श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३८
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
–
प्रेतकल्प अध्याय ३८ तीर्थमरण की महिमा, अन्त
समय में भगवन्नाम की महिमा, शालग्रामशिला तथा तुलसी की
सन्निधि में मरण का फल, मुक्तिदायक तथा स्वर्गदायक प्रशस्त
कर्म, इष्टापूर्तकर्म तथा अनाथ प्रेत के संस्कार का
माहात्म्य का वर्णन है।
श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अष्टत्रिंशत्तमोऽध्यायः
Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 3८
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
–
प्रेतकल्प अड़तीसवाँ अध्याय
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय ३८
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय ३८ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित
गरुडपुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः
३८
तार्क्ष्य उवाच ।
दानतीर्थार्थितं मोक्षं स्वर्गञ्च
वद मे प्रभो ।
केन मोक्षमवाप्नोति केन स्वर्गे
वसेच्चिरम् ॥ २,३८.१ ॥
केन गच्छति तेजस्तु
स्वर्लोकात्सत्यलोकतः ।
मानुष्यं केन लभते नरकेशु निमज्जति
॥ २,३८.२ ॥
एतन्मे वदनिश्चित्य भक्तानां
मोक्षदायक ।
ब्रूहि कस्मिन्मृते स्वर्गे
पुनर्जन्म न विद्यते ॥ २,३८.३ ॥
तार्क्ष्य ने कहा- हे प्रभो ! दान
एवं तीर्थ करनेवाले को स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है । अब आप इसका ज्ञान
मुझे करायें । हे स्वामिन्! किस दान और तीर्थ सेवन से मनुष्य मोक्ष प्राप्त करता
है ?
किस दान एवं तीर्थ के पुण्य से प्राणी चिरकालतक स्वर्ग में रह सकता
है? क्या करने से वह स्वर्गलोक एवं सत्यलोक से तेजोलोक में
जाता है। किस पाप से मनुष्य नाना प्रकार के नरकों में डूबता रहता है । हे भक्तों को
मोक्ष प्रदान करनेवाले भगवान् जनार्दन ! आप मुझको यह भी बताने की कृपा करें कि
कहाँ पर मृत्यु होने से प्राणी को स्वर्ग और मोक्ष भी प्राप्त होता है, जिससे कि पुनर्जन्म नहीं होता ।
श्रीविष्णुरुवाच ।
मानुष्यं भारते वर्षे त्रयोदशसु
जातिषु ॥ २,३८.४ ॥
तत्प्राप्य म्रियते क्षेत्रे
पुनर्जन्म न विद्यते ।
अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची
अवन्तिका ॥ २,३८.५ ॥
पुरी द्वारवती ज्ञेया सप्तैता
मोक्षदायिकाः ।
श्रीविष्णु ने कहा- हे गरुड !
भारतवर्ष में मानवयोनि तेरह जातियों में विभक्त है । यदि उसको प्राप्त करके मनुष्य
अपने अन्तिम जीवन का उत्सर्ग तीर्थ में करता है तो उसका पुनर्जन्म नहीं होता है।
अयोध्या,
मथुरा, माया, काशी,
काञ्ची, अवन्तिका और द्वारका—ये सात पुरियाँ मोक्ष देनेवाली हैं।
सन्न्यस्तमिति यो ब्रुयात्प्राणैः
कण्ठगतैरपि ॥ २,३८.६ ॥
मृतो विष्णुपुरं याति न पुनर्जायते
क्षितौ ।
सकृदुच्चरितं येन
हरिरित्यक्षरद्वयम् ॥ २,३८.७ ॥
बद्धः परिकरस्तेन मोक्षाय गमनं
प्रति ।
कृष्णकृष्णेति कृष्णेति यो मां
स्मरति नित्यशः ॥ २,३८.८ ॥
जल भित्त्वा यथा पद्मं
नरकादुद्धराम्यहम् ।
शालग्रामजिला यत्र यत्र द्वारवती
शिला ॥ २,३८.९ ॥
उभयोः सङ्गमो यत्र मुक्तिस्तत्र न
संशयः ।
शालग्रामशिला यत्र पापदोषक्षयावहा ॥
२,३८.१० ॥
तत्सन्निधानमरणान्मुक्तिर्जन्तोः
सुनिश्चता ।
प्राणों के कण्ठगत हो जाने पर 'मैं संन्यासी हो गया' – ऐसा जो कह दे तो मरने पर
विष्णुलोक प्राप्त करता है। पुनः पृथ्वी पर उसका जन्म नहीं होता। जो मनुष्य मृत्यु
के समय एक बार 'हरि' इस दो अक्षर का
उच्चारण कर लेता है, वह मानो मोक्ष प्राप्त करने के लिये
कटिबद्ध हो गया है। जो मनुष्य प्रतिदिन 'कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण'
- यह कहकर मेरा स्मरण करता है, उसको मैं नरक से
उसी प्रकार निकाल देता हूँ जिस प्रकार जल का भेदन कर कमल ऊपर निकल जाता है । जहाँ पर
शालग्राम शिला है या जहाँ पर द्वारवती शिला है किंवा जहाँ पर इन दोनों शिलाखण्डों का
संगम है, वहाँ प्राणी को मुक्ति निस्संदेह ही प्राप्त होती
है । समस्त पाप एवं दोषों का विनाश करनेवाली शालग्राम शिला जहाँ विद्यमान है,
वहाँ उसके सांनिध्य में मृत्यु होने से जीव को निस्संदेह मोक्ष
मिलता है।
रोपणात्पालनात्सेकाद्ध्यानस्पर्शनकीर्तनात्
।
तुलसी दहते पापं नृणां जन्मार्जितं
खग ॥ २,३८.११ ॥
हे खग ! तुलसी का वृक्ष लगाने,
पालन करने, सींचने, ध्यान
- स्पर्श और गुणगान करने से मनुष्यों के पूर्वजन्मार्जित पाप जलकर विनष्ट हो जाते
हैं।
ज्ञानहृदे सत्यजले रागद्वेषमलापहे ।
यः स्नातो मानसे तीर्थे न स लिप्येत
पातकैः ॥ २,३८.१२ ॥
न काष्ठे विद्यते देवो न शिलायां
कदाचन ।
भावे हि विद्यते देवस्तस्माद्भावं
समाचरेत् ॥ २,३८.१३ ॥
राग-द्वेषरूपी मल को दूर करने में
समर्थ,
ज्ञानरूपी जलाशय के सत्यरूपी जल से युक्त मानसतीर्थ में जिस मनुष्य ने
स्नान कर लिया है, वह कभी पापों से संलिप्त नहीं होता ।
देवता कभी काष्ठ और पत्थर की शिला में नहीं रहते, वे तो
प्राणी के भाव में विराजमान रहते हैं। इसलिये सद्भाव से युक्त भक्ति का सम्यक्
आचरण करना चाहिये।
प्रातः प्रातः प्रपश्यन्ति नर्मदां
मत्स्यघातिनः ।
न ते शिवपुरीं यान्ति
चित्तवृत्तिर्गरीयसी ॥ २,३८.१४ ॥
यादृक्चित्तप्रतीतिः
स्यात्तादृक्कर्मफलं नृणाम् ।
परलोकगतिस्तादृक सूचीसूत्रविचारवत्
॥ २,३८.१५ ॥
मछुआरे प्रतिदिन प्रातः काल जाकर
नर्मदा नदी (पुण्य तीर्थ) का दर्शन करते हैं; किंतु
वे शिवलोक नहीं पहुँच पाते हैं; क्योंकि उनकी चित्तवृत्ति
बलवान् होती है। मनुष्यों के चित्त में जैसा विश्वास होता है, वैसा ही उन्हें अपने कर्मों का फल प्राप्त होता है। वैसी ही उनकी परलोक
-गति होती है।
ब्राह्मणार्थे गवार्थे च स्त्रीणां
बलवधेषु च ।
प्राणत्यागपरो यस्तु स वै
मोक्षमवाप्नुयात् ॥ २,३८.१६ ॥
ब्राह्मण,
गौ, स्त्री और बालक की हत्या रोकने के लिये जो
व्यक्ति अपने प्राणों का बलिदान करने में तत्पर रहता है, उसे
मोक्ष प्राप्त होता है।
अनाशके मृतौ यस्तु स वै
मोक्षमवाप्नुयात् ।
अनाशके मृतो यस्तु स मुक्तः
सर्वबन्धनैः ॥ २,३८.१७ ॥
दत्त्वा दानानि विप्रेभ्यस्ततो
मोक्षमवाप्नुयात् ।
जो निराहार व्रत के द्वारा मृत्यु
प्राप्त करता है, उसे भी मुक्ति
प्राप्त होती है । वह सभी बन्धनों से निर्मुक्त हो जाता है । ब्राह्मणों को दान
देने से मनुष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।
एते वै मोक्षमार्गाश्च
स्वर्गमार्गास्तथैव च ॥ २,३८.१८ ॥
गोग्रहे देशविध्वंसे मरणं
रणतीर्थयोः ।
उत्तमाधममध्यस्य बाध्यमानस्य देहिनः
।
आत्मानं तत्र सन्त्यज्य स्वर्गवासं
लभेच्चिरम् ॥ २,३८.१९ ॥
जीवितं मरणञ्चैव द्वयं शिक्षेत
पण्डितः ।
जीवितं दानभोगाभ्यां मरणं
रणतीर्थयोः ॥ २,३८.२० ॥
हरिक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे
भृगुक्षेत्रे तथैव च ।
प्रभासे श्रीस्थले चैव अर्बुदे च
त्रिपुष्करे ॥ २,३८.२१ ॥
भूतेश्वरे मृतो यस्तु स्वर्गे वसति
मानवः ।
ब्रह्मणो दिवसं यावत्ततः पतति भूतले
॥ २,३८.२२ ॥
वर्षवृत्तिन्तु यो दद्याद्ब्राह्मणे
दोषवर्जिते ।
सर्वं कलं स मुद्धृत्य स्वर्गलोके
महीयते ॥ २,३८.२३ ॥
हे गरुड ! सभी प्राणियों के लिये
जैसे मोक्षमार्ग हैं, वैसे ही स्वर्ग के
मार्ग भी हैं । यथा— गोशाला में,देश -
विध्वंस होने पर, युद्धभूमि एवं तीर्थस्थल में मृत्यु
श्रेयस्कर है। प्राणी वहाँ अपने शरीर का परित्याग करके चिरकालतक स्वर्गवास का लाभ
ले सकता है। पण्डित को जीवन और मरण इन दो तत्त्वों पर ही ध्यान देना चाहिये। अतः
वे दान तथा भोग से जीवन धारण करें और युद्धभूमि एवं तीर्थ में मृत्यु को प्राप्त
करें। जो मनुष्य हरिक्षेत्र, कुरुक्षेत्र,भृगुक्षेत्र, प्रभास, श्रीशैल,
अर्बुद (आबू पर्वत),त्रिपुष्कर तथा शिवक्षेत्र
में मरता है, वह जबतक ब्रह्मा का एक दिन पूरा नहीं हो जाता,
तबतक स्वर्ग में रहता है। उसके बाद वह पुनः पृथ्वी पर आ जाता है। जो
व्यक्ति सच्चरित्र ब्राह्मण को एक वर्षतक जीवन निर्वाह के लिये अन्न-वस्त्रादि का
दान देता है, वह सम्पूर्ण कुल का उद्धार करके स्वर्गलोक में
निवास करता है।
कन्यां विवाहयेद्यस्तु ब्राह्मणं
वेदपारगम् ।
इन्द्रलोके वसेत्सोऽपि स्वकुलैः
परिवेष्टितः ॥ २,३८.२४ ॥
महादानानि दत्वा च
नरस्तत्फलमामुयात् ॥ २,३८.२५ ॥
वापी कूपतडागानामारामसुरसद्मनाम् ।
जीर्णोद्धारं प्रकुर्वाणः
पूर्वकर्तुः फलं लभेत् ।
जीर्णोद्धारेण वा तेषां तत्पुण्यं
द्विगुणं भवेत् ॥ २,३८.२६ ॥
शीतवा तातपहरमपि पर्णकुटीरकम् ।
कृत्वा विप्राय विदुषे प्रददाति
कुटुम्बिने ॥ २,३८.२७ ॥
तिस्रः कोट्योर्धकोटी च नरः स्वर्गे
महीयते ॥ २,३८.२८ ॥
या स्त्री सवर्णा संशुबा मृतं
पतिमनुव्रजेत् ।
सा मृता स्वर्गमाप्नोति वर्षाणां
रोमसंख्यता ॥ २,३८.२९ ॥
पुत्रपौत्रादिकं त्यक्त्वा स्वपतिं
यानुगच्छति ।
स्वर्गं लभेतां तौ चोभौ
दिव्यस्त्रीभिरलङ्कृतौ ॥ २,३८.३०
॥
कृत्वा पापान्यनेकानि
भर्तृद्रोहमतिः सदा ।
प्रक्षालयति सर्वाणि या स्वं
पतिमनुव्रजेत् ॥ २,३८.३१ ॥
महापापसमाचारो भर्ता चेद्दुष्कृती
भवेत् ।
तस्याप्यनुव्रता नारी
नारायेत्सर्वकिल्बिषम् ॥ २,३८.३२
॥
जो अपनी कन्या का विवाह वेदपारंगत
ब्राह्मण के साथ करता है, वह अपने कुल –
परिवार के सहित इन्द्रलोक में निवास करता है। महादानों को देकर भी मनुष्य ऐसा ही
फल प्राप्त करता है। वापी, कूप, जलाशय,
उद्यान एवं देवालयों का जीर्णोद्धार करनेवाला पूर्व कर्ता की भाँति
फल प्राप्त करता है। अथवा जीर्णोद्धार से कर्ता का पुण्य दुगुना हो जाता है। जो
मनुष्य विद्वान् ब्राह्मण के परिवार की शीत, वायु और धूप से
रक्षा करने के लिये घास, फूस और पत्तों से बनी झोपड़ी का दान
देता है, वह साढ़े तीन करोड़ वर्षतक स्वर्ग में निवास करता
है। जो सवर्णा सती स्त्री अपने मृत पति का अनुगमन करे, वह
मृत्यु के बाद शरीर में रोमों की जितनी संख्या है, उतने
वर्षोंतक स्वर्ग का भोग करती है । पुत्र-पौत्रादि का परित्याग करके जो अपने पति का
अनुगमन करती है, वे दोनों पति- पत्नी दिव्य स्त्रियों से
अलंकृत होकर स्वर्ग का सुख- वैभव प्राप्त करते हैं। सदैव पति से द्रोह रखनेवाली स्त्री
अनेक प्रकार के पापों को करके भी जब मरे हुए उस पति का अनुगमन चिता पर चढ़कर करती
है तो उन सभी पापों को धो डालती है। यदि किसी सच्चरित्र नारी का पति महापापों का
आचरण करता हुआ दुष्कर्मी बन जाता है तो वह स्त्री अपने सदाचरण से उसके सभी पापों को
विनष्ट कर देती है।
ग्रासमात्रं नियमतो नित्यदानं करोति
यः ।
चतुश्चामरसंयुक्तविमानेनाधिगच्छति ॥
२,३८.३३ ॥
यत्कृतं हि मनुष्येण
पापमामरणान्तिकम् ।
तत्सर्वं नाशमायाति
वर्षवृत्तिप्रदानतः ॥ २,३८.३४ ॥
भूतं भव्यं बविष्यञ्च पापं
जन्मत्रयार्जितम् ।
पक्षालयति तत्सर्वं
विप्रकन्योपनायनात् ॥ २,३८.३५ ॥
जो व्यक्ति नियमपूर्वक प्रतिदिन
मात्र एक ग्रास भोजन का दान करता है, वह
चार चामर से युक्त दिव्य विमान पर चढ़कर स्वर्गलोक जाता है। जिस मनुष्य के द्वारा
आजीवन पाप कर्म किया गया है, वह ब्राह्मण को एक वर्ष के लिये
जीवन-निर्वाह की वृत्ति देकर उस पाप को विनष्ट कर देता है। विप्र- कन्या का विवाह
करानेवाला व्यक्ति भूत, भविष्य और वर्तमान के तीनों जन्म के
अर्जित पापों को नष्ट कर देता है।
दशकूपसमा वापि दशवापीसमं सरः ।
सरो भिर्दशभिस्तुल्या या प्रपा
निर्जले वने ॥ २,३८.३६ ॥
या वापी निर्जले देशे यद्दानं
निर्धने द्विजे ।
प्राणिनां यो दयां धत्ते स
भवेन्नाकनायकः ॥ २,३८.३७ ॥
दस कूप के समान एक बावली होती है।
दस बावली के समान सरोवर होता है और दस सरोवर के समान पुण्य - शालिनी वह प्रपा
(पौंसरा) होती है । जो वापी जलरहित वन एवं देश में बनवायी जाती है और जो दान
निर्धन ब्राह्मण को दिया जाता है तथा प्राणियों पर जो दया की जाती है,
उसके पुण्य से कर्ता स्वर्गलोक का नायक बन जाता है।
एवमादिभिरन्यैश्च सुकृतैः
स्वर्गभाग्भवेत् ।
स तत्सर्वं फलं प्राप्य प्रतिष्ठां
परमां लभेत् ॥ २,३८.३८ ॥
इसी प्रकार अन्य बहुत-से सुकृत हैं,
जिनको करके मनुष्य स्वर्गलोक का भागी होता है। वह उन सभी पुण्यों के
फल को ग्रहण करके परम प्रतिष्ठा को प्राप्त करता है।
फल्गु कार्यं परित्यज्य सततं
धर्मवान् भवेत् ।
दानं दमो दया चेति सारमेतत्त्रयं
भुवि ॥ २,३८.३९ ॥
दानं साधोर्दरिद्रस्य शून्यलिङ्गस्य
पूजनम् ।
अनाथप्रेतसंस्कारः कोटियज्ञफलप्रदः
॥ २,३८.४० ॥
व्यर्थ के कार्यों को छोड़कर
निरन्तर धर्माचरण करना चाहियें। इस पृथ्वी पर दान, दम और दया— ये ही तीन सार हैं। दरिद्र, सज्जन ब्राह्मण को दान,निर्जन प्रदेश में स्थित
शिवलिङ्ग का पूजन और अनाथ प्रेत का संस्कार-करोड़ों यज्ञ का फल प्रदान करता है ।
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे उत्तमलोकगत्यागतिमोक्ष
मानुष्यहेतुनिरूपणं नामाष्टात्रिंशत्तमोऽध्यायः॥
जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय 39
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