श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ९

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ९      

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ९ राजा बभ्रुवाहन की कथा, राजा द्वारा प्रेत के निमित्त की गयी और्ध्वदैहिक क्रिया एवं वृषोत्सर्ग से प्रेत का उद्धार का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ९

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) नवमोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 9

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प नौवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ९     

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ९ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः ९     

गरुड उवाच ।

उक्तमाद्यां क्रियां यावन्नृपोऽपीतित्वयानघ ।

कस्यचित्केनचिद्राज्ञा किमाद्या सा कृता पुरा ॥ २,९.१ ॥

गरुड ने कहाहे निष्पाप देव! आपने यह कहा कि जब मनुष्य की और्ध्वदैहिक क्रिया को करनेवाला कोई न हो तो उस आद्य क्रिया को राजा सम्पन्न कर सकता है। प्राचीनकाल में क्या किसी राजा ने किसी ऐसे व्यक्ति की और्ध्वदैहिक आदि क्रिया सम्पन्न की थी ?

श्रीकृष्ण उवाच ।

सुपर्ण शृणु वक्ष्यामि यथा राज्ञा क्रिया कृता ।

श्रीकृष्ण ने कहा हे सुपर्ण! तुम सुनो! जिस राजा ने इस क्रिया को किया था, मैं उसके विषय में कहूँगा ।

आसीत्कृतयुगे राजा वाङ्गो वै बभ्रुवाहनः ॥ २,९.२ ॥

पृथिव्याश्चतुरन्ताया गोप्ता पक्षीन्द्र धर्मतः ।

चतुर्भागां भुवं कृत्स्नां स भुङ्के वसुधाधिपः ॥ २,९.३ ॥

न पापकृत्कश्चिदासीत्तस्मिन्राज्यं प्रशासति ।

नासीच्चौरभयं तार्क्ष्य न क्षुद्रभयमेव हि ॥ २,९.४ ॥

नासीद्व्याधिभयञ्चापि तस्मिञ्जनपदेश्वरे ।

स्वधर्मे रेमिरे चासीत्तेजसा भास्करोपमः ॥ २,९.५ ॥

अक्षुब्धत्वेर्ऽचलसमः सहिष्णुत्वे धरासमः ।

स कदाचिन्महाबाहुः प्रभूतबलवाहनः ॥ २,९.६ ॥

वनं जगाम गहनं हयानाञ्च शतैर्वृतः ।

सिंहनादैश्च योधानां शङ्खदुन्दुभिनिः स्वनैः ॥ २,९.७ ॥

आसीत्किलकिलाशब्दस्तस्मिन् गच्छती पार्थिवे ।

तत्रतत्र च विप्रेन्द्रैः स्तूयमानः समन्ततः ॥ २,९.८ ॥

निर्ययौ परया प्रीत्या वनं मृगजिघांसया ।

स गच्छन्ददृशे धीमान्नन्दनप्रतिमं वनम् ॥ २,९.९ ॥

बिल्वार्कखदिराकीर्णं कपित्थध्वजसंयुतम् ।

विषमैः पर्वतैश्चैव सर्वतश्च समन्वितम् ॥ २,९.१० ॥

निर्जलं निर्मनुष्यञ्च बहुयोजनमायतम् ।

मृगसिंहैर्महाघोरैन्यैश्चापि वनेचरैः ॥ २,९.११ ॥

तद्वनं मनुज व्याघ्रः सभृत्यबलवाहनः ।

लीलया लोडयामास सूदयन्विविधान्मृगान् ॥ २,९.१२ ॥

कृतयुग में वंग देश में बभ्रुवाहन नाम का एक राजा था । हे पक्षीन्द्र ! वह समुद्र से चारों ओर घिरी हुई अपनी पृथ्वी की धर्मानुसार भलीभाँति रक्षा करता था। उसने अपने जीवनकाल में इस सम्पूर्ण पृथ्वी का विधिवत् भोग किया। उसके शासनकाल में कोई भी पापी नहीं था । प्रजाओं को न तो चोर का भय था और न तो दुष्टजनों के द्वारा किये गये उपद्रवों का आतंक था। उसके राज्यकाल में किसी भी प्रकार के रोग का भी भय नहीं था। सभी अपने- अपने धर्म में अनुरक्त थे। वह राजा तेज में सूर्य की भाँति, अक्षुब्धता (शान्ति) - में पर्वत के समान और सहिष्णुता में पृथ्वी के सदृश था। किसी समय उस राजा ने एक सौ घुड़सवार सैनिकों को साथ लेकर मृगया के लिये एक घने वन की ओर प्रस्थान किया। उस समय योद्धाओं के सिंहनाद, शङ्ख तथा दुन्दुभियों की ध्वनि से मिलकर निकले किलकिलाहट भरे शब्दों से वातावरण गूँज रहा था । वहाँ स्थान-स्थान पर चारों ओर उस राजा की स्तुति हो रही थी । चलते-चलते उस राजा को नन्दनवन के समान एक वन दिखायी पड़ा। वह वन बिल्व, मंदार, खदिर, कैथ तथा बाँस के वृक्षों से परिव्याप्त था। ऊँचे, नीचे पर्वतों से चारों ओर घिरा हुआ था। जलरहित तथा निर्जन उस वन का विस्तार कई योजन का था । मृग, सिंह तथा अन्य महाभयंकर हिंसक जीव-जन्तु उसमें भरे हुए थे। अपने सेवक एवं सैनिकों के साथ नाना प्रकार के मृगों को मारते हुए उस नरशार्दूल ने खेल- ही खेल में उस वन को विक्षुब्ध कर दिया।

मृगस्य कस्यचित्कुक्षिं ततो विव्याध भूमिपः ।

राजा मृगप्रसङ्गेन तमनु प्राविशद्वनम् ॥ २,९.१३ ॥

एकाकी वै हृतबलः क्षुत्प्रिपासासमन्वितः ।

स वनस्यान्तमासाद्य महच्चारण्यमासदत् ॥ २,९.१४ ॥

तृषया परयाविष्टोऽन्विष्यज्जलमितस्ततः ।

स दूरात्पूरचक्राह्वं हंससारसनादितैः ॥ २,९.१५ ॥

सूचितं सर आगत्य साश्व एव व्यगाहत ।

पद्मानाञ्च परागेण उत्पलानां रजेन च ॥ २,९.१६ ॥

सुगन्धममलं शीतं पीत्वाम्भो निर्जगाम ह ।

मार्गश्रमपरिश्रान्तस्तडागतटमण्डपम् ॥ २,९.१७ ॥

न्यग्रोधं वीक्ष्य तस्याशु जटास्वश्वं बबन्ध ह ।

स तत्रास्तरमास्तीर्य खेटकानुपधाय च ॥ २,९.१८ ॥

सूष्वाप वायुना तत्र सेव्यामातस्तदा क्षणम् ।

इसके बाद राजा ने किसी एक मृग के कुक्षिभाग में बाण का प्रहार किया। आहत होकर भी वह मृग बड़ी तेजी से दौड़ पड़ा। राजा ने भी उस मृग का पीछा किया। अकेला अत्यधिक दूरी तय करने के कारण थका हुआ भूख-प्यास से पीड़ित वह राजा उस वन को पार कर एक दूसरे घनघोर वन में जा पहुँचा। अत्यन्त प्यास से क्षुब्ध होकर वह उस वन में इधर-उधर जल खोजने लगा। हंस और सारस पक्षियों के शब्द से सूचित किये गये पूरचक्र नामक सरोवर पर जाकर उसने अश्व के साथ वहाँ स्नान किया । तदनन्तर उस सरोवर के लाल एवं नीले कमलों के पराग से सुगन्धित शीतल जल को पीकर वह जल से बाहर आया । मार्ग में अत्यधिक चलने के कारण थके हुए राजा ने उसी सरोवर के किनारे एक छायादार वटवृक्ष को देखकर उसमें अपने घोड़े को बाँध दिया। तत्पश्चात् आस्तरण को बिछाकर तथा ढाल की तकिया लगाकर क्षणभर में ही शीतल मन्द वायु के सुख की अनुभूति करता हुआ वह सो गया।

क्षणं सुप्ते नृपे तत्र प्रेतो वै प्रेतवाहनः ॥ २,९.१९ ॥

कश्चिदत्राजगामाथ युक्तः प्रेतशतेन च ।

अस्थिचर्मशिराशेषशरीरः परिविभ्रमन् ॥ २,९.२० ॥

भक्ष्यंपेयं मार्गमाणो न बध्नाति धृतिं क्वचित् ।

तमपूर्वं नृपो दृष्ट्वाकरोदस्त्रं शरासने ॥ २,९.२१ ॥

दृष्ट्वा सोऽपि चिरं भूपं तस्थौ स्थाणुपिवाग्रतः ।

तमवस्थितमालोक्य राजा प्राप्तकुतूहलः ॥ २,९.२२ ॥

पप्रच्छ तञ्च कोऽसीति कुतो वा विकृतिं गतः ।

राजा के सोते ही वहाँ सौ प्रेतों के साथ घूमता हुआ प्रेतवाहन नामक एक प्रेत आ पहुँचा। उसके शरीर में मात्र अस्थि, चर्म और शिराएँ ही शेष थीं। वह खाने-पीने को खोजता हुआ धैर्य नहीं धारण कर पा रहा था। आहट पाकर राजा की नींद खुल गयी। पहले कभी न देखे गये उस दृश्य को देखकर राजा ने शीघ्र ही अपने धनुष पर बाण चढ़ा लिया। अपने सामने राजा को देखकर वह प्रेत भी स्थाणु के सदृश खड़ा रहा। उसको अवस्थित देखकर राजा के मन में कौतूहल हो उठा। उन्होंने प्रेत से पूछा कि तुम कौन हो ? यहाँ कहाँ से आये हो? तुम्हें यह विकृत शरीर कैसे प्राप्त हुआ है ?

प्रेत उवाच ।

प्रेतभावो मया त्यक्तो गतिं प्राप्तोऽस्म्यहं पराम् ॥ २,९.२३ ॥

त्वत्संयोगान्महाबाहो नास्ति धन्यतरो मया ।

प्रेत ने कहा- हे महाबाहो ! आपके इस संयोग से मैंने अपना प्रेतभाव त्याग दिया है। मुझे अब परमगति प्राप्त हो गयी है। मेरे समान धन्य अन्य कोई नहीं है।

बभ्रुवाहन उवाच ।

किमेतद्विपिने घोरे सर्वत्रातिभयानके ॥ २,९.२४ ॥

दोधूयमाने वातेन वात्यारूपेण कोणप ।

पतङ्गा मशकाः क्षुद्राः कवन्धाश्च शिरांसि च ॥ २,९.२५ ॥

मत्स्याः कूर्माः कृकलासा वृश्चिका भ्रमराहयः ।

अधोमुखोर्ध्वपादास्ते क्रन्दमानाः सुदारुणम् ॥ २,९.२६ ॥

प्रवान्ति वायवो रूक्षा ज्वलन्तो विद्युदग्नयः ।

इतस्ततो भ्रमन्तीव वायुना तृणसन्ततिः ॥ २,९.२७ ॥

दृश्यन्ते विविधा जीवा नागाश्च शलभव्रजाः ।

श्रूयन्ते बहुधा रावा न दृश्यन्ते क्वचित्क्वचित् ॥ २,९.२८ ॥

दृष्ट्वेदं विकृतं सर्वं वेपते हृदयंमम ।

बभ्रुवाहन ने कहा- यह वन सर्वत्र अत्यन्त भयानक है। इसमें मैं यह क्या देख रहा हूँ ? हे पिशाच ! यहाँ यह वन भी आँधी के झोंकों से ग्रस्त है। यहाँ पतंग, मशक, मधुमक्खी, कबन्ध, शिरी, मत्स्य, कच्छप, गिरगिट, बिच्छू, भ्रमर, सर्प, अधोमुखी हवाएँ चलती हैं, बिजली की आग जलती है, वायु के झोंकों से इधर-उधर तिनके हिल-डुल रहे हैं। यहाँ नाना प्रकार के जीव-जन्तु, हाथी तथा टिड्डियों के बहुत प्रकार के शब्द सुनायी पड़ रहे हैं, किंतु कहीं पर भी कोई दिखायी नहीं दे रहा है । यह सब विकृत स्थिति देखकर मेरा हृदय काँप रहा है।

प्रते उवाच ।

येषां नैवाग्निसंस्कारो न श्राद्धं नोदकक्रियाः ॥ २,९.२९ ॥

षट्पिण्डा दश गात्राणि सपिण्डीकरणं न हि ।

विश्वासघातिनो ये च सुरापाः स्वर्णहारिणः ॥ २,९.३० ॥

मृता दुर्मरणाद्ये च ये चासूयापरा जनाः ।

प्रायश्चित्तविहीना ये अगम्यागमने रताः ॥ २,९.३१ ॥

कर्मभिर्भ्राम्यमाणास्ते प्राणिनः स्वकृतैरिह ।

दुर्लभाहारपानीया दृश्यन्ते पीडिता भृशम् ॥ २,९.३२ ॥

एतेषां कृपया राजंस्त्वं कुरुष्वौर्ध्वदेहिकम् ।

येषां न माता न पिता न पुत्रो न च बान्धवाः ॥ २,९.३३ ॥

तेषा राजा स्वयं कुर्यात्कर्माणि तु यतो नृपः ।

आत्मनश्च शुभं कर्म कर्तव्यं पारलौकिकम् ॥ २,९.३४ ॥

विमुक्तः सर्वदुः खेभ्यो येनाञ्जो दुर्गातिं तरेत् ।

प्रेत ने कहा- राजन् ! जिन प्राणियों का अग्नि- संस्कार, श्राद्ध, तर्पण, षट्पिण्ड, दशगात्र, सपिण्डीकरण नहीं हुआ है, जो विश्वासघाती, मद्यपी और स्वर्णचोर रहे हैं, जो लोग अपमृत्यु से मरे हैं, जो ईर्ष्या करनेवाले हैं, जो अपने पापों का प्रायश्चित्त नहीं करते हैं, जो गुरु आदि की पत्नी के साथ गमन करते हैं, वे सभी प्राणी अपने कर्मों के कारण भटकते हुए प्रेतरूप में यहाँ पर निवास करते हैं। इनको खान-पान बड़ा दुर्लभ है। ये अत्यधिक पीड़ित रहते हैं । हे राजन् ! कृपया आप इनका और्ध्वदैहिक संस्कार करें। जिनके माता-पिता, पुत्र और भाई-बन्धु नहीं हैं, उनका और्ध्वदैहिक संस्कार राजा को स्वयं करना चाहिये। राजा इससे अपने पारलौकिक शुभ कर्म को भी सम्पन्न कर सकता है और वह सभी दुःखों से विमुक्त हो जाता है । इस कर्म से सम्मानित होकर राजा अपनी दुर्गति दूर कर सकता है।

भ्रातरः कस्य के पुत्रास्त्रियोऽपि स्वार्थकोविदाः ॥ २,९.३५ ॥

न कार्यस्तेषु विश्रम्भ स्वकृतं भुज्यतेयतः ।

इस संसार में कौन किसका भाई है, कौन किसका पुत्र है और कौन किसकी स्त्री है, सभी स्वार्थ के वशीभूत हैं । उनमें मनुष्य को विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि वह अपने कर्मों का स्वयं ही भोग करता है।

गृहेष्वर्था निवर्न्त्तन्ते श्मशाने चैव बान्धवाः ॥ २,९.३६ ॥

शरीरं काष्ठामादत्ते पापं पुण्यं सह व्रजेत् ।

धन घर में छूट जाता है, भाई-बन्धु श्मशान में छूट जाते हैं, शरीर काष्ठ को सौंप दिया जाता है। जीव के साथ पाप- पुण्य ही जाता है।

तस्मादाशु त्वया सम्यगात्मनः श्रेय इच्छता ॥ २,९.३७ ॥

अस्थिरेण शरीरेण कर्तव्यञ्चौर्ध्वदोहिकम् ।

अतः राजन्! अपने कल्याण की इच्छा से आप इस नश्वर शरीर से अविलम्ब प्रेतों का और्ध्वदैहिक कर्म सम्पन्न करें।

राजोवाच ।

कृशरूपः करालाक्षस्त्वं प्रेत इव लक्ष्यसे ॥ २,९.३८ ॥

कथयस्वः मम प्रीत्या प्रेतराज यथातथम् ।

तथा पृष्टः स वै राज्ञा उवाच सकलं स्वकम् ॥ २,९.३९ ॥

राजा ने कहा- हे प्रेतराज! कृशकाय भयंकर नेत्रवाले तुम प्रेत के समान दिखायी देते हो। तुम प्रसन्न होकर अपना जैसा वृत्तान्त हो, वैसा सब कुछ मुझसे कहो। इस प्रकार पूछे जाने पर प्रेत ने अपना सारा वृत्तान्त राजा से कहा ।

प्रेत उवाच ।

कथयामि नृपश्रेष्ठ सर्वमेवादितस्तव ।

प्रेतत्वे कारणं श्रुत्वा दयां कर्तुमिहार्हसि ॥ २,९.४० ॥

वैदिशं नाम नगरं सर्वसम्पत्सुखावहम् ।

नानाजनपदाकीर्णं नानारत्नसमाकुलम् ॥ २,९.४१ ॥

नानापुष्पवनाकीर्णं नानापुण्यजनावृतम् ।

तत्राहं न्यवसं भूप देवार्चनरतः सदा ॥ २,९.४२ ॥

वैश्यजातिः सुदेवोऽहं नाम्ना विदितमस्तु ते ।

हव्येन तर्पिता देवाः कव्येन पितरो मया ॥ २,९.४३ ॥

विविधैर्दानयोगैश्च विप्राः सन्तर्पिता मया ।

आहारश्च विहारश्च मया वै सुनिवेशितः ॥ २,९.४४ ॥

दीनानाथविशिष्टेभ्यो मया दत्तमनेकधा ।

तत्सर्वं निष्फलं जातं मम दैवादुपागतम् ॥ २,९.४५ ॥

न मेऽस्ति सन्ततिस्तात न सुहृन्न च बान्धवाः ।

न च मित्रं हितस्तादृग्यः कुर्यादौर्ध्वदैहिकम् ॥ २,९.४६ ॥

प्रेतत्वं सुस्थिरं तेन मम जातं नृपोत्तम ।

प्रेत ने कहा- हे नृपश्रेष्ठ ! मैं प्रारम्भ से लेकर आजतक का सम्पूर्ण वृत्तान्त आपसे कह रहा हूँ। हे राजन्! सभी सम्पदाओं को सुखपूर्वक वहन करनेवाला, विभिन्न जनपदों में उत्पन्न नाना प्रकार के रत्नों से परिव्याप्त, अनेकानेक पुष्पों से सुशोभित वनप्रान्तवाला तथा विभिन्न पुण्यजनों से आवृत विदिशा नामक एक नगर था। सदैव देवाराधन में अनुरक्त रहता हुआ मैं उसी नगर में निवास करता था । मैं वैश्यजाति में उत्पन्न हुआ था, उस जन्म में सुदेव मेरा नाम था । मेरे द्वारा दिये गये 'हव्य' से देवता और 'कव्य' से पितृगण संतुष्ट रहते थे। मैंने नाना प्रकार के दान देकर ब्राह्मणों को संतृप्त किया था। मेरा आहार-विहार सुनिश्चित था । दीन-हीन, अनाथ और विशिष्ट सत्पात्रों को मैंने अनेक प्रकार से सहायता पहुँचायी थी; किंतु दैवयोग से वह सब निष्फल हो गया। मेरे न तो कोई संतान हुई, न कोई सगे बन्धु बान्धव हैं और न वैसा कोई मित्र ही है, जो मेरा और्ध्वदैहिक कर्म कर सके। हे श्रेष्ठ राजन् ! उसी से मेरा यह प्रेतत्व स्थिर हो गया है।

एकादशं त्रिपक्षञ्च षाण्मासिकमथाब्दिकम् ॥ २,९.४७ ॥

प्रतिमास्यानि चान्या नि ह्येवं श्राद्धानि षोडश ।

यस्यैतानि न दीयन्ते प्रेतश्राद्धानि भूपते ॥ २,९.४८ ॥

प्रेतत्वं सुस्थिरं तस्यः दत्तैः श्राद्धशतैरपि ।

एवं ज्ञात्वा महाराज प्रेतत्वादुद्धरस्व माम् ॥ २,९.४९ ॥

वर्णानाञ्चैव सर्वेषां राजा बन्धुरिहोच्यते ।

तन्मां तारय राजेन्द्र मणिरत्नं ददामि ते ॥ २,९.५० ॥

यथा मम शुभावाप्तिर्भवेन्नृपवरोत्तम ।

तथा कार्यं महीपाल दयां कृत्वा मयि प्रभो ॥ २,९.५१ ॥

सपिण्डैर्वा सगोत्रैर्वा निष्टुरैर्न कृतो हिमे ।

वृषोत्सर्गस्ततो दुष्टं प्रेतत्वं प्राप्तवानहम् ॥ २,९.५२ ॥

क्षुत्तृषाविष्टदेहश्च भक्ष्यं पानं न चाप्नुयाम् ।

अतो विकृतिरेषा वै कृशात्वादिरमांसका ॥ २,९.५३ ॥

क्षुत्तृड्जन्यं महादुः खमनुभवामि पुनः पुनः ।

अकल्याणं हि प्रेतत्वं वृषोत्सर्गं विना कृतम् ॥ २,९.५४ ॥

तस्माद्राजन्दयासिन्धो प्रार्थयामि तवाग्रतः ।

हे भूपते ! एकादशाह, त्रिपाक्षिक, षाण्मासिक, वार्षिक तथा जो मासिक श्राद्ध होते हैं, इन सभी श्राद्धों की कुल संख्या सोलह है। जिस मृतक के लिये इन श्राद्धों का अनुष्ठान नहीं किया जाता है, उसका प्रेतत्व अन्य सैकड़ों श्राद्ध करने पर भी स्थिर ही रहता है । हे महाराज ! ऐसा जानकर आप मुझे इस प्रेतत्व से मुक्ति प्रदान करायें। इस संसार में राजा सभी वर्णों का बन्धु कहा गया है। इसलिये आप मेरा निस्तार करें। हे राजेन्द्र ! मैं आपको यह मणिरत्न दे रहा जिस प्रकार मेरा कल्याण हो, मुझपर कृपा करके आप वैसा ही कार्य करें। मेरे निष्ठुर सपिण्डों और सगोत्रियों ने मेरे लिये वृषोत्सर्ग नहीं किया है, उसी से मैं इस प्रेतयोनि को प्राप्त हुआ हूँ। भूख-प्यास से आक्रान्त मैं खाने-पीने के लिये कुछ नहीं पा रहा हूँ । उसी से मेरे शरीर में यह विकृति आ गयी है । शरीर कृश हो गया है। इसमें मांस तक नहीं रह गया है। भूख-प्यास से उत्पन्न इस महान् दुःख को मैं बार- बार भोग रहा हूँ । वृषोत्सर्ग न करने के कारण यह कष्टकारी प्रेतत्व मुझे प्राप्त हुआ है। हे राजन्! हे दयासिन्धो! | इसीलिये मैं प्रेतत्वनिवृत्ति के निमित्त आपसे प्रार्थना कर रहा हूँ । आप मेरा कल्याण करें।

राजोवाच ।

वर्तते मत्कुले प्रेत इति ज्ञेयं कथं नरैः ॥ २,९.५५ ॥

तन्ममाचक्ष्व हि प्रेत प्रेतत्वान्मुच्यते कथम् ।

राजा ने कहा- हे प्रेत ! मेरे कुल का कोई प्रेत हुआ है, यह मनुष्य कैसे जान सकता है। प्राणी इस प्रेतत्व से कैसे मुक्त हो सकता है ? यह सब तुम मुझे बताओ ।

प्रेत उवाच ।

लिङ्गेन पीडया प्रेतोऽनुमातव्यो नरैः सदा ॥ २,९.५६ ॥

वक्ष्यामि पीडास्ता राजन्या वै प्रेतकृता भुवि ।

प्रेत ने कहा- हे राजन् ! लिङ्ग (चिह्नविशेष) और पीड़ा के कारण प्रेतयोनि का अनुमान लगाना चाहिये। इस पृथ्वी पर प्रेत द्वारा उत्पन्न की गयी जो पीड़ाएँ हैं, उनका मैं वर्णन कर रहा हूँ।

ऋतुः स्यादफलः स्त्रीणां यदा वंशो न वर्धते ॥ २,९.५७ ॥

म्रियन्ते चाल्पवयसः सा पीडा प्रेतसम्भवा ।

जब स्त्रियों का ऋतुकाल निष्फल हो जाता है, वंशवृद्धि नहीं होती है। अल्पायु में ही किसी परिजन की मृत्यु हो जाती है तो उसे प्रेतोत्पन्न पीड़ा माननी चाहिये।

अकस्माद्वृत्तिहरणमप्रतिष्ठा जनेषु वै ॥ २,९.५८ ॥

अकस्माद्गृहदाहः स्यात्सा पीडा प्रेतसम्भवा ।

अकस्मात् जब जीविका छिन जाती है, लोगों के बीच अपनी प्रतिष्ठा विनष्ट हो जाती है, एकाएक घर जलकर नष्ट हो जाता है तो उसे प्रेतजन्य पीड़ा ही मानें।

स्वगेहे कलहो नित्यं स्याच्च मिथ्याभिशंसनम् ॥ २,९.५९ ॥

राजयक्ष्मादिसम्भूतिः सा पीडा प्रेतसम्भवा ।

जब अपने घर में नित्य कलह हो, मिथ्यापवाद हो, राजयक्ष्मा आदि रोग उत्पन्न हो जायँ तो उसे प्रेतोद्भूत पीड़ा समझे ।

अपि स्वयं धनं मुक्तं प्रयत्नादनवे पथि ॥ २,९.६० ॥

नैव लभ्येत नश्येतः सा पीडा प्रेतसम्भवा ।

जब अपने प्राचीन अनिन्दित व्यापार मार्ग में प्रयत्न करने पर भी मनुष्य को सफलता नहीं मिलती है, उसमें लाभ नहीं होता है, अपितु हानि ही उठानी पड़ती है तो उस पीड़ा को भी प्रेतजन्य ही मानें।

सुवृष्टौ कृषिनाशः स्याद्वाणिज्याद्वृत्तिनाशनम् ॥ २,९.६१ ॥

कलत्रं प्रतिकूलं स्यात्सा पीडा प्रेतसम्भवा ।

जब अच्छी वर्षा होने पर भी कृषि विनष्ट हो जाती है, व्यापार में प्राणी की जीविका भी चली जाती है, अपनी स्त्री अनुकूल नहीं रह जाती है तो उस पीड़ा को भी प्रेतसमुद्भूत माननी चाहिये।

एवन्तु पीडया राजन्प्रेतज्ञानं भवेन्नृणाम् ॥ २,९.६२ ॥

हे राजन्! इसी प्रकार की अन्य पीड़ाओं से आप प्रेतत्व का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।

वृषोत्सर्गो यदि भवेत्प्रेतत्वान्मुच्यते तदा ।

तस्मान्नृप त्वमप्येवं वृषोत्सर्गं कुरु प्रभो ॥ २,९.६३ ॥

मामुद्दिश्य नृपेऽप्यत्राधिकारोऽत्यनुकम्पया ।

राजपुत्रो हतः कश्चिन्मयैवाप्तस्ततो मया ॥ २,९.६४ ॥

कुरुष्व त्वं गृहीत्वा मे तद्धनेन वृषोत्सवम् ।

हे राजेन्द्र ! जब मनुष्य वृषोत्सर्ग करता है, तब जाकर वह प्रेतत्व से मुक्त होता है। आपका इस कार्य में अधिकार है, इसलिये कृपया आप मेरे उद्देश्य से वृषोत्सर्ग करें। आप इस मणिरत्न को ग्रहण करें । इसी के धन से मेरे लिये वृषोत्सर्ग करें।

कार्तिक्यां पौर्णमास्यां वाऽश्वयुङ्मध्येऽथवा नृप ॥ २,९.६५ ॥

रेवतीयुक्तदिवसे कृषीष्ठा मे वृषोत्सवम् ।

पुण्यान्विप्रान्समाहूय वह्निं स्थाप्य विधानतः ॥ २,९.६६ ॥

मन्त्रैर्होमस्तथा कार्यः षड्भिर्नृप विधानतः ।

बहून्विप्रान् भोजयेथास्तद्रत्नाप्तधनेन वै ।

एवं कृते महीपाल मम मुक्तिर्भविष्यति ॥ २,९.६७ ॥

यह कार्य कार्तिक की पूर्णिमा अथवा आश्विनमास के मध्यकाल में करना चाहिये। हे राजन् ! मेरा यह संस्कार रेवतीनक्षत्र से युक्त तिथि में भी हो सकता है। श्रेष्ठ ब्राह्मणों को निमन्त्रित करके विधिवत् अग्निस्थापन तथा वेद – मन्त्रों के द्वारा यथाविधान होम करें। बहुत-से ब्राह्मणों को बुलाकर इस रत्न से प्राप्त हुए धन के द्वारा उन्हें भोजन करायें। ऐसा करने से मुझे मुक्ति प्राप्त हो सकेगी।

श्रीकृष्ण उवाच ।

तथेति प्रतिजग्राह मणिं राजा ततः खग ॥ २,९.६८ ॥

क्रियाधिकारस्तस्यैव यो धनग्राहको भवेत् ।

कुर्वतोस्तु तयोर्वार्तामेवं प्रेतमहीक्षितोः ॥ २,९.६९ ॥

झणत्कारस्तु घण्टानां भेरीणां भाङ्कृतिस्तथा ।

जातस्तदा राजसेना चतुरङ्गा समापतत् ॥ २,९.७० ॥

तस्यामागतमात्रायां प्रेतश्चादृश्यतां गतः ।

तस्माद्वनाद्विनिःसृत्य राजापि पुरमागमत् ॥ २,९.७१ ॥

स कार्तिक्यां पूर्णिमायां प्रेतमुद्दिश्य संव्यधात् ।

वृषोत्सर्गं विधानेन तन्मण्याप्तधनेन च ॥ २,९.७२ ॥

प्रेतोऽप्ययं सपदिलब्धसुवर्णदेहः कर्मान्त आगत इति प्रणनाम भूपम् ।

देव त्वदीयमहिमायमिति स्तुवन् स यातो दिवं गरुड भूपतिना कृतज्ञः ॥ २,९.७३ ॥

एतत्ते सर्वमाख्यातं यथा भूपतिनापि सः ।

उद्धृतः प्रेतभावाद्वै किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ॥ २,९.७४ ॥

श्रीकृष्ण ने कहा- हे खगेश ! इसके बाद राजा ने उस प्रेत से 'ऐसा ही होगा, यह कहकर मणि ले ली। जो व्यक्ति धन ले लेता है, वह भी उस दाता की क्रिया करने का अधिकारी हो जाता है। प्रेतविषयक इस प्रकार की वार्ता उन दोनों के मध्य जिस समय चल रही थी, उसी समय देखते-ही- देखते वहाँ घण्टा और भेरियों की ध्वनि करती हुई राजा की चतुरंगिणी सेना आ गयी। उस सेना के आते ही प्रेत अदृश्य हो गया। उसके बाद उस वन से निकलकर राजा अपने नगर चला आया । तदनन्तर उसने कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि आने पर उस प्राप्त हुई मणि के धन से प्रेतत्वनिवृत्ति के लिये विधिवत् वृषोत्सर्ग किया। हे गरुड ! उस संस्कार के पूर्ण होते ही वह प्रेत भी तत्काल सुवर्ण देह से सुशोभित हो उठा और उसने राजा को प्रणाम किया। तत्पश्चात् उस राजा की प्रशंसा करते हुए प्रेत ने कहा- हे देव ! यह सब आपकी महिमा है । इस प्रकार राजा के द्वारा किये गये उपकार के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए वह स्वर्गलोक को चला गया। जिस प्रकार राजा के द्वारा किये गये संस्कार से वह प्रेत अपने प्रेतत्व से मुक्त हुआ था, वह सब वृत्तान्त मैंने तुम्हें सुना दिया। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ?

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे राजकृतवृषोत्सर्गक्रियादिनिरूपणं नाम नवमोऽध्यायः॥

 जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 10

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