श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ४७

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ४७

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ४७ यममार्ग में स्थित वैतरणी नदी का वर्णन, पापकर्मों से घोर वैतरणी में निवास, वैतरणी पार होने के लिये वैतरणी - धेनुदान, भगवान् विष्णु, गङ्गा तथा ब्राह्मण की महिमा का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ४७

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) सप्तचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 47

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प सैतालीसवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ४७                       

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ४७ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः ४७                 

गरुड उवाच ।

भगवन्देवदेवेश कृपया परया वद ।

दानं दानस्य माहात्म्यं वैतरण्याः प्रमाणकम् ॥ २,४७.१ ॥

गरुड ने कहाहे देवदेवेश ! महाप्रभो ! अब आप परम कृपा करके दान, दान के माहात्म्य और वैतरणी के प्रमाण का वर्णन करें।

श्रीकृष्ण उवाच ।

या सा वैतरणी नाम यममार्गे महासरित् ।

अगाधा दुस्तरा पापैर्दृष्टमात्रा भयावहा ॥ २,४७.२ ॥

पूयशोणिततोयाढ्या मांसकर्दमसकुंला ।

पापिनञ्चागतान्दृष्ट्वा नानाभयसमावृता ॥ २,४७.३ ॥

क्वाथ्यते सत्वरं तोयं पात्रमध्ये घृतं यथा ।

क्रिमिभिः सङ्कुलं पूयं वज्रतुण्डैः समावृतम् ॥ २,४७.४ ॥

शिशुमारैश्च मकरैर्वज्रकर्तरिकायुतैः ।

अन्यैश्च जलजीवैश्च हिंसकैर्मांसभेदिभिः ॥ २,४७.५ ॥

उद्यान्ति द्वादशादित्याः प्रलयान्ते तथा हि ते ।

तपन्ति तत्र वै मर्त्याः क्रन्द मानास्तु पापिनः ॥ २,४७.६ ॥

हा भ्रातः पुत्र तातेति प्रलपन्ति मुहुर्मुहुः ।

विचरन्ति निमज्जन्ति ग्लानिं गच्छन्ति जन्तवः ॥ २,४७.७ ॥

चतुर्विधैः प्राणिगणैर्दृष्टा व्याप्ता महानदी ।

तरन्ति गोप्रदानेन त्वन्यथा च पतन्ति ते ॥ २,४७.८ ॥

श्रीकृष्ण ने कहा- हे तार्क्ष्य ! यमलोक के मार्ग में जो वैतरणी नाम की महानदी है, वह अगाध, दुस्तर और देखने मात्र से पापियों को महाभयभीत करनेवाली है । वह पीब और रक्तरूपी जल से परिपूर्ण है । मांस के कीचड़ से परिव्याप्त एवं तट पर आये हुए पापियों को देखकर उन्हें नाना प्रकार से भयाक्रान्त करनेवाले स्वरूप को धारण कर लेती है । पात्र के मध्य में घी की भाँति वैतरणी का जल तुरंत खौलने लगता है। उसका जल कीटाणुओं एवं वज्र के समान सूँडवाले जीवों से व्याप्त है। सूँस, घड़ियाल, वज्रदन्त तथा अन्यान्य हिंसक एवं मांसभक्षक जलचरों से वह महानदी भरी हुई है। प्रलय के अन्त में जैसे बारहों सूर्य उदित होकर विनाशलीला करते हैं, वैसे ही वे वहाँ पर भी सदैव तपते रहते हैं, जिससे उस महाताप में वे पापी चिल्लाते हुए करुण विलाप करते हैं। उनके मुख से बार-बार हा भ्रात, हा तात यही शब्द निकलता है। वे जीव उस महाभयंकर धूप में इधर-उधर भागते हैं, उस दुर्गन्धपूर्ण में डुबकी लगाते हैं और अपनी आत्मग्लानि से व्यथित होते हैं। वह महानदी चारों प्रकार के प्राणियों से भरी हुई दिखायी देती है। पृथ्वी पर जिन लोगों ने गोदान किया है, उस दान के प्रभाव से वे उसे पार कर जाते हैं अन्यथा जिनके द्वारा यह दान नहीं हुआ है, वे उसी में डूबते रहते हैं ।

मां नरा येऽवमन्यन्ते चाचार्यं गुरुमेव च ।

वृद्धानन्यांश्चापि मूढास्तेषां वासस्तु तत्र वै ॥ २,४७.९ ॥

पतिव्रतां साधुशीलामूढां धर्मेषु निश्चलाम् ।

परित्यजन्ति ये मूढास्तेषां वासस्तु सन्ततम् ॥ २,४७.१० ॥

विश्वासप्रतिपन्नानां स्वामिमित्रतपस्विनाम् ।

स्त्रीबालविकलादीनां वधं कृत्वा पतन्ति हि ।

पच्यन्ते तत्र मध्ये तु क्रन्दमानास्तु पापिनः ॥ २,४७.११ ॥

शान्तं बुभुक्षितं विप्रंयो विघ्नायोपसर्पति ।

क्रिमिभिर्भक्ष्यते तत्र यावदाभूतसंप्लवम् ॥ २,४७.१२ ॥

ब्राह्मणाय प्रतीश्रुत्य यमार्थं न ददाति तम् ।

आहूय नास्ति यो ब्रूयात्तस्य वासस्तु तत्र वै ॥ २,४७.१३ ॥

अग्निदो गरदश्चैव कूटसाक्षी च मद्यपः ।

यज्ञविध्वंसकश्चैव राज्ञीगामी च पैशुनः ॥ २,४७.१४ ॥

कथाभङ्गकरश्चैव स्वयन्दत्ता पहारकः ।

क्षेत्रसेतुविभेदी च परदारप्रधर्षकः ॥ २,४७.१५ ॥

ब्राह्मणो रसविक्रेता तथा यो वृषलीपतिः ।

गोधनस्य तृषार्तस्य वाप्या भेदं करोति यः ॥ २,४७.१६ ॥

कन्याविदूषकश्चैव दानं दत्त्वानुतापकः ।

शूबद्रस्तु कपिलापायी ब्राह्मणो मांसभोजनः ॥ २,४७.१७ ॥

एते वसन्ति सततं मा विचारं कृथाः क्वचित् ।

कृपणो नास्तिकः क्षुद्रः स तस्यां निवसेत्खग ॥ २,४७.१८ ॥

सदामर्षो सदा क्रोधी निजवाक्यप्रमाणकृत् ।

परोक्त्युच्छेदको नित्यं वैतरण्या वसेच्चिरम् ॥ २,४७.१९ ॥

यस्त्वहङ्कारवान्पापी स्वविकत्थनकारकः ।

कृतघ्नो गर्भसन्तापी वैतरण्यां स मज्जति ॥ २,४७.२० ॥

कदापि भाग्ययोगेन तरणेच्छा भवेद्यदि ।

सानुकूला भवेद्येन तदाकर्णय काश्यप ॥ २,४७.२१ ॥

जो मूढ़ मेरी, आचार्य, गुरु, माता-पिता एवं अन्य वृद्धजनों की अवमानना करते हैं, मरने के बाद उनका वास उसी महानदी में होता है। जो मूढ़ अपनी विवाहिता पतिव्रता, सुशीला और धर्मपरायणा पत्नी का परित्याग करते हैं, उनका सदैव के लिये उसी महाघिनौनी नदी के जल में वास होता है । विश्वास में आये हुए स्वामी, मित्र, तपस्वी, स्त्री, बालक एवं वृद्ध का वध करके जो पापी उस महानदी में गिरते हैं, वे उसके बीच में जाकर करुण विलाप करते हुए अत्यन्त कष्ट भोगते हैं। शान्त तथा भूखे ब्राह्मण को विघ्न पहुँचाने के लिये जो उसके पास जाता है वहाँ प्रलयपर्यन्त कृमि उसका भक्षण करते हैं। जो ब्राह्मण को प्रतिज्ञा करके प्रतिज्ञात वस्तु नहीं देता है अथवा बुलाकर जो 'नहीं है'- ऐसा कहता है, उसका वहाँ वैतरणी में वास होता है। आग लगानेवाला, विष देनेवाला, झूठी गवाही देनेवाला, मद्य पीनेवाला, यज्ञ का विध्वंस करनेवाला, राजपत्नी के साथ गमन करनेवाला, चुगलखोरी करनेवाला, कथा में विघ्न करनेवाला, स्वयं दी हुई वस्तु का अपहरण करनेवाला, खेत (मेड़) और सेतु को तोड़नेवाला, दूसरे की पत्नी को प्रधर्षित करनेवाला, रस - विक्रेता तथा वृषलीपति ब्राह्मण, प्यासी गायों की बावली को तोड़नेवाला, कन्या के साथ व्यभिचार करनेवाला, दान देकर पश्चात्ताप करनेवाला, कपिला का दूध पीनेवाला शूद्र तथा मांसभोजी ब्राह्मण - ये निरन्तर उस वैतरणी नदी में वास करते हैं । कृपण, नास्तिक और क्षुद्र प्राणी उसमें निवास करते हैं । निरन्तर असहनशील तथा क्रोध करनेवाला, अपनी बात को ही प्रमाण माननेवाला, दूसरे की बात को खण्डित करनेवाला नित्य वैतरणी में निवास करता है। अहंकारी, पापी तथा अपनी झूठी प्रशंसा करनेवाला, कृतघ्न, गर्भपात करनेवाला वैतरणी में निवास करता है। कदाचित् भाग्ययोग से यदि उस नदी को पार करने की इच्छा उत्पन्न हो जाय तो तारने का उपाय सुनो।

अयने विषुवे पुण्ये व्यतीपाते दिनोदये ।

चन्द्रसूर्योपरागे वा संक्रान्तौ दर्शवासरे ॥ २,४७.२२ ॥

अन्येषु पुण्यकालेषु दीयते दानमुत्तमम् ।

यदा तदा भवेद्वापि श्राद्धा दानं प्रति ध्रुवम् ॥ २,४७.२३ ॥

तदैब दानकालः स्याद्यतः सम्पत्तिरस्थिरा ।

अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः ॥ २,४७.२४ ॥

नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसंगहः ।

मकर और कर्क संक्रान्ति का पुण्यकाल, व्यतीपात योग, दिनोदय, सूर्य, चन्द्रग्रहण, संक्रान्ति, अमावास्या अथवा अन्य पुण्यकाल के आने पर श्रेष्ठतम दान दिया जाता है । मन में दान देने की श्रद्धा जब कभी उत्पन्न हो जाय, वही दान का काल है; क्योंकि सम्पत्ति अस्थिर है। शरीर अनित्य है और धन भी सदा रहनेवाला नहीं है। मृत्यु सदा समीप है, इसलिये धर्म-संग्रह करना चाहिये।

कृष्णां वा पाटलां वापि कुर्याद्वैतरणीं शुभाम् ॥ २,४७.२५ ॥

स्वर्णशृङ्गीं रौप्यखुरां कांस्यपात्रोपदोहनीम् ।

कृष्णवस्त्रयुगाच्छन्नां सप्तधान्यसमन्विताम् ॥ २,४७.२६ ॥

कार्पासद्रोणशिखरे आसीनं ताम्रभाजने ।

यमं हैमं प्रकुर्वीत लोहदण्डसमन्वितम् ।

इक्षुदण्डमयं बद्ध्वा प्लवं सुदृढबन्धनैः ॥ २,४७.२७ ॥

उडुपोपरि तां धेनुं सूर्यदेहसमुद्भवाम् ।

कृत्वा प्रकल्पयेद्विप्रश्छत्रोपानहसंयुतम् ॥ २,४७.२८ ॥

अङ्गुलीयकवासांसि ब्राह्मणाय निवेदयेत् ।

इममुच्चारयेन्मन्त्रं संगृह्य सजलान्कुशान् ॥ २,४७.२९ ॥

काली अथवा लाल रंग की शुभ लक्षणोंवाली वैतरणी गाय को सोने की सींग, चाँदी के खुर, कांस्यपात्र की दोहनी से युक्त दो काले रंग के वस्त्रों से आच्छादित करके सप्तधान्य- समन्वित करके ब्राह्मण को निवेदित करे। कपास से बने हुए द्रोणाचल के शिखर पर ताम्रपात्र में लौहदण्ड लेकर बैठी हुई स्वर्णनिर्मित यम की प्रतिमा स्थापित करे । सुदृढ़ बन्धनों से बाँधकर इक्षुदण्डों की एक नौका तैयार करे। उसी से सूर्य से उत्पन्न गौ को सम्बद्ध कर दे। इसके बाद छत्र, पादुका, अंगूठी और वस्त्रादि से पूज्य श्रेष्ठ ब्राह्मण को संतुष्ट करके जल तथा कुश के सहित इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए वह वैतरणी गौ उसे दान में समर्पित करे

यमद्वारे महाघोरे श्रुत्वा वैतरणीं तदीम् ।

तर्तुकामो ददाम्येनां तुभ्यं वैतरणीं नमः ॥ २,४७.३० ॥

गावो मे अग्रतः सन्तु गावो मे सन्तु पार्श्वतः ।

गावो मे हृदये सन्तु गवां मध्ये वसाम्यहम् ॥ २,४७.३१ ॥

विष्णुरूप द्विजश्रेष्ठ मामुद्धर महीसुर ।

सदक्षिणा मया दत्ता तुभ्यं वैतरणीनमः ॥ २,४७.३२ ॥

'हे द्विजश्रेष्ठ ! महाभयंकर वैतरणी नदी को सुनकर मैं उसको पार करने की अभिलाषा से आपको यह वैतरणी दान दे रहा हूँ। हे विप्रदेव ! गौएँ मेरे आगे रहें, गौएँ मेरे बगल में रहें, गौएँ मेरे हृदय में रहें और मैं उन गायों के बीच रहूँ । हे विष्णुरूप ! द्विजवरेण्य ! भूदेव ! मेरा उद्धार करो। मैं दक्षिणासहित यह वैतरणी गौ आपको दे रहा हूँ। आप मेरा प्रणाम स्वीकार करें।

धर्मराजञ्च सर्वेशं वैतरण्याख्यधेनुकाम् ।

सर्वं प्रदक्षिणीकृत्य ब्राह्मणाय निवेदयेत् ॥ २,४७.३३ ॥

पुच्छं संगृह्य धेन्वाश्च अग्रे कृत्वा तु वै व्दिजम् ।

इसके बाद सबके स्वामी धर्मराज की प्रतिमा और वैतरणी नामवाली उस गौ की प्रदक्षिणा करके ब्राह्मण को दान दे। उस समय वह ब्राह्मण को आगे कर उस वैतरणी गौ की पूँछ हाथ में लेकर यह कहे

धेनुके त्वं प्रतीक्षस्व यमद्वारे महाभये ॥ २,४७.३४ ॥

उत्तारणाय देवेशि वैतरण्ये नमोऽस्तु ते ।

'हे गौ ! उस महानदी से मुझे पार उतारने के लिये आप महाभयकारी यमराज के द्वार पर मेरी प्रतीक्षा करें। हे वैतरणी ! देवेश्वरि ! आपको मेरा नमस्कार है। '

अनुव्रजेत्तु गच्छन्तं सर्वं तस्य गृहं नयेत् ॥ २,४७.३५ ॥

एवं कृते वैनतेय सा सरित्सुतरा भवेत् ।

सर्वान्कामानवाप्नोति यो दद्याद्भुवि मानवः ॥ २,४७.३६ ॥

ऐसा कहकर उस गौ को ब्राह्मण के हाथ में देकर उनके पीछे-पीछे उनके घर तक पहुँचाने जाय । हे वैनतेय! ऐसा करने पर वह नदी दाता के लिये सरलता से पार करने के योग्य बन जाती है। जो व्यक्ति इस पृथ्वी पर गौ का दान देता है, वह अपने समस्त अभीष्ट को सिद्ध कर लेता है।

सुकृतस्य प्रभावेण सुखञ्चेह परत्र च ।

स्वस्थे सहस्रगुणितमातुरे शतसंमितम् ॥ २,४७.३७ ॥

मृतस्यैव तु यद्दानं परोक्षे तत्समं स्मृतम् ।

स्वहस्तेन ततो देयं मृते कः कस्य दास्यती ॥ २,४७.३८ ॥

दानधर्मविहीनानां कृपणैर्जीवेतक्षितैः ।

अस्थिरेण शरीरेण स्थिरं कर्म समाचरेत् ॥ २,४७.३९ ॥

अवश्यमेव यास्यन्ति प्राणाः प्राघुणि (घूर्णि) का इव ॥ २,४७.४० ॥

सुकर्म के प्रभाव से प्राणी को ऐहिक और पारलौकिक सुख की प्राप्ति होती है। स्वस्थ जीवन में गोदान देने से हजार गुना एवं रोगग्रस्त जीवन में सौ गुना लाभ निश्चित है। मरे हुए प्राणी के कल्याणार्थ जितना दान दिया जाता है, उतना ही उसका पुण्य है । अतः मनुष्य को अपने हाथ से ही दान देना चाहिये। मृत्यु होने के बाद कौन किसके लिये दान देगा? दान-धर्म से रहित कृपणतापूर्वक जीवन जीने से क्या लाभ? इस नश्वर शरीर से स्थिर कर्म करना चाहिये । प्राण अतिथि की तरह अवश्य छोड़कर चले जायँगे ।

इतीदमुक्तं तव पक्षिराज विडम्बनं जन्तुगणस्य सर्वम् ।

प्रेतस्य मोक्षाय तदौद्ध्वन्दैहिकं हिताय लोकस्य चरेच्छुभाय तु ॥ २,४७.४१ ॥

हे पक्षिराज ! इस प्रकार प्राणिवर्ग के समस्त दुःख का वर्णन मैंने तुमसे कर दिया है। इसके साथ यह भी बता दिया है कि प्रेत के मोक्ष एवं लोकमङ्गल के लिये उसके और्ध्वदेहिक कर्म को करना चाहिये ।

सूत उवाच ।

एवं विप्राः समाद्दिष्टो विष्णुना प्रभविष्णुना ।

गरुड प्रेतचरितं श्रुत्वा सन्तुष्टिमागतः ॥ २,४७.४२ ॥

सूतजी ने कहा- हे विप्रगण ! परम तेजस्वी भगवान् विष्णु के द्वारा दिये गये ऐसे प्रेत-चरित से सम्बन्धित उपदेश को सुनकर गरुड को अत्यन्त संतुष्टि प्राप्त हुई।

व्रततीर्थादिकं सर्वं पुनः पप्रच्छ केशवम् ।

ध्यात्वा मनसि सर्वेशं सर्वकारणकारणम् ॥ २,४७.४३ ॥

ऋषयः सर्वमेवैतज्जन्तूनां प्रभवादिकम् ।

मरणं जन्म च तथा प्रेतत्वञ्चौर्ध्वदैहिकम् ॥ २,४७.४४ ॥

हे ऋषियो ! जीव-जन्तुओं के जन्मादि का यही सब विधान है। यही जन्म, मरण, प्रेतत्व तथा और्ध्वदैहिक कृत्य का नियम है। मैंने सब प्रकार से उनके मोक्ष आदि कारण का वर्णन कर दिया है ।

मया प्रोक्तं वै मुक्त्यै निदानं चैव सर्वशः ।

लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः ।

येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः ॥ २,४७.४५ ॥

धर्मो जयति नाधर्मः सत्यं जयति नानृतम् ।

क्षमा जयति न क्रोधो विष्णुर्जयति नासुराः ॥ २,४७.४६ ॥

विष्णुर्माता पिता विष्णुर्विष्णुः स्वजनबान्धवाः ।

येषामेव स्थिरा बुद्धिर्न तेषां दुर्गतिर्भवेत् ॥ २,४७.४७ ॥

मङ्गलं भगवान्विष्णुर्मङ्गलं गरुडध्वजः ।

मङ्गलं पुण्डरीकाक्षो मङ्गलायतनं हरिः ॥ २,४७.४८ ॥

हरिर्भागीरथी विप्रा विप्रा भागीरथी हरिः ।

भागीरथी हरिर्विप्राः सारमेतज्जगत्त्रये ॥ २,४७.४९ ॥

'जिनके हृदय में नीलकमल के समान श्यामवर्णवाले भगवान् जनार्दन विराजमान हैं, उन्हीं को लाभ और विजय प्राप्त होती है। ऐसे प्राणियों की पराजय कैसे हो सकती है ? धर्म की जीत होती है, अधर्म की नहीं । सत्य ही जीतता है, असत्य नहीं । क्षमा की विजय होती है, क्रोध की नहीं । विष्णु ही जीतते हैं, असुर नहीं । विष्णु ही माता हैं, विष्णु ही पिता हैं और विष्णु ही अपने स्वजन बान्धव हैं; जिनकी बुद्धि इस प्रकार स्थिर हो जाती है, उनकी दुर्गति नहीं होती है । भगवान् विष्णु मङ्गलस्वरूप हैं, गरुडध्वज मङ्गल हैं, भगवान् पुण्डरीकाक्ष मङ्गल हैं एवं हरि मङ्गल के ही आयतन हैं। हरि ही गङ्गा और ब्राह्मण हैं । ब्राह्मण तथा गङ्गा उन विष्णु के मूर्तरूप हैं । अतः गङ्गा, हरि एवं ब्राह्मण ही इस त्रिलोक के सार हैं।

इति सूतमुखोद्गीर्णां सर्वशास्त्रार्थमण्डिताम् ।

वैष्णविं वाक्सुधां पीत्वा ऋषयस्तुष्टिमाययुः ॥ २,४७.५० ॥

प्रशशंसुस्तथान्योन्यं सूतं सर्वार्थदर्शिनम् ।

प्रहर्षमतुलं प्रापुर्मुनयः शौनकादयः ॥ २,४७.५१ ॥

इस प्रकार सूतजी महाराज के मुख से निकली हुई, सभी शास्त्रों के मूल तत्त्वों से सुशोभित भगवान् विष्णु की वाणी-रूपी अमृत का पान करके समस्त ऋषियों को बहुत संतुष्टि प्राप्त हुई। वे सभी परस्पर उन सर्वार्थद्रष्टा सूतजी की प्रशंसा करने लगे। शौनक आदि मुनि भी अत्यन्त प्रसन्न हो गये ।

अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपि वा ।

यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरं शुचिः ॥ २,४७.५२ ॥

'प्राणी चाहे अपवित्र हो या पवित्र हो, सभी अवस्थाओं में रहते हुए भी जो पुण्डरीकाक्ष भगवान् विष्णु का स्मरण करता है, वह बाहर और भीतर से पवित्र हो जाता है'

इति श्रीगारुडे महापु उत्तरखण्डे द्वितीदृ धर्मकादृप्रेतदृश्रीकृष्णगरुडसंवादे कर्मविपाकादिनिरूपणं नाम सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः॥

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 48

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