श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय १०

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १०       

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १० श्राद्धान्न का पितरों के पास पहुँचना, दृष्टान्तरूप में देवी सीता द्वारा भोजन करते हुए ब्राह्मण के शरीर में महाराज दशरथ आदि का दर्शन करना, मृत्यु के अनन्तर दूसरे शरीर की प्राप्ति, सत्कर्म की महिमा तथा पिण्डदान से शरीर का निर्माण का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय १०

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) दशमोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 10

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प दसवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १०      

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १० का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित 

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः १०

गरुड उवाच ।

सपिण्डीकरण जाते आब्दिके च स्वकर्मभिः ।

देवत्वं वा मनुष्यत्वं पक्षित्वं वाप्नुयुर्नराः ॥ २,१०.१ ॥

तेषां विभिन्नाहाराणां श्राद्धं वै तृप्तिदं कथम् ।

यदप्यन्यैर्द्विजैर्भुक्तं हूयते यदि वानले ॥ २,१०.२ ॥

शुभाशुभात्मकैः प्रेतस्तद्दत्तं भुज्यते कथम् ।

श्राद्धस्यावश्यकत्वन्तु आमावास्यादिषु श्रुतम् ॥ २,१०.३ ॥

गरुड ने कहाहे प्रभो ! सपिण्डीकरण और वार्षिक श्राद्ध करने के पश्चात् मृत व्यक्ति स्वकर्मानुसार देवत्व, मनुष्यत्व अथवा पक्षित्व को प्राप्त करता है। फिर भिन्न-भिन्न आहारवाले उन लोगों के लिये किये गये श्राद्ध, ब्राह्मण भोजन और होम से उन्हें कैसे संतृप्ति होती है ? अपने शुभाशुभ कर्मों के द्वारा प्राप्त हुई प्रेतयोनि में स्थित वह प्राणी अपने सम्बन्धियों से प्राप्त उस भोज्य पदार्थ का उपभोग कैसे करता है ? श्राद्ध की आवश्यकता तो मैंने अमावास्यादि तिथियों में सुनी है। [यह बतलाने की कृपा करें ।]

श्रीभगवानुवाच ।

प्रेतानां शृणु पक्षीन्द्र यथा श्राद्धन्तु तृप्तिदम् ।

देवो यदपि जातोऽयं मनुष्यः कर्मयोगतः ॥ २,१०.४ ॥

तस्यान्नममृतं भूत्वा देवत्वेऽप्यनुयाति च ।

गान्धर्व्ये भोगरूपेण पशुत्वे च तृणं भवेत् ॥ २,१०.५ ॥

श्राद्धं हि वायुरूपेण नागत्वेऽप्यनुगच्छति ।

फलं भवति पक्षित्वे राक्षसेषु तथामिषम् ॥ २,१०.६ ॥

दानवत्वे तथा मांसं प्रेतत्वे रुधिरं तथा ।

मनुष्यत्वेऽन्नपानादि बाल्ये भोगरसो भवेत् ॥ २,१०.७ ॥

श्रीभगवान्ने कहा हे पक्षिराज ! श्राद्ध प्रेतजनों को जिस प्रकार से तृप्ति प्रदान करता है, उसे सुनो। मनुष्य अपने कर्मानुसार यदि देवता हो जाता है तो श्राद्धान्न अमृत होकर उसे प्राप्त होता है तथा वही अन्न गन्धर्व – योनि में भोगरूप से और पशुयोनि में तृणरूप में प्राप्त होता है । वही श्राद्धान्न नागयोनि में वायुरूप से, पक्षी की योनि में फलरूप से और राक्षसयोनि में आमिष बन जाता है। वही श्राद्धान्न दानव- योनि के लिये मांस, प्रेत के लिये रक्त, मनुष्य के लिये अन्न-पानादि तथा बाल्यावस्था में भोगरस हो जाता है।

गरुड उवाच ।

कथं कव्यानि दत्तानि हव्यानि च जनैरिह ।

गच्छन्ति पितृलोकं वा प्रापकः कोऽत्र गद्यते ॥ २,१०.८ ॥

मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धमाप्यायनं यदि ।

निर्वाणस्य प्रदीपस्य तैलं संवर्धयेच्छिखाम् ॥ २,१०.९ ॥

मृताश्च पुरुषाः स्वामिन् स्वकर्मजनितां गतिम् ।

गाहन्तः के कथं स्वस्य सुतस्य श्रेय आप्नुयुः ॥ २,१०.१० ॥

गरुड ने कहाहे स्वामिन्! इस लोक में मनुष्यों के द्वारा दिये गये हव्यकव्य पदार्थ पितृलोक में कैसे जाते हैं? उनको प्राप्त करानेवाला कौन है ? यदि श्राद्ध मरे हुए प्राणियों के लिये भी तृप्ति प्रदान करनेवाला है तो बुझे हुए दीपक का तेल भी उसकी लौ को बढ़ा सकता है। मरे हुए पुरुष अपने कर्मानुसार गति प्राप्त करते हैं तो अपने पुत्र के द्वारा दिये गये पुण्य कर्मों के फल वे कैसे प्राप्त कर सकेंगे ?

श्रीभगवानुवाच ।

श्रुतेः प्रत्यक्षतस्तार्क्ष्य प्रामाण्यं बलवत्तरम् ।

श्रुत्या तुः बोधितार्थस्य पीयूषत्वादिरूपता ॥ २,१०.११ ॥

नामगोत्रं पितॄणां वै प्रापकं हव्यकव्ययोः ।

श्राद्धस्य मन्त्रास्तद्वत्तु प्रापकाश्चैव भक्तितः ॥ २,१०.१२ ॥

अचेतनानि चैतानि प्रापयन्ति कथन्त्विति ।

सुपर्ण नावगन्तव्यं प्रापकं वच्मि तेऽपरम् ॥ २,१०.१३ ॥

अग्निष्वात्तादयस्तेषा माधिपत्ये व्यवस्थिताः ।

काले न्यायागतं पात्रे विधिना प्रतिपादितम् ॥ २,१०.१४ ॥

अन्नं नयन्ति तत्रैते जन्तुर्यत्रावतिष्ठते ।

नाम गोत्रञ्च मन्त्राश्च दत्तमन्नं नयन्ति ते ॥ २,१०.१५ ॥

अपि योनिशतं प्राप्तांस्तांस्तृप्तिरुपतिष्ठति ।

तेषां लोकान्तरस्थानां विविधैर्नामगोत्रकैः ॥ २,१०.१६ ॥

अपसव्यं क्षितौ दर्भे दत्ताः पिण्डास्त्रयस्तु वै ।

यान्ति तांस्तर्पयन्त्येवं प्रेतस्थानस्थितान्पितॄन् ॥ २,१०.१७ ॥

अप्राप्तयातनास्थानाः श्रेष्ठा ये भुवि पञ्चधा ।

नानारूपास्तु जाता ये तिर्यग्योन्यादिजातिषु ॥ २,१०.१८ ॥

श्रीभगवान्ने कहा- हे तार्क्ष्य ! प्रत्यक्ष की अपेक्षा श्रुति का प्रमाण बलवान् होता है। श्रुति से प्राप्त हुए ज्ञान का स्वरूप अमृतादि के समान होता है। श्राद्ध में उच्चरित पितरों के नाम तथा गोत्र हव्यकव्य के प्रापक हैं। भक्तिपूर्वक पढ़े गये मन्त्र श्राद्ध के प्रापक होते हैं । हे सुपर्ण! ये अचेतन मन्त्र कैसे उस श्राद्ध को प्राप्त करा सकते हैं, इस विषय में तुम्हें संशय नहीं रखना चाहिये । अस्तु, इसे समझने के लिये मैं तुम्हें दूसरा प्रापक बता रहा हूँ । अग्निष्वात्त आदि पितृगण उन पितरों के राजपद पर नियुक्त हैं। समय आने पर विधिवत् प्रतिपादित अन्न, अभीष्ट पितृपात्र में पहुँच जाता है। जहाँ वह जीव रहता है, वहाँ ये अग्निष्वात्त आदि पितृदेव ही अन्न लेकर जाते हैं। नाम - गोत्र और मन्त्र ही उस दान दिये गये अन्न को ले जाते हैं। शतशः योनियों में जो जीव जिस योनि में स्थित रहता है उस योनि में उसे नाम – गोत्र के उच्चारण से तृप्ति प्राप्त होती है। संस्कार करनेवाले व्यक्ति के द्वारा कुशाच्छादित पृथ्वी पर दाहिने कन्धे पर यज्ञोपवीत करके दिये गये तीन पिण्ड उन पितरों को संतुष्टि प्रदान करते हैं ।

यदाहारा भवन्त्येते पितरो यत्र योनिषु ।

तासुतासु तदाहारः श्राद्धा अवतिष्ठति ॥ २,१०.१९ ॥

यथा गोषु प्रनष्टासु वत्सो विन्दति मातरम् ।

तथान्नं नयते विप्र जन्तुर्यत्रावतिष्ठते ॥ २,१०.२० ॥

पितर जिस योनि में, जिस आहारवाले होते हैं, उन्हें श्राद्ध के द्वारा वहाँ उसी प्रकार का आहार प्राप्त होता है। गायों का झुंड तितर-बितर हो जाने पर भी बछड़ा अपनी माता को जैसे पहचान लेता है, वैसे, ही वह जीव जहाँ जिस योनि में रहता है, वहाँ पितरों के निमित्त ब्राह्मण को कराया गया श्राद्धान्न स्वयं उसके पास पहुँच जाता है।

पितरः श्राद्धमोक्तारो विश्वेर्देवैः सदा सह ।

एते श्राद्धं सदा भुक्त्वा पितॄन्सन्तर्पयन्त्यतः ॥ २,१०.२१ ॥

वसुरुद्रादितिसुताः पितरः श्राद्धदेवताः ।

प्रीणयाते मनुष्याणां पितॄञ्श्राद्धेषु तर्पिताः ॥ २,१०.२२ ॥

पितृगण सदैव विश्वेदेवों के साथ श्राद्धान्न ग्रहण करते हैं। ये ही विश्वेदेव श्राद्ध का अन्न ग्रहण कर पितरों को संतृप्त करते हैं। वसु, रुद्र, देवता, पितर तथा श्राद्धदेवता श्राद्धों में संतृप्त होकर श्राद्ध करनेवालों के पितरों को प्रसन्न करते हैं।

आत्मानं गुर्विणी गर्भमपि प्रीणाति वै यथा ।

दोहदेन तथा देवाः श्राद्धैः स्वांश्च पितॄन्नृणाम् ॥ २,१०.२३ ॥

जैसे गर्भिणी स्त्री दोहद (गर्भावस्था में विशेष भोजन की अभिलाषा)- के द्वारा स्वयं को और अपने गर्भस्थ जीव को भी आहार पहुँचाकर प्रसन्न करती है, वैसे ही देवता श्राद्ध के द्वारा स्वयं संतुष्ट होते हैं और पितरों को भी संतुष्ट करते हैं ।

हृष्यन्ति पितरः श्रुत्वा श्राद्धकालमुपस्थितम् ।

अन्योन्यं मनसा ध्यात्वा सम्पतन्ति मनोजवम् ॥ २,१०.२४ ॥

ब्राह्मणैः सह चाश्नन्ति पितरो ह्यन्तरिक्षगाः ।

वायुभूताश्च तिष्ठन्ति भुक्त्वा यान्ति परां गतिम् ॥ २,१०.२५ ॥

श्राद्ध का समय आ गया है' - ऐसा जानकर पितरों को प्रसन्नता होती है। वे परस्पर ऐसा विचार करके उस श्राद्ध में मन के समान तीव्रगति से आ पहुँचते हैं । अन्तरिक्षगामी वे पितृगण उस श्राद्ध में ब्राह्मणों के साथ ही भोजन करते हैं। वे वायुरूप में वहाँ आते हैं और भोजन करके परम गति को प्राप्त हो जाते हैं ।

निमन्त्रितास्तु ये विप्राः श्राद्धपूर्वदिनेः खग ।

प्रविश्य पितरस्तेषु भुक्त्वा यान्ति स्वमालयम् ॥ २,१०.२६ ॥

हे पक्षिन् ! श्राद्ध के पूर्व जिन ब्राह्मणों को निमन्त्रित किया जाता है, पितृगण उन्हीं के शरीर में प्रविष्ट होकर वहाँ भोजन करते हैं और उसके बाद वे पुनः वहाँ से अपने लोक को चले जाते हैं।

श्राद्धकर्त्रा तु यद्येकः श्राद्धे विप्रो निमन्त्रितः ।

उदरस्थः पिता तस्य वामपार्श्वे पितामहः ॥ २,१०.२७ ॥

प्रपितामहो दक्षिणतः पृष्ठतः पिण्डभक्षकः ।

श्राद्धकाले यमः प्रेतान्पितॄंश्चापि यमालयात् ॥ २,१०.२८ ॥

विसर्जयति मानुष्ये निरयस्थांश्च काश्यप ।

क्षुधार्ताः कीर्तयन्तश्च दुष्कृतञ्च स्वयङ्कृतम् ॥ २,१०.२९ ॥

काङ्क्षन्ति पुत्रपौत्रेभ्यः पायसं मधुसंयुतम् ।

तस्मात्तांस्तत्र विधिना तर्पयेत्पायसेन तु ॥ २,१०.३० ॥

यदि श्राद्धकर्ता श्राद्ध में एक ही ब्राह्मण को निमन्त्रित करता है तो उस ब्राह्मण के उदरभाग में पिता, वामपार्श्व में पितामह, दक्षिणपार्श्व में प्रपितामह और पृष्ठभाग में पिण्डभक्षक पितर रहता है। श्राद्धकाल में यमराज प्रेत तथा पितरों को यमलोक से मृत्युलोक के लिये मुक्त कर देते हैं । हे काश्यप ! नरक भोगनेवाले भूख-प्यास से पीड़ित पितृजन अपने पूर्वजन्म के किये गये पाप का पश्चात्ताप करते हुए अपने पुत्र-पौत्रों से मधुमिश्रित पायस की अभिलाषा करते हैं। अतः विधिपूर्वक पायस के द्वारा उन पितृगणों को संतृप्त करना चाहिये ।

गरुड उवाच ।

स्वामिन्केनापि ते दृष्टा आगताः पितरो द्विज ।

लोकादमुष्मादागत्य भुञ्जन्तो भुवि मानद ॥ २,१०.३१ ॥

गरुड ने कहाहे स्वामिन् ! उस लोक से आकर इस पृथ्वी पर श्राद्ध में भोजन करते हुए पितरों को किसी ने देखा भी है?

श्रीभगवानुवाच ।

गरुत्मञ्छृणु वक्ष्यामि यथा दृष्टास्तु सीतया ।

पितरो विप्रदेहे वै श्वशुराद्यास्त्रयः क्वचित् ॥ २,१०.३२ ॥

श्रीभगवान्ने कहा- हे गरुत्मन् ! सुनो - देवी सीता का उदाहरण है। जिस प्रकार सीता ने पुष्करतीर्थ में अपने ससुर आदि तीन पितरों को श्राद्ध में निमन्त्रित ब्राह्मण के शरीर में प्रविष्ट हुआ देखा था, उसको मैं कह रहा हूँ ।

गृहीत्वा पितुराज्ञां वै रामो वनमुपागमत् ।

ततः पुष्करयात्रार्थं रामोऽयात्सीतया सह ॥ २,१०.३३ ॥

तीर्थं चापि समागत्य श्राद्धं प्रारब्धवांस्तु सः ।

फलं पक्वन्तु जानक्या सिद्धं रामे निवेदितम् ॥ २,१०.३४ ॥

स्नातप्रियोक्तवाक्यात्तु सुस्नाता नमपालयत् ।

नभोमध्यगते सूर्ये काले कुतुप आगते ॥ २,१०.३५ ॥

अयाता ऋःषयः सर्वे ये रामेण निमन्त्रिताः ।

तान्मुनीनागतान्दृष्ट्वा वैदेही जनकात्मका ॥ २,१०.३६ ॥

रामाज्ञयान्नमादाय परिवेष्टुमुपागता ।

अपासर्पत्ततो दूरे विप्रमध्ये तु संस्थिता ॥ २,१०.३७ ॥

गुल्मैराच्छाद्य चात्मानं निगूढं सा स्थिता तदा ।

एकान्ते तु तदा सीतां ज्ञात्वा राघवनन्दनः ॥ २,१०.३८ ॥

विमृश्य सुचिरं कालमिदं किमिति सत्वरम् ।

किञ्चित्क्वचिद्गता साध्वी त्रपायाः कारणेन हि ॥ २,१०.३९ ॥

किं वा न भोजयन्विप्रान्सी तामन्वेषयाम्यहम् ।

विमृशन्नेवमेवं स स्वयं विप्रानभोजयत् ॥ २,१०.४० ॥

गतेषु द्विजमुख्येषु प्रियां रामोऽब्रवीदिदम् ।

कथं तलासु लीना त्वं मुनीन्दृष्ट्वा समागतान् ॥ २,१०.४१ ॥

तत्सर्वं मम तन्वङ्गि कारणं वद मा चिरम् ।

एवमुक्ता तदा भर्त्रा सीता साधोमुखी स्थिता ।

मुञ्चन्ती चाश्रुसंघातं राघवं वाक्यमब्रवीत् ॥ २,१०.४२ ॥

हे गरुड ! पिता की आज्ञा प्राप्त करके जब श्रीराम वन चले गये तो उसके बाद सीता के साथ श्रीराम ने पुष्कर-तीर्थ की यात्रा की। तीर्थ में पहुँचकर उन्होंने श्राद्ध करना प्रारम्भ किया। जानकी ने एक पके हुए फल को सिद्ध करके राम के सामने उपस्थित किया । श्राद्धकर्म में दीक्षित प्रियतम राम की आज्ञा से स्वयं दीक्षित होकर सीता ने उस धर्म का सम्यक् पालन किया। उस समय सूर्य आकाशमण्डल के मध्य पहुँच गये और कुतुपमुहूर्त (दिन का आठवाँ मुहूर्त) आ गया था। श्रीराम ने जिन ऋषियों को निमन्त्रित किया था, वे सभी वहाँ पर आ गये थे। आये हुए उन ऋषियों को देखकर विदेहराज की पुत्री जानकी राम की आज्ञा से अन्न परोसने के लिये वहाँ आयीं; किंतु ब्राह्मणों के बीच जाकर वे तुरंत वहाँ से दूर चली गयीं और लताओं के मध्य छिपकर बैठ गयीं। सीता एकान्त में छिप गयी हैं, इस बात को जानकर श्रीराम ने यह विचार किया कि ब्राह्मणों को बिना भोजन कराये साध्वी सीता लज्जा के कारण कहीं चली गयी होंगी, पहले मैं इन ब्राह्मणों को भोजन करा लूँ फिर उनका अन्वेषण करूँगा। ऐसा विचारकर श्रीराम ने स्वयं उन ब्राह्मणों को भोजन कराया। भोजन के बाद उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों के चले जाने पर श्रीराम ने अपनी प्रियतमा सीता से कहा कि ब्राह्मणों को देखकर तुम लताओं की ओट में क्यों छिप गयी? हे तन्वङ्गी ! तुम इसका समस्त कारण अविलम्ब मुझे बताओ। श्रीराम के ऐसा कहने पर सीता मुँह को नीचे कर सामने खड़ी हो गयीं और अपने नेत्रों से आँसू बहाती हुई राम से बोलीं-

सीतोवाच ।

शृणु त्वं नाथ यद्दृष्टमाश्चर्यमिह यादृशम् ॥ २,१०.४३ ॥

पिता तव मया दृष्टो ब्राह्मणाग्रे तु राघवः ।

सर्वाभरणसंयुक्तोद्वौ चान्यौ च तथाविधौ ॥ २,१०.४४ ॥

दृष्ट्वा त्वत्पितरञ्चाहमपक्रान्ता तवान्तिकात् ।

वल्कलाजिनसंवीता कथं राज्ञः पुरः प्रभो ॥ २,१०.४५ ॥

भवामि रिपुवीरघ्न सत्यमेतदुहाहृतम् ।

स्वहस्तेन कथं देयं राज्ञे वा भोजनं मया ॥ २,१०.४६ ॥

दासानामपि ये दासा नोपभुञ्जन्ति कर्हिचित् ।

तृणपात्रे कथं तस्मै अन्नं दातुं हि शक्रुयाम् ॥ २,१०.४७ ॥

याहं राज्ञा पुरा दृष्टा सर्वाभरणभूषिता ।

सा स्वेदमलदिग्धाङ्गी कथं यास्यामि भूपतिम् ।

अपकृष्टास्मि तेनाहं त्रपया रघुनन्दन ।

सीताजी ने कहा- हे नाथ! मैंने यहाँ जिस प्रकार का आश्चर्य देखा उसे आप सुनें। हे राघव ! इस श्राद्ध में उपस्थित ब्राह्मण के अग्रभाग में मैंने आपके पिता का दर्शन किया, जो सभी आभूषणों से सुशोभित थे। उसी प्रकार के अन्य दो महापुरुष भी उस समय मुझे दिखायी पड़े। आपके पिता को देखकर मैं बिना बताये एकान्त में चली आयी थी। हे प्रभो ! वल्कल और मृगचर्म धारण किये हुए मैं कैसे राजा (दशरथ) - के सम्मुख जा सकती थी। हे शत्रुपक्ष के वीरों का विनाश करनेवाले प्राणनाथ! मैं आपसे यह सत्य ही कह रही हूँ, अपने हाथ से राजा को मैं वह भोजन कैसे दे सकती थी, जिसके दासों के भी दास कभी भी वैसा भोजन नहीं करते रहे ? तृणपात्र में उस अन्न को रखकर मैं कैसे उन्हें ले जाकर देती ? मैं तो वही हूँ जो पहले सभी प्रकार के आभूषणों से सुशोभित रहती थी और राजा मुझे वैसी स्थिति में देख चुके थे। आज वही मैं कैसे राजा के सामने जा पाती ? हे रघुनन्दन ! उसी से मन में आयी हुई लज्जा के कारण मैं वापस हो गयी।

श्रीभागवानुवाच ॥ २,१०.४८ ॥

इति श्रुत्वा प्रियावाक्यं रामो विस्मितमानसः ॥ २,१०.४९ ॥

आश्चर्यमिति तज्ज्ञात्वा तदा स्वस्थानमागमत् ।

सीतया पितरो दृष्टा यथा तत्ते निवेदितम् ॥ २,१०.५० ॥

अपरं श्राद्धमाहात्म्यं किञ्चिच्छृणु समासतः ।

श्रीभगवान्ने कहाहे गरुड ! अपनी पत्नी के ऐसे वचनों को सुनकर श्रीराम का मन विस्मित हो उठा । यह तो आश्चर्य है; ऐसा कहकर वे अपने स्थान पर चले आये। सीता ने जिस प्रकार अपने पितरों का दर्शन किया था, उसी प्रकार तुम्हें मैंने सुना दिया। अब मैं संक्षेप में श्राद्ध का माहात्म्य बता रहा हूँ, सुनो-

अमावस्यादिने प्राप्ते गृहद्वारे समास्थिताः ॥ २,१०.५१ ॥

वायुभूताः प्रवाञ्छन्ति श्राद्धं पितृगणा नृणाम् ।

यावदस्तमयं भानोः क्षुत्पिपासासमाकुलाः ॥ २,१०.५२ ॥

ततश्चास्तं गते सूर्ये निराशा दुःखसंयुताः ।

निःश्वसन्तश्चिरं यान्ति गर्हयन्तस्तु वंशजम् ॥ २,१०.५३ ॥

तस्माच्छ्राद्धं प्रयत्नेन अमायां कर्तुमर्हति ।

यदि श्राद्धं प्रकुर्वन्ति पुत्राद्यास्तस्य बान्धवाः ॥ २,१०.५४ ॥

उद्धृता ये गयाश्राद्धे ब्रह्मलोकञ्च तैः सह ।

भजन्ते क्षुत्पिपासा वा न तेषां जायते क्वचित् ॥ २,१०.५५ ॥

तस्माच्छ्राद्धं प्रयत्नेन सम्यक्कुर्याद्विचक्षणः ।

तस्माच्छ्राद्धं चरेद्भक्त्या शाकैरपि यथाविधि ॥ २,१०.५६ ॥

पितृगण अमावास्या के दिन वायुरूप में घर के दरवाजे पर उपस्थित रहते हैं और अपने स्वजनों से श्राद्ध की अभिलाषा करते हैं। जबतक सूर्यास्त नहीं हो जाता, तबतक वे वहीं भूख-प्यास से व्याकुल होकर खड़े रहते हैं। सूर्यास्त हो जाने के पश्चात् वे निराश होकर दुःखित मन से अपने वंशजों की निन्दा करते हैं और लम्बी-लम्बी साँस खींचते हुए अपने-अपने लोकों को चले जाते हैं। अतः प्रयत्नपूर्वक अमावास्या के दिन श्राद्ध अवश्य करना चाहिये । यदि पितृजनों के पुत्र तथा बन्धु बान्धव उनका श्राद्ध करते हैं और गया तीर्थ में जाकर इस कार्य में प्रवृत्त होते हैं तो वे उन्हीं पितरों के साथ ब्रह्मलोक में निवास करने का अधिकार प्राप्त करते हैं। उन्हें भूख-प्यास कभी नहीं लगती। इसीलिये विद्वान्‌ को प्रयत्नपूर्वक यथाविधि शाक- पात से भी अपने पितरों के लिये श्राद्ध अवश्य करना चाहिये।

कुर्वीत समये श्राद्धं कुले कश्चिन्न सीदति ।

आयुः पुत्रान्यशः स्वर्गं कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम् ॥ २,१०.५७ ॥

पशून्सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात्पितृपूजनात् ।

देवकार्यादपि सदा पितृकार्यं विशिष्यते ॥ २,१०.५८ ॥

देवताभ्यः पितॄणां हि पूर्वमाप्यायनं शुभम् ।

समयानुसार श्राद्ध करने से कुल में कोई दुःखी नहीं रहता । पितरों की पूजा करके मनुष्य आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, श्री, पशु, सुख और धन- धान्य प्राप्त करता है। देवकार्य से भी पितृकार्य का विशेष महत्त्व है। देवताओं से पहले पितरों को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी है।

ये यजन्ति पितॄन्देवान्ब्राह्मणांश्च हुताशनम् ॥ २,१०.५९ ॥

सर्वभूतान्तरात्मानं मामेव हि यजन्ति ते ।

स्मार्तेन विधिना श्राद्धं कृत्वा स्वविभवोचितम् ॥ २,१०.६० ॥

आब्राह्मस्तम्बपर्यन्तं जगत्प्रीणाति मानवः ।

जो लोग अपने पितृगण, देवगण, ब्राह्मण तथा अग्नि की पूजा करते हैं, वे सभी प्राणियों की अन्तरात्मा में समाविष्ट मेरी ही पूजा करते हैं । शक्ति के अनुसार विधिपूर्वक श्राद्ध करके मनुष्य ब्रह्मपर्यन्त समस्त चराचर जगत्‌ को प्रसन्न कर लेता है।

अन्नप्रकिरणं यत्तु मनुष्यैः क्रियते भुवि ॥ २,१०.६१ ॥

तेन तृप्तिमुपायान्ति ये पिशाचत्वमागताः ।

यच्चाम्बुः स्नानवस्त्रेभ्यो भूमौ पतति खेचर ॥ २,१०.६२ ॥

तेन ये तरुतां प्राप्तास्तेषां तृप्तिः प्रजायते ।

यानि गन्धाम्बूनि चैव पतन्ति धरणीतले ॥ २,१०.६३ ॥

तेन चाप्यायनं तेषां ये देवत्वमुपागताः ।

ये चापि स्वकुलाद्बाह्याः क्रियायोग्या ह्यसंस्कृताः ॥ २,१०.६४ ॥

विपन्नास्ते तु विकिरसंमार्जनजलाशिनः ।

भुक्त्वा चाचमनं यच्च जलं यच्चाह्नि सेवितम् ॥ २,१०.६५ ॥

ब्राह्मणानां तथैवान्यत्तेन तृप्तिं प्रयान्ति वै ।

पिशाचत्वमनुप्राप्ताः कृमिकीटत्वमेव ये ॥ २,१०.६६ ॥

उद्धृतेष्वन्नपिण्डेषु भुवि ये चान्नकाङ्क्षिणः ।

तैरेवाप्यायनं तेषां ये मनुष्यत्वमागताः ॥ २,१०.६७ ॥

एवं वै क्रियमाणानां तेषां चैव द्विजन्मनाम् ।

कश्चिज्जलान्नविक्षेपः शुचिरुच्छिष्ट एव वा ॥ २,१०.६८ ॥

तेनान्नेन कुले तेषां ये वै जात्यन्तरं गताः ।

भवत्याप्यायनं तेषां सम्यक्श्राद्धे कृते सति ॥ २,१०.६९ ॥

अन्यायोपार्जितैर्द्रव्यैर्यच्छ्राद्धं क्रियते नरैः ।

तकृप्यन्ति तेन चण्डालाः पुक्कसाद्युपयोनिषु ॥ २,१०.७० ॥

हे आकाशचारिन् गरुड ! मनुष्यों के द्वारा श्राद्ध में पृथ्वी पर जो अन्न बिखेरा जाता है, उससे जो पितर पिशाच – योनि में उत्पन्न हुए हैं, वे संतृप्त होते हैं। श्राद्ध में स्नान करने से भीगे हुए वस्त्रों द्वारा जो जल पृथ्वी पर गिरता है, उससे वृक्षयोनि को प्राप्त हुए पितरों की संतुष्टि होती है। उस समय जो गन्ध तथा जल भूमि पर गिरता है, उससे देवत्व – योनि को प्राप्त पितरों को सुख प्राप्त होता है। जो पितर अपने कुल से बहिष्कृत हैं, क्रिया के योग्य नहीं हैं, संस्कारहीन और विपन्न हैं, वे सभी श्राद्ध में विकिरान्न और मार्जन के जल का भक्षण करते हैं । श्राद्ध में भोजन करके ब्राह्मणों के द्वारा आचमन एवं जलपान करने के लिये जो जल ग्रहण किया जाता है, उस जल से उन पितरों को संतृप्ति प्राप्त होती है । जिन्हें पिशाच, कृमि और कीट की योनि मिली है तथा जिन पितरों को मनुष्य योनि प्राप्त हुई है, वे सभी पृथ्वी पर श्राद्ध में दिये गये पिण्डों में प्रयुक्त अन्न की अभिलाषा करते हैं, उसी से उन्हें संतृप्ति प्राप्त होती है। इस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्यों के द्वारा विधिपूर्वक श्राद्ध किये जाने पर जो शुद्ध या अशुद्ध अन्न तथा जल फेंका जाता है, उससे जिन्होंने अन्य जाति में जाकर जन्म लिया है, उनकी तृप्ति होती है। जो मनुष्य अन्यायपूर्वक अर्जित किये गये पदार्थों से श्राद्ध करते हैं, उस श्राद्ध से नीच योनियों में जन्म ग्रहण करनेवाले चाण्डाल पितरों की तृप्ति होती है।

एवं संप्राप्यते पक्षिन् यद्दत्तमिह बान्धवैः ।

श्राद्धं कुर्वद्भिरन्नाम्वुशाकैस्तृप्तिर्हि जायते ॥ २,१०.७१ ॥

एतत्ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि ।

सद्यो देहान्तरप्राप्तिर्विलंबेनावनीतले ॥ २,१०.७२ ॥

पृष्टवानसि तत्तेऽहं प्रवक्ष्यामि समासतः ।

सद्यो विलम्बतञ्चैवोभयथापि कलेवरम् ॥ २,१०.७३ ॥

हे पक्षिन् ! इस संसार में श्राद्ध के निमित्त जो कुछ भी अन्न, धन आदि का दान अपने बन्धु-बान्धवों के द्वारा दिया जाता है, वह सब पितरों को प्राप्त होता है। अन्न, जल और शाक-पात आदि के द्वारा यथा सामर्थ्य जो श्राद्ध किया जाता है, वह सब पितरों की तृप्ति का हेतु है । तुमने इस विषय में जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने तुम्हें बता दिया। तुम अब जो यह पूछ रहे हो कि मृत्यु के बाद प्राणी को तत्काल दूसरे शरीर की प्राप्ति हो जाती है ? अथवा विलम्ब से उसको दूसरे शरीर में जाना पड़ता है ? वह मैं तुम्हें संक्षेप में बता रहा हूँ ।

यतो हि मर्त्यः प्राप्नोति तद्विशेषञ्च मे शृणु ।

अधूमकज्योतिरिवाङ्गुष्ठमात्रः पुमांस्ततः ॥ २,१०.७४ ॥

देहमेकं सद्य एव वायवीयं प्रपद्यते ।

यथा नृणजलौका हि पश्चत्पादं तदोद्धरेत् ॥ २,१०.७५ ॥

स्थितिरग्र्यस्य पादस्य यदा जाता दृढा भवेत् ।

एवं देही पूर्वदेहं समुत्सृजति तं यदा ॥ २,१०.७६ ॥

भोगार्थमग्रे स्याद्देहो वायवीय उपस्थितः ।

विषयग्राहकं यद्वन्म्रियमाणस्य चेन्द्रियम् ॥ २,१०.७७ ॥

निर्व्यापारं तच्च देहे वायुनैव स गच्छति ।

शरीरं यदवाप्नोति तच्चाप्युत्क्वम्यति स्वयम् ॥ २,१०.७८ ॥

गृहीत्वा स्वं विनिर्याति जीवो गर्भ ईवाशयात् ।

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् ॥ २,१०.७९ ॥

विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ।

आतिवाहिकमित्येवं वायवीयं वदन्ति हि ॥ २,१०.८० ॥

एवं तु यातुधानानां तमेव च वदन्ति हि ।

सुपर्ण ईदृशो देहो नृणां भवति पिण्डजः ॥ २,१०.८१ ॥

हे गरुड ! प्राणी मृत्यु के पश्चात् दूसरे शरीर में तुरंत भी प्रविष्ट हो सकता है और विलम्ब से भी । मनुष्य जिस कारण दूसरे शरीर को प्राप्त करता है, उस वैशिष्ट्य को तुम मुझसे सुनो। शरीर के अंदर जो धूमरहित ज्योति के सदृश प्रधान पुरुष जीवात्मा विद्यमान रहता है, वह मृत्यु के बाद तुरंत ही वायवीय शरीर धारण कर लेता है। जिस प्रकार एक तृण का आश्रय लेकर स्थित जोंक दूसरे तृण का आश्रय लेने के बाद पहलेवाले तृण के आश्रय से अपने पैर को आगे बढ़ाता है, उसी प्रकार शरीरी पूर्व-शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाता है । उस समय भोग के लिये वायवीय शरीर सामने ही उपस्थित रहता है। मरनेवाले शरीर के अंदर विषय ग्रहण करनेवाली इन्द्रियाँ उसके निश्चेष्ट (निर्व्यापार) हो जाने पर वायु के साथ चली जाती हैं। वह जिस शरीर को प्राप्त करता है उसको भी छोड़ देता है। जैसे स्त्री के शरीर में स्थित गर्भ उसके अन्नादिक कोश से शक्ति ग्रहण करता है और समय आने पर उसे छोड़कर वह बाहर आ जाता है, वैसे ही जीव अपना अधिकार लेकर दूसरे शरीर में प्रवेश करता है । उस एक शरीर में प्रविष्ट होते हुए प्राणी कालक्रम, भोजन या गुण-संक्रमण की जो स्थिति है उसे मूर्ख नहीं, अपितु ज्ञानी व्यक्ति ही देखते हैं। विद्वान् लोग इसको आतिवाहिक वायवीय शरीर कहते हैं । हे सुपर्ण! भूत-प्रेत और पिशाचों का शरीर तथा मनुष्यों का पिण्डज शरीर भी ऐसा ही होता है।

पुत्रादिभिः कृताश्चेत्स्युः पिण्डा दश दशाहिकाः ।

पिण्डजेन तु देहेन वायुजश्चैकतां व्रजेत् ॥ २,१०.८२ ॥

पिण्डजो यदि नैव स्याद्वायुजोऽर्हति यातनाम् ।

हे पक्षीन्द्र ! पुत्रादि के द्वारा जो दशगात्र के पिण्डदान दिये जाते हैं, उस पिण्डज शरीर से वायवीय शरीर एकाकार हो जाता है। यदि पिण्डज देह का साथ नहीं होता है तो वायुज शरीर कष्ट भोगता है।

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।

तथा देहान्तरप्राप्तिः पक्षीन्द्रेत्यवधारय ॥ २,१०.८३ ॥

प्राणी के इस शरीर में जैसे कौमार्य, यौवन और बुढ़ापे की अवस्थाएँ आती हैं, वैसे ही दूसरे शरीर के प्राप्त होने पर भी तुम्हें समझना चाहिये।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

नवानि गृह्णाति नरोपराणि ।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-

न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ २,१०.८४ ॥

जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों का परित्याग कर नये वस्त्रों को धारण कर लेता है, उसी प्रकार शरीरी पुराने शरीर का परित्याग कर नये शरीर को धारण करता है।

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ २,१०.८५ ॥

इस शरीरी को न शस्त्र छेद सकता है, न अग्नि जला सकती है, न जल आर्द्र कर सकता है और न वायु सुखा सकती है।

वायवीयां तनुं याति सद्य इत्युक्तमेव ते ।

प्राप्तिर्विलंबतो यस्य तं देहं खलु मे शृणु ॥ २,१०.८६ ॥

जीव तत्काल वायवीय शरीर में प्रवेश कर लेता है, यह तो मैंने तुम्हें बता दिया; अब जीवात्मा को विलम्ब से जैसे दूसरा शरीर प्राप्त होता है, उसको तुम मुझसे सुनो।

क्वचिद्विलंबतो देहं पिण्डजं स समाप्नुयात् ।

अथो गतो याम्यलोकं स्वीयकर्मानुसारतः ॥ २,१०.८७ ॥

चित्रगुप्तस्यवाक्येन निरयाणि भुनक्ति सः ।

यातनाःसमवाप्याथ पशुपक्ष्यादिकीं तनुम् ॥ २,१०.८८ ॥

या गृह्णाति नरः सा स्यान्मोहेन ममतास्पदम् ।

शुभाशुभं कर्मफलं भुक्त्वा मुच्यते मानवः ॥ २,१०.८९ ॥

हे गरुड ! कोई-कोई जीवात्मा पिण्डज शरीर विलम्ब से प्राप्त करता है; क्योंकि मृत्यु के बाद वह स्वकर्मानुसार यमलोक को जाता है। चित्रगुप्त की आज्ञा से वह वहाँ नरक भोगता है। वहाँ की यातनाओं को झेलने के पश्चात् उसे पशु-पक्षी आदि की योनि प्राप्त होती है। मनुष्य जिस शरीर को ग्रहण करता है, उसी शरीर में मोहवश उसकी ममता हो जाती है। शुभाशुभ कर्मों के फल भोगकर मनुष्य इससे मुक्त भी हो जाता है ।

गरुड उवाच ।

तीर्त्वा दुः खभवाम्भोधिं भवन्तं कथमाप्नुयात् ।

बहुपातकयुक्तोऽपि तद्वदस्व दयानिधे ॥ २,१०.९० ॥

भूयो दुः खस्य संसर्गो नरस्य न भवेद्यथा ।

ब्रूहि शुश्रूषमाणस्य पृच्छतो मे रमापते ॥ २,१०.९१ ॥

गरुड ने कहा- हे दयानिधे ! बहुत-से पापों को करने के बाद भी इस संसार को पार करके प्राणी आपको कैसे प्राप्त कर सकता है? उसे आप मुझे बतायें। हे लक्ष्मीरमण ! जिस प्रकार मनुष्य का संसर्ग पुनः दुःख से न हो उस उपाय को बताने की कृपा करें।

श्रीकृष्ण उवाच ।

स्वेस्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।

स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥ २,१०.९२ ॥

श्रीकृष्ण ने कहाहे पक्षिराज ! प्रत्येक मनुष्य अपने-अपने कर्म में रत रहकर संसिद्धि प्राप्त कर लेता है। अपने कर्म में अनुरक्त रहकर वह उस सिद्धि को जिस प्रकार प्राप्त करता है, उसको तुम मुझसे सुनो ।

कर्मविभ्रष्टकालुष्यो वासुदेवानुचिन्तया ।

बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च ॥ २,१०.९३ ॥

शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ।

विरक्तसेवी लब्ध्वाशी यतवाक्कायमानसः ॥ २,१०.९४ ॥

ध्यानयोगपरो नित्यं वैरग्यं समुपाश्रितः ।

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम् ॥ २,१०.९५ ॥

विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ।

अतः परं नृणां कृत्यं नास्ति कश्यपनन्दन ॥ २,१०.९६ ॥

हे कश्यपनन्दन ! सत्कर्म से जिसने अपने कालुष्य को नष्ट कर दिया है, वह व्यक्ति वासुदेव के निरन्तर चिन्तन से विशुद्ध हुई बुद्धि से युक्त होकर धैर्य से अपना नियमन करके स्थिर रहता है, जो शब्दादि विषयों का परित्याग कर राग-द्वेष को छोड़कर विरक्तसेवी और यथाप्राप्त भोजन से संतुष्ट रहता है, जिसका मन-वाणी - शरीर संयमित है, जो वैराग्य धारणकर नित्य ध्यान योग में तत्पर रहता है, जो अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रह - इन षड्विकारों का परित्याग करके निर्भय होकर शान्त हो जाता है, वह ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। इसके बाद मनुष्यों के लिये कुछ करना शेष नहीं रह जाता।

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीदृधर्मदृप्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे श्राद्धस्य तृप्तिदत्वादिनिरूपणं नाम दशमोऽध्यायः॥

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 11

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