श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय १५
श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) पञ्चदशोऽध्यायः
Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 15
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
–
प्रेतकल्प पन्द्रहवाँ अध्याय
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय १५
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय १५ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित
गरुडपुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः
१५
गरुड उवाच ।
बगवन्ब्रूहि मे सर्वं यमलोकस्य
निर्णयम् ।
जन्तोः प्रयाणमारभ्य माहात्म्यं
वर्त्मविस्तरम् ॥ २,१५.१ ॥
गरुड ने कहा—हे भगवन्! जीवात्मा के प्रयाण- काल से लेकर यमलोक के मार्ग विस्तार तक का
वर्णन एवं माहात्म्य मुझे सुनायें ।
श्रीभगवानुवाच ।
शृणु तार्क्ष्य प्रवक्ष्यामि
यममार्गस्य निर्णयम् ।
प्रयाणकानि सर्वाणि नगराणि च षोडश ॥
२,१५.२ ॥
श्रीभगवान् ने कहा— हे
तार्क्ष्य ! मैं यथाक्रम यममार्ग का और जीवात्मा के गमनमार्ग में पड़नेवाले सोलह
पुरों का वर्णन करता हूँ, तुम उसे सुनो।
षाडशीतिसहस्राणि योजनानां प्रमाणतः
।
यमलोकस्य चोर्ध्वं वै अन्तरा
मानुषस्य च ॥ २,१५.३ ॥
कुकृतं दुष्कृतं वापि भुक्त्वा लोके
यथार्जितम् ।
कर्मयोगाद्यदा
कश्चिद्व्याधिरुत्पद्यते खग ॥ २,१५.४
॥
निमित्तमात्रं सर्वेषां
कृतकर्मानुसारतः ।
यस्य यो विहितो मृत्युः स तं
ध्रुवमवाप्नुयात् ॥ २,१५.५ ॥
हे गरुड! प्रमाणतः यमलोक और
मृत्युलोक के मध्य छियासी हजार योजन की दूरी है। हे खगेश ! इस संसार में
पूर्वार्जित सुकृत और दुष्कृत कर्मों का फल भोगकर अपने कर्म के अनुसार ही किसी
व्याधि का जन्म होता है और अपने द्वारा किये गये कर्मों के आधार पर निमित्तमात्र
बनकर कोई व्याधि उत्पन्न होती है। जिसकी जिस निमित्त से मृत्यु निश्चित है,
वह निमित्त किये गये कर्मों के अनुसार उसे अवश्य प्राप्त जाता है।
कर्मयोगाद्यदा देही मुञ्चत्यत्र
निजं वपुः ।
तदा भूमिगतं कुर्याद्गोमयेनोपलिप्य
च ॥ २,१५.६ ॥
तिलान्दर्भान्विकीर्याथ मुखे
स्वर्णं विनिः क्षिपेत् ।
तुलसींसन्निधौ कृत्वा शालग्रामशिलां
तथा ॥ २,१५.७ ॥
सेतु (एवं) सामादिसूक्तैस्तु मरणं
मुक्तिदायकम् ।
शलाकास्वर्णविक्षपैः
प्रतप्राणिगृहेषुच ॥ २,१५.८ ॥
एका वक्त्रे तु दातव्या घ्राणयुग्मे
तथा पुनः ।
अक्ष्णोश्च कर्णयोश्चैव द्वेद्वे
देये यथाक्रमम् ॥ २,१५.९ ॥
अथ लिङ्गे तथा चैका त्वेकां
ब्रह्माण्डकेक्षिपेत् ।
करयुग्मे च कण्ठे च तुलसीं च
प्रदापयेत् ॥ २,१५.१० ॥
वस्त्रयुग्मं च दातव्यं
कङ्कुमैश्चाक्षतैर्यजेत् ।
पुष्पमालायुतं कुर्यादन्यद्वारेण
सन्नयेत् ॥ २,१५.११ ॥
पुत्रस्तु बान्धवैः सार्धं
विप्रस्तु पुरवासिभिः ।
पितुः प्रेतं स्वयं पुत्रः
स्कन्धमारोप्य बान्धवैः ॥ २,१५.१२
॥
जीवात्मा कर्मभोग के कारण जब अपने
वर्तमान शरीर का परित्याग करता है, तब
भूमि को गोबर से लीपकर उसके ऊपर तिल और कुशासन बिछाकर उसी पर उसे लिटा दे। तदनन्तर
उस प्राणी के मुख में सुवर्ण डाले और उसके समीप तुलसी का वृक्ष एवं शालग्राम की
शिला को भी लाकर रखे। तत्पश्चात् यथाविधान विभिन्न सूक्तों का पाठ करना चाहिये,
क्योंकि ऐसा करने से मनुष्य की मृत्यु मुक्तिदायक होती है। उसके बाद
मरे हुए प्राणी के शरीरगत विभिन्न स्थानों में सोने की शलाकाओं को रखने का विधान
है, जिसके अनुसार क्रमशः एक शलाका मुख, एक-एक शलाका नाक के दोनों छिद्र, दो- दो शलाकाएँ
नेत्र और कान, एक शलाका लिङ्ग तथा एक शलाका उसके ब्रह्माण्ड में
रखनी चाहिये। उसके दोनों हाथ एवं कण्ठभाग में तुलसी रखें। उसके शव को दो वस्त्रों से
आच्छादित करके कुंकुम और अक्षत से पूजन करना चाहिये। तदनन्तर उसको पुष्पों की माला
से विभूषित करके उसे बन्धु बान्धवों तथा पुत्र, पुरवासियों के
साथ अन्य द्वार से ले जाय। उस समय अपने बान्धवों के साथ पुत्र को मरे हुए पिता के
शव को कन्धे पर रखकर स्वयं ले जाना चाहिये ।
गत्वा श्मशानदेशे तु
प्राड्मुखश्चोत्तरामुखम् ।
अदग्धपूर्वा या भूमिश्चितां तत्रैव
कारयेत् ॥ २,१५.१३ ॥
श्रीखण्डतुलसीकाष्ठसमित्पालाशसंभृताम्
।
श्मशान देश में पहुँचकर पुत्र,
पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख वहाँ की उस भूमि पर चिता का निर्माण
कराये, जो पहले से जली न हो। उस चिता में चन्दन, तुलसी और पलाश आदि की लकड़ी का प्रयोग करना चाहिये ।
विकलेन्द्रियसङ्घाते चैतन्ये जडतां
गते ॥ २,१५.१४ ॥
प्रचलन्ति ततः प्राणा
याम्यैर्निकटवर्तिभिः ।
एकीभूतं जगत्पश्येद्दैवी दृष्टिः
प्रजायते ॥ २,१५.१५ ॥
बीभत्सं दारुणं रूपं प्रणैः कण्ठं
समाश्रितैः ।
फेनमुद्गिरते कोपि मुखं लालाकुलं
भवेत् ॥ २,१५.१६ ॥
दुरात्मानश्च ताड्यन्ते किङ्करैः
पाशबन्धनैः ।
सुखेन कृतिनस्तत्र नीयन्ते
नाकनायकैः ॥ २,१५.१७ ॥
दुः खेन पापिनो यान्ति यममार्गे च
दुर्गमे ।
जब मरणासन्न व्यक्ति की इन्द्रियों का
समूह व्याकुल हो उठता है, चेतन शरीर जब
जडीभूत हो जाता है, उस समय प्राण शरीर को छोड़कर यमराज
के दूतों के साथ चल देते हैं। उस समय मृतक को दिव्य-दृष्टि प्राप्त होती है,
जिसके द्वारा वह समस्त संसार को देखता है। जब मृतक के प्राण कण्ठ में
आकर अटक जाते हैं, उस काल में उस आतुर व्यक्ति का रूप बड़ा
बीभत्स और कठोर हो जाता है। कोई मरता हुआ प्राणी मुख से फेन उगलता है, किसी का मुख लाला (लार) से भर जाता है। उस समय जो प्राणी दुरात्मा होते
हैं, उन्हें यमदूत अपने पाशबन्धनों से जकड़कर मारते हैं । जो
सुकृती हैं, उनको स्वर्ग के पार्षद अपने लोक को सुखपूर्वक ले
जाते हैं । यमलोक के दुर्गम मार्ग में पापियों को दुःख झेलते हुए जाना पड़ता है।
यमश्चतुर्भुजो भूत्वा
शङ्खचक्रगदादिभृत् ॥ २,१५.१८ ॥
पुण्यकर्मरतान्सम्यक्शुभान्मित्रवदाचरेत्
।
आहूय पापिनः सर्वान्यमो दण्डेन रज्जयेत्
॥ २,१५.१९ ॥
प्रलयाम्बुदनिर्घोषस्त्वञ्जनाद्रिसमप्रभः
।
महिषस्थो दुराराध्यो विद्युत्तेजः
समद्युतिः ॥ २,१५.२० ॥
योजनत्रयविस्तारदेहो रौद्रोऽतिभीषणः
।
लोहदण्डधरो भीमः पाशपाणिर्दुराकृतिः
॥ २,१५.२१ ॥
वक्रनेत्रोऽतिभयदो दर्शनं याति
पापिनाम् ।
अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषो हाहा कुर्वन्
कलेवरात् ॥ २,१५.२२ ॥
यमराज अपने लोक में शङ्ख,
चक्र तथा गदा आदि से विभूषित चतुर्भुज रूप धारण कर पुण्यकर्म
करनेवाले साधु पुरुषों के साथ मित्रवत् आचरण करते हैं। वे सभी पापियों को संनिकट
बुलाकर उन्हें अपने दण्ड से तर्जना देते हैं। वह यमराज प्रलयकालीन मेघ के समान
गर्जना करनेवाला है। अञ्जनगिरि के सदृश उसका कृष्णवर्ण है। वह एक बहुत बड़े भैंसे पर
सवार रहता है। अत्यन्त साहस करके ही लोग उसकी ओर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं।
वह विद्युत्के तेज के समान विद्यमान है। उसके शरीर का विस्तार तीन योजन है। वह
महाक्रोधी एवं अत्यन्त भयंकर है । भीमकाय दुराकृति यमराज अपने हाथ में लोहे का
दण्ड और पाश धारण करता है। उसके मुख तथा नेत्रों को देखने से ही पापियों के मन में
भय उत्पन्न हो उठता है। इस प्रकार का महाभयानक यमराज जब पापियों को दिखायी पड़ता
है, तब हाहाकार करता हुआ अंगुष्ठमात्र का मृत पुरुष अपने घर की
ओर देखता हुआ यमदूतों के द्वारा ले जाया जाता है ।
तदैव नीयते
दूतैर्याम्यैर्वोक्षन्स्वकं गृहम् ।
निर्विचेष्टं शरीरं तु
प्राणैर्मुक्तं जुगुप्सितम् ॥ २,१५.२३
॥
अस्पृश्यं जायते तूर्णं दुर्गन्धं
सर्वनिन्दितम् ।
त्रिधावस्था हि देहस्य
कृमिविड्मस्मसंज्ञिता ॥ २,१५.२४ ॥
को गर्वः क्रियते तार्क्ष्य
क्षणविध्वंसिभिर्नरैः ।
दानं वित्तादृता वाचः कीर्तिधर्मौ
तथायुषः ॥ २,१५.२५ ॥
परोपकरणं कायादसतः सारमुद्धृतम् ।
तस्यैवं नीयमानस्य दूताः
सन्तर्जयन्ति हि ॥ २,१५.२६ ॥
दर्शयन्तो भयं तीव्रं नरकाय पुनः
पुनः ।
शीघ्रं प्रचल दुष्टात्मन्
गतोऽसित्वं यमालये ॥ २,१५.२७ ॥
कुंभीपाकादिनरकांस्त्वां नेष्यामश्च
मा चिरम् ।
एवं वाचस्तदा शृण्वन्बन्धूनां
रुदितं तथा ॥ २,१५.२८ ॥
उच्चैर्हाहेति विलपन्नीयते
यमकिङ्करैः ।
प्राणों से मुक्त शरीर चेष्टाहीन हो
जाता है। उसको देखने से मन में घृणा उत्पन्न होने लगती है । वह तुरंत अस्पृश्य एवं
दुर्गन्धयुक्त और सभी प्रकार से निन्दित हो जाता है। यह शरीर अन्त में कीट,
विष्ठा या राख में परिवर्तित हो जाता है । हे तार्क्ष्य! क्षणभर में
विध्वंस होनेवाले इस शरीर पर कौन ऐसा होगा जो गर्व करेगा। इस असत् शरीर से
होनेवाले वित्त का दान, आदरपूर्वक वाणी, कीर्ति, धर्म, आयु और परोपकार
यही सारभूत है। यमलोक ले जाते हुए यमदूत प्राणी को बार-बार नरक का तीव्र भय दिखाते
हुए डाँटकर यह कहते हैं कि हे दुष्टात्मन् ! तू शीघ्र चल। तुझे यमराज के घर जाना
है। शीघ्र ही हम सब तुझे 'कुम्भीपाक' नामक
नरक में ले चलेंगे। उस समय इस प्रकार की वाणी और बन्धु-बान्धवों का रुदन सुनकर
ऊँचे स्वर में हा-हा करके विलाप करता हुआ वह मृतक यमदूतों के द्वारा यमलोक
पहुँचाया जाता है।
स्थाने श्राद्धं प्रकुर्वीत तथा
चेकादशेऽहनि ॥ २,१५.२९ ॥
मृस्योत्क्रान्तिसमयात्षट्पिण्डान्क्रमशो
ददेत् ।
मृतस्थाने तथा द्वारे चत्वरे
तार्क्ष्य कारणात् ॥ २,१५.३० ॥
विश्रामे काष्ठचयने तथा सञ्चयने च
षट् ।
शृणु तत्कारणं तार्क्ष्य
षट्पिण्डपरिकल्पने ॥ २,१५.३१ ॥
हे गरुड ! एकादशाह के दिन उचित
स्थान पर श्राद्ध करना चाहिये । प्राणोत्क्रमण से लेकर क्रमश: छः पिण्डदान करने
चाहिये। उन पिण्डों का दान यथाक्रम मृतस्थान, द्वार,
चत्वर (चौराहा), विश्राम- स्थल, काष्ठचयन (चिता) और अस्थिचयन के स्थान पर करना चाहिये । हे पक्षिन् ! इन
छः पिण्डों की परिकल्पना का कारण तुम सुनो।
मृतस्थाने शवो नाम तेन नाम्ना
प्रदीयते ।
तेन दत्तेन तृप्यन्ति
गृहवास्त्वधिदेवताः ॥ २,१५.३२ ॥
तेन
भूमिर्भवेत्तुष्टातदधिष्ठातृदेवता ।
द्वारे तु पिण्डं देयं च
पान्थमित्यभिधाय तु ॥ २,१५.३३ ॥
दत्तेन तेन प्रीणन्ति द्वारस्था
गृहदेवताः ।
चत्वरे खेचरो नाम तमुद्दिश्य
प्रदापयेत् ॥ २,१५.३४ ॥
न चोपघातं कुर्वन्ति भूताद्या
देवयोनयः ।
विश्रामे भूतसंज्ञोऽयं तेन तत्र
प्रदापयेत् ॥ २,१५.३५ ॥
पिशाचा राक्षसा यक्षा ये चान्ये
दिशि वासिनः ।
तस्य
होतव्यदेहस्यनैवायोग्यत्वकारकाः ॥ २,१५.३६
॥
चितापिण्ढप्रभृतितः
प्रेतत्वमुपजायते ।
चितायां साधकं नाम वदन्त्येके
खगेश्वर ॥ २,१५.३७ ॥
केचित्तं प्रेतमेवाहुर्यथा कल्पविदो
बुधाः ।
तदादि तत्रतत्रापि प्रेतनाम्ना
प्रदीयते ॥ २,१५.३८ ॥
इत्येवं पञ्चभिः पिण्डैः
शवस्याहुतियोग्यता ।
अन्यथा चोपघाताय पूर्वोक्तास्ते
भवन्ति हि ॥ २,१५.३९ ॥
हे तार्क्ष्य ! जिस स्थान में
मनुष्य मरता है, उस स्थान पर मृतक के नाम से 'शव' नाम का पिण्ड दिया जाता है। उस पिण्डदान को
देने से गृह के वास्तुदेवता प्रसन्न हो जाते हैं और उससे भूमि तथा भूमि के
अधिष्ठातृ देवता प्रसन्न होते हैं। द्वार पर जो दूसरा पिण्डदान दिया जाता है,
उसका नाम 'पान्थ' है । उसे देने से द्वारस्थ गृहदेवता प्रसन्न होते हैं। चौराहे पर '
खेचर' नामक पिण्डदान होता है। इस पिण्डदान
को देने से भूत आदि देवयोनियाँ बाधा नहीं करतीं । विश्राम स्थल पर होनेवाला
पिण्डदान 'भूत' संज्ञक है। इसको
देने से पिशाच, राक्षस और यक्ष आदि जो अन्य दिग्वासी योनियाँ
हैं, वे जलाये जाने योग्य उस मृतक शरीर को अयोग्य नहीं
बनातीं । हे खगेश्वर! चिता-स्थल पर पिण्डदान देने से प्रेतत्व की उत्पत्ति होती
है। एक मत में चिता पर दिये जानेवाले पिण्डदान का नाम साधक है और प्रेतकल्प के
विद्वानों ने इस श्राद्ध को प्रेत के नाम से अभिहित किया है । चिता में पिण्डदान के
बाद ही 'प्रेत' नाम से पिण्डदान
देना चाहिये। इस प्रकार इन पाँचों पिण्डों से शव आहुति के योग्य होता है अन्यथा
पूर्वोक्त उपघातक होते हैं ।
उत्क्रामे प्रथमं पिण्डं तथा
चार्धपयेपि च ।
चितायां तु तृतीयं स्यात्त्रयः
पिण्डाश्च कल्पिताः ॥ २,१५.४० ॥
विधाता प्रथमे पिण्डे द्वितीये
गरुडध्वजः ।
तृतीये यमदूताश्च प्रयोगः
परिकीर्तितः ॥ २,१५.४१ ॥
दत्ते तृतीये पिण्डेऽस्मिन्देहदोषैः
प्रमुच्यते ।
प्राणोत्क्रमण के स्थान पर पहला
पिण्डदान देना चाहिये । उसके बाद दूसरा पिण्डदान आधे मार्ग में और तीसरा चिता पर
देना चाहिये। पहले पिण्ड में विधाता, दूसरे
में गरुडध्वज तथा तीसरे में यमदूत इस प्रकार का प्रयोग कहा गया है। तीसरा पिण्डदान
देते ही मृत व्यक्ति शरीर के दोषों से मुक्त हो जाता है।
आधारभूतजीवश्चज्वलनैर्ज्वालयेच्चिताम्
॥ २,१५.४२ ॥
संमृज्य चोपलिप्याथ
उल्लिख्योद्धृत्य वेदिकाम् ।
अभ्युक्ष्योपसमाधाय वह्निं तत्रः
विधानतः ॥ २,१५.४३ ॥
पुष्पाक्षतैश्च सम्पूज्य देवं
क्रव्यादसंज्ञकम् ।
इसके बाद चिता प्रज्वलित करने के
लिये वेदि का निर्माण करके उसका उल्लेखन, उद्धरण
और अभ्युक्षण आदि करके विधिपूर्वक अग्नि- स्थापन करके पुष्प और अक्षत से क्रव्याद
नाम के अग्निदेव की पूजा करके यह प्रार्थना करनी चाहिये—
त्वं भूतकृज्जगद्योने त्वं
लोकपरिपालकः ॥ २,१५.४४ ॥
उपसंहारकस्तस्मादेनं स्वर्गं मृतं
नय ।
'हे क्रव्याद अग्निदेव! आप
महाभूततत्त्वों से बने हुए इस जगत्के कारण, पालनहार एवं
संहारक हैं। अतः इस मृत व्यक्ति को आप स्वर्ग पहुँचायें ।'
इति क्रव्यादमभ्यर्च्य
शरीराहुतिमाचरेत् ॥ २,१५.४५ ॥
अर्धदग्धे तथा देहे
दद्यादाज्याहुतिं ततः ।
लोमभ्यः स्वोतिवाक्येन कुर्याद्धोमं
यथाविधि ॥ २,१५.४६ ॥
चितामारोप्य तं प्रेतं हुनेदाज्याहुतिं
ततः ।
यमाय चान्तकायेति मृत्यवे ब्रह्मणे
तथा ॥ २,१५.४७ ॥
जातवेदोमुके देया एका प्रेतमुखे तथा
।
ऊर्ध्वं तु ज्वालयेद्वह्निं
पूर्वभागे चितां पुनः ॥ २,१५.४८ ॥
इस प्रकार क्रव्याद नामक अग्निदेव की
विधिवत् पूजा करके शव को जलाने का कार्य करे। मृतक का आधा शरीर जल जाने पर घृत की
आहुति देनी चाहिये । 'लोमभ्यः स्वाहा०'
इस मन्त्र से यथाविधि होम करना चाहिये । चिता पर उस प्रेत को रखकर
आज्याहुति देनी चाहिये । यम, अन्तक, मृत्यु,
ब्रह्मा, जातवेदस्के नाम से आहुति देकर एक
आहुति प्रेत मुख पर दे । सबसे पहले अग्नि को ऊपर की ओर प्रज्वलित करे। तदनन्तर
चिता के पूर्वभाग को उसी अग्नि से जलाये। इस प्रकार चिता को जलाकर निम्नाङ्कित
मन्त्र से अभिमन्त्रित तिलमिश्रित आज्याहुति पुनः प्रदान करे-
अस्मात्त्वमधिजातोसि त्वदयं जायतां
पुनः ।
असौ स्वर्गाय लोकाय स्वाहा ज्वलति
पावकः ॥ २,१५.४९ ॥
‘हे अग्निदेव! आप इससे उत्पन्न हुए हैं। पुनः आपसे यह उत्पन्न हुआ है। इस
मृतक की स्वर्गकामना के लिये आपके निमित्त यह स्वाहा है ।'
एवमाज्याहुतिं दत्त्वा तिलमिश्रां
समन्त्रकाम् ।
ततो दाहः प्रकर्तव्यः पुत्रेण किल
निश्चितम् ॥ २,१५.५० ॥
रोदितव्यं ततो गाढमेवं तस्य सुखं
भवेत् ।
दाहस्यानन्तरं तत्र कृत्वा
सञ्चयनक्रियाम् ॥ २,१५.५१ ॥
प्रेतपिण्डं प्रदद्याच्च
दाहार्तिशमनं खग ।
इस प्रकार तिलमिश्रित समन्त्रक
आज्याहुति देकर पुत्र को दाह करना चाहिये। उस समय उसे तेज रुदन करना चाहिये। ऐसा
करने से मृतक को सुख प्राप्त होता है । दाह-संस्कार के पश्चात् वहीं पर
अस्थि-संचयन करना चाहिये। उसके बाद प्रेत के दाहजन्य क्लेश की शान्ति के लिये
पिण्डदान दे।
तावद्भूताः प्रतीक्षन्ते तं प्रेतं
बान्धवार्थिनम् ॥ २,१५.५२ ॥
दाहस्यानन्तरं कार्यं पुत्रैः
स्नानं सचैलकम् ।
तिलोदकं ततो दद्यान्नामगोत्रेण
तिष्ठतु ॥ २,१५.५३ ॥
ततो जनपदैः सर्वैर्दातव्या करतालिका
।
विष्णुर्विष्णुरिति ब्रूयाद्गुणैः
प्रेतमुदीरयेत् ॥ २,१५.५४ ॥
जनाः सर्वे समास्तस्य गृहमागत्य
सर्वशः ।
द्वारस्य दक्षिणे भागे गोमयं
गौरसर्षपान् ॥ २,१५.५५ ॥
निधाय वरुणं देवमन्तर्धाय
स्ववेश्मनि ।
भक्षयेन्निम्बपत्राणि घृतं प्राश्य
गृहं व्रजेत् ॥ २,१५.५६ ॥
दाह-संस्कार के पश्चात् मृत व्यक्ति
के पुत्रों को वस्त्र के सहित स्नान करना चाहिये । तदनन्तर नामगोत्रोच्चार करते
हुए वे तिलाञ्जलि दें। उसके बाद गाँव या जनपद के सभी लोग ताली बजा- बजाकर
विष्णु-नाम-संकीर्तन और मृतक के गुणों की चर्चा करें। सभी लोग उस मृत व्यक्ति के
घर आकर द्वार के दक्षिण भाग में गोमय और श्वेत सरसों को रखें। अपने मन में वरुणदेव
का ध्यान कर नीम की पत्तियों का भक्षण तथा घी का प्राशन करके वे सभी अपने-अपने घर
जायँ ।
केचिद्दुग्धेन सिञ्चन्ति चितास्थानं
खगेश्वर ।
अश्रुपातं न कुर्वीत दद्यादस्मै
जलाञ्जलीन् ॥ २,१५.५७ ॥
श्लेष्माश्रु बान्धवैर्मुक्तं
प्रेतो भुङ्क्ते यतोऽवशः ।
अतो न रोदितव्यं हि क्रियाः कार्याः
स्वशक्तितः ॥ २,१५.५८ ॥
हे खगेश्वर! कुछ लोग चितास्थान को
दूध से सींचते हैं। मृतक को जलाञ्जलि देते हुए अश्रुपात नहीं करना चाहिये।
बन्धु-बान्धवों के जो उस समय रोते हुए मुँह से कफ और नेत्रों से आँसू गिराया जाता
है,
उसको ही वह प्रेत विवश होकर खाता है। अतः उन सभी को उस समय रोना
नहीं चाहिये, अपनी शक्ति के अनुसार क्रिया करनी चाहिये ।
दुग्धं च मृन्मये पात्रे तोयं
दद्याद्दिनत्रयम् ।
सूर्ये चास्तं गते तार्क्ष्य
वलभ्यां चत्वरेऽपि वा ॥ २,१५.५९ ॥
बद्धः संमूढहृदयो
देहमिच्छन्कृतानुगः ।
श्मशानं चत्वरं गेहं वीक्षन्याम्यैः
स नीयते ॥ २,१५.६० ॥
गर्ते पिण्डा दशाहं च दातव्याश्च दिनेदिने
।
जलाञ्जलीः प्रदातव्याः
प्रेतमुद्दिश्य नित्यशः ॥ २,१५.६१
॥
तावद्वृद्धिश्च कर्तव्या
यावत्पिण्डं दशाहिकम् ।
पुत्त्रेण हि क्रिया कार्या भार्यया
तदभावतः ॥ २,१५.६२ ॥
तदभावे च शिष्येण तदभावे सहोदरः ।
श्मशाने चान्यतीर्थे वा जलं पिण्डं
च दापयेत् ॥ २,१५.६३ ॥
ओदनानि च सक्तूंश्च शाकमूलफलादिना ।
प्रथमेऽहनि
यद्दद्यात्तद्दद्यादुत्तरेऽहनि ॥ २,१५.६४
॥
हे तार्क्ष्य ! सूर्य अस्त हो जाने के
बाद घर के बाहर अथवा कहीं एकान्त में चौराहे पर दाह-क्रिया के दिन से लेकर तीन दिन
तक मिट्टी के पात्र में दूध और जल देना चाहिये; क्योंकि
मरने के बाद जो मूढ- हृदय जीवात्मा है, वह पुनः उस शरीर को प्राप्त
करने की इच्छा से यमदूतों के पीछे-पीछे श्मशान, चौराहा तथा
घर का दर्शन करता हुआ यमलोक को जाता है । प्रतिदिन दशाहतक प्रेत के लिये पिण्डदान
और जलाञ्जलि देनी चाहिये। जबतक दशाह- संस्कार न हो जाय, तबतक
एक जलाञ्जलि प्रतिदिन अधिक बढ़ाना अनिवार्य है। यह और्ध्वदैहिक संस्कार पुत्र के
द्वारा अपेक्षित है। उसके अभाव में पत्नी को करना चाहिये । पत्नी के न होने पर
शिष्य, उसके न होने पर सहोदर भाई कर सकता है। श्मशान अथवा
अन्य किसी तीर्थ में मृतक के लिये जल और पिण्डदान देना चाहिये। पहले दिन शाक - मूल
और फल, भात या सत्तू आदि में से जिस किसी द्वारा पिण्डदान
दिया जाय, उसी के द्वारा बाद के दिनों में भी पिण्डदान देना
चाहिये ।
दिनानि दश पिण्डांश्च कुर्वन्त्यत्र
सुतादयः ।
प्रत्यहं ते विभज्यन्ते चतुर्भागाः
खगेश्वर ॥ २,१५.६५ ॥
भागद्वयं तु देहार्थं प्रीतिदं
भूतपञ्चके ।
तृतीयं यमदूतानां चतुर्थं
चोपजीव्यति ॥ २,१५.६६ ॥
अहोरात्रैस्तु नवभिः प्रेतो
निष्पत्तिमाप्नुयात् ।
जन्तोर्निष्पन्नदेहस्य दशमे
वलवत्क्षुधा ॥ २,१५.६७ ॥
हे खगेश ! दस दिनों तक प्रेत के
उद्देश्य से पुत्रगण पिण्डदान देते हैं । दिये गये पिण्ड का प्रतिदिन चार भाग हो
जाता है,
उसके दो भाग से मृतक का शरीर बनता है, तीसरा
भाग यमदूत ले लेते हैं और चौथा भाग मृतक को खाने के लिये मिलता है। नौ दिन-रात में
प्रेत पुनः शरीरयुक्त हो जाता है। शरीर बन जाने पर दसवें पिण्ड से प्राणी को
अत्यधिक भूख लगती है ।
न विधिर्नैव मन्त्रश्च न
स्वधावाहनाशिषः ।
नाम गोत्रं समुच्चार्य यद्दत्तं
तद्दशाहिकम् ॥ २,१५.६८ ॥
दग्धे देहे पुनर्देहमेवमुत्पद्यते
खग ।
प्रथमेऽहनि यः पिण्डस्तेन मूर्धा
प्रजायते ॥ २,१५.६९ ॥
ग्रीवा स्कन्धौ द्वितीये च तृतीये
हृदयं भवेत् ।
चतुर्थेन भवेत्पृष्ठं पञ्चमे
नाभिरेव च ॥ २,१५.७० ॥
षट्सप्तमे कटी गुह्यमृरू चाप्यष्टमे
तथा ।
तालू पादौ च नवमे दशमेऽह्नि क्षुधा
भवेत् ॥ २,१५.७१ ॥
देहं प्राप्तः क्षुधाविष्टो गृहे
द्वारे च तिष्ठति ।
दशमेऽहनि यः पिण्डस्तं दद्यादामिषेण
तु ॥ २,१५.७२ ॥
यतो देहे समुत्पन्ने प्रेतोऽतीव
क्षुधान्वितः ।
अतस्त्वामिषबाह्येन क्षुधा तस्य न
नश्यति ॥ २,१५.७३ ॥
दस दिन के पिण्ड में विधि*, मन्त्र,
स्वधा, आवाहन और आशीर्वाद का प्रयोग नहीं होता
है, केवल नाम तथा गोत्रोच्चारपूर्वक पिण्डदान दिया जाता है।
हे पक्षिन् ! मृतक का दाह-संस्कार हो जाने के पश्चात् पुनः शरीर उत्पन्न होता है ।
पहले दिन जो पिण्डदान दिया जाता है, उससे मूर्धा, दूसरे दिन के पिण्डदान से ग्रीवा और दोनों स्कन्ध, तीसरे
दिन के पिण्डदान से हृदय, चौथे दिन के पिण्डदान से पृष्ठ,
पाँचवें दिन पिण्डदान से नाभि, छठे दिन के
पिण्डदान से कटिप्रदेश, सातवें दिन पिण्डदान से गुह्यभाग,
आठवें दिन के पिण्डदान से ऊरु, नौवें दिन के
पिण्डदान से तालु-पैर और दसवें दिन के पिण्डदान से क्षुधा की उत्पत्ति होती है।
जीवात्मा शरीर प्राप्त करने के पश्चात् भूख से पीड़ित हो करके घर के दरवाजे पर रहता
है। दसवें दिन जो पिण्डदान होता है, उसको मृतक के प्रिय
भोज्य- पदार्थ से बना करके देना चाहिये, क्योंकि शरीर-
निर्माण हो जाने पर मृतक को अत्यधिक भूख लग जाती है, प्रिय
भोज्य पदार्थ के अतिरिक्त अन्य किसी अन्नादिक पदार्थों से बने हुए पिण्ड का दान
देने से उसकी भूख दूर नहीं होती है ।
* पार्वणादि श्राद्धों
में निर्दिष्ट पिण्डदानविधि ।
एकादशे द्वादशाहे प्रेतो भुङ्क्ते
दिनद्वयम् ।
योषितः पुरुषास्यापि प्रेतशब्दं
समुच्चरेत् ॥ २,१५.७४ ॥
दीपमन्नं जलं वस्त्रं
यत्किञ्चिद्वस्तु दीयते ।
प्रेतशब्देन तद्देयं मृस्यानन्ददायकम्
॥ २,१५.७५ ॥
एकादशाह और द्वादशाह के दिन प्रेत
भोजन करता है । मरे हुए स्त्री-पुरुष दोनों के लिये प्रेत शब्द का उच्चारण करना
चाहिये। उन दिनों दीप, अन्न, जल, वस्त्र जो कुछ भी दिया जाता है, उसको प्रेत शब्द के द्वारा देना चाहिये, क्योंकि वह
मृतक के लिये आनन्ददायक होता है।
त्रयोदशेऽह्नि स प्रेतो नीयते च
महापथे ।
पिण्डजं देहमाश्रित्य दिवा नक्तं
बुभुक्षितः ॥ २,१५.७६ ॥
शीतोष्णशङ्कुक्रव्यादवह्निमार्गस्तु
पापिनाम् ।
क्षुधा तृष्णात्मिका चैव सव्व
सौम्यं कृतात्मनाम् ॥ २,१५.७७ ॥
मार्गे चैतानि दुः खानि असिपत्रवनान्विते
।
क्षुत्पिपासार्दितो नित्यं यमदृतैः
प्रपीडितः ॥ २,१५.७८ ॥
अहन्यहनि वै प्रेतो योजनानां
शतद्वयम् ।
चत्वारिंशत्तथा सप्त अहोरात्रेण
गच्छति ॥ २,१५.७९ ॥
गृहीतो यमपाशैश्च हाहेति रुदिते तु
सः ।
स्वगृहं तु परित्यज्य याम्यं
पुरमनुव्रजेत् ॥ २,१५.८० ॥
क्रमेण याति स प्रेतः पुरं याम्यं
शुभाशुभम् ।
अतीत्य तानितान्येव मार्गे पुरवराणि
च ॥ २,१५.८१ ॥
याम्यं सौरिपुरं नगेन्द्रभवनं
गन्धर्वशैलागमौ ।
क्रोञ्चं क्रूरपुरं विचित्रभवनं
बह्वापदं दुः खदम् ॥ २,१५.८२ ॥
नानाक्रन्दपुरं सुतप्रभवनं रौद्रं
पयोवर्षणं ।
शीताढ्यं बहुधर्मभीतभवनं याम्यं
पुरं चाग्रतः ॥ २,१५.८३ ॥
त्रयोदशाह को पिण्डज शरीर धारण करके
भूख-प्यास से पीड़ित वह प्रेत यमदूतों के द्वारा महापथ पर लाया जाता है। जो प्रेत
पापी होते हैं, उनका मार्ग शीत, ताप, शंकु के आकार का चुभनेवाला, मांस खानेवाले जन्तु तथा अग्नि से परिव्याप्त रहता है। जो सुकृती हैं उनका
मार्ग सब प्रकार से सौम्य है, उनको उस मार्ग में कोई कष्ट
नहीं होता है । असिपत्रवन से व्याप्त उस मार्ग में इतने दुःख हैं कि क्षुधा–प्यास से
पीड़ित उस प्रेत को नित्य यमदूत अत्यधिक संत्रास देते हैं । प्रतिदिन वह प्रेत दो
सौ सैंतालिस योजन चलता है । यमदूतों के पाश से बँधा, हा-हा
करके विलाप करता हुआ वह प्रेत अपने घर को छोड़कर दिन और रात चलकर यमलोक पहुँचता है
। उस महापथ में पड़नेवाले प्रसिद्ध पुरों के शुभाशुभ भोग प्राप्त करते हुए वह
यमलोक को जाता है। इस मार्ग में क्रमश: - याम्यपुर, सौरिपुर,
नगेन्द्रभवन, गन्धर्वनगर, शैलागम, क्रौञ्चपुर, क्रूरपुर,
विचित्रभवन, बह्वापद, दुःखद,
नानाक्रन्दनपुर, सुतप्तभवन, रौद्रनगर, पयोवर्षण, शीताढ्य
और बहुधर्म-भीतिभवन नामक प्रसिद्ध पुर हैं ।
त्रयोदशेऽह्नि स प्रेतो गृहीतो
यमकिङ्करैः ।
तस्मिन्मार्गे ब्रजत्येको गृहीत इव
मर्कटः ॥ २,१५.८४ ॥
तथव स व्रजन्मार्गे पुत्रपुत्रेति च
ब्रुवन् ।
हाहेति क्रन्दते नित्यं कीदृशं तु
मया कृतम् ॥ २,१५.८५ ॥
मानुष्यं लभ्यते कस्मादिति ब्रूते
प्रसर्पति ।
महता पुण्ययोगेन मानुष्यं जन्म
लभ्यते ॥ २,१५.८६ ॥
न तत्प्राप्य प्रदत्तं हि याचकेभ्यः
स्वकं धनम् ।
पराधीनं तदभवदिति ब्रूते (रौति)
सगद्गदः ॥ २,१५.८७ ॥
त्रयोदशाह अर्थात् तेरहवीं के दिन
यमदूत प्रेत को उस मार्ग पर उसी प्रकार से पकड़कर ले जाते हैं,
जिस प्रकार मनुष्य बंदर को पकड़कर ले जाता है। उस प्रकार से बँधा
हुआ वह प्रेत चलते हुए नित्य 'हा पुत्र, हा पुत्र' का करुण विलाप करता है। वह कहता है कि
मैंने किस प्रकार का कर्म किया है जो ऐसा कष्ट मैं भोग रहा हूँ। वह यह भी कहते हुए
चलता है कि यह मनुष्य योनि कैसे प्राप्त होती है। मैंने इसको व्यर्थ में गँवा दिया
है। प्राणी इस मनुष्य योनि को बहुत बड़े पुण्य से प्राप्त करता है। उसको पाकर
मैंने याचकों को स्वार्जित धन दान में नहीं दिया। आज वह भी पराधीन हो गया है। ऐसा
कहकर वह गद्गद हो उठता है ।
किङ्करैः पीड्यतेऽत्यर्थं स्मरते
पूर्वदैहिकम् ॥ २,१५.८८ ॥
जब यमदूत उसको अत्यधिक पीड़ित करते
हैं तो वह बार- बार अपने पूर्व- शरीरजन्य कर्मों का स्मरण करता हुआ इस प्रकार कहता
है-
सुखस्य दुः खस्य न कोपि दाता परो
ददातीति कुबुद्धिरेषा ।
पुरा कृतं कर्म सदैव भुज्यते
देहिन्क्वचिन्निस्तर यत्त्वया कृतम् ॥ २,१५.८९ ॥
मया न दत्तं न हुतं हुताशने तपो न
तप्तं हिमशैलगह्वरे ।
न सेवितं गाङ्गमहो महाजलं
देहिन्क्वचिन्निस्तर यत्त्वया कृतम् ॥ २,१५.९० ॥
न नित्यदानं न गावाह्निकं कृतं न
वेददानं न च शास्त्रपुस्तकम् ।
पुरा नदृष्टं न च सेवितोऽध्वा
देहिन्क्वचिन्निस्तर यत्त्वया कृतम् ॥ २,१५.९१ ॥
जलाशयो नैव कृतो हि निर्जले
मनुष्यहेतोः पशुपक्षिहेतवे ।
गोतृप्तिहेतोर्न कृतं हि गोचरं
देहिन्क्वचिन्नस्तर यत्त्वया कृतम् ॥ २,१५.९२
॥
सुख-दुःख का दाता कोई दूसरा नहीं
है। जो लोग सुख-दुःख का दाता दूसरे को समझते हैं, वे कुबुद्धि ही हैं । जीवात्मा सदैव पहले किये गये कर्म का भोग करता है ।
हे देही ! तुमने जो कुछ किया है, उसमें निस्तार करो। मैंने न
दान दिया है, न अग्नि में आहुति डाली है, न हिमालय पर्वत की गुफा में जाकर तपस्या ही की है और न तो गङ्गा परम
पवित्र जल का ही सेवन किया है। हे जीव ! तुमने जो कुछ भी किया है, उसी का फल भोग करो। हे देही ! पहले तुमने नित्य न दान दिया है, न गोदान किया है, न आह्निक कृत्य किया है, न तो वेद का दान किया, न शास्त्र को देखा और न
शास्त्रबोधित मार्ग का सेवन किया, इसलिये हे जीव ! जैसा
तुमने किया है, अब उसी में अपना निस्तार करो। हे देही! तुमने
जलरहित देश में मनुष्य और पशु-पक्षियों के लिये जलाशय का निर्माण नहीं करवाया है,
न गायों की क्षुधा शान्ति लिये गोचर भूमि ही छोड़ी है। हे देही! जो
कुछ किया है, अब उसका फल भोग करो।
मया न भुक्तं पतिसङ्गसौख्यं
वह्निप्रवेशो न कृतो मृते सति ।
तस्मिन्मृते तद्व्रतपालनं वा देहिन्क्वचिन्निस्तर
यत्त्वया कृतम् ॥ २,१५.९३ ॥
मासोपवासैर्न विशोषितं
वपुश्चान्द्रायणैर्वा नियमैश्च संहतैः ।
नारीशरीरं बहुदुः खभाजनं लब्धं मया
पूर्वकृतैर्विकर्मभिः ॥ २,१५.९४ ॥
उक्तानि वाच्यानि मया नराणामतः
शृणुष्वावहितोऽपि पक्षिन् ।
स्त्रीणां शरीरं प्रतिलभ्य देही
ब्रवीति कर्माणि कृतानि पूर्वम् ॥ २,१५.९५
॥
हे पक्षिन् ! पुरुष प्रेत के द्वारा
कहे गये उक्त वचनों को मैंने सुनाया। अब स्त्री का शरीर लेकर देही पूर्व किये हुए
कर्मों के सम्बन्ध में जैसा कहता है, उसे
सावधान होकर सुनो- 'हे देहिन् ! मैंने पति के साथ रहकर उन्हें
सुख नहीं दिया है। उनके मरने पर मैं उनके साथ चिता में भी नहीं प्रविष्ट हुई हूँ
और न तो उनके मर जाने पर उस वैधव्य व्रत का ही पालन किया है, अतएव जो कुछ नहीं किया है उसका फलभोग मैं कर रही हूँ। मैंने मासोपवास अथवा
चान्द्रायणव्रत के नियमों से इस शरीर का शोधन भी नहीं किया है। हे जीव ! स्त्री का
शरीर बहुत-से दुःखों का पात्र है, पहले किये गये बुरे कर्मों
के अनुसार मैंने इसे प्राप्त किया और इसे भी व्यर्थ ही गँवा दिया।
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मदृप्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे यमलोकविस्तार तन्माहात्म्यतद्यान निरूपणं
नाम पञ्चदशोऽध्यायः॥
जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय 16
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