श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय १३

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १३         

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १३ वृषोत्सर्ग तथा सत्कर्म की महिमा का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय १३

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) त्रयोदशोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 13

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प तेरहवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १३         

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १३ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः १३    

गरुड उवाच ।

कर्मणा केन देवेश प्रेतत्वं नैव जायते ।

पृथिव्यां सर्वजन्तूनां तद्ब्रूहि परमेश्वर ॥ २,१३.१ ॥

श्रीगरुडजी ने कहाहे देवेश ! इस भूलोक में किस कर्म को करने से प्राणियों को प्रेतयोनि की प्राप्ति नहीं होती ? उसे आप मुझे बतायें।

श्रीकृष्ण उवाच ।

अथ वक्ष्यामि संक्षेपात्क्षयाहादौर्ध्वदैहिकम् ।

क्वहस्तेनैव कर्तव्यं मोक्षकामैस्तु मानवैः ॥ २,१३.२ ॥

स्त्रीणामपि विशेषेण पञ्चवर्षाधिके शिशौ ।

वृषोत्सर्गादिकं कर्म प्रेतत्वविनिवृत्तये ।

वृषोत्सर्गादृते नान्यत्किञ्चिदस्ति महीतले ॥ २,१३.३ ॥

जीवन्वापि मृतो वापि वृषोत्सर्गं करोति यः ।

प्रेतत्वं न भवेत्तस्य विना दानमखव्रतैः ॥ २,१३.४ ॥

श्रीकृष्णजी ने कहा- अब मैं संक्षेप में क्षयाह से लेकर आगे की जानेवाली और्ध्वदैहिक क्रिया को कह रहा हूँ, जिसे मोक्ष चाहनेवाले लोगों को अपने ही हाथों से करना चाहिये । स्त्री और विशेषरूप से पाँच वर्ष से अधिक आयुवाले बालक की मृत्यु होने पर उनके प्रेतत्व की निवृत्ति के लिये वृषोत्सर्ग करना चाहिये । प्रेतत्व की निवृत्ति के लिये वृषोत्सर्ग के अतिरिक्त इस पृथ्वी पर अन्य कोई साधन नहीं है। जो मनुष्य जीवित रहते हुए वृषोत्सर्ग करता है अथवा मृत्यु के पश्चात् भी जिसकी यह क्रिया सम्पन्न हो जाती है उसे दान, यज्ञ एवं व्रत किये बिना भी प्रेतत्व की प्राप्ति नहीं होती ।

गरुड उवाच ।

कस्मिन्काले वृषोत्सर्गं जीवन्वापि मृतोऽपि वा ।

कुर्यात्सुरवरश्रेष्ठ ब्रूहि मे मधुसूदन ॥ २,१३.५ ॥

किं फलं तु भवेदन्ते कृतैः श्राद्धैस्तु षोडशैः ॥ २,१३.६ ॥

गरुड ने कहाहे देवश्रेष्ठ मधुसूदन ! जीवित रहते हुए अथवा मृत्यु के पश्चात् भी किस काल में यह वृषोत्सर्ग - क्रिया होनी चाहिये? आप इस बात को मुझे बतायें। सोलह श्राद्धों को करने से अन्त में क्या फल प्राप्त हो सकता है ?

श्रीकृष्ण उवाच ।

अकृत्वा तु वृषोत्सर्गं कुरुते पिण्डपातनम् ।

नोपतिष्ठति तच्छ्रेयो दातुः प्रेतस्य निष्फलम् ॥ २,१३.७ ॥

एकादशाहे प्रेतस्य यस्य नोत्सृज्यते वृषः ।

प्रेतत्वं सुस्थिरं तस्य दत्तैः श्राद्धशतैरपि ॥ २,१३.८ ॥

श्रीकृष्ण ने कहा- हे पक्षिराज ! यदि वृषोत्सर्ग किये बिना ही पिण्डदान दिया जाता है तो उसका श्रेय दाता को नहीं प्राप्त होता । प्रत्युत वह क्रिया प्रेत के लिये निष्फल हो जाती है। जिसके एकादशाह में वृषोत्सर्ग नहीं होता, सौ श्राद्ध करने पर भी उसका प्रेतत्व सुस्थिर रहता है।

गरुड उवाच ।

सर्पाद्धि प्राप्तमृत्यूनामग्निदाहादि न क्रिया ।

जलेन शृङ्गिणा वापि शस्त्राद्यैर्म्रियते यदि ॥ २,१३.९ ॥

असन्मृत्युमृतानां च कथं शुद्धिर्भवत्प्रभो ।

एतन्मे संशयं देव च्छेत्तुमर्हस्यशेषतः ॥ २,१३.१० ॥

गरुड ने कहा- हे प्रभो ! सर्पदंश से मरे हुए लोगों की अग्निदाहादि क्रिया नहीं की जाती है। यदि जल में, सींगवाले पशु अथवा शस्त्रादि के प्रहार से कोई मर जाता है, तो इस प्रकार असत् मृत्यु को प्राप्त हुए लोगों की शुद्धि कैसे हो? हे देव ! आप मेरे इस संशय को दूर करें ।

श्रीकृष्ण उवाच ।

षण्मासैर्ब्राह्मणः शुध्येद्युग्मे सार्धे तु बाहुजः ।

सार्धमासेन वैश्यस्तु शूद्रो मासेन शुध्यति ॥ २,१३.११ ॥

दत्त्वा दानान्यशेषाणि सुतीर्थे म्रियते यदि ।

ब्रह्मचारी शुचिर्भूत्वा न स यातीह दुर्गतिम् ॥ २,१३.१२ ॥

वृषोत्सर्गादिकं कृत्वा यतिधर्मं समाचरेत् ।

यतित्वे मृत्युमाप्नोति स गच्छेद्ब्रह्मशाख्वतम् ॥ २,१३.१३ ॥

विकर्म कुरुते यस्तु शिष्टाचारविवर्जितः ।

वृषोत्सर्गादिकं कृत्वा न गच्छेद्यमशासनम् ॥ २,१३.१४ ॥

पुत्त्रो वा सोदरो वापि पौत्रो बन्धुजनस्तथा ।

गोत्रिणश्चार्थभागी च मृते कुर्याद्वृषोत्सवम् ॥ २,१३.१५ ॥

पुत्राभावे तु पत्नी स्याद्दौहित्त्रो दुहीतापि वा ।

पुत्त्रेषु विद्यमानेषु वृषं नान्येन कारयेत् ॥ २,१३.१६ ॥

श्रीकृष्ण ने कहा- हे खगेश ! उक्त प्रकार से अपमृत्यु को प्राप्त हुआ ब्राह्मण छः मास, क्षत्रिय ढाई मास, वैश्य डेढ़ मास एवं शूद्र एक मास में शुद्ध हो जाता है। यदि तीर्थ में सभी प्रकार का दान देकर कोई ब्रह्मचारी मर जाता है तो वह शुद्ध होकर ऐहिक दुर्गति को प्राप्त नहीं होता । वृषोत्सर्ग आदि करके यति-धर्म का आचरण करना चाहिये। यदि संन्यास-धर्म का पालन करते हुए किसी प्राणी की मृत्यु हो जाती है तो वह शाश्वत ब्रह्मपद को प्राप्त कर लेता है । जो व्यक्ति शिष्टाचार रहित धर्मविरुद्ध कर्म करता है, वह भी वृषोत्सर्ग आदि की क्रिया करके यमराज के शासन में नहीं जाता। पुत्र, सहोदर भाई, पौत्र, बन्धु-बान्धव, सगोत्री अथवा सम्पत्ति लेनेवाला उत्तराधिकारी कोई भी हो, उसको मरे हुए स्वजन के लिये वृषोत्सर्ग अवश्य करना चाहिये। पुत्र के अभाव में पत्नी, दौहित्र (नाती) और दुहिता (पुत्री) भी इस कर्म को कर सकती है। पुत्रों के रहने पर वृषोत्सर्ग अन्य से नहीं कराना चाहिये।

गरुड उवाच ।

पुत्त्रा यस्य न विद्यन्ते नरा नार्यः सुरेश्वर ।

एतन्मे संशयं देव च्छेतुमर्हस्यशेषतः ॥ २,१३.१७ ॥

गरुड ने कहा हे सुरेश्वर ! चाहे स्त्री हो अथवा पुरुष जिसके पुत्र नहीं है, उसका संस्कार किस प्रकार से किया जाय ? हे देव! इस विषय में उत्पन्न हुई मेरी शंका को आप भली प्रकार से दूर करें ।

श्रीकृष्ण उवाच ।

अपुत्त्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव च नैव च ।

तस्मात्केनाप्युपायेन पुत्त्रस्य जननं चरेत् ॥ २,१३.१८ ॥

यानि कानि च दानानि स्वयं दत्तानि मानवैः ।

तानितानि च सर्वाणि तूपतिष्ठन्ति चाग्रतः ॥ २,१३.१९ ॥

व्यञ्जनानि विचित्राणि भक्ष्यभोज्यानि यानि च ।

स्वहस्तेन प्रदत्तानि देहान्ते चाक्षयं फलम् ॥ २,१३.२० ॥

गोभूहिरण्यवासांसि भोजनानि पादनि च ।

यत्रयत्र वसेज्जन्तुस्तत्रतत्रोपतिष्ठति ॥ २,१३.२१ ॥

श्रीकृष्ण ने कहा- पुत्रहीन व्यक्ति की गति नहीं है, उसके लिये स्वर्ग का सुख नहीं है। अतः ऐसे मनुष्य को सदुपाय से पुत्र अवश्य उत्पन्न करना चाहिये। पुरुष स्वयं जो कुछ भी दान देते हैं, परलोक में वे सभी उसके सामने ही उपस्थित रहते हैं । अपने हाथों से जो नाना प्रकार के स्वादिष्ट एवं विविध व्यञ्जन खाने के लिये दिये जाते हैं, वे सभी मृत्यु के पश्चात् अक्षय फल प्रदान करते हैं। जो गौ, भूमि, स्वर्ण, वस्त्र, भोजन और पद-दान अपने हाथ से दिये जाते हैं, वे सभी दान जिस-जिस योनि में जहाँ-जहाँ दानकर्ता जाते हैं, वहाँ-वहाँ उपस्थित रहते हैं।

यावत्स्वस्थं शरीरं हि तावद्धर्मं समाचरेत् ।

अस्वस्थः प्रेरितश्चान्यैर्नाकिञ्चित्कर्तुमर्हति ॥ २,१३.२२ ॥

जीवतोऽपि मृतस्येह न भूतं चौर्ध्वदैहिकम् ।

वायुभूतः क्षुधाविष्टो भ्रमते च दिवानिशम् ॥ २,१३.२३ ॥

कृमिः कीटः पतङ्गो वा जायते म्रियते पुनः ।

असद्गर्भे भवेत्सोऽपि जातः सद्यो विनश्यति ॥ २,१३.२४ ॥

जबतक प्राणी का शरीर स्वस्थ रहता है, तबतक धर्म का सम्यक् पालन करना चाहिये । अस्वस्थ होने पर दूसरों की प्रेरणा से भी वह कुछ नहीं कर पाता है। यदि अपने जीवनकाल में व्यक्ति और्ध्वदैहिक कर्म नहीं कर लेता अथवा मरने के बाद अधिकारी पुत्र-पौत्रादिकों के द्वारा भी यह कर्म नहीं होता है तो वह वायुरूप में भूख-प्यास से पीड़ित रात-दिन भटकता रहता है। वह कृमि, कीट अथवा पतिंगा होकर बार-बार जन्म लेता है और मर जाता है। वह कभी असत् मार्ग से गर्भ में प्रविष्ट होता है एवं जन्म लेते ही तत्काल विनष्ट हो जाता है ।

यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरुजं यावज्जरा दूरतो

यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः ।

आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान्

संदीप्ते भवने तु कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः ॥ २,१३.२५ ॥

जबतक यह शरीर स्वस्थ और नीरोग है, जबतक इससे बुढ़ापा दूर है, जबतक इन्द्रियों की शक्ति किसी भी प्रकार से क्षीण नहीं हुई है और जबतक आयु नष्ट नहीं हुई है, तबतक अपने कल्याण के लिये महान् प्रयत्न कर लेना चाहिये; क्योंकि घर में महाभयंकर आग के लग जाने पर कुआँ खोदने के उद्योग से मनुष्य को क्या लाभ प्राप्त हो सकता है।

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे वृषोत्सर्गदानधर्मपुत्रादिप्रशंसनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 14

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