्तन करते हुए ब्रह्मा को जब कोई मार्ग नहीं सूझ पड़ा, तो फिर उन अव्यक्तजन्मा के मन में क्रोध उत्पन्न हुआ। उनके इस क्रोध के
परिणामस्वरूप एक बालक का प्रादुर्भाव हुआ। जब उस बालक ने रोना प्रारम्भ किया,
तब अव्यक्तरूप ब्रह्मा ने उसे रोने से मना किया। इस पर उस बालक ने
कहा- 'मेरा नाम तो बता दीजिये ।' तब
ब्रह्मा ने रोने के कारण उसका नाम 'रुद्र' रख दिया। शुभे ! उस बालक से भी ब्रह्मा ने कहा - 'लोकों
की रचना करो।' परंतु इस कार्य में अपने को असमर्थ जानकर उस
बालक ने जल में निमग्न होकर तप करने का निश्चय किया। उस रुद्र नामक बालक के तपस्या
के लिये जल में निमग्न हो जाने पर ब्रह्मा ने फिर दूसरे प्रजापति को उत्पन्न किया
। दाहिने अँगूठे से उन्होंने प्रजापति की तथा बायें अँगूठे से प्रजापति के लिये
पत्नी की सृष्टि की। प्रजापति ने उस स्त्री से स्वायम्भुव मनु को उत्पन्न किया ।
इस प्रकार पूर्वकाल में ब्रह्मा ने स्वायम्भुव मनु के द्वारा प्रजाओं की वृद्धि की
।
धरण्युवाच ।
विस्तरेण ममाचक्ष्व आदिसर्गं
सुरेश्वर ।
ब्रह्मा नारायणाख्योऽयं कल्पादौ
चाभवद् यथा ।। २.१९ ।।
पृथ्वी बोली- देवेश्वर ! प्रथम
सृष्टि का और विस्तार से वर्णन करने की कृपा करें तथा नारायण ब्रह्मारूप से कैसे
विख्यात हुए? मुझे यह सब भी बतलाने की कृपा
करें ।
श्रीभगवानुवाच ।
ससर्ज सर्वभूतानि यथा नारायणात्मकः
।
कथ्यमानं मया देवि तदशेषं क्षिते
श्रृणु ।। २.२० ।।
गतकल्पावसाने तु निशि सुप्तोत्थितः
शुभे ।
सत्त्वोद्रिक्तस्तथा ब्रह्मा शून्यं
लोकमवैक्षत ।। २.२१ ।।
नारायणः परोऽचिन्त्यः पराणामपि
पूर्वजः ।
ब्रह्मस्वरूपी भगवाननादिः सर्वसंभवः
।। २.२२ ।।
इदं चोदाहरन्त्यत्र श्लोकं नारायणं
प्रति ।
ब्रह्मस्वरूपिणं देवं जगतः
प्रभवाप्ययम् ।। २.२३ ।।
वराह भगवान् कहते हैं- देवि पृथ्वि
! नारायण ने ब्रह्मारूप से जिस प्रकार प्रजाओं की सृष्टि की,
उसे मैं विस्तृत रूप से कहता हूँ, सुनो। शुभे
पिछले कल्प का अन्त हो जाने पर रात्रि व्याप्त हो गयी। भगवान् श्रीहरि उस समय सो
गये । प्राणों का नितान्त अभाव हो गया । फिर जगने पर उनको यह जगत् शून्य दिखायी
पड़ा। भगवान् नारायण दूसरों के लिये अचिन्त्य हैं । वे पूर्वजों के भी पूर्वज,
ब्रह्मस्वरूप, अनादि और सबके स्रष्टा हैं।
ब्रह्मा का रूप धारण करनेवाले वे परम प्रभु जगत्की उत्पत्ति और प्रलयकर्ता हैं। उन
नारायण के विषय में यह श्लोक कहा जाता है-
आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै
नरसूनवः ।
अयनं तस्य ताः पूर्वं तेन नारायणः
स्मृतः ।। २.२४ ।।
पुरुषोत्तम नर से उत्पन्न होने के
कारण जल को 'नार' कहा
जाता है, क्योंकि जल भी नार अर्थात् पुरुषोत्तम परमात्मा से
उत्पन्न हुआ है। सृष्टि के पूर्व वह नार ही भगवान् हरि का अयन - निवास रहा,
अतएव उनकी नारायण संज्ञा हो गयी।
सृष्टिं चिन्तयतस्तस्य कल्पादिषु
यथा पुरा ।
अबुद्धिपूर्वकस्तस्य
प्रादुर्भूतस्तमोमयः ।। २.२५ ।।
तमो मोहो महामोहस्तामिस्त्रो
ह्यन्धसंज्ञितः ।
अविद्या पञ्चपर्वैषा प्रादुर्भूता
महात्मनः ।। २.२६ ।।
पञ्चधाऽवस्थितः सर्गो
ध्यायतोऽप्रतिबोधवान् ।
बहिरन्तोऽप्रकाशश्च संवृतात्मा
नगात्मकः ।
स मुख्यसर्गो विज्ञेयः सर्गविद्भिर्विचक्षणैः
।। २.२७ ।।
पुनरन्यदभूत् तस्य ध्यायतः
सर्गमुत्तमम्।
तिर्यक्स्त्रोतस्तु वै यस्मात्
तिर्यक्स्त्रोतस्तु वै स्मृतः ।। २.२८ ।।
फिर पूर्व-कल्पों की भाँति उन
श्रीहरि के मन में सृष्टिरचना का संकल्प उदित हुआ। तब उनसे बुद्धिशून्य तमोमयी
सृष्टि उत्पन्न हुई। पहले उन परमात्मा से तम, मोह,
महामोह, तामिस्र और अन्धतामिस्र – यह पाँच
पर्वोंवाली अविद्या उत्पन्न हुई। उनके फिर चिन्तन करने पर तमोगुणप्रधान चेतनारहित
जड़ (वृक्ष, गुल्म, लता, तृण और पर्वत) - रूप पाँच प्रकार की सृष्टि उत्पन्न हुई। सृष्टि रचना के रहस्य
को जाननेवाले विद्वान् इसे मुख्य सर्ग कहते हैं। फिर उन परम पुरुष के चिन्तन करने पर
दूसरी पहले की अपेक्षा उत्कृष्ट सृष्टि रचना का कार्य आरम्भ हो गया। यह सृष्टि
वायु के समान वक्र गति से या तिरछी चलनेवाली हुई, जिसके
फलस्वरूप इसका नाम तिर्यक्त्रोत पड़ गया।
पश्वादयस्ते विख्याता
उत्पथग्राहिणस्तु ते।
तमप्यसाधकं मत्वा तिर्यक्स्त्रोतं
चतुर्मुखः ।। २.२९ ।।
ऊर्ध्वस्त्रोतस्त्रिधा यस्तु
सात्त्विको धर्मवर्त्तनः ।
ततोर्ध्वचारिणो देवाः
सर्वगर्भसमुद्भवाः ।। २.३० ।।
ते सुखप्रीतिवहुला
बहिरन्तस्त्वनावृताः ।
तस्मिन् सर्गेऽभवत्
प्रीतिर्निष्पद्यन्ते प्रजास्तदा ।। २.३० ।।
तदा सृष्ट्वाऽन्यसर्गं तु तदा दध्यौ
प्रजापतिः ।
असाधकांस्तु तान् मत्वा
मुख्यसर्गादिसंभवान् ।। २.३१ ।।
ततः स चिन्तयामास
अर्वाक्स्त्रोतस्तु स प्रभुः ।
अर्वाक्स्त्रोतसि चोत्पन्ना
मनुष्याः साधका मताः ।। २.३२ ।।
इस सर्ग के प्राणियों की पशु आदि के
नाम से प्रसिद्धि हुई। इस सर्ग को भी अपनी सृष्टि रचना के प्रयोजन में असमर्थ
जानकर ब्रह्मा द्वारा पुनः चिन्तन किये जाने पर एक और दूसरा सर्ग उत्पन्न हुआ । यह
ऊर्ध्वस्रोत नामक तीसरा धर्मपरायण सात्त्विक सर्ग हुआ,
जो देवताओं के रूप में ऊर्ध्व स्वर्गादि लोकों में रहने लगा। ये सभी
देवता ऊर्ध्वगामी एवं स्त्री-पुरुष- संयोग के फलस्वरूप गर्भ से उत्पन्न हुए थे ।
इस प्रकार इन मुख्य सृष्टियों की रचना कर लेने पर भी जब ब्रह्मा ने पुन: विचार
किया, तो उनको ये भी परम पुरुषार्थ (मोक्ष) - के साधन में
असमर्थ दीखे । तब फिर उन्होंने सृष्टिरचना का चिन्तन करना प्रारम्भ किया और पृथ्वी
आदि नीचे के लोकों में रहनेवाले अर्वाक्स्रोत सर्ग की रचना की।
ते च प्रकाशबहुलास्तमोद्रिक्ता
रजोधिकाः ।
तस्मात् तु दुखः बहुला भूयोभूयश्च
कारिणः ।। २.३३ ।।
इत्येते कथिताः सर्गाः षडेते सुभगे
तव ।
प्रथमो महतः सर्गस्तन्मात्राणि
द्वितीयकः ।। २.३४ ।।
वैकारिकस्तृतीयस्तु
सर्गश्चैन्द्रियकः स्मृतः ।
इत्येष प्राकृतः सर्गः संभूतो
बुद्धिपूर्वकः ।। २.३५ ।।
मुख्यसर्गश्चतुर्थस्तु मुख्या वै
स्थावराः स्मृताः ।
तिर्यक्स्त्रोतश्च यः प्रोक्तस्तैर्यक्स्त्रोतः
स उच्यते ।। २.३६ ।।
तथोर्ध्वस्त्रोतसां श्रेष्ठः सप्तमः
स तु मानवः ।
अष्टमोऽनुग्रहः सर्गः
सात्त्विकस्तामसश्च सः ।। २.३७ ।।
पञ्चैते वैकृताः सर्गाः
प्राकृतास्तु त्रयः स्मृताः ।
प्राकृतो वैकृतश्चैव कौमारो नवमः
स्मृतः ।। २.३८ ।।
इत्येते वै समाख्याता नव सर्गाः
प्रजापतेः ।
प्राकृता वैकृताश्चैव जगतो मूलहेतवः
।
इत्येते कथिताः सर्गाः
किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ।। २.३९ ।।
इस अर्वाक्स्रोतवाली सृष्टि में
उन्होंने जिनको बनाया, वे मनुष्य कहलाये
और वे परम पुरुषार्थ के साधन के योग्य थे। इनमें जो सत्त्वगुणविशिष्ट थे, वे प्रकाशयुक्त हुए। रज एवं तमोगुण की जिनमें अधिकता थी, वे कर्मों का बारंबार अनुष्ठान करनेवाले एवं दुःखयुक्त हुए। सुभगे ! इस
प्रकार मैंने इन छः सर्गों का तुमसे वर्णन किया। इनमें पहला महत्तत्त्वसम्बन्धी
सर्ग, दूसरा तन्मात्राओं से सम्बन्धित भूतसर्ग और तीसरा
वैकारिक सर्ग है, जो इन्द्रियों से सम्बन्ध रखता है। इस
प्रकार समष्टि बुद्धि के संयोग से ( प्रकृति से) उत्पन्न होने के कारण यह प्राकृत
सर्ग कहलाया। चौथा मुख्य सर्ग है । पर्वत - वृक्ष आदि स्थावर पदार्थ ही इस मुख्य
सर्ग के अन्तर्गत हैं। वक्र गतिवाले पशु-पक्षी तिर्यक्स्रोत में उत्पन्न होने से
तिर्यग्योनि या तैर्यक स्रोत के प्राणी कहे जाते हैं। विधाता की सभी सृष्टियों में
उच्च स्थान रखनेवाली छठी सृष्टि देवताओं की है। मानव उनकी सातवीं सृष्टि में आता
है। सत्त्वगुण और तमोगुण मिश्रित आठवाँ अनुग्रहसर्ग माना गया है; क्योंकि इसमें प्रजाओं पर अनुग्रह करने के लिये ऋषियों की उत्पत्ति होती
है। इनमें बाद के पाँच वैकृत सर्ग और पहले के तीन प्राकृत सर्ग के नाम से जाने
जाते हैं। नवाँ कौमार सर्ग प्राकृत- वैकृतमिश्रित है। प्रजापति के ये नौ सर्ग कहे
गये हैं। संसार की सृष्टि में मूल कारण ये ही हैं। इस प्रकार मैंने इन सर्गों का
वर्णन किया। अब तुम दूसरा कौन-सा प्रसङ्ग सुनना चाहती हो ?
धरण्युवाच ।
नवधा सृष्टिरुत्पन्ना
ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः ।
कथं सा ववृधे देव एतन्मे कथयाच्युत
।। २.४० ।।
पृथ्वी बोली - भगवन्! अव्यक्तजन्मा
ब्रह्मा द्वारा रचित यह नवधा सृष्टि किस प्रकार विस्तार को प्राप्त हुई?
अच्युत! आप मुझे यह बताने की कृपा करें।
श्रीवराह उवाच ।
प्रथमं ब्रह्मणा सृष्टा
रुद्राद्यास्तु तपोधनाः।
सनकादयस्ततः सृष्टा मरीच्यादय एव च
।। २.४१ ।।
मरीचिरत्रिश्च तथा अङ्गिराः पुलहः
क्रतुः ।
पुलस्त्यश्च महातेजाः प्रचेता
भृगुरेव च ।
नारदो दशमश्चैव वसिष्ठश्च महातपाः
।। २.४२ ।।
सनकादयो निवृत्त्याख्ये तेन धर्मे
प्रयोजिताः ।
प्रवृत्त्याख्ये मरीच्याद्या
मुक्त्वैकं नारदं मुनिम् ।। २.४३ ।।
योऽसौ प्रजापतिस्त्वाद्यो
दक्षिणाङ्गुष्ठसंभवः ।
तस्यादौ तत्र वंशेन जगदेतच्चराचरम्
।। २.४४ ।।
देवाश्च दानवाश्चैव
गन्धर्वोरगपक्षिणः ।
सर्वे दक्षस्य कन्यासु जाताः
परमधार्मिकाः ।। २.४५ ।।
भगवान् वराह कहते हैं - सर्वप्रथम
ब्रह्मा द्वारा रुद्र आदि देवताओं की सृष्टि हुई। इसके बाद सनकादि कुमारों तथा
मरीचि प्रभृति मुनियों की रचना हुई । मरीचि, अत्रि,
अङ्गिरा, पुलह, क्रतु,
महान् तेजस्वी पुलस्त्य, प्रचेता, भृगु, नारद एवं महातपस्वी वसिष्ठ - ये दस ब्रह्माजी के
मानस पुत्र हुए। उन परमेष्ठी ने सनकादि को निवृत्ति संज्ञक धर्म में तथा नारदजी के
अतिरिक्त मरीचि आदि सभी ऋषियों को प्रवृत्तिसंज्ञक धर्म में नियुक्त कर दिया। ये
जो आदि प्रजापति हैं, इनका ब्रह्मा के दाहिने अँगूठे से
प्राकट्य हुआ है (इसी कारण ये दक्ष कहलाते हैं) और इन्हीं के वंश के अन्तर्गत यह
सारा चराचर जगत् है । देवता, दानव, गन्धर्व,
सरीसृप तथा पक्षिगण - ये सभी दक्ष की कन्याओं से उत्पन्न हुए हैं।
इन सबमें धर्म की विशेषता थी ।
योऽसौ रुद्रेति विख्यातः पुत्रः
क्रोधसमुद्भवः ।
भ्रुकुटीकुटिलात् तस्य ललाटात्
परमेष्ठिनः ।। २.४६ ।।
अर्द्धनारीनरवपुः प्रचण्डोऽतिभयंकरः
।
विभजात्मानमित्युक्तो
ब्रह्मणाऽन्तर्दधे पुनः ।। २.४७ ।।
तथोक्तोऽसौ द्विधा स्त्रीत्वं
पुरुषत्वं चकार सः ।
बिभेद पुरुषत्वं च दशधा चैकधा च सः
।
ततस्त्वेकादश ख्याता रुद्रा
ब्रह्मसमुद्भवाः ।। २.४८ ।।
अयमुद्देशतः प्रोक्तो रुद्रसर्गो
मयाऽनघे ।
इदानीं युगमाहात्म्यं कथयामि समासतः
।। २.४९ ।।
ब्रह्मा के जो रुद्र नामक पुत्र हैं,
उनका प्रादुर्भाव क्रोध से हुआ था । जिस समय ब्रह्मा की भौंहें रोष के
कारण तन गयी थीं, तब उनके ललाट से इनका प्रादुर्भाव हुआ। उस
समय इनका शरीर अर्धनारीश्वर के रूप में था । 'तुम स्वयं अपने
को अनेक भागों में बाँटो' – इनसे यों कहकर ब्रह्मा अन्तर्धान
हो गये। यह आज्ञा पाकर उन महाभाग ने स्त्री और पुरुष - इन दो भागों में अपने को
विभाजित कर दिया। फिर अपने पुरुष-रूप को उन्होंने ग्यारह भागों में विभक्त किया। तभी
से ब्रह्मा से प्रकट होनेवाले इन ग्यारह रुद्रों की प्रसिद्धि हुई । अनघे !
तुम्हारी जानकारी के लिये मैंने इस रुद्र – सृष्टि का वर्णन कर दिया।
कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिश्चेति
चतुर्युगम् ।
एतस्मिन् ये महासत्त्वा राजानो
भूरिदक्षिणाः ।
देवासुराश्च यं चक्रुर्धर्मं कर्म च
तच्छृणु ।। २.५० ।।
अब मैं संक्षेप से युगमाहात्म्य का
वर्णन करता हूँ । सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलि-ये चार युग हैं। इन चारों युगों में परम पराक्रमी तथा
प्रचुर दक्षिणा देनेवाले जो राजा हो चुके हैं एवं जिन देवताओं और दानवों ने ख्याति
प्राप्त की है तथा जिन धर्म-कर्मों का उन्होंने अनुष्ठान किया है; वह मुझसे सुनो।
आसीत् प्रथमकल्पे तु मनुः
स्वायंभुवः पुरा ।
तस्य पुत्रद्वयं जज्ञे
अतिमानुषचेष्टितम्।
प्रियव्रतोत्तानपादनामानं
धर्मवत्सलम् ।। २.५१ ।।
तत्र प्रियव्रतो राजा महायज्वा
तपोबलः ।
स चेष्ट्वा
विविधैर्यज्ञैर्विपुलैर्भूरिदक्षिणैः ।। २.५२ ।।
सप्तद्वीपेषु संस्थाप्य भरतादीन्
सुतान् निजान् ।
स्वयं विशालां वरदां गत्वा तेपे
महत् तपः ।। २.५३ ।।
तस्मिन् स्थितस्य तपसि राज्ञो वै
चक्रवर्त्तिनः ।
उपेयान्नारदस्तत्र
दिदृक्षुर्धर्मचारिणम् ।। २.५४ ।।
पूर्वकाल की बात है,
प्रथम कल्प में स्वायम्भुव मनु हुए। उनके दो पुत्र उत्पन्न हुए,
जिनके लोकोत्तर कर्म मनुष्यों के लिये असम्भव ही थे। धर्म में
श्रद्धा रखनेवाले वे महाभाग प्रियव्रत और उत्तानपाद नाम से विख्यात हुए। प्रियव्रत
में तपोबल था और वे महान् यज्ञशाली थे। उन्होंने पुष्कल (अधिक) दक्षिणावाले अनेक
महायज्ञों द्वारा भगवान् श्रीहरि का यजन किया था। उन्होंने सातों द्वीपों में अपने
भरत आदि पुत्रों को अभिषिक्त कर दिया था और स्वयं वे महातपस्वी राजा वरदायिनी विशाला
* नगरी – बदरिकाश्रम में जाकर तपस्या करने
लगे थे। महाराज प्रियव्रत चक्रवर्ती नरेश थे। धर्म का अनुष्ठान करना उनका
स्वाभाविक गुण था ।
* महाभारत वनपर्व ९० । २४ । २५ तथा भागवत – माहात्म्य के अनुसार
विशालापुरी बदरिकाश्रम ही है।
स दृष्ट्वा नारदं व्योम्नि
ज्वलद्भास्करतेजसम् ।
अभ्युत्थानेन राजेन्द्र उत्तस्थौ
हर्षितस्तदा ।। २.५५ ।।
तस्यासनं च पाद्यं च सम्यक् तस्य
निवेद्य वै ।
स्वागतादिभिरालापैः परस्परमवोचताम्
।
कथान्ते नारदं राजा पप्रच्छ ब्रह्मवादिनम्
।। २.५६ ।।
अतएव उनके तपस्या में लीन होने पर
उनसे मिलने की इच्छा से वहाँ स्वयं नारदजी पधारे। नारदमुनि का आगमन आकाश मार्ग से
हुआ था। उनका तेज सूर्य के समान छिटक रहा था। उन्हें देखकर महाराज प्रियव्रत को
बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने आसन, पाद्य एवं
नैवेद्य से नारदजी का भलीभाँति सत्कार किया। तत्पश्चात् उन दोनों में परस्पर
वार्ता प्रारम्भ हो गयी । अन्त में वार्तालाप की समाप्ति के राजा प्रियव्रत ने
ब्रह्मवादी नारदजी से पूछा।
प्रियव्रत उवाच ।
भगवन् किञ्चिदाश्चर्यमेतस्मिन्
कृतसंज्ञिते ।
युगे दृष्टं श्रुतं वाऽपि तन्मे कथय
नारद ।। २.५७ ।।
राजा प्रियव्रत बोले- नारदजी ! आप
महान् पुरुष हैं। इस सत्ययुग में आपने कोई अद्भुत घटना देखी या सुनी हो,
तो उसे बताने की कृपा करें।
नारद उवाच ।
आश्चर्यमेकं दृष्टं मे तच्छृणुष्व
प्रियव्रत ।
ह्यस्तनेऽहनि राजेन्द्र श्वेताख्यं
गतवानहम् ।
द्वीपं तत्र सरो दृष्टं
फुल्लपङ्कजमालिनम् ।। २.५८ ।।
सरसस्तस्य तीरे तु कुमारीं
पृथुलोचनाम् ।
दृष्ट्वाऽहं विस्मयापन्नस्तां
कन्यामायतेक्षणाम् ।। २.५९ ।।
पृष्टवानस्मि राजेन्द्र तदा
मधुरभाषिणीम् ।
काऽसि भद्रे कथं वाऽसि किं वा
कार्यमिह त्वया ।
कर्त्तव्यं चारुसर्वाङ्गि
तन्ममाचक्ष्व शोभने ।। २.६० ।।
एवमुक्ता मया सा हि मां
दृष्ट्वाऽनिमिषेक्षणा ।
स्मृत्वा तूष्णीं स्थिता यावत्
तावन्मे ज्ञानमुत्तमम् ।। २.६१ ।।
विस्मृतं सर्ववेदाश्च
सर्वशास्त्राणि चैव ह ।
योगशास्त्राणि शिक्षाश्च वेदानां
स्मृतयस्तथा ।। २.६२ ।।
सर्वं दृष्ट्वैव मे राजन्
कुमार्याऽपहृतं क्षणात् ।
ततोऽहं
विस्मयार्विष्टश्चिन्ताशोकसमन्वितः ।। २.६३ ।।
तामेव शरणं गत्वा यावत् पश्यामि
पार्थिव ।
तावद् दिव्यः पुमांस्तस्याः शरीरे
समदृश्यत ।। २.६४ ।।
तस्यापि पंसो हृदये त्वपरस्तस्य
चोरसि ।
अन्यो रक्तेक्षणः श्रीमान् द्वादशादित्यसन्निभः
।। २.६५ ।।
एवं दृष्ट्वा पुमांसोऽत्र त्रयः
कन्याशरीरगाः ।
क्षणेन तत्र कन्यैका न तान् पश्यामि
सुव्रत ।। २.६६ ।।
ततः पृष्टा मया देवी सा कुमारी कथं
मम ।
वेदा नष्टा ममाचक्ष्व भद्रे
तन्नाशकारणम् ।। २.६७ ।।
नारदजी ने कहा- महाराज ! अवश्य ही
मैंने एक आश्चर्यजनक बात देखी है, वह सुनो। कल
मैं श्वेतद्वीप गया था, मुझे वहाँ पर एक सरोवर दिखलायी पड़ा।
उस सरोवर में बहुत-से कमल खिले हुए थे। उसके तट पर विशाल नेत्रोंवाली एक कन्या
खड़ी थी। उस कन्या को देखकर मैं अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गया। उसकी वाणी भी बड़ी
मधुर थी। मैंने उससे पूछा- 'भद्रे ! तुम कौन हो, इस स्थान पर कैसे निवास करती हो और यहाँ तुम्हारा क्या काम है ?' मेरे इस प्रकार पूछने पर उस कुमारी ने एकटक नेत्रों से मुझे देखा, पर न जाने क्या सोचकर वह चुप ही रही। उसके देखते ही मेरा सारा ज्ञान पता
नहीं, कहाँ चला गया ? राजन् ! सम्पूर्ण
वेद, समस्त शास्त्र, योगशास्त्र और
वेदों के शिक्षादि अङ्गों की मेरी सारी स्मृतियाँ उस किशोरी ने मुझपर दृष्टिपात
करके ही अपहृत कर लीं। तब मैं शोक और चिन्ता से ग्रस्त होकर महान् विस्मय में पड़
गया । राजन् ! ऐसी स्थिति में मैंने उस कुमारी की शरण ग्रहण की। इतने में ही मुझे
उस कुमारी के शरीर में एक दिव्य पुरुष दृष्टिगोचर हुआ । फिर उस पुरुष के भी हृदय में
दूसरे और उस दूसरे पुरुष के हृदय में तीसरे का दर्शन हुआ, जिसके
नेत्र लाल थे और वह बारह सूर्यों के समान तेजस्वी था । इस प्रकार उन तीनों पुरुषों
को मैंने वहाँ देखा, जो उस कन्या के शरीर में स्थित थे ।
सुव्रत ! फिर क्षणभर के बाद देखा, तो वहाँ केवल वह कन्या ही
रह गयी थी एवं अन्य तीनों पुरुष अदृश्य हो गये थे । तत्पश्चात् मैंने उस दिव्य
किशोरी से पूछा- भद्रे ! मेरा सम्पूर्ण वेदज्ञान कैसे नष्ट हो गया ? इसका कारण बताओ ।
कन्योवाच ।
माताऽहं सर्ववेदानां सावित्री नाम
नामतः ।
मां न जानासि येन त्वं ततो वेदा
हृतास्तव ।। २.६८ ।।
एवमुक्ते तया राजन् विस्मयेन तपोधन
।
पृष्टा क एते पुरुषा एतत्कथय शोभने
।। ६९ ।।
कुमारी बोली- 'मैं समस्त वेदों की माता हूँ । मेरा नाम सावित्री है। तुम मुझे नहीं
जानते। इसी के फलस्वरूप मैंने तुमसे वेदों को अपहृत कर लिया है।' तपरूपी धन का संचय करनेवाले राजन् ! उस कुमारी के इस प्रकार कहने पर मैंने
विस्मय - विमुग्ध होकर पूछा - 'शोभने ! ये पुरुष कौन थे,
मुझे यह बताने की कृपा करो ।'
कन्योवाच
य एष मच्छरीरस्थः
सर्वाङ्गैश्चारुलोचनः ।
एष ऋग्वेदनामा तु देवो नारायणः
स्वयम् ।
वह्निभूतो दहत्याशु
पापान्युच्चारणादनु ।। २.७० ।।
एतस्य हृदये योऽयं दृष्ट आसीत्
त्वयात्मजः ।
स यजुर्वेदरूपेण स्थितो ब्रह्मा
महाबलः ।। २.७१ ।।
तस्याप्युरसि संविष्टो य एष
शुचिरुज्ज्वलः ।
स सामवेदनामा तु रुद्ररूपी
व्यवस्थितः ।
एष आदित्यवत् पापान्याशु नाशयते
स्मृतः ।। २.७२ ।।
एते त्रयो महावेदा ब्रह्मन्
देवास्त्रयः स्मृताः ।
एते वर्णा अकाराद्याः सवनान्यत्र वै
द्विज ।। २.७३ ।।
एतत्सर्वं समासेन कथितं ते
द्विजोत्तम ।
गृहाण वेदान् शास्त्राणि
सर्वज्ञत्वं च नारद ।। २.७४ ।।
एतस्मिन् वेदसरसि स्नानं कुरु
महाव्रत ।
कृते स्नानेऽन्यजन्मीयं येन स्मरसि
सत्तम ।। २.७५ ।।
कुमारी बोली- मेरे शरीर में
विराजमान इन पुरुषों की जो तुम्हें झाँकी मिली है, इनमें से जिसके सभी अङ्ग परम सुन्दर हैं, इसका नाम ऋग्वेद
है। यह स्वयं भगवान् नारायण का स्वरूप है । यह अग्निमय है। इसके सस्वर पाठ करने से
समस्त पाप तुरंत भस्म हो जाते हैं। इसके हृदय में यह जो दूसरा पुरुष तुम्हें
दृष्टिगोचर हुआ है, जिसकी उसी से उत्पत्ति हुई है, वह यजुर्वेद के रूप में स्थित महाशक्तिशाली ब्रह्मा हैं। फिर उसके
वक्षःस्थल में भी प्रविष्ट, जो यह परम पवित्र और उज्ज्वल
पुरुष दीख रहा है, इसका नाम सामवेद है । यह भगवान् शंकर का
स्वरूप माना गया है। स्मरण करने पर सूर्य के समान सम्पूर्ण पापों को यह तत्काल
नष्ट कर देता है । ब्रह्मन् ! तुमको दृष्टिगोचर हुए ये दिव्य पुरुष तीनों वेद ही
हैं। नारद! तुम ब्रह्मपुत्रों के शिरोमणि और सर्वज्ञानसम्पन्न हो ! यह सारा
प्रसङ्ग मैंने तुम्हें संक्षेप से बता दिया । अब तुम पुनः सभी वेदों और शास्त्रों को
तथा अपनी सर्वज्ञता को पुनः प्राप्त करो। इस वेद- सरोवर में तुम स्नान करो। इसमें
स्नान करने से तुम्हें अपने पूर्वजन्म की स्मृति हो जायगी ।
एवमुक्त्वा तिरोभावं गता कन्या
नराधिप ।
अहं तत्र कृतस्नानस्त्वां
दिदृक्षुरिहागतः ।। २.७६ ।।
राजन् ! यह कहकर वह कन्या अन्तर्धान
हो गयी। तब मैंने उस सरोवर में स्नान किया और तदनन्तर आपसे मिलने की इच्छा से यहाँ
चला आया ।
।। इति श्रीवराहपुराणे
भगवच्छास्त्रे द्वितीयोऽध्यायः ।। २ ।।
आगे जारी........ श्रीवराहपुराण अध्याय 3
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