श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय २५
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
–
प्रेतकल्प अध्याय २५ बालकों की अन्त्येष्टिक्रिया का स्वरूप,
सत्पुत्र की महिमा तथा औरस और क्षेत्रज आदि पुत्रों द्वारा
अन्त्येष्टि करने का फल का वर्णन है।
श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) पञ्चविंशतितमोऽध्यायः
Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter
25
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
–
प्रेतकल्प पच्चीसवाँ अध्याय
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय २५
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय २५ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित
गरुडपुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः
२५
श्रीविष्णुरुवाच ।
अतः परं प्रवक्ष्यामि पुरुषस्त्री
विनिर्णयम् ।
जीवन्वापि मृतो वापि
पञ्चवर्षाधिकोऽपि वा ॥ २,२५.१ ॥
पूर्णे तु पञ्चमे वर्षे पुमांश्चैव
प्रतिष्ठितः ।
सर्वैन्द्रियाणि जानाति
रूपारूपविपर्ययौ ॥ २,२५.२ ॥
पूर्वकर्मविपाकेन प्राणिनां
वधबन्धनम् ।
विप्रादीनन्त्यजान्सर्वान्पापं
मारयति ध्रुवम् ॥ २,२५.३ ॥
श्रीविष्णु ने कहा- हे गरुड ! इसके
बाद अब मैं पुरुष – स्त्री का निर्णय कहूँगा। बालक जीवित हो अथवा मृत्यु को
प्राप्त हो गया हो, पाँच वर्ष से अधिक
अवस्था हो जाने पर उसमें पुरुषत्व प्रतिष्ठित हो जाता है । वह अपनी समस्त
इन्द्रियों को जान लेता है और रूप तथा कुरूप के विपर्यय को जानने की क्षमता भी
उसमें आ जाती है । पूर्वजन्मार्जित कर्मफल से प्राणियों का वध और बन्धन होता है।
पाप ही सभी लोगों को नष्ट करता है।
गर्भे नष्टे क्रिया नास्ति दुग्धं
देयं मृते शिशौ ।
परं च पायसं क्षीरं
दद्याद्वलविपत्तितः ॥ २,२५.४ ॥
एकादशाहं द्वादशाहं वृषं वृषविधिं
विना ।
महादानविहीनं च कुमारे
कृत्यमादिशेत् ॥ २,२५.५ ॥
हे पक्षिराज ! गर्भ नष्ट होने पर
कोई और्ध्वदैहिक क्रिया नहीं है। शिशु की मृत्यु होने पर दुग्ध का दान देना चाहिये,
शैशव के बाद की अवस्था में बालक की मृत्यु होने पर पायस तथा खीर का
दान देना चाहिये । कुमार की अवस्था में मृत्यु होने पर एकादशाह, द्वादशाह, वृषोत्सर्ग तथा महादान को छोड़कर अन्य सभी
और्ध्वदैहिक कृत्य करने का आदेश किया गया है।
कुमाराणां चैव बालानां भोजनं
वस्त्रवेष्टनम् ।
बाले वा तरुणे वृद्धे घटो भवति वै
मृते ॥ २,२५.६ ॥
मरे हुए कुमार और बालकों के निमित्त
भोजन- वस्त्र तथा वेष्टन देना चाहिये । बाल, वृद्ध
अथवा तरुण के मरने पर घट - बन्धन करना चाहिये ।
भूमौ विनिः क्षिपेद्बालं द्विमासोनं
द्विवार्षिकम् ।
ततः परं खगश्रेष्ठ देहदाहो विधोयते
॥ २,२५.७ ॥
शिशुरा दन्तजननाद्बालः
स्याद्यावदाशिखम् ।
कथ्यते सर्वशास्त्रेषु कुमारो
मौञ्जिबन्धनात् ॥ २,२५.८ ॥
हे खगश्रेष्ठ ! दो माह कम दो वर्ष तक
के बालक की मृत्यु होने पर उसको पृथ्वी में गड्ढा खोदकर गाड़ देना चाहिये,
इससे अधिक आयुवाले मृत बालक के लिये दाह संस्कार का ही विधान उत्तम
है। सभी शास्त्रों में जन्म से लेकर दाँत निकलने तक की अवस्थावाले बच्चे को शिशु,
चूडाकरण-संस्कार तक की अवस्थावाले को बालक और उपनयन संस्कार तक की
आयुवाले को कुमार कहा गया है।
शूद्रादीनां कथं कुर्यात्संशयो
मौञ्जिवर्जनात् ।
गर्भाच्च नवमं हित्वा
शिशुरामासषोडशम् ॥ २,२५.९ ॥
बालश्चाथ परञ्ज्ञेय आमाससप्तविंशति
।
आ पञ्च वर्षात्कौमारः पौगण्डो
नवहांयनः ॥ २,२५.१० ॥
किशोरः षोडशाब्दः स्यात्ततो
यौवनमादिशेत् ।
मृतोऽपि पञ्चमे वर्षे अवृतः
सवृतोऽपि वा ॥ २,२५.११ ॥
पूर्वोक्तमेव कर्तव्यमीहते
दशपिण्डकम् ।
स्वल्पकर्मप्रसङ्गाच्च
स्वल्पाद्विषयबन्धनात् ॥ २,२५.१२
॥
स्वल्षाद्वपुषि वस्त्राच्च क्रियां
स्वल्पामपीच्छति ।
यावदुपचयो जन्तुर्यावद्विषयवेष्टितः
॥ २,२५.१३ ॥
यद्यद्यस्योपजीव्यं
स्यात्तत्तद्देयमिहेच्छति ।
ब्रह्मबीजोद्भवाः पुत्रा देवर्षोणां
च वल्लभाः ॥ २,२५.१४ ॥
यमेन यमदूतैश्च शास्यन्ते निश्चितं
खग ।
हे गरुड ! उपनयन संस्कार का विधान न
होने के कारण शूद्रादि का अन्तिम संस्कार कैसे होना चाहिये ?
यह संशय है। गर्भाधान से नौ मास तक के काल को छोड़कर सोलह मास तक के
बच्चे को शिशु, सत्ताईस मास तक के अवस्था प्राप्त बच्चे को
बालक, पाँच वर्ष की आयुवाले को कुमार, नौ
वर्षवाले को पौगण्ड, सोलह वर्षवाले को किशोर और उसके बाद का
यौवन काल है । पाँच वर्ष की अल्पायु में मृत कुमार चाहे उसका व्रतबन्ध हुआ हो अथवा
न हुआ हो, वह पूर्वकथित विधान के अनुसार दशपिण्ड – कृत्य की
कामना करता है । स्वल्प कर्म, स्वल्प प्रसंग, स्वल्प विषयबन्धन, स्वल्प शरीर तथा स्वल्प वस्त्र के
कारण प्राणी स्वल्प क्रिया की इच्छा करता है।*
जीव जबतक वृद्धि की ओर बढ़ रहा हो, जबतक वह सांसारिक
विषय-वासनाओं से घिरा हो, तबतक उसे अपने उस मृत परिजन को वे
सभी भोज्य पदार्थ और आवश्यक वस्तुएँ देनी चाहिये, जो उसके
लिये उपजीव्य* और इच्छित थीं ।
*१-जिस व्यक्ति का मरण हुआ है वह अपनी अवस्था के अनुसार एवं अपने कर्मों
के अनुसार जिस मात्रा में, जिस रूप में
अन्न, वस्त्र आदि से तुष्ट होता रहा है उसी मात्रा में,
उसी रूप में उसकी और्ध्वदैहिक क्रिया में अन्न, वस्त्र आदि देना चाहिये।
*२- पुष्टि एवं तुष्टि के लिये उपयोगी।
बालो वृद्धो युबा वापि घटमिच्छन्ति
देहिनः ॥ २,२५.१५ ॥
सुखं दुः खं सदा वेत्ति देही वै
सर्वगस्त्विह ।
परित्यज्य तदात्मानं जीर्णां
त्वचमिवोरगः ॥ २,२५.१६ ॥
अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषो वायुभृतः
क्षुधान्वितः ।
तस्माद्देयानि दानानि मृते बाले
सुनिश्चितम् ॥ २,२५.१७ ॥
जन्मतः पञ्च वर्षाणि भुङ्क्ते
दत्तमसंस्कृतम् ।
पञ्चवर्षाधिके बाले विपत्तिर्यदि
जायते ॥ २,२५.१८ ॥
वृषोत्सर्गादिकं कर्म सपिण्डीकरणं
विना ।
द्वादशे हनि सम्प्राप्ते
कुर्याच्छ्राद्धानि षोडश ॥ २,२५.१९
॥
पायसेन गुडेनापि
पिण्डान्दद्याद्यथाक्रमम् ।
उदकुम्भप्रदानं च पद (उप) दानानि
यानि च ॥ २,२५.२० ॥
भोजनानि द्विजे दद्यान्महादानादि
शक्तितः ।
दीपदानादि यत्किञ्चित्पञ्चवर्षाधिके
सदा ॥ २,२५.२१ ॥
हे खगेश! चाहे बालक हों या वृद्ध
हों अथवा युवा हों सभी प्राणी घट की इच्छा करते हैं। सर्वत्रगामी देही जीवात्मा
सदैव सुख-दुःख का अनुभव करता है । जिस प्रकार साँप अपनी पुरानी केंचुल का परित्याग
कर देता है, उसी प्रकार जीव अपने पुराने
शरीर का परित्याग कर अंगुष्ठमात्र परिमाणवाला होकर तथा वायुभूत हो भूख से पीड़ित
हो जाता है। अतः बालक की भी मृत्यु होने पर निश्चित ही दान देना चाहिये। जन्म से
लेकर पाँच वर्ष तक की अवधि में मरा हुआ प्राणी दान में दिये गये असंस्कृत* भोजन का उपभोग करता है। यदि पाँच वर्ष से अधिक
आयुवाले बालक की मृत्यु हो जाती है तो वृषोत्सर्ग और सपिण्डीकरण को छोड़कर
द्वादशाह के आने पर षोडश श्राद्ध करने चाहिये। उस दिन यथाक्रम पायस (खीर) - से बने
पिण्ड का दान देना चाहिये। यह पिण्डदान गुड़ से भी किया जा सकता है। उसी दिन
सान्नोदक कुम्भ और पददान देना चाहिये । ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिये और यथाशक्ति
महादानादि भी करने चाहिये। पक्षिश्रेष्ठ! दीप दानादि जो कुछ शेष कर्म हैं उन्हें
पाँच वर्ष से अधिक आयुवाले कुमार की मृत्यु होने पर करना चाहिये ।
* मन्त्र आदि के बिना दिया हुआ अन्न ।
कर्तव्यं च खगश्रेष्ठ
व्रतात्प्राक्प्रेततृप्तये ।
यदा नक्रियते सर्वं मुद्गलत्वं स
गच्छति ॥ २,२५.२२ ॥
व्रतात्प्राङ्गेव देयं तु ततः
पितृगणस्य च ।
स्वाहाकारेण वै
कुर्यादेकोद्दिष्टानि षोडश ॥ २,२५.२३
॥
ऋजुदर्भैस्तिलैः शुक्लैः
प्राचीनावीति निश्चितम् ।
अपसव्यं च कर्तव्यं कृते यान्ति
परां गतिम् ॥ २,२५.२४ ॥
पुनश्चिरायुषो भूत्वा जायन्ते
स्वकुले ध्रुवम् ।
हे पक्षिराज ! व्रतबन्ध (यज्ञोपवीत)
होने से पहले जिसका मरण हुआ है उसकी संतृप्ति के लिये पूर्वोक्त कर्म करना चाहिये
। यदि मनुष्य के द्वारा सारी क्रिया नहीं की जाती है तो वह जीव पिशाच हो जाता है।
व्रतबन्ध के पूर्व मृत बालक के लिये पूर्वोक्त सब कर्म करना चाहिये। उसके बाद 'स्वाहा' शब्द से समन्वित
मन्त्र के द्वारा षोडश एकोद्दिष्ट श्राद्ध करे । ऋजु*
कुश से श्वेत तिल के द्वारा अपसव्य होकर समस्त क्रिया करने से पितृगण परम गति को
प्राप्त करते हैं और दीर्घायु होकर पुनः अपने ही कुल में जन्म लेते हैं ।
* पवित्रक या मोटक आदि के बिना बनाये ही कुश का उपयोग ऋजु कुश है।
सर्वसौख्यप्रदः पुत्रः पित्रोः
प्रीतिविवर्धनः ॥ २,२५.२५ ॥
आकाशमेकं हि यथा चन्द्रादित्यौ
यथैकतः ।
घटादिषु पृथक्सर्वं पश्य रूपं च
तत्समम् ॥ २,२५.२६ ॥
आत्मा तथैव सर्वेषु पुत्त्रेषु
विचरेत्सदा ।
या यस्य प्रकृतिः पूर्वं
शुक्रशोणितसङ्गमे ॥ २,२५.२७ ॥
सा (स) तेन भावयोगेन
पुत्त्रास्तत्कर्मकारिणः ।
पितृरूपं समादाय कस्यचिज्जायते सुतः
॥ २,२५.२८ ॥
पितृतः कोऽपि रूपाढ्यो गुणज्ञो
दानतत्परः ।
सदृशः कोऽपि लोकेऽस्मिन्न भूतो न
भविष्यति ॥ २,२५.२९ ॥
अन्धादन्धो न भवति मूकान्मूको न
जायते ।
बधिराद्बधिरो नैव विद्यावान्विदुषो
न हि ।
अनुरूपा न दृश्यन्ते मदीयं वचनं
शृणु ॥ २,२५.३० ॥
सभी प्रकार के सुखों को प्रदान
करनेवाला पुत्र माता-पिता के प्रेम का अभिवर्धक होता है । जैसे एक आकाश,
एक चन्द्र और एक आदित्य आश्रय-भेद से पृथक्-पृथक् घटादि में दिखायी
देते हैं, वैसे ही पिता का आत्मा सभी पुत्रों में सदैव विचरण
करता रहता है। जिसकी जो प्रकृति शुक्र-शोणित- संगम के पूर्व होती है, वही पुत्रों में आकर संनिहित हो जाती है। वैसे ही वे अपने जीवन में कर्म
करते हैं। किसी का पुत्र पिता का रूप लेकर उत्पन्न होता है, पिता
की अपेक्षा कोई अत्यधिक रूपवान्, गुणवान् तथा दानपरायण होता
है। इस संसार में कोई भी प्राणी एक-समान न हुआ है और न होगा। अन्धे से अन्धा,
गूँगे से गूँगा, बहिरे से बहिरा तथा
विद्वान्से विद्वान् जन्म नहीं लेता है । इस सृष्टि में कहीं भी अनुरूपता दिखायी
नहीं देती।
गरुड उवाच ।
औरसक्षेत्रजाद्याश्च पुत्त्रा
दशविधाः स्मृताः ।
संगृहीतः सुतो यस्तु दासीपुत्त्रश्च
तेन किम् ॥ २,२५.३१ ॥
काङ्कां गतिमवाप्नोति जायो
मृत्युवशं गतः ।
भवेन्न दुहिता यस्य न दौहित्रो न वा
सुतः ॥ २,२५.३२ ॥
श्राद्धं तस्य कथं कार्यं विधिना
केन तद्भवेत् ।
गरुड ने कहा- औरस और क्षेत्रज आदि
दस प्रकार के पुत्र माने गये हैं । जो संगृहीत ( कहीं से प्राप्त) तथा दासी से
उत्पन्न हुआ है, उससे मनुष्य को क्या लाभ
प्राप्त हो सकता है ? मृत्यु के वश में गये हुए प्राणी को उस
पुत्र से कौन - सी गति प्राप्त होती है ? जिस व्यक्ति के न
पुत्री है और न पुत्र है, न दौहित्र (लड़की का पुत्र नाती)
है, उसका श्राद्ध किसके द्वारा किस विधि से होना चाहिये ?
श्रीभगवानुवाच ।
मुखं दृष्ट्वा तु पुत्रस्य मुच्यते
पैतृकादृणात् ॥ २,२५.३३ ॥
पौत्त्रस्य दर्शनाज्जन्तुर्मुच्यते
चः ऋणत्रयात् ।
लोकानन्त्यं दिवः प्राप्तिः पुत्रपौत्र
प्रपौत्रकैः ॥ २,२५.३४ ॥
श्रीभगवान्ने कहा—हे गरुड ! पुत्र के मुख को देख करके मनुष्य पितृऋण से मुक्त होता है।
पौत्र को देखने से मनुष्य को तीनों ऋण से मुक्ति मिल जाती है। पुत्र-पौत्र तथा
प्रपौत्रों के होने से व्यक्ति को आनन्त्य लोक और स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
अन्यक्षेत्रोद्भवाद्या ये
भुक्तिमात्रप्रदाः सुताः ।
कुर्वीत पार्वणं श्राद्धमारैसो
विधिवत्सुतः ॥ २,२५.३५ ॥
कुर्वन्त्यन्ये सुताः श्राद्धमे
कोद्दिष्टं न पार्वणम् ।
ब्राह्मोढाजस्तून्नयति
संगृहीतस्त्वधो नयेत् ।
श्राद्धं सांवत्सरं कुर्वञ्जायते
नरकाय वै ॥ २,२५.३६ ॥
सर्वदानानि देयानि ह्यन्न दानादृते
खग ।
संगृहीतः सुतः कुर्यादेकोद्दिष्टं न
पार्वणम् ॥ २,२५.३७ ॥
प्रत्यब्दं पितृमातृभ्यां श्राद्धं
दत्त्वा न लिप्यते ।
एकोद्दिष्टं परित्यज्य पार्वणं
कुरुते यदि ॥ २,२५.३८ ॥
आत्मानं च पितॄंश्चैव स
नयेद्यममन्दिरम् ।
संगृहीतस्तु यः
केचिद्दासीपुत्त्रादयश्च ये ॥ २,२५.३९
॥
तीर्थे कुर्युः पितृश्राद्धं दानं
(मासं) दद्युर्द्विजन्मने ।
जो क्षेत्रज पुत्र हैं,
वे पिता को मात्र लौकिक सुख प्रदान करने में समर्थ होते हैं। औरस
पुत्र को विधिवत् पार्वण श्राद्ध करना चाहिये। अन्य पुत्र एकोद्दिष्ट श्राद्ध करते
हैं, पार्वण नहीं । ब्राह्म-विवाह के नियमों से विवाहिता
स्त्री के गर्भ से उत्पन्न हुआ पुत्र पिता को स्वर्ग ले जाता है। संगृहीत पुत्र
प्राणी को अधोगति में ले जाता है। यदि वह सांवत्सरिक श्राद्ध करता है तो उससे पिता
को नरक की प्राप्ति होती है। अन्नदान के अतिरिक्त वह सब प्रकार का दान अपने पालक
पिता के लिये कर सकता है। संगृहीत पुत्र को एकोद्दिष्ट श्राद्ध ही करना चाहिये,
पार्वण नहीं माता-पिता के लिये वार्षिक श्राद्ध करके वह पाप से
लिप्त नहीं होता। यदि वह एकोद्दिष्ट श्राद्ध का परित्याग करके पार्वण श्राद्ध करता
है तो अपने को और पितरों को यमलोक पहुँचाता है। जो संगृहीत पुत्र और दासी से
उत्पन्न हुए पुत्रादि हैं, उन्हें तीर्थ में जाकर
पितृश्राद्ध करना चाहिये तथा ब्राह्मणों को दान देना चाहिये ।
संगृहीतसुतो भूत्वा पाकं वा यः
प्रयच्छति ॥ २,२५.४० ॥
वृथा श्राद्धं
विजानीयाच्छूद्रान्नेन यथा द्विजः ।
न प्रीणयति तच्छ्राद्धं
पितामहमुखान्पितॄन् ।
एवं ज्ञात्वा स्वगश्रेष्ठ
हीनजातीन्सुतांस्त्यजेत् ॥ २,२५.४१
॥
(ब्राह्मण्यां
ब्राह्मणाज्जातश्चाण्डालादधमः स्मृतः ) ।
यस्तु प्रव्रजिताज्जातो
ब्राह्मण्यां शूद्रतश्च यः ॥ २,२५.४२
॥
द्वावेतौ विद्धि चाण्डालौ
सगोत्राद्यस्तु जायते ।
स्वर्यातिविहितान्पुत्रः समुत्पाद्य
खगेश्वर ॥ २,२५.४३ ॥
तैः सुवृत्तैः सुखं प्राप्यं
कुवृत्तैर्नरकं व्रजेत् ।
हीनजातिसमुद्भूतैः सुवृत्तैः
सुखमेधते ॥ २,२५.४४ ॥
कलिकलुषविमुक्तः पूजितः
सिद्धसङ्घैरमरचमरमालावीज्यमानोऽप्सरोभिः ।
पितृशतमपि
बन्धून्पुत्त्रपौत्त्रप्रपौत्त्रानपि नरकनिमग्नानुद्धरेदेक एव ॥ २,२५.४५ ॥
यदि संगृहीत पुत्र पाक-श्राद्ध* करता है तो उसके श्राद्ध
को वैसे ही वृथा समझना चाहिये, जैसे
शूद्रान्न से द्विजत्व नष्ट हो जाता है। वह श्राद्ध परलोक में गये हुए पिता -
पितामहादि पितरों को प्रसन्न नहीं कर पाता । हे पक्षिश्रेष्ठ! ऐसा जानकर व्यक्ति को
हीन जाति में उत्पन्न हुए पुत्रों का परित्याग*
कर देना चाहिये । [ यदि अपरिणीता] ब्राह्मणी के गर्भ से ब्राह्मण के द्वारा पुत्र
उत्पन्न किया जाता है तो वह चाण्डाल से भी नीच होता है। जो पुत्र संन्यासी से जन्म
लेता है या शूद्र से ब्राह्मणी के गर्भ में उत्पन्न होता है तो ऐसे पुत्रों को तुम
चाण्डाल ही समझो । जो सगोत्रा कन्या से जन्म ग्रहण करता है, वह
भी चाण्डाल ही होता है। हे खगेश्वर ! यथाविधान विवाहिता स्त्री से पुत्र पैदा करके
व्यक्ति स्वर्ग जाता है । ऐसे सदाचारी पुत्रों के आचरण से मनुष्य को सुख की प्राप्ति
निश्चित है। जो दुराचारी पुत्र है वह अपने कुत्सित आचरण से पिता को नरक में ले
जाता है। हीन जाति से उत्पन्न हुआ सदाचारी पुत्र अपने माता-पिता को सुख प्रदान
करता है।* जो मनुष्य कलिकाल के पाप से
निर्मुक्त है, सिद्ध जनों से पूजित है, देवलोक की अप्सराओं के द्वारा सम्मान में डुलाये जा रहे चँवर और पहनायी
गयी माला से सुशोभित है, वह अकेले ही सौ पितरों तथा नरक में
गये हुए बन्धु-बान्धवों, पुत्र-पौत्रों और प्रपौत्रों का
उद्धार कर देता है।
*१- अन्न पकाकर उसके द्वारा किया गया श्राद्ध पाक-श्राद्ध है।
*२- ऐसे पुत्रों से यथासम्भव अपना धार्मिक कृत्य नहीं करवाना चाहिये।
*३- इसका तात्पर्य सदाचार की महिमा से है।
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धमकाण्डे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसवादे मृतबालान्त्येष्टि
भिन्नाभिन्नसुतकृतान्त्येष्ट्योर्वर्णनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः॥
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