श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ११
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
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प्रेतकल्प अध्याय ११ जीव की ऊर्ध्वगति एवं अधोगति का वर्णन है।
श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) एकादशोऽध्यायः
Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 11
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
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प्रेतकल्प ग्यारहवाँ अध्याय
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय ११
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ११ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित
गरुडपुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः ११
गरुड उवाच ।
मानुषत्वं
लभेत्कस्मान्मृत्युमाप्नोति तत्कथम् ।
म्रियते कः सुरश्रेष्ठ देहमाश्रित्य
कुत्रचित् ॥ २,११.१ ॥
इन्द्रियाणि कुतो यान्ति
ह्यस्पृश्यः स कथं भवेत् ।
क्व कर्माणि कृतानीह कथं भुङ्क्ते
प्रसर्पति ॥ २,११.२ ॥
प्रसादं कुरु मे मोहं छेत्तुमर्हस्यशेषतः
।
काश्यपोऽहं सुरश्रेष्ठ विनतागर्भ
संभवः ।
यमलोकं कथं यान्ति विष्णुलोकं च
मानवाः ॥ २,११.३ ॥
गरुडजी ने कहा—हे देवश्रेष्ठ ! मनुष्ययोनि कैसे प्राप्त होती है ? मनुष्य
कैसे मृत्यु को प्राप्त होता है ? शरीर का आश्रय लेकर कौन
मरता है ? उसकी इन्द्रियाँ कहाँ से कहाँ चली जाती हैं ?
मनुष्य कैसे अस्पृश्य हो जाता है ? यहाँ किये
हुए कर्म को कहाँ और कैसे भोगता है और कहाँ कैसे जाता है ? यमलोक
और विष्णुलोक को मनुष्य कैसे जाता है ? हे प्रभो! आप मुझ पर
प्रसन्न हों। मेरे इस सम्पूर्ण भ्रम को विनष्ट करें।
श्रीकृष्ण उवाच ।
परस्य योषितं हृत्वा
ब्रह्मस्वमपहृत्य च ॥ २,११.४ ॥
अरण्ये निर्जने देशे जायते
ब्रह्मराक्षसः ।
हीनजातौ प्रजायेत रत्नानामपहारकः ॥
२,११.५ ॥
श्रीकृष्ण ने कहा- हे विनतानन्दन !
परायी स्त्री और ब्राह्मण के धन का अपहरण करके प्राणी अरण्य एवं निर्जन स्थान में
रहनेवाले ब्रह्मराक्षस की योनि को प्राप्त करता है । रत्नों की चोरी करनेवाला
मनुष्य नीच जाति के घर उत्पन्न होता है ।
यंयं काममभिध्यायेत्स
तल्लिङ्गोऽभिजायते ।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति
पावकः ॥ २,११.६ ॥
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति
मारुतः ।
मृत्यु के समय उसकी जो-जो इच्छाएँ
होती हैं,
उन्हींके वशीभूत हो वह उन-उन योनियों में जाकर जन्म लेता है। इस
जीवात्मा का छेदन शस्त्र नहीं कर सकता, अग्नि इसको जलाने में
समर्थ नहीं है, जल इसे आर्द्र नहीं कर सकता और वायु के
द्वारा इसका शोषण सम्भव नहीं है ।
वाक्चक्षुर्नासिका कर्णौ गुदं
मूत्रस्य सञ्चरः ॥ २,११.७ ॥
अण्डजादिकजन्तूनां छिद्राण्येतानि
सर्वशः ।
आनाभेर्मूर्धपर्यन्तमूर्ध्वच्छिद्राणि
चाष्ट वै ॥ २,११.८ ॥
सन्तः सुकृतिनो मर्त्या
ऊर्ध्वच्छिद्रेण यान्ति वै ।
मृताहे वार्षिकं यावद्यथोक्तविधिना
खग ॥ २,११.९ ॥
कुर्यात्सर्वाणि कर्माणि निर्धनोऽपि
हि मानवः ।
देहे यत्र वसेज्जन्तुस्तत्र
भुङ्क्ते शुभाशुभम् ॥ २,११.१० ॥
मनोवाक्कायजान्दोषांस्तथां भुङ्क्ते
खगेश्वर ।
मृतः स सुखमाप्नोति मायापाशैर्न
बध्यते ।
पाशबद्धो नरो यस्तु विकर्मनिरतो
भवेत् ॥ २,११.११ ॥
हे पक्षिन् ! मुख,
नेत्र, नासिका, कान,
गुदा और मूत्रनली - ये सभी छिद्र अण्डजादि जीवों के शरीर में
विद्यमान रहते हैं । नाभि से मूर्धा पर्यन्त शरीर में आठ छिद्र हैं। जो सत्कर्म
करनेवाले पुण्यात्मा हैं, उनके प्राण शरीर के ऊर्ध्व छिद्रों
से निकलकर परलोक जाते हैं । मृत्यु के दिन से लेकर एक वर्ष तक जैसी विधि पहले
बतायी गयी है, उसी के अनुसार सभी और्ध्वदैहिक श्राद्धादि
संस्कार निर्धन होने पर भी यथाशक्ति
श्रद्धापूर्वक करने चाहिये । जीव जिस शरीर में वास करता है उसी शरीर में वह अपने
शुभाशुभ कर्मफल का भोग करता है । हे पक्षिराज! मन, वाणी और शरीर के द्वारा किये गये दोषों को वह भोगता है। जो[अनासक्तभाव से]
सत्कर्म में रत रहता है, वह मृत्यु के बाद सुखी रहता है और
सांसारिकता मायाजाल में नहीं फँसता । जो विकर्म में निरत रहता है वह मनुष्य
पाशबद्ध हो जाता है।
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवाहे
ऊर्ध्वाधोगति ज्ञापकोत्क्रमण द्वारनिरूपणं नामैकादशोऽध्य्याः॥
जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय 12
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