श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय १२

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १२        

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १२ चौरासी लाख योनियों में मनुष्यजन्म की श्रेष्ठता, मनुष्यमात्र का एकमात्र कर्तव्य धर्माचरण का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय १२

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) द्वादशोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 12

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प बारहवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १२        

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १२ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः १२   

श्रीकृष्ण उवाच ।

एवं ते कथितस्तार्क्ष्य जीवितस्य विनर्णयः ।

मानुषाणां हितार्थाय प्रेतत्वविनिवृत्तये ॥ २,१२.१ ॥

चतुरशीतिलक्षाणि चतुर्भेदाश्च जन्तवः ।

अण्डजाः स्वेदजाश्चैव उद्भिज्जाश्च जारायुजाः ॥ २,१२.२ ॥

एकविंशतिलक्षाणि अण्डजाः परिकीर्तिताः ।

स्वेदजाश्च तथा प्रोक्ता उद्भिज्जाश्च क्रमेण तु ॥ २,१२.३ ॥

जरायुजास्तथा प्रोक्ता मनुष्याद्यास्तथा परे ।

सर्वेषामेव जन्तूनां मानुषत्वं हि दुर्लभम् ॥ २,१२.४ ॥

पञ्चेन्द्रियनिधानत्वं महापुण्यैरवाप्यते ।

ब्राह्मणाः क्षत्त्रिया वैश्याः शूद्रास्तत्परजातयः ॥ २,१२.५ ॥

रजकश्चर्मकारश्च नटो बुरुड एव च ।

कैवर्तमेदभिल्लाश्च सप्तैते ह्यन्त्यजाः स्मृताः ॥ २,१२.६ ॥

म्लेच्छतुम्बविभेदेन जातिभेदास्त्वनेकशः ।

जन्तूनामेव सर्वेषां जातिभेदाः सहस्रशः ॥ २,१२.७ ॥

जन्तूनामेव सर्वेषां भेदाश्चैव सहस्रशः ।

आहारो मैथुनं निद्रा भयं क्रोधस्तथैव च ॥ २,१२.८ ॥

सर्वेषा मेव जन्तूनां विवेको दुर्लभः परः ।

एकपादादिरूपेण देहभेदास्त्वनेकशः ॥ २,१२.९ ॥

श्रीकृष्णजी ने कहा हे तार्क्ष्य! मनुष्यों के हित एवं प्रेतत्व की विमुक्ति के लिये जीवित प्राणी कर्म-विधान का निर्णय मैंने तुम्हें सुना दिया। इस संसार में चौरासी लाख योनियाँ हैं। उनका विभाजन चार प्रकार के जीवों में हुआ है। उन्हें अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज और जरायुज कहा जाता है। इक्कीस लाख योनियाँ अण्डज मानी गयी हैं। इसी प्रकार क्रमशः स्वेदज, उद्भिज्ज तथा जरायुज योनियों के विषय में भी कहा गया है। मनुष्यादि योनयाँ जरायुज कही जाती हैं। इन सभी प्राणियों में मनुष्ययोनि परम दुर्लभ है । पाँच इन्द्रियों से युक्त यह योनि प्राणी को बड़े ही पुण्य से प्राप्त होती है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं। रजक, चमार, नट, बंसखोर, मछुआरा, मेद तथा भिल्ल - ये सात अन्त्यज जातियाँ मानी गयी हैं । म्लेच्छ और तुम्बु जाति के भेद से अनेक प्रकार की जातियाँ हो जाती हैं। जीवों के हजारों भेद हैं। आहार, मैथुन, निद्रा, भय और क्रोध-ये कर्म सभी प्राणियों में पाये जाते हैं, किंतु विवेक सभी में परम दुर्लभ है। एक पाद, दो पाद आदि के भेद से शारीरिक संरचना में भी अनेक भेद प्राप्त होते हैं ।

कृष्णसारो मृगो यत्र धर्मदशः स उच्यते ।

ब्रह्माद्या देवताः सर्वास्तत्र तिष्ठन्ति सर्वशः ॥ २,१२.१० ॥

जिस देश में कृष्णसार नामक मृग रहता है, वह धर्मदेश कहलाता है । सब प्रकार से ब्रह्मा आदि देवता वहीं निवास करते हैं।

भूतानां प्राणिनः श्रेष्ठाः प्राणिनां मतिजीविनः ।

मतिमत्सु नराः श्रेष्ठा नरेषु ब्राह्मणाः स्मृताः ॥ २,१२.११ ॥

पञ्चमहाभूतों में प्राणी, प्राणियों में बुद्धिजीवी, बुद्धिजीवियों में मनुष्य और मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है।

मानुष्यं यः समासाद्य स्वर्गमेक्षैकसाधकम् ।

तयोर्न साधयेदेकं तेनात्मा वञ्चितो ध्रुवम् ॥ २,१२.१२ ॥

स्वर्ग और मोक्ष के साधनभूत मनुष्ययोनि को प्राप्त करके जो प्राणी इन दोनों में से एक भी लक्ष्य सिद्ध नहीं कर पाता, निश्चित ही उसने अपने को ठग दिया।

इच्छति शती सहस्रं सहस्री लक्षमीहते कर्तुम् ।

लक्षाधिपती राज्यं राजापि सकलां धरां लब्धुम् ॥ २,१२.१३ ॥

चक्रधरोऽपि सुरत्वं सुरभावे सकलसुरपतिर्भवितुम् ।

सुरपतिरूर्ध्वगतित्वं तथापि ननिवर्तते तृष्णा ॥ २,१२.१४ ॥

सौ का मालिक एक हजार और एक हजारवाला व्यक्ति लाख की पूर्ति लगा रहता है। जो लक्षाधिपति है वह राज्य की इच्छा करता है। जो राजा है वह सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने वश में रखना चाहता है। जो चक्रवर्ती नरेश है वह देवत्व की इच्छा करता है। देवत्व – पद के प्राप्त होने पर उसकी अभिलाषा देवराज इन्द्र के पद के लिये होती है और देवराज होने पर वह ऊर्ध्वगति की कामना करता है; फिर भी उसकी तृष्णा शान्त नहीं होती ।

तृष्णया चाभिभूतस्तु नरकं प्रतिपद्यते ।

तृष्णामुक्तास्तु ये केचित्स्वर्गवासं लभन्ति ते ॥ २,१२.१५ ॥

तृष्णा से पराजित व्यक्ति नरक में जाता है। जो लोग तृष्णा से मुक्त हैं, उन्हें उत्तम लोक की प्राप्ति होती है।

आत्माधीनः पुमांल्लोके सुखी भवति निश्चितम् ।

शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च तद्गुणाः ॥ २,१२.१६ ॥

तथा च विषयाधीनो दुः खी भवति निश्चितम् ॥ २,१२.१७ ॥

इस संसार में जो प्राणी आत्मा के अधीन है, वह निश्चित ही सुखी है । शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये पाँच विषय हैं, इनकी अधीनता में रहनेवाला निश्चित ही दुःखी रहता है ।

कुरङ्गमताङ्गपतङ्गभृङ्गमीना हताः पञ्चभिरेव पञ्च ।

एकः प्रमादी स कथं न हन्यते यः सेवते पञ्चभिरेव पञ्च ॥ २,१२.१८ ॥

मृग, हाथी, पतंग, भ्रमर और मीनये पाँचों क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, गन्ध, रसये एक-एक विषय के सेवन से मारे जाते हैं; फिर जो प्रमादी मनुष्य पाँचों इन्द्रियों से इन पाँचों विषयों का सेवन करता है, वह इनके द्वारा कैसे नहीं मारा जायगा ?

पितृमातृमयो बाल्ये यौवने दयितामयः ।

पुत्रपौत्रमयश्चान्ते मूढो नात्ममयः क्वचित् ॥ २,१२.१९ ॥

मनुष्य बाल्यावस्था में अपने पिता-माता के अधीन होता है। युवावस्था आने पर वह स्त्री का हो जाता है और अन्त समय आने पर पुत्र-पौत्र के व्यामोह में फँस है। वह मूर्ख कभी किसी अवस्था में आत्मा के अधीन नहीं रहता।

लोहदारुमयैः पाशैः पुमान्बद्धो विमुच्यते ।

पुत्रदारमयैः पाशैर्नैव बद्धो विमुच्यते ॥ २,१२.२० ॥

लौह और काष्ठ के बने हुए पाश से बँधा हुआ व्यक्ति मुक्त हो जाता है, किंतु पुत्र तथा स्त्री आदि के मोहपाश में बँधा हुआ प्राणी कभी मुक्त नहीं हो पाता।

एकः करोति पापानि फलं भुङ्क्ते महाजनः ।

भोक्तारो विप्रयुज्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते ॥ २,१२.२१ ॥

कोऽपि मृत्युं न जयति बालो वृद्धो युवापि वा ।

सुखदुः खादिको वापि पुनरायाति याति च ॥ २,१२.२२ ॥

सर्वेषां पश्यतामेव मृतः सर्वं परित्यजेत् ।

एकः प्रजायते जन्तुरेक एव प्रलीयते ॥ २,१२.२३ ॥

एकोऽपि भुङ्क्ते सुकृतमेक एव च दुष्कृतम् ।

पाप एक मनुष्य करता है, किंतु उसके फल का उपभोग बहुत-से लोग करते हैं। भोक्ता तो अलग हो जाते हैं पर कर्ता दोष का भागी होता है। चाहे बालक हो, चाहे वृद्ध हो और चाहे युवा हो, कोई भी मृत्यु पर विजय नहीं प्राप्त कर सकता। कोई अधिक सुखी हो अथवा अधिक दु:खी हो, वह बारम्बार आता-जाता है । मृत प्राणी सबके देखते-देखते सब कुछ छोड़कर चला जाता है। इस मर्त्यलोक में प्राणी अकेला ही पैदा होता है, अकेले ही मरता है और अकेले ही पाप- पुण्य का भोग करता है।

मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्टसमङ्क्षितौ ॥ २,१२.२४ ॥

बान्धवा विमुखा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति ।

गृहेष्वर्था निवर्तन्ते श्मशानान्मित्रबान्धवाः ॥ २,१२.२५ ॥

शरीरं वह्निरादत्ते सुकृतं दुष्कृतं व्रजेत् ।

शरीरं वह्निना दग्धं पुण्यं पापं सह स्थितम् ॥ २,१२.२६ ॥

'बन्धु - बान्धव मरे हुए स्वजन के शरीर को पृथ्वी पर लकड़ी और मिट्टी के ढेले की भाँति फेंककर पराड्मुख हो जाते हैं । धर्म ही उसका अनुसरण करता है। प्राणी का धन-वैभव घर में ही छूट जाता है। मित्र एवं बन्धु बान्धव श्मशान में छूट जाते हैं । शरीर को अग्नि ले लेती है । पाप-पुण्य ही उस जीवात्मा के साथ जाते हैं। '

शुभं वा यदि वा पापं भुङ्क्ते सर्वत्र मानवः ।

यदनस्तमिते सूर्ये न दत्तं धनमर्थिनाम् ॥ २,१२.२७ ॥

न जाने तस्य तद्वित्तं प्रातः कस्य भविष्यति ।

रारटीति धनं तस्य को मे भर्ता भविष्यति ॥ २,१२.२८ ॥

'मनुष्य ने जो भी शुभ या पाप-कर्म किया है, वह सर्वत्र उसी को भोगता है। हे पक्षिराज ! सूर्यास्त तक जिसने याचकों को अपना धन नहीं दे दिया तो न जाने प्रातः होने पर उसका वह धन किसका हो जायगा ? पूर्वजन्म से जो थोड़ा या बहुत धन प्राप्त हुआ है, उसे यदि परोपकार के कार्य में नहीं लगाया या श्रेष्ठ द्विजों को दान में नहीं दिया तो उसका वह धन यह रटता रहता है कि कौन मेरा भर्ता होगा?

न दत्तं द्विजमुख्येभ्यः परोपकृतये तथा ।

पूर्वजन्मकृतात्पुण्याद्यल्लब्धं बहु चाल्पकम् ॥ २,१२.२९ ॥

तदीदृशं परिज्ञाय धर्मार्थे दीयते धनम् ।

धनेन धार्यते धर्मः श्रद्धापूतेन चेतसा ॥ २,१२.३० ॥

श्रद्धाविरहितो धर्मो नेहामुत्र च तत्फलम् ।

धर्माच्च जायते ह्यर्थो धर्मात्कामोऽपि जायते ॥ २,१२.३१ ॥

धर्म एवापवर्गाय तस्माद्धर्मं समाचरेत् ।

श्रद्धया साध्यते धर्मो बहुभिर्नार्थराशिभिः ॥ २,१२.३२ ॥

अकिञ्चना हि मुनयः श्रद्धावन्तो दिवं गताः ।

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।

असदित्युच्यते पक्षिन्प्रेत्य चेह न तत्फलम् ॥ २,१२.३३ ॥

ऐसा विचार कर धर्म के कार्य में अपना धन लगाना चाहिये। मनुष्य श्रद्धापूत शुद्ध मन से दिये गये धन के द्वारा धर्म को धारण करता है। श्रद्धारहित धर्म इस लोक तथा परलोक में फलीभूत नहीं होता । धर्म से ही अर्थ और काम की भी प्राप्ति होती है। धर्म ही मोक्ष का प्रदायक है। अतः मनुष्य को धर्म का सम्यक् आचरण करना चाहिये । धर्म की सिद्धि श्रद्धा से होती है, प्रचुर धनराशि से नहीं । अकिञ्चन अर्थात् धन-वैभव से रहित श्रद्धावान् मुनियों को स्वर्ग की प्राप्ति हुई है। श्रद्धारहित होकर किया गया होम, दान तथा तप असत् कहा जाता है । हे पक्षिन् ! उसका फल न तो इस लोक में मिलता है और न परलोक में ही मिलता है।' 

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकादृप्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे मृतस्य धर्ममात्रानुयायित्वनिरूपणं नाम द्वादशोऽध्यायः॥

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 13

No comments:

Post a Comment

Please do not enter any spam link in the comment box