श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय २४

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय २४               

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय २४ अल्पमृत्यु के कारण तथा बालकों की अन्त्येष्टिक्रिया का निरूपण का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय २४

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) चतुर्विंशतितमोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 24

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प चौबीसवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय २४              

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय २४ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः २४         

गरुड उवाच ।

नाकाले म्रियते कश्चिदिति वेदानुशासनम् ।

कस्मान्मृत्युमवाप्नोति राजा वा श्रोत्रियोपि वा ॥ २,२४.१ ॥

यदुक्तं ब्राह्मणा पूर्वमनृतं तद्धि दृश्यते ।

वेदैरुक्तं तु यद्वाक्यं शतं जीवति मानुषे ॥ २,२४.२ ॥

जीवन्ति मानुषे लोके सर्वे वर्णा द्विजातयः ।

अन्त्यजाम्लेच्छजाश्चैव खण्डे भारतसंज्ञके ॥ २,२४.३ ॥

न दृश्यते कलौ तच्च कस्माद्देव समादिश ।

(आधानान्मृत्युमाप्नोति बालो वा स्थविरो युबा ॥ २,२४.४ ॥

सधनो निर्धनो वापि सुकुमारः सुरूपवान् ।

अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणस्त्वितरो जनः ॥ २,२४.५ ॥

तपोरतो योगशीलो महाज्ञानी च यो नरः ।

सर्वज्ञानरतः श्रीमान्धर्मात्मातुलविक्रमः ॥ २,२४.६ ॥)

सर्वमेतदशषेण जायते वसुधातले ।

कस्मान्मृत्युमवाप्नोति राजा वा श्रोत्रियोऽपि वा ॥ २,२४.७ ॥

श्रीगरुड ने कहा- हे प्रभो ! वेद का यह कथन है कि अकाल में किसी की मृत्यु नहीं होती है तो फिर राजा या श्रोत्रिय ब्राह्मण किस कारण से अकाल मृत्यु को प्राप्त होते हैं। ब्रह्मा ने जैसा पहले कहा था, वह असत्य दिखायी देता है । हे भगवन् ! वेदों में यह कहा गया है कि मनुष्य सौ वर्षतक जीवित रहता है। इस भारतवर्ष में ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्यवर्णवाली द्विजातियाँ, शूद्र और म्लेच्छ रहते है, किस कारण से कलिकाल में ये शतायु नहीं देखे जाते। बालक, धनवान्, निर्धन, सुकुमार, मूर्ख, ब्राह्मण, अन्य वर्णवाले, तपस्वी, योगी, महाज्ञानी, सर्वज्ञानरत, लक्ष्मीवान्, धर्मात्मा, अद्वितीय पराक्रमी - जो कोई भी हों इस वसुधातल पर अवश्य मृत्यु को प्राप्त करते हैं। इनके गर्भ में आने के साथ ही इनके पीछे मृत्यु लगी रहती है। इसका क्या कारण है ?

श्रीभगवानुवाच ।

साधुसाधु महाप्राज्ञ यस्त्वं भक्तोऽसि मे प्रियः ।

श्रूयतां वचनं गुह्यं नानादेशविनाशनम् ॥ २,२४.८ ॥

श्रीभगवान्ने कहाहे महाज्ञानी गरुड ! तुम्हें साधुवाद है। तुम मेरे प्रिय भक्त हो । अतः प्राणी की मृत्यु से सम्बन्धित गोपनीय बात को सुनो।

विधातृविहितो मृत्युः शीघ्रमादाय गच्छति ।

ततो वक्ष्यामि पक्षीन्द्र काश्यपेय महाद्युते ॥ २,२४.९ ॥

मानुषः शतजीवीति पुरा वेदेन भाषितम् ।

विकर्मणः प्रभावेण शीघ्रं चापि विनश्यति ॥ २,२४.१० ॥

वेदानभ्यसनेनैव कुलाचारं न सेवते ।

आलस्यात्कर्मणां त्यागो निषिद्धेऽप्यादरः सदा ॥ २,२४.११ ॥

यत्र तत्र गृहेऽश्राति परक्षेत्ररतस्तथा ।

एतैरन्यैर्महादोषैर्जायते चायुषः क्षयः ॥ २,२४.१२ ॥

अश्रद्दधानमशुचिं नास्तिकं त्यक्तमङ्गलम् ।

परद्रोहानृतरं ब्राह्मणं यत (म) मन्दिरम् ॥ २,२४.१३ ॥

अरक्षितारं राजानं नित्यं धर्मविवर्जितम् ।

क्रूरं व्यसनिनं मूर्खं वेदवादबहिष्कृतम् ।

प्रजापीडनकर्तारं राजानं यमशासनम् ॥ २,२४.१४ ॥

प्रापयन्ति वशं मृत्योस्ततो याति च यातनाम् ।

स्वकर्माणि परित्यज्य मुख्यवृत्तानि यानि च ॥ २,२४.१५ ॥

परकर्मरतो नित्यं यमलोकं स गच्छति ।

शूद्रः करोतिः यत्किञ्चिद्विजशुश्रूषणं विना ॥ २,२४.१६ ॥

उत्तमाधममध्ये वा यमलोके स पच्यते ।

हे पक्षिराज कश्यपपुत्र महातेजस्वी गरुड ! विधाता द्वारा निश्चित की गयी मृत्यु प्राणी के पास आती है और शीघ्र ही उसे लेकर यहाँ से चली जाती है। प्राचीन काल से ही वेद का यह कथन है कि मनुष्य सौ वर्ष तक जीवित रहता है, किंतु जो व्यक्ति निन्दित कर्म करता है वह शीघ्र ही विनष्ट हो जाता है, जो वेदों का ज्ञान न होने के कारण वंशपरम्परा के सदाचार का पालन नहीं करता है, जो आलस्यवश कर्म का परित्याग कर देता है, जो सदैव त्याज्य कर्म को सम्मान देता है, जो जिस – किसी के घर में भोजन कर लेता है और जो परस्त्री में अनुरक्त रहता है, इसी प्रकार के अन्य महादोषों से मनुष्य की आयु क्षीण हो जाती है। श्रद्धाहीन, अपवित्र, नास्तिक, मङ्गल का परित्याग करनेवाले, परद्रोही, असत्यवादी ब्राह्मण को मृत्यु अकाल में ही यमलोक जाती है। प्रजा की रक्षा न करनेवाला, धर्माचरण से हीन, क्रूर, व्यसनी, मूर्ख, वेदानुशासन से पृथक् और प्रजापीड़क क्षत्रिय को यम का शासन प्राप्त होता है। ऐसे दोषी ब्राह्मण एवं क्षत्रिय मृत्यु के वशीभूत हो जाते हैं और यम – यातना को प्राप्त करते हैं। जो अपने कर्मों का परित्याग तथा जितने मुख्य आचरण हैं, उनका परित्याग करता है और दूसरे के कर्म में निरत रहता है वह निश्चित ही यमलोक जाता है। जो शूद्र द्विज- सेवा के बिना अन्य कर्म करता है, वह यमलोक जाता है । तदनन्तर वह उत्तम - मध्यम या अधम कोटिवाले यमलोक में पहुँचकर दुःख भोगता है ।

स्नानं दानं जपो होमो स्वाध्यायो दवर्ताच्चनम् ॥ २,२४.१७ ॥

यस्मिन्दिने न सेव्यन्ते स वृथा दिवसो नृणाम् ।

जिस दिन स्नान, दान, जप, होम, स्वाध्याय और देवपूजन नहीं होता है, मनुष्यों का वह दिन व्यर्थ ही जाता है।

अनित्यमध्रुवं देहमनाधारं रसोद्भवम् ॥ २,२४.१८ ॥

रसोद्भूत यह शरीर अनित्य, अध्रुव तथा आधारहीन है।

अन्नोदकमये देहे गुणानेतान्वदाम्यहम् ।

हे पक्षीन्द्र ! अब मैं अन्न और जल से बने हुए इस शरीर के गुणों का वर्णन करता हूँ ।

यत्प्रातः संस्कृतं सायं नूनमन्नं विनश्यति ॥ २,२४.१९ ॥

तदीयरससम्पुष्टकाये का बत नित्यता ।

गतं ज्ञात्वा तु पक्षीन्द्र वपुरर्धं स्वकर्मभिः ॥ २,२४.२० ॥

नरः पापविनाशाय कुर्वीत परमौषधम् ।

देहः किमन्नदातुः स्विन्निषेक्तुर्मातुरेव वा ॥ २,२४.२१ ॥

उभयोर्वा प्रभोर्वापि बालनोग्नेः शुनोऽपि वा ।

कस्तत्र परमो यज्ञः कृमिविड्भस्मसंज्ञके ॥ २,२४.२२ ॥

प्रात:काल संस्कृत ( सुपाचित) अन्न निश्चित ही सायंकाल नष्ट हो जाता है, अत: उस अन्न के रस से पुष्ट शरीर में नित्यता कैसे आ सकती है ? हे गरुड ! अपने प्राकृत कर्मों के अनुसार शरीर तो मिल चुका है, इस तरह यथायोग्य शरीर - निर्माणरूप आधा कार्य तो हो चुका है, पर आगे दुष्कर्मों से बचने के लिये एवं अपनी सुरक्षा के लिये परम औषध का सेवन करना चाहिये । क्या यह शरीर अन्नदाता पिता या जन्म देनेवाली माता का है अथवा उन दोनों का है? यह राजा का है या बलवान्‌ का है, अग्नि अथवा कुत्ते का है ? कीटाणु, विष्ठा अथवा भस्म के रूप में परिणत होनेवाले इस शरीर के लिये श्रेष्ठतम यज्ञ कौन हो सकता है ?

कर्तव्यः परमो यत्नः पातकस्य विनाशने ।

अनेकभवसम्भूतं पातकं तु त्रिधा कृतम् ॥ २,२४.२३ ॥

यदा प्राप्नोति मानुष्यं तदा सर्वं तपत्यपि ।

सर्वजन्मानि संस्मृत्य विषादी कृतचेतनः ॥ २,२४.२४ ॥

अवेक्ष्य गर्भवासांश्च कर्मजा गतयस्तथा ।

मानुषोदरवासी चेत्तदा भवति पातकी ॥ २,२४.२५ ॥

अण्डजादिषु भूतेषु यत्रयत्र प्रसर्पति ।

आधयो व्याधयः क्लेशा जरारूपविपर्ययः ॥ २,२४.२६ ॥

पाप- विनाश के निमित्त प्राणी को उत्कृष्ट यत्न करना चाहिये । जीव ने अनेक बार इस संसार में जन्म ग्रहणकर मन, वाणी और शरीर के द्वारा पापकर्म किया है। मनुष्य- जन्म मिलने पर प्राणी को पूर्व सभी जन्मों के पापों का स्मरण करके तप के द्वारा उन्हें विनष्ट करने का प्रयास करना चाहिये। कर्म के अनुसार प्राप्त होनेवाले गर्भवास के महान् कष्ट को देखकर भी जो मनुष्य पुनः गर्भवास में आता है अर्थात् मानवयोनि में ही उससे मुक्ति का प्रयास नहीं करता, वह पातकी अण्डजादि योनियों में जहाँ- जहाँ जाता है, वहीं आधियाँ - व्याधियाँ, क्लेश और वृद्धावस्थाजनित रूप - परिवर्तन होते रहते हैं । ३

गर्भवासाद्विनिर्मुक्तस्त्वज्ञानतिमिरावृतः ।

न जानातिः खगश्रेष्ठ बालभावं समाश्रितः ॥ २,२४.२७ ॥

यौवने तिमिरान्धश्च यः पश्यति स मुक्तिभाक् ।

आधानान्मृत्युमाप्नोति बालो वा स्थविरो युवा ॥ २,२४.२८ ॥

सधनो निर्धनश्चैव सुकुमारः कुरूपवान् ।

अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणास्त्वितरो जनः ॥ २,२४.२९ ॥

तपोरतो योगशीलो महाज्ञानी च यो नरः ।

महादानरतः श्रीमान्धर्मात्मातुलविक्रमः ।

विना मानुपदेहं तु सुखं दुः खं न विन्दति ॥ २,२४.३० ॥

प्राकृतैः कर्मपाशैस्तु मृत्युमाप्नोति मानवः ।

आधानात्पञ्च वर्षाणि स्वल्पपापैर्विपच्यते ॥ २,२४.३१ ॥

पञ्चवर्षाधिको भूत्वा महापापैर्विपच्यते ।

योनिं पूरयते यस्मान्मृतोऽप्यायाति याति च ॥ २,२४.३२ ॥

मृतो दानप्रभावेण जीवन्मर्त्यश्चिरं भुवि ।

हे द्विजोत्तम (पक्षिश्रेष्ठ ) ! गर्भवास से निकला हुआ प्राणी अज्ञानरूपी अन्धकार से आच्छन्न हो जाता है। बाल्यावस्था में रहने के कारण वह सदसत्का कुछ भी ज्ञान नहीं रखता है ।यौवनान्धकार से वह अन्धा हो जाता है। इस बात को जो देखता है वह मुक्ति का भागी होता है । प्राणी चाहे बालक हो चाहे युवा हो अथवा वृद्ध हो, वह जन्म लेने के बाद मृत्यु को अवश्य प्राप्त होता है। धनी - निर्धन, सुकुमार, कुरूप, मूर्ख, विद्वान्, ब्राह्मण या अन्य वर्णवाले जनों की भी वही स्थिति होती है। मनुष्य चाहे तपस्वी, योगी, परमज्ञानी, दानी, लक्ष्मीवान्, धर्मात्मा, अतुलनीय पराक्रमी कोई भी हो मृत्यु से नहीं बच सकता है। बिना मनुष्य देह को प्राप्त किये सुख-दुःख का अनुभव नहीं किया जा सकता है। व्यक्ति प्राकृत कर्म के पाश में बँधकर मृत्यु को प्राप्त करता है। गर्भ से लेकर पाँच वर्ष तक मनुष्य के ऊपर पाप का अल्प प्रभाव पड़ता है, किंतु उसके बाद वह यथायोग्य पाप के न्यूनाधिक प्रभाव का भागी होता है। इस प्रकार प्राणी को बार-बार इस संसार में आना-जाना पड़ता है। इस पृथ्वी पर मरा हुआ मनुष्य दानादि सत्कर्मों के प्रभाव से पुनः जन्म लेकर अधिक दिनों तक जीवित रहता है। *

सूत उवाच ।

इति कृष्णवचः श्रुत्वा गरुडो वाक्यमब्रवीत् ॥ २,२४.३३ ॥

सूतजी ने कहा- भगवान् कृष्ण के ऐसे वचन को सुनकर गरुडजी ने यह कहा

गरुड उवाच ।

मृते बाले कथं कुर्यात्पिण्डदानादिकाः क्रियाः ।

गर्भेषु च विपन्नानामाचूडाकरणाच्छिशोः ॥ २,२४.३४ ॥

कथं किं केन दातव्यं मृतान्ते को विधिः स्मृतः ।

गरुडोक्तमिति श्रुत्वा विष्णुर्वाक्यमथाब्रवीत् ॥ २,२४.३५ ॥

गरुड ने कहा- हे प्रभो ! बालक की मृत्यु हो जाने पर पिण्डदानादि क्रियाओं को कैसे करना चाहिये ? यदि विपन्नावस्था में फँसे हुए भ्रूण की मृत्यु गर्भ में ही हो जाती है अथवा चूडाकरण के बीच शिशु मर जाता है तो कैसे, किसके द्वारा दान दिया जाना चाहिये ? मृत्यु के बाद कौन-सी विधि है ? गरुड के ऐसे वाक्य को सुनकर भगवान् विष्णु ने कहा

श्रीविष्णुरुवाच ।

यदि गर्भो विपद्यते स्त्रवते वापि योषितः ।

यावन्मासं स्थितो गर्भस्तावद्दिनमशौचकम् ॥ २,२४.३६ ॥

तस्य किञ्चिन्न कर्तव्यमात्मनः श्रेय इच्छता ।

ततो जाते विपन्ने तु आ चूडाकरणाच्छिशोः ॥ २,२४.३७ ॥

दुग्धं भोज्यं ताशक्ति बालानां च प्रदीयते ।

आ चूडात्पञ्चवर्षे तु देहदाहो विधीयते ॥ २,२४.३८ ॥

दुग्धं तस्य प्रदेयं स्याद्बालानां भोजनं शुभम् ।

पञ्चवर्षाधिके प्रेते स्वजातिविहितानि च ॥ २,२४.३९ ॥

कुर्यात्कर्माणि सर्वाणि चोदकुम्भादि पायसम् ।

दातव्यं तु खगश्रेष्ठ ऋणसम्बन्धकस्तु सः ॥ २,२४.४० ॥

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।

कर्तव्यं पक्षिशार्दूल पुनर्देहक्षयाय वै ॥ २,२४.४१ ॥

तस्मै यद्रोचते देयमदत्त्वा निर्धने कुले ।

स्वल्पायुर्निर्धनो भूत्वा रतिभक्तिविवर्जितः ॥ २,२४.४२ ॥

पुनर्जन्माप्नुयान्मर्त्यस्तस्माद्देयमृते शिशोः ।

पुराणे गीयते गाथा सर्वथा प्रतिभाति मे ॥ २,२४.४३ ॥

मिष्टान्नं भोजनं देयं दाने शक्तिस्तु दुर्लभा ।

हे गरुड ! यदि स्त्री का गर्भपात हो जाय अथवा गर्भस्राव हो जाय तो जितने मास का गर्भ होता है, उतने दिन का अशौच मानना चाहिये। आत्मकल्याण की इच्छा रखनेवाले व्यक्ति को उसके लिये कुछ भी नहीं करना चाहिये । यदि जन्म से लेकर चूडाकरण- संस्कार के बीच बालक की मृत्यु हो जाती है तो उसके निमित्त यथाशक्ति बालकों को दूध का भोजन देना चाहिये । यदि चूडाकरण संस्कार होने के बाद पाँच वर्ष तक बालक की मृत्यु होती है तो शरीरदाह का विधान है, उसके लिये दूध देना चाहिये और बालकों को भोजन कराना चाहिये । पाँच वर्ष से अधिक आयुवाले बालक की मृत्यु होने पर अपनी जाति के लिये विहित समस्त और्ध्वदैहिक क्रियाओं को सम्पन्न करना अपेक्षित है। ऐसे मृत बालक के कल्याणार्थ जलपूर्ण कुम्भ तथा खीर का दान करना चाहिये; क्योंकि उसका ऋणानुबन्ध हो जाता है । हे पक्षीन्द्र ! जन्म लेनेवाले की मृत्यु और मृत्यु को प्राप्त हुए प्राणी का जन्म निश्चित है। अतः पुनः शरीर का जन्म न हो इसके लिये व्यक्ति को जीवनकाल में जो कुछ अच्छा लगता था, उसी का दान करना चाहिये। ऐसा न करने पर उस प्राणी का जन्म निर्धनकुल में होता है । वह स्वल्पायु और निर्धन होकर प्रेम तथा भक्ति से दूर रहता है । उसे पुनर्जन्म प्राप्त होता है, अतः मृत शिशु के लिये यथेप्सित दान आवश्यक है। ऐसा होने पर ब्राह्मण- बालकों को मिष्टान्न भोजन अवश्य देना चाहिये । पुराण में इससे सम्बन्धित जिस गाथा का गान हुआ है सब प्रकार से वह मुझे सत्य प्रतीत होती है। गाथा इस प्रकार है-

भोज्ये भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिर्वरस्त्रियः ॥ २,२४.४४ ॥

विभवे दानशक्तिश्च नाल्पस्य तपसः फलम् ।

दानाद्भोगानवाप्नोति सौख्यं तीर्थस्य सेवनात् ।

सुभाषणान्मृतो यस्तु स विद्वान्धर्मवित्तमः ॥ २,२४.४५ ॥

अदत्तदानाच्च भवेद्दरिद्रो दरिद्रभावाच्च करोतिपापम् ।

पापप्रभावान्नरकं प्रयाति पुनर्दरिद्रः पुनरेव पापी ॥ २,२४.४६ ॥

भोज्य वस्तु एवं भोजनशक्ति, रतिशक्ति रहने पर श्रेष्ठ स्त्री की प्राप्ति तथा धन-वैभव एवं दानशक्ति- ये तीनों अल्प तपस्या का फल नहीं है, ऐसा साथ- साथ होना बड़ा ही दुर्लभ है। दान देने से प्राणी को भोगों की प्राप्ति होती है। तीर्थसेवन से सुख मिलता है और सुभाषण करता हुआ जो मरता है, वह विद्वान् धर्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ है। दान न देने पर प्राणी दरिद्र होता है, दरिद्र होने पर पाप करता है, पाप के प्रभाव से नरक में जाता है, तदनन्तर बार-बार वह दरिद्र एवं पापी बनता जाता है ।

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशाख्ये धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादेऽल्पायुर्मरणहे तुबालान्त्येष्ट्योर्निरूपणं नाम चतुर्विशोऽध्यायः॥

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 25

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