श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय १४
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय १४ और्ध्वदैहिक क्रिया, गोदान एवं वृषोत्सर्ग का माहात्म्य का वर्णन है।
श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) चतुर्दशोऽध्यायः
Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 14
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
–
प्रेतकल्प चौदहवाँ अध्याय
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय १४
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय १४ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित
गरुडपुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः १४
गरुड उवाच ।
आर्तेन म्रियमाणेन यद्दत्तं तत्फलं
वद ।
स्वस्थावस्थेन दत्तेन विधिहीनेन वा
विभो ॥ २,१४.१ ॥
गरुड ने कहा—हे विभो ! मृत्यु को प्राप्त कर रहे दु:खित व्यक्ति द्वारा जो दान दिया
जाता है, उसका क्या फल है? स्वस्थ
अवस्था में और विधिहीन जो दान दिया जाता है, उसका क्या फल है
?
श्रीकृष्ण उवाच ।
एका गौः स्वस्थचित्तस्य ह्यातुरस्य
च गोशतम् ।
सहस्रं म्रियमाणस्य दत्तं
वित्तविवर्जितम् ॥ २,१४.२ ॥
मृतस्यैव पुनर्लक्षं विधिपूतं च
तत्समम् ।
तीर्थपात्रसमायोगादेका
गौर्लक्षपुण्यदा ॥ २,१४.३ ॥
श्रीकृष्ण ने कहा- हे पक्षिश्रेष्ठ!
स्वस्थ चित्तवाले मनुष्य के द्वारा दान में दी गयी एक गौ,
रोगी पुरुष के द्वारा दान में दी गयी एक सौ गाय, मर रहे प्राणी के द्वारा दान में धन को छोड़कर दी गयी हजार गाय तथा
व्यक्ति के मर जाने पर विधिवत् पुत्र-पौत्रादि के द्वारा दान में दी गयी एक लाख
गायों के बराबर होती है। तीर्थ एवं पात्र के समायोग से यथाविधि एक ही गोदान कर
दिया जाय तो वह अकेली गौ दाता को एक लाख गोदान का पुण्य प्रदान करती है।
पात्रे दत्ते खगश्रेष्ठ अहन्यहनि
वर्धते ।
दातुर्दानमपापाय ज्ञानिनां च
प्रतिग्रहः ॥ २,१४.४ ॥
विषशीतापहो मन्त्रवह्निः किं
दोषभाजनम् ।
दातव्यं प्रत्यहं पात्रे निमित्तेषु
विशेषतः ॥ २,१४.५ ॥
नापात्रे विदुषा किञ्चिदात्मनः
श्रेय इच्छता ।
अपात्रे जातु गौर्दत्ता दातारं नरकं
नयेत् ॥ २,१४.६ ॥
कुलैकविंशतियुतं ग्रहीतारं च
पातयेत् ।
हे खगराज ! सत्पात्र को दिया गया
दान दिन- दिन बढ़ता है। दाता के दिये हुए दान को यदि ज्ञानी ग्रहण करता है तो उसे
पाप नहीं लगता । विष और शीत का अपहरण करनेवाले मन्त्र और अग्नि क्या दोषभाजन होते
हैं ?
अतः प्रतिदिन सत्पात्र को विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिये दान
देना चाहिये । अपने कल्याण की इच्छा करनेवाले व्यक्ति को अपात्र को कुछ भी नहीं
देना चाहिये । यदि कदाचित् अपात्र के लिये गौ का दान दिया जाता है तो वह दाता को
नरक में ले जाता है और अपात्र ग्रहीता को इक्कीस पीढ़ियों सहित नरक में ढकेल देता
है ।
देहान्तरं परिप्राप्य स्वहस्तेन कृतं
च यत् ॥ २,१४.७ ॥
धनं भूमिगतं यद्वत्स्वहस्तेन
निवेशितम् ।
तद्वत्फलमवाप्नोति ह्यहं वच्मि
खगेश्वर ॥ २,१४.८ ॥
अपुत्रोऽपि विशेषेण क्रियां
चैवान्ध्वदौहिकीम् ।
प्रकुर्यान्मोक्षकामश्च निर्धनश्च
विशेषतः ॥ २,१४.९ ॥
स्वल्पेनापि हि वित्तेन स्वयं
हस्तेन यत्कृतम् ।
अक्षयं याति तत्सर्वं यथाज्यं च
हुताशने ॥ २,१४.१० ॥
हे खगेश ! जिस प्रकार से अपने हाथ से
भूमि में निवेश किया गया धन मनुष्य के आवश्यकतानुसार वह जब चाहे काम में आ सकता है,
उसी प्रकार अपने हाथ से किया गया दान भी देहान्तर में प्राप्त होता
है। निर्धन होने के बाद भी अपुत्र व्यक्ति को मोक्ष की कामना से अपनी और्ध्वदैहिक
क्रिया अवश्य कर लेनी चाहिये। थोड़े धन से भी अपने हाथ से की गयी अपनी और्ध्वदैहिक
क्रिया उसी प्रकार से अक्षय फल देनेवाली होती है, जिस प्रकार
अग्नि में डाली हुई आज्याहुति ।
एका चैकस्य दातव्या शय्या कन्या
पयस्विनी ।
सा विक्रीता वा दहत्यासप्तमं कुलम्
॥ २,१४.११ ॥
तस्मात्सर्वं प्रकुर्वीत चञ्चले
जीविते सति ।
गृहीतदानपाथेयः सुखं याति महाध्वनि
॥ २,१४.१२ ॥
अन्यथा क्लिश्यते जन्तुः पाथेयरहितः
पथि ।
एवं ज्ञात्वा खगश्रेष्ठ वृषयज्ञं
समाचरेत् ॥ २,१४.१३ ॥
दान लेने के योग्य व्यक्ति को ही
शय्या कन्या एवं गौ का दान देना चाहिये और यह भी ध्यान रखना चाहिये कि दो शय्याएँ
एक को न दी जायँ, दो कन्याएँ एक को न
दी जायँ तथा दो गायें भी एक को न दी जायँ । इसका आशय यह है कि भलीभाँति गोपालन में
समर्थ, गोपालन के प्रति आस्थावान् तथा दान लेने योग्य
प्रतिग्रहीता को ही गोदान करना चाहिये। इसके अतिरिक्त यह भी विशेषरूप में ज्ञातव्य
है कि दो दान लेने योग्य व्यक्तियों को भी एक गौ कदापि न दी जाय; क्योंकि यदि वह किसी के हाथ बेची जाती है अथवा उसका किन्हीं दो या दो से
अधिक लोगों के बीच विभाजन होता है तो ऐसा करनेवाले मनुष्य को सात पीढ़ियों के सहित
वह दान जला देता है। अत: इस नश्वर जीवन में समस्त और्ध्वदेहिक कर्म स्वयं सम्पन्न
कर लेना चाहिये । पाथेय के रूप में दिये गये दानादि को प्राप्त करके प्राणी उस
महाप्रयाण के मार्ग में सुखपूर्वक जाता है, अन्यथा पाथेयरहित
जीवात्मा अनेक प्रकार का कष्ट झेलता है। ऐसा जानकर मनुष्य विधिवत् वृषोत्सर्ग करे।
अकृत्वा म्रियते यस्तु अपुत्रो नैव
मुक्तिभाक् ।
अपुत्रोऽपि हि यः कुर्यात्सुखं याति
महापथे ॥ २,१४.१४ ॥
अग्निहोत्राधिभिर्यज्ञैर्दानैश्च
विविधैरपि ।
न तां गतिमवाप्नोति वृषोत्सर्गेण या
गतिः ॥ २,१४.१५ ॥
यज्ञानां चैव सर्वेषां
वृषयज्ञस्तथोत्तमः ।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन वृषयज्ञं
समाचरेत् ॥ २,१४.१६ ॥
जो पुत्रहीन वृषोत्सर्ग किये बिना
ही मर जाता है, उसे मुक्ति नहीं प्राप्त होती
है। अतः पुत्रविहीन मनुष्य इस धर्म का पालन विधिवत् करे। ऐसा करने से यम के उस
महापथ में वह सुखपूर्वक गमन करता है। अग्निहोत्र, विभिन्न
प्रकार के यज्ञ और दानादि से प्राणी को वह सद्गति नहीं प्राप्त होती है, जो गति वृषोत्सर्ग से प्राप्त होती है । समस्त यज्ञों में वृषोत्सर्ग यज्ञ
श्रेष्ठतम है, इसलिये प्रयास करके मनुष्य को भलीभाँति
वृषोत्सर्ग सम्पन्न करना चाहिये।
गरुड उवाच ।
कथयस्व प्रसादेन क्षयाहं
चौर्ध्वदैहिकम् ।
कस्मिन्काले तिथौ कस्यां विधिना केन
तद्भवेत् ॥ २,१४.१७ ॥
कृत्वा किं फलमाप्नोति एतन्मे वद
साम्प्रतम् ।
त्वत्प्रसादेन गोविन्द मुक्ते भवति
मानवः ॥ २,१४.१८ ॥
गरुड ने कहा- हे गोविन्द ! आप मुझे
क्षयाह और और्ध्वदैहिक क्रिया के विषय में उपदेश दें कि इस क्रिया को किस काल,
किस तिथि और किस प्रकार की विधि से सम्पन्न करना चाहिये। इसको करके
मनुष्य क्या फल प्राप्त करता है, इसे भी आप मुझे बतायें । हे
गोविन्द! आपकी कृपा से तो प्राणी मुक्त हो जाता है।
श्रीकृष्ण उवाच ।
कार्तिकादिषु मासेषु याम्यायतगते
रवौ ।
शुक्लपक्षे तथा
पक्षिन्द्वादश्यादितिथौ शुभे ॥ २,१४.१९
॥
शुभे लग्ने मुहूर्ते वा शुचौ देशे
समाहितः ।
ब्राह्मणं तु समाहूय विधिज्ञं
शुभलक्षणम् ॥ २,१४.२० ॥
जपहोमैस्तथा दानैः कुर्याद्दहेस्य
शोधनम् ।
पुण्येऽभिजित्सुनक्षत्रे
ग्रहान्देवान्समर्चयेत् ॥ २,१४.२१
॥
होमं कुर्याद्यथाशक्ति मन्त्रैश्च
विविधैरपि ।
ग्रहाणां स्थापनं कुर्यात्पूर्वं
चैव खगेश्वर ॥ २,१४.२२ ॥
मातॄणां पूजनं कार्यं वसोर्धारां च
पातयेत् ।
वह्निं संस्थाप्य तत्रैव पूर्णं
होमं तु कारयेत् ॥ २,१४.२३ ॥
शालग्रामं च संस्थाप्य वैष्णवं
श्राद्धमाचरेत् ।
वृषं सम्पूज्य तत्रैव
वस्त्रालङ्कारभूषणैः ॥ २,१४.२४ ॥
चतस्रो वत्सतर्यश्च पूर्वं
समधिवासयेत् ।
प्रदक्षिणं ततः कुर्याद्धोमान्ते च
विसर्जनम् ॥ २,१४.२५ ॥
इमं मन्त्रं समुच्चार्य उत्तराभिमुखः
स्थितः ।
श्रीकृष्ण ने कहा- हे पक्षिन् !
कार्तिक आदि मास में सूर्य के दक्षिणायन हो जाने पर शुक्लपक्ष की द्वादशी आदि शुभ
तिथियों में, शुभ लग्न और मुहूर्त में तथा
पवित्र देश में समाहितचित्त होकर विधिज्ञ, शुभलक्षणों से
युक्त सत्पात्र ब्राह्मण को बुलाकर जप, होम तथा दान से अपने
शरीर का सर्वप्रथम शोधन करे। उसके बाद वह अभिजित् नक्षत्र में ग्रहों और देवताओं की
विधिवत् पूजा करके विभिन्न वैदिक मन्त्रों से यथाशक्ति अग्नि में आहुति प्रदान
करे। हे खगेश्वर ! तदनन्तर ग्रहस्थापन कार्य करके मातृका-पूजन का कार्य करना
चाहिये । तत्पश्चात् वह वसुधारा हवन सम्पन्न करे। अग्नि-स्थापन करके पूर्णाहुति का
कार्य करे। इसके बाद शालग्राम को स्थापित कर वैष्णव श्राद्ध करे । वस्त्राभूषणों से
वृष को सुसज्जित करके उसकी विधिवत् पूजा करनी चाहिये । तदनन्तर पहले चार बछियों को
सुगन्धित पदार्थों से सुवासित करे । वस्त्र और अलंकार से विभूषित कर उन्हें उस
यज्ञ में वृष के साथ स्थान दे। उसके बाद उनकी प्रदक्षिणा एवं होम करके अन्त में
विसर्जन करे। तत्पश्चात् उत्तराभिमुख होकर इस मन्त्र का उच्चारण करना चाहिये-
धर्म त्वं वृषरूपेण ब्रह्मणा
निर्मितः पुरा ॥ २,१४.२६ ॥
तवोत्सर्गप्रभावान्मामुद्धरस्व भवार्णावात्
।
'हे धर्म ! पुराकाल में ब्रह्मा ने
आपको वृष के रूप में निर्मित किया है। आपके उत्सर्ग के प्रभाव से मेरा भवसागर से
उद्धार हो ।'
अबिषिच्य शुभैर्मन्त्रैः
पावनैर्विधिपूर्वकम् ॥ २,१४.२७ ॥
तनक्रीडन्तिमन्त्रेण वृषोत्सर्गं तु
कारयेत् ।
अभिषिञ्चेत्ततो नीलं रुद्रकुम्भो
दकेन तु ॥ २,१४.२८ ॥
नाभिमूले समास्थाय तदम्बु मूर्धनि
न्यसेत् ।
अन्न (आत्म) श्राद्धं ततः
कुर्याद्दद्याद्दानं द्विजोत्तमे ॥ २,१४.२९
॥
उदकेचैव गन्तव्यं जलं तत्र
प्रदापयेत् ।
यदिष्टं जीवतस्त्वासीत्तच्च
दद्यात्स्वशक्तितः ॥ २,१४.३० ॥
न्यूनं संपूर्णतां याति वृषोत्सर्गे
कृते सति ।
सुतृप्तो दुस्तरे मार्गे मृतो याति
न संशयः ॥ २,१४.३१ ॥
यमलोकं न पश्यन्ति सदा दानरता नराः
।
यावन्न दीयते जन्तोः श्राद्धं
चैकादशाहिकम् ॥ २,१४.३२ ॥
स्वदत्तं परदत्तं वा
नेहामुत्रोपतिष्ठति ।
इसके बाद पवित्र करनेवाले शुभ
मन्त्रों से विधिपूर्वक वृष को अभिषिक्त करके 'तेन क्रीडन्ति०' इस
मन्त्र से वृषोत्सर्ग करे। पुनः रुद्र नामक कुम्भ के जल से उस नील वृष का अभिषेक
करना चाहिये । उसके बाद उस नील वृष के नाभिभाग में घट को स्पर्श कराके वह जल अपने
सिर पर भी डालना चाहिये। हे पक्षिराज ! तदनन्तर अन्नश्राद्ध कर द्विजोत्तम को दान
देना चाहिये। इन कार्यों को करके जलाशय पर पहुँचे और वहाँ जलाञ्जलि क्रिया करे । मनुष्य
को अपने जीवन में जो वस्तु प्रिय हो, उसका यथाशक्ति वहाँ पर
दान करना चाहिये । वृषोत्सर्ग करने पर न्यूनता पूरी हो जाती है । मृत व्यक्ति इससे
भलीभाँति तृप्त होकर यमलोक के कठिन मार्ग में सुखपूर्वक गमन करता है, इसमें संदेह नहीं है । सदैव दानादि की क्रियाओं में अनुरक्त मनुष्य यमलोक का
दर्शन तक नहीं करते हैं। जबतक प्राणी का एकादशाह श्राद्ध नहीं किया जाता है,
तबतक अपने द्वारा दिया गया दान अथवा दूसरे के हाथ से दिया गया दान न
इस लोक में प्राप्त होता है और न परलोक में ही ।
त्रयोदशा तथा सप्त पञ्च त्रीणी
क्रमेण तु ॥ २,१४.३३ ॥
पददानानि कुर्वीत
श्रद्धाभक्तिसमन्वितः ।
तिलपात्राणि कुर्वीत सप्त पञ्च
यथाक्रमम् ॥ २,१४.३४ ॥
ब्राह्मणान् भोजयेत्पश्चादेकां गां
च प्रदापयेत् ।
वृषं हि शन्नोदेवीति वेदोक्तविधिना
ततः ॥ २,१४.३५ ॥
चतसृभिर्वत्सतरीभिः परिणयनमाचरेत् ।
वामे चक्रं प्रदातव्यं त्रिशूलं
दक्षिणे तथा ॥ २,१४.३६ ॥
मूल्यं दद्याद्वृषस्यापि तं वृषं च
विसर्जयेत् ।
हे गरुड ! श्रद्धाभावपूर्ण प्राणी को
क्रमश: तेरह, सात, पाँच
तथा तीन पद-दान करना चाहिये। अतः दाता पहले यथाक्रम सात एवं पाँच तिलपात्रों का
दान करे। वह ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें एक गौ का दान भी दे । तत्पश्चात् 'वृषं हि शं नो देवी०' इस वेदमन्त्र से यथाविधि
चार बछियों के साथ वृष का विवाह करना चाहिये । तदनन्तर उसके शरीर में बायीं ओर
चक्र और दाहिनी ओर त्रिशूल का चिह्न अंकित करके और जिसको वृषदान किया गया है,
उसको उसका मूल्य देकर विसर्जन कर दे।
एकोद्दिष्टविधानेन स्वाहाकारेण
वुद्धिमान् ॥ २,१४.३७ ॥
कुर्यादेकादशाहं च द्वादशाहं च
यत्नतः ।
सपिण्डीकरणादर्वाक्कुर्याच्छ्राद्धानि
षोडश ॥ २,१४.३८ ॥
ब्राह्मणान् भोजयित्वा तु पददानानि
दापयेत् ।
कापोसोपरि संस्थाप्य ताम्रपात्रे
तथाच्युतम् ॥ २,१४.३९ ॥
वस्त्रेणाच्छाद्य तत्रस्थमर्घं
दद्याच्छुभैः फलैः ।
नावमिक्षुमयीं कृत्वा पट्टसूत्रेण
वेष्टयेत् ॥ २,१४.४० ॥
कांस्यपात्रे घृतं स्थाप्य वैतरण्या
निमित्ततः ।
नावारोहणं
कुर्यात्पूजयेद्गरुडध्वजम् ॥ २,१४.४१
॥
आत्मवित्तानुसारेण तच्च दानमनन्तकम्
।
भवसागरमग्नानां शोकतापार्तिदुः
खिनाम् ॥ २,१४.४२ ॥
धर्मप्लवविहीनानां तारको हि
जनार्दनः ।
बुद्धिमान् व्यक्ति को एकोद्दिष्ट
विधान के अनुसार क्रमशः प्रयत्नपूर्वक एकादशाह तथा द्वादशाह श्राद्ध करना चाहिये ।
सपिण्डीकरण के पहले षोडश श्राद्ध सम्पन्न करे । ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें
पद-दान दे। उसके बाद ताम्रपात्र में कार्पास (सूती) वस्त्र पर भगवान् विष्णु की
मूर्ति को स्थापित करे और वस्त्र से आच्छादित करके शुभ फल से अर्घ्य समर्पित करे।
तत्पश्चात् ईंख के पेड़ों से नौका का निर्माण करके रेशमी सूत्र से उसको लपेट दिया
जाय । वैतरणी के निमित्त कांस्यपात्र में घृत रखकर नौकारोहण की क्रिया हो और
भगवान् गरुडध्वज की पूजा करे। सामर्थ्य के अनुसार किया गया दान अनन्त फलों को
देनेवाला है। भगवान् जनार्दन इस संसार-सागर में डूब रहे शोक-संताप से दुःखित तथा
धर्मरूपी नौका से रहित जनों के उद्धारक हैं।
तिला लोहं हिरण्यं च कार्पासं लवणं
तथा ॥ २,१४.४३ ॥
सप्तधान्यं क्षितिर्गावो ह्येकैकं
पावनं स्मृतम् ।
तिलपात्राणि कुर्वीत शय्यादानं च
दापयेत् ॥ २,१४.४४ ॥
हे तार्क्ष्य ! तिल,
लौह, सुवर्ण, कार्पास
वस्त्र, लवण, सप्तधान्य, पृथ्वी और गौ एक-से-एक बढ़कर पवित्र माने गये हैं। श्राद्ध में तिल से
परिपूर्ण पात्रों का दान देकर शय्यादान देना चाहिये ।
दीनानाथविशिष्टेभ्यो दद्याच्छक्त्या
च दक्षिणाम् ।
एवं यः कुरुते तार्क्ष्य
पुत्रवानप्यपुत्रवान् ॥ २,१४.४५ ॥
स सिद्धिं समवाप्नोति यथा ते
ब्रह्मचारिणः ।
नित्यं नैमित्तिकं
कुर्याद्यावज्जीवति मानवः ॥ २,१४.४६
॥
यः कश्चित्क्रियते धर्मस्तत्फलं
चाक्षयं भवेत् ।
तीर्थयात्राव्रतादीनां श्राद्धं
संवत्सरस्य हि ॥ २,१४.४७ ॥
देवतानां गुरूणां च
मातापित्रोस्तथैव च ।
पुण्यं देयं प्रयत्नेन प्रत्यहं
वर्धते खग ॥ २,१४.४८ ॥
दीन-अनाथ एवं विशिष्टजनों को
सामर्थ्यानुसार दक्षिणा भी प्रदान करे । पुत्रहीन अथवा पुत्रवान् जो भी इसे करता
है,
उसको वही सिद्धि प्राप्त होती है, जो एक
ब्रह्मचारी को प्राप्त होती है। मनुष्य इस पृथ्वी पर जबतक जीवित रहता है, तबतक उसे नित्य- नैमित्तिक कर्म करने चाहिये। जो कोई जीवित- श्राद्ध करता
है, तीर्थयात्रा, व्रत एवं सांवत्सरिक
श्राद्धादि धर्मकार्य करता है, उसका अक्षय फल उसे प्राप्त
होता है। देवता, गुरु और माता-पिता के निमित्त पुरुष को
प्रयत्नपूर्वक दान करना चाहिये । वह दान प्रतिदिन अभिवृद्धि को प्राप्त होता है ।
अस्मिन्यज्ञेः हियः कश्चिद्भूरिदानं
प्रयच्छति ।
तत्तस्य चाक्षयं सर्वं वेदिकायां
यथा किल ॥ २,१४.४९ ॥
यथा पूज्यतमा लोके यतयो
ब्रह्मचारिणः ।
तथैव प्रतिपूज्यन्ते लोके सर्वे च
नित्यशः ॥ २,१४.५० ॥
वरदोऽहं सदा तस्य चतुर्वक्त्रस्तथा
हरः ।
ते यान्ति परमांल्लोकानिति सत्यं
वचो मम ॥ २,१४.५१ ॥
इस यज्ञ में जिसके द्वारा प्रचुर धन
दान में दिया जाता है, वह सब अक्षय होता
है, जिस प्रकार इस संसार में संन्यासी और ब्रह्मचारी अत्यधिक
पूज्य हैं, उसी प्रकार वृषोत्सर्गादि कर्मों को करनेवाले सभी
पुण्यात्मा भी इस संसार में पूजे जाते हैं। उन पुण्यात्माओं को मैं, चतुर्मुख ब्रह्मा और शिव सदैव वरदान देते हैं। वे सभी परम लोक की गति प्राप्त
करते हैं । मेरा यह वचन सत्य है ।
उत्सृष्टो वृषभो यत्र पिबत्यपो
जलाशये ।
शृङ्गेणालिखते वापि भूमिं नित्यं
प्रहर्षितः ॥ २,१४.५२ ॥
पितॄणामन्नपानं च प्रभूतमुपतिष्ठति
।
पौर्णमास्याममायां वा तिलपात्राणि
दापयेत् ॥ २,१४.५३ ॥
संक्रान्तीनां सहस्राणि सूर्यपर्वशतानि
च ।
दत्त्वा यत्फलमाप्नोति तद्वै
नीलविसर्जने ॥ २,१४.५४ ॥
वत्सतर्यः प्रदातव्या ब्राह्मणेभ्यः
पदानि च ।
तिलपात्राणि देयानि शिवभक्तद्विजेषु
च ॥ २,१४.५५ ॥
उमामहेश्वरं चैकं परिधाप्य
प्रिदापयेत् ।
अतसीपुष्पसङ्काशं पीतवाससमच्युतम् ॥
२,१४.५६ ॥
ये नमस्यन्ति गोविन्दं न तेषां
विद्यते भयम् ।
प्रेतत्वान्मोक्षमिच्छन्तो ये
करिष्यन्ति सत्क्रियाम् ॥ २,१४.५७
॥
यास्यन्ति ते परांल्लोकानिति सत्यं
वचो मम ।
छोड़ा गया वृषभ जिस जलाशय में जलपान
करता है अथवा सींग से जिस भूमि को नित्य खोद- खोदकर प्रसन्न होता है,
उससे पितरों के लिये अन्न और पेय पदार्थ अत्यधिक मात्रा में उत्पन्न
होता है। पूर्णिमा अथवा अमावास्या तिथि में तिल से परिपूर्ण पात्रों का दान देना
चाहिये । हजार संक्रान्तियों और सैकड़ों सूर्यग्रहण के पर्वों पर दान देकर जो
पुण्य अर्जित होता है, वह मात्र नील वृष को छोड़कर ही मनुष्य
प्राप्त कर सकता है * । ब्राह्मणों को बछिया, पद-दान तथा शिव
भक्तों को तिल से पूर्ण पात्रों का दान देना चाहिये। उस समय उमा-महेश्वर को भी
परिधान से अलंकृत कर दान करना चाहिये। अतसी (तीसी) पुष्प के सदृश कान्तिवाले
पीताम्बरधारी भगवान् अच्युत की प्रतिमा को वस्त्राच्छादित कर प्रदान करना चाहिये।
जो लोग भगवान् गोविन्द को नमन करते हैं, उनके लिये भय नहीं
रहता है । प्रेतत्व से मोक्ष चाहनेवाले जो प्राणी इस सत्कर्म को करेंगे, वे श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त करेंगे। मेरा यह कथन सत्य ही है ।
एतत्ते सर्वमाख्यातं मया
चैवोर्ध्वदैहिकम् ॥ २,१४.५८ ॥
यच्छ्रुत्वा सर्वपापेभ्यो मुच्यते
नात्र संशयः ।
श्रुत्वा महात्म्यमतुलं गरुडो
हर्षमागतः ।
मानुषाणां हितार्थाय पुनः
प्रपच्छकेशवम् ॥ २,१४.५९ ॥
हे गरुड! मैंने तुमसे जो सम्पूर्ण
और्ध्वदैहिक क्रिया कही है, इसे सुनकर मनुष्य
अपने समस्त पापों से मुक्त हो जाता है, इसमें संदेह नहीं है।
इस प्रकार का अनुपम माहात्म्य सुनकर
गरुड अत्यन्त प्रसन्न हो उठे और उन्होंने मनुष्यों के हित में पुनः भगवान् केशव से
पूछा।
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे
गोदानवृषोत्सर्ग दशदान भूरिदानादि निरूपणं नाम चतुर्दशोऽध्यायः॥
जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय 15
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