श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३९

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३९

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३९  आशौच की व्यवस्था का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३९

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) नवत्रिंशात्तमोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 39

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प उनचालीसवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३९                       

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३९ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः ३९                  

तार्क्ष्य उवाच ।

सूतकानां विधिं ब्रूहि दयां कृत्वा मयिप्रभो ।

विवेकाय हि चित्तस्य मानवानां हिताय च ॥ २,३९.१ ॥

तार्क्ष्य ने कहा- हे प्रभो ! चित्त में शुचित्व और अशुचित्व के विवेक के लिये और जनहितार्थ आप मुझ पर दया करके सूतक – विधि का वर्णन करें।

श्रीकृष्ण उवाच ।

मृते जन्मनी पक्षीन्द्र सूतकं स्याच्चतुर्विधम् ।

चतुर्णामपि वर्णानां सामान्यते विवर्जितम् ॥ २,३९.२ ॥

उभयत्र दशाहानि कुलस्यान्नं विवर्जियेत् ।

दानं प्रतिग्रहो होमः स्वाध्यायश्च निवर्तते ॥ २,३९.३ ॥

देशं कालं तथात्मानं द्रव्यं द्रव्यप्रयाजनम् ।

उपपत्तिंव्मवस्थाञ्च ज्ञात्वां कर्म समाचरेत् ॥ २,३९.४ ॥

श्रीकृष्ण ने कहा- हे पक्षीन्द्र ! मृत्यु तथा जन्म होने पर चार प्रकार का सूतक होता है, सामान्यतः जो चारों वर्णों के द्वारा यथाविधि दूर करने के योग्य है । जननाशौच और मरणाशौच होने पर दस दिनों तक उस कुल का अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिये । इस काल में दान, प्रतिग्रह, होम और स्वाध्याय बंद हो जाता है। देश, काल, आत्मशक्ति, द्रव्य, द्रव्यप्रयोजन,औचित्य तथा वय को जान करके ही अशौच-कर्म के विहित नियमों का पालन करना चाहिये ।

गुहावह्निप्रवेसे च देशान्तरमृतेषु च ।

स्नानं सचेलं कर्तव्यं सद्यः शौचं विधीयते ॥ २,३९.५ ॥

आमगर्भाश्च ये जीवा ये च गर्भाद्विनिः सृताः ।

न तेषामग्निसंस्कारो नाशौचं नोदकक्रिया ॥ २,३९.६ ॥

गुफा और अग्नि में प्रवेश तथा देशान्तर में जाकर मरे हुए परिजनों का अशौच तत्काल वस्त्रसहित स्नान करने से समाप्त हो जाता है। जो प्राणी गर्भस्राव या गर्भ से निकलते ही मर जाते हैं, उनका अग्निदाह, अशौच एवं तिलोदक संस्कार नहीं होता है।

शिल्पिनः कारवो वैद्या दासीदासास्तथैव च ।

राजानः श्रोतियाश्चैव सद्यः शौचाः प्रकीर्तिताः ॥ २,३९.७ ॥

शिल्पी, विश्वकर्मा, वैद्य, दासी, दास, राजा और श्रोत्रिय ब्राह्मणों की सद्यः शुद्धि बतायी गयी है। याज्ञिक (व्रतपरायण), मन्त्रपूत, अग्निहोत्री तथा राजा सदैव शुद्ध होते हैं। इन्हें अशौच नहीं होता है । राजागण जिसकी इच्छा करते हैं, वह भी पवित्र ही रहता है।

सत्री च (व्रती) मन्त्रपूतश्च आहिताग्निर्नृपस्तथा ।

एतेषां सूतकं नास्ति यस्य चेच्छन्ति पार्थिवाः ॥ २,३९.८ ॥

प्रसवे च सपिण्डानां न कुर्यात्सङ्करं द्विजः ।

दशाहाच्छ्रुध्यते माता अवगाह्य पिता शुचिः ॥ २,३९.९ ॥

विवाहोत्सवयज्ञेषु अन्तरा मृतसूतके ।

पूर्वसङ्कल्पितं वित्तं भोज्यं तन्मनुरब्रवीत् ॥ २,३९.१० ॥

सर्वेषामेवमाशौचं मातापित्रोस्तु सूतकम् ।

सूकतं मातुरेवस्यादुपस्पृश्य पिता शुचिः ॥ २,३९.११ ॥

अन्तर्दशाहे स्याताञ्चेत्पुनर्मरणजन्मनी ।

तावत्स्यादशुचिर्विप्रो यावत्तत्स्यादनिर्दशम् ॥ २,३९.१२ ॥

हे द्विज ! बच्चे का जन्म होने पर सपिण्डों और सगोत्रियों को एक जैसा अशौच नहीं होता। दस दिन के बाद माता शुद्ध हो जाती है और पिता तत्काल स्नान करके ही स्पर्शादि के लिये पवित्र हो जाता है । मनु ने कहा है कि विवाहोत्सव तथा यज्ञ के आयोजन में यदि जन्म या मृत्यु का सूतक हो जाता है तो पूर्व मानस संकल्पित धन और पूर्वनिर्मित खाद्यसामग्री का उपयोग करने में दोष नहीं है। सभी वर्णों के लिये अशौच समानरूप से माननीय है । माता – पिता को जो सूतक होता है, उसमें माता के लिये तो सूतक होता है और पिता स्नान करके तुरंत शुद्ध हो जाता है। दस दिन के लिये प्रवृत्त जननाशौच और मरणाशौच के अन्तर्गत यदि पुनः जन्म-मरण हो जाता है, तो पूर्वप्रवृत्त अशौच को तीन भागों में विभक्त करके यदि पुनर्जन्म-मरण दो भाग अन्तर्गत हुआ है तो पूर्व अशौच की निवृत्ति के दिन से उत्तराशौच की भी निवृत्ति हो जायगी। किंतु यदि पूर्वप्रवृत्त अशौच के तीसरे भाग में पुनराशौच प्रवृत्त हुआ है तो उत्तराशौच में प्रवृत्ति के समाप्ति पर ही यदि सूतक दशाह के बीच पुनः किसी सगोत्री का मरण या जन्म होता है तो इस अशौच की जबतक शुद्धि नहीं होती तबतक अशौच रहता है । *

* आद्यं भागद्वयं यावत् सूतकस्य तु सूतके।

द्वितीये पतिते त्वाद्यात् सूतकाच्छुद्धिरिष्यते ॥ (ब्रह्मपुराण)

उदिते नियमे दाने आर्ते विप्रे निवेदयेत् ।

तथैव ऋषिभिः प्रोक्तं यथाकालं न दुष्यति ॥ २,३९.१३ ॥

ऋषियों ने कहा है कि मन में दान देने की भावना उत्पन्न हो जाने पर समय जैसा भी हो दीन- दुःखी ब्राह्मण को विनम्रतापूर्वक दान देना चाहिये, उसमें दोष नहीं होता है ।

मृन्मयेन तु पात्रेण तिलैर्मिश्रजलैः सह ।

मृत्तिकया तथान्ते च नरः स्नात्वा शुचिर्भवेत् ॥ २,३९.१४ ॥

अशौच होने पर मनुष्य पहले मिट्टी के पात्र से तिलमिश्रित जल का स्नानकर शरीर पर मिट्टी का लेप करे, तत्पश्चात् स्वच्छ जल से पुनः स्नान करके शुद्ध हो ।

दानं परिषदे दद्यात्सुवर्णं गोवृषं द्विजे ।

क्षत्त्रियो द्विगुणं चैव वैश्यस्तु त्रिगुणं तथा ॥ २,३९.१५ ॥

चतुर्गुणन्तु शूद्रेण दातव्यं ब्राह्मणे धनम् ।

एव मनुक्रमेणैव चातुर्वर्ण्यं विशुध्यति ॥ २,३९.१६ ॥

सप्ताष्टमान्तरै शीर्णे गृह्यसंस्कारवर्जिते ।

अहस्तु सूतकं तस्य त्वब्दानां संख्यया स्मृतम् ॥ २,३९.१७ ॥

ब्राह्मणार्थे विपन्ना ये नारीणां गोग्रहेषु च ।

आहवेषु विपन्नानामेकरात्त्रमशौचकम् ॥ २,३९.१८ ॥

न तेषामशुभं किञ्चिद्विप्राणां शुभकर्मणि ।

अनाथप्रेतसंस्कारं ये कुर्वन्तु नरोत्तमः ॥ २,३९.१९ ॥

न तेषामशुभङ्किञ्चिद्विप्रेण सहकारिणा ।

जलावगाहनात्तेषां सद्यः शुद्धिरुदाहृता ॥ २,३९.२० ॥

विनिवृत्ता यदा शूद्रा उदकान्तमुपस्थिताः ।

तदाविप्रेणद्रष्टव्या इति वेदविदोविदुः ॥ २,३९.२१ ॥

अशौच के बाद दान सभासद को देना चाहिये । सुवर्ण, गौ और वृष का दान ब्राह्मण को देना चाहिये। ब्राह्मण की अपेक्षा क्षत्रिय दुगुना, वैश्य तिगुना तथा शूद्र चौगुना धन ब्राह्मण को दान दे। गृह्यसूत्रोक्त संस्कार से रहित होने पर सातवें अथवा आठवें वर्ष में मृत्यु हो जाय तो जितने वर्ष का वह मृतक व्यक्ति था उतने दिन का अशौच मानना चाहिये । ब्राह्मण और स्त्री की रक्षा के लिये जो अपने प्राणों का परित्याग करते हैं तथा जो लोग गोशाला तथा रणभूमि में प्राणों का परित्याग करते हैं, उनका अशौच एक रात्रि का होता है। जो नरश्रेष्ठ अनाथ प्रेत का संस्कार करते हैं, उन ब्राह्मणों का किसी शुभ कर्म में कुछ भी अशुभ नहीं होता है। ब्राह्मण के सहयोग से अन्य वर्णवाले जो इस कर्म को सम्पन्न करते हैं, उनका भी कुछ अशुभ नहीं होता है । स्नान करने से उनकी सद्यः शुद्धि हो जाती है। अशौच से विधिवत् शुद्ध होकर जब शूद्र जल के मध्य स्नान कर रहे हों तभी ब्राह्मण को उन्हें देखना चाहिये ।

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीदृ धदृप्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे सूतककालादिनिरूपणं नामै कोनचत्वारिंशोऽध्यायः॥

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 40 

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