श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय २६

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय २६          

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय २६ सपिण्डीकरण श्राद्ध का महत्त्व, प्रतिवर्ष विहित मासिक श्राद्ध आदि की अनिवार्यता, पति-पत्नी के सह-मरण आदि की विशेष परिस्थिति में पाक एवं पिण्डदान आदि की विभिन्न व्यवस्था का निरूपण का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय २६

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) षड्विंशतितमोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 26

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प छब्बीसवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय २६                

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय २६ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः २६           

गरुड उवाच ।

सत्यं ब्रूहि सुरश्रेष्ठ कृपां कृत्वा मयि प्रभो ।

मृतानां चैव जन्तूनां कदा कुर्यात्सपिण्डनम् ॥ २,२६.१ ॥

सपिण्डत्वे कुतो यान्ति असपिण्डे कुतो गतिः ।

केनैव सहपिण्डत्वं स्त्रीपुसोर्वक्तुमर्हसि ॥ २,२६.२ ॥

स्त्रीपुमांशौ सहैकत्वं पाप्नुतः कथमुत्तमम् ।

जीवेद्भर्तरि नारीणां सपिण्डीकरणं कुतः ॥ २,२६.३ ॥

भर्तृलोकं कथं यान्ति स्वर्गलोकं सुरेश्वर ।

अग्न्यारोहे कथं श्राद्धं वृषोत्सर्गः कथं भवेत् ॥ २,२६.४ ॥

घटदानं कथं कार्यं सपिण्डीकरणे कृते ।

कथयस्व प्रसादेन हीताय जगतां प्रभो ॥ २,२६.५ ॥

गरुड ने कहा हे देवश्रेष्ठ ! हे प्रभो ! आप मेरे ऊपर कृपा करके यह बतायें कि मरे हुए प्राणियों का सपिण्डीकर्म किस समय करना चाहिये ? सपिण्डीकर्म होने पर प्रेत कैसी गति प्राप्त करता है और जिस प्रेत का सपिण्डीकर्म नहीं होता, उसकी कैसी गति होती है? स्त्री और पुरुष का किसके साथ सपिण्डीकर्म होना चाहिये। हे सुरेश्वर ! स्त्री और पुरुष एक साथ सपिण्डीकर्म के भागीदार बनकर कैसे उत्तम गति प्राप्त कर सकते हैं? पति के जीवित रहते हुए स्त्रियों का सपिण्डीकरण कैसे हो सकता है ? वे किस प्रकार पतिलोक या स्वर्ग को जाती हैं ? अग्न्यारोहण हो जाने पर स्त्रियों का श्राद्ध कैसे होता है ? उनका वृषोत्सर्ग किस प्रकार से किया जाय ? हे स्वामिन्! सपिण्डीकरण हो जाने पर मृतक के लिये घट - दान कैसे हो ? हे हरे ! आप संसार के कल्याणार्थ इसे बताने की कृपा करें।

श्रीभगवानुवाच ।

यथावत्कथयिष्यामि सपिण्डीकरणं खग ।

वर्षं यावत्खगश्रेष्ठ यदाचरति मानवः ॥ २,२६.६ ॥

सपिण्डने ततो वृत्ते पितृलोकं स गच्छति ।

तस्मात्पुत्त्रेण कर्तव्यं सपिण्डीकरणं पितुः ॥ २,२६.७ ॥

संवत्सरे तु सम्पूर्णे कुर्यात्पिण्ड प्रवेशनम् ।

पिण्डप्रवेशविधिना तस्य नित्यं मृताह्निकम् ॥ २,२६.८ ॥

निश्चितं पक्षिशार्दूल वर्षान्ते पिण्डमेलनम् ।

सहपिण्डे कृते प्रेतस्ततो याति परां गतिम् ।

तन्नाम सम्परित्यज्य ततः पितृगणो भवेत् ॥ २,२६.९ ॥

त्रिपक्षे वापि षण्मासे मेलयेत्प्रपितामहैः ।

ज्ञात्वा वृद्धिविवाहादि स्वगोत्रविहितानि च ॥ २,२६.१० ॥

श्रीभगवान्ने कहा हे पक्षिन् ! जिस प्रकार सपिण्डीकरण होता है, वैसा ही मैं तुम्हें सुनाऊँगा । हे खगराज ! जब मनुष्य मरने के बाद एक वर्ष की महापथ-यात्रा करता है तो पुत्र-पौत्रादि के द्वारा सपिण्डीकरण हो जाने पर वह पितृलोक में चला जाता है। इसलिये पुत्र को पिता का सपिण्डीकरण करना चाहिये । वर्ष पूर्ण हो जाने पर पिण्डप्रवेशन अर्थात् सपिण्डीकरण करना चाहिये। हे पक्षियों के सिंह ! वर्ष के अन्त में निश्चित रूप से प्रेत पिण्ड का मेलन होता है । पितृपिण्डों के साथ प्रेत- पिण्ड का सम्मिलन हो जाने पर वह प्रेत परम गति को प्राप्त करता है। तत्पश्चात् वह प्रेत नाम का परित्याग करके पितृगण हो जाता है। अपने गोत्र या सापिण्ड्य में जितने लोगों को अशौच शास्त्रानुसार होता है उनके यहाँ यदि विवाह या कोई शुभ कार्य होना है तो तीसरे पक्ष या छः मास में भी सपिण्डीकरण किया जा सकता है।

विवाहं नैव कुर्वीत मृते च गृहमेधिनि ।

भिक्षुर्भिक्षां न गृह्णाति यावत्कुर्यात्सपिण्डनम् ॥ २,२६.११ ॥

स्वगोत्रेऽप्यशुचिस्तावद्यावत्पिण्डं न मेलयेत् ।

मेलनात्प्रेतशब्दस्तु निवर्तेत खगेश्वर ॥ २,२६.१२ ॥

आनन्त्यात्कुलधर्माणां पुंसाञ्चैवायुषः क्षयात् ।

अस्थिरत्वाच्छरीरस्य द्वादशाहः प्रशस्यते ॥ २,२६.१३ ॥

निरग्निकः साग्निको वा द्वादशाहे सपिण्डयेत् ॥ २,२६.१४ ॥

द्वादशाहे त्रिपक्षे वा षण्मासे वत्सरेऽपि वा ।

सपिण्डीकरणं प्रोक्तमृषिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ २,२६.१५ ॥

सपुत्त्रस्य न कर्तव्यमेकोद्दिष्टं कदाचन ।

सपिण्डीकरणादूर्ध्वं यत्रयत्र प्रदीयते ॥ २,२६.१६ ॥

तत्रतत्र त्रयं कार्यमन्यथा पितृघातकः ।

त्रिभिः कुर्यादशक्तश्च पार्वणं मुनिनोदितम् ॥ २,२६.१७ ॥

तद्दिने तद्दिने कुर्यात्पितामहमुखान्यतः ।

अज्ञानाद्दिनमासानां तस्मात्पार्वणमिष्यते ॥ २,२६.१८ ॥

अनुत्पन्नशरीरस्य न दानं पितृभिः सह ।

एतैः षोडशभिः श्राद्धैः प्रेतो मुक्तस्तु जायते ॥ २,२६.१९ ॥

अपुत्त्रस्य सपिण्डत्वं नैव कुर्यात्स्त्रियोऽपि वा ।

यावज्जीव च सद्भत्र्या न कुर्यात्सहपिण्डताम् ॥ २,२६.२० ॥

हे खगेश्वर ! गृहस्थ के घर में यदि किसी का मरण हुआ हो तो विवाह आदि शुभ कार्य नहीं करने चाहिये। जबतक सपिण्डीकरण नहीं हो जाता है तबतक भिक्षुक उस घर की भिक्षा को स्वीकार नहीं करता है । अपने गोत्र में अशौच तबतक रहता है, जबतक पिण्ड का मेलन नहीं हो जाता है। पिण्डमेलन होने पर 'प्रेत' शब्द निवृत्त हो जाता है। कुल-धर्म अनन्त हैं, पुरुष की आयु क्षयशील है और शरीर नाशवान् है, इस कारण बारहवाँ दिन ही सपिण्डीकरण कर्म के लिये प्रशस्त समय होता है। मृत व्यक्ति अग्निहोत्री रहा हो अथवा न रहा हो, उसका सपिण्डीकरण द्वादशाह को ही कर देना चाहिये । तत्त्वद्रष्टा ऋषियों ने बारहवें दिन, तीसरे पक्ष में, छठे मास में अथवा वर्ष पूर्ण होने पर सपिण्डीकरण का विधान किया है। पुत्रवान्का सपिण्डीकरण के बाद कभी भी एकोद्दिष्ट नहीं करना चाहिये । सपिण्डीकरण के पश्चात् जहाँ-जहाँ श्राद्ध किया जाय, पुत्रवान्‌ का एकोद्दिष्ट कभी न किया जाय । वहाँ-वहाँ तीन- तीन श्राद्ध (पार्वण श्राद्ध) करने आवश्यक हैं, अन्यथा कर्ता पितृघातक कहलाता है। अशक्त होने पर भी पार्वण श्राद्ध करना चाहिये।* ऐसा मुनियों ने कहा है । यदि दिन और मास न ज्ञात हो तो उनका पार्वण श्राद्ध ही करना उचित है। पितरों के साथ वह पिता इस लोक में पुत्र के द्वारा दिये गये दान का फल तबतक नहीं प्राप्त करता, जबतक उसके शरीर की उत्पत्ति पुनः [ दशगात्र पिण्ड से] नहीं हो जाती। ऐसी स्थिति में पुत्र द्वारा किये गये इन्हीं सोलह श्राद्धों से प्रेत यमपाश के बन्धन से मुक्त होता है। पुत्ररहित पुरुष का सपिण्डीकरण नहीं करना चाहिये।* पति के जीवित रहने पर स्त्री का भी सपिण्डन नहीं होना चाहिये।

*१-(क) यहाँ पर ऊनमासिक आदि तथा सांवत्सरिक [मृत्यु-तिथि आदि ] श्राद्ध एकोद्दिष्ट श्राद्ध के स्थान पर पार्वण श्राद्ध कात्यायन के मत से लिखी गयी है। जो कुछ प्रदेशों में भी प्रचलित है। परंतु सामान्यतया ऊनमासिक सांवत्सरिकादि श्राद्धों में शौनक के मतानुसार एकोद्दिष्ट विधि से ही श्राद्ध किया जाता है।

(ख) सपिण्डीकरणं कृत्वा गयां गत्वा च धर्मवित् ।

एकोद्दिष्टं न कुर्वीत साग्निर्वा नाग्निमानपि ॥ (दिवोदासप्रकाश)

*२- उपर्युक्त श्लोकों में 'अपुत्रस्य' यह वाक्य 'पुत्रोत्पादन' की विधि की प्रशंसा में पर्यवसित है। इसका तात्पर्य अपुत्रवान् पुरुष सपिण्डन- निषेध में नहीं है। अन्यथा-

पुत्राभावे स्वयं कुर्युः स्वभर्तॄणाममन्त्रकम् ।

सपिण्डीकरणं तत्र ततः पार्वणमन्वहम् ॥ (श्राद्धकल्पलता पृष्ठ २४३)

'पुत्राभावे तु पत्नी स्यात् पन्यभावे सहोदरः । ' (२६।२३)

'सर्वेषां पुत्रहीनानां पत्नी कुर्यात् सपिण्डनम्।' (२६। २७)

- इन वाक्यों का विरोध हो जायगा । अतः यथाविधि योग्य पुत्र उत्पन्न करने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिये ।

ब्राह्मादिषु विवाहेषु या वधूरिह संस्कृता ।

भर्तृगोत्रेण कर्तव्यास्तस्याः पिण्डोदकक्रियाः ॥ २,२६.२१ ॥

आसुरादिविवा हेषु या व्यूढा कन्यका भवेत् ।

तस्यास्तु पितृगोत्रेण कुर्यात्पिण्डोदकक्रियाः ॥ २,२६.२२ ॥

पितुः पुत्त्रेण कर्तव्यं सपिण्डीकरणं सदा ।

पुत्त्राभावे तु पत्नी स्यात्पत्न्यभावे सहोदरः ॥ २,२६.२३ ॥

भ्राता वा भ्रातृपुत्त्रो वा सपिण्डः शिष्य एव वा ।

सपिण्डनक्रियां कृत्वा कुर्यान्नान्दीमुखं ततः ॥ २,२६.२४ ॥

ज्येष्ठस्यैव कनिष्ठेन भ्रातृपुत्त्रेण भार्यया ।

सपिण्डीकरणं कार्यं पुत्रहीने नरे खग ॥ २,२६.२५ ॥

जिस कन्या का विवाह ब्राह्मादि - विवाह – विधि से हुआ है, उसकी पिण्डोदक - क्रियाएँ पति के गोत्र से करनी चाहिये। आसुरादि – विधि से जिसका विवाह हुआ है, उसकी पिण्डोदक-क्रिया पिता के गोत्र से करनी चाहिये । पिता का सपिण्डीकरण सदैव पुत्र करे। यदि पुत्र नहीं है तो स्वयं उसकी पत्नी उस क्रिया का निर्वाह करे । उसके भी न रहने पर सहोदर भाई, भाई का पुत्र अथवा शिष्य सपिण्डीकरण कर सकता है। सपिण्डीकरण करके वह नान्दीमुख श्राद्ध करे । हे खग ! पुत्र न रहने पर ज्येष्ठ भाई का सपिण्डीकरण कनिष्ठ भाई करे । उसके अभाव में भतीजा या पत्नी उस कर्म को सम्पन्न करे ।

भ्रातॄणामेकजातानामेकश्चेत्पुत्रवान् भवेत् ।

सर्वेते तेन पुत्रेण पुत्रिणो मनुरब्रवीत् ॥ २,२६.२६ ॥

मनु ने कहा है कि- यदि सहोदर भाइयों में से एक भी भाई पुत्रवान् हो जाय तो उसी पुत्र से अन्य सभी भाई पुत्रवान् हो जाते हैं।

सर्वेषां पुत्रहीनानां पत्नी कुर्यात्सपिण्डनम् ।

ऋत्विजा कारयेद्वापि पुरोहितमथापि वा ॥ २,२६.२७ ॥

यदि सभी भाई पुत्रहीन हैं तो उनका सपिण्डीकरण उनकी पत्नी को करना चाहिये अथवा वह पत्नी स्वयं न करके ऋत्विज्से या पुरोहित से कराये।

कृतचूडोपनीतश्च पितुः श्राद्धं समाचरेत् ।

उच्चारयेत्स्वधाकारं न तु वेदाक्षराण्यसौ ॥ २,२६.२८ ॥

भर्त्रादिभिस्त्रिभिः कार्यं सपिण्डीकरणं स्त्रियाः ।

पितृव्यभ्रातृपुत्रेण सोदरेण कनीयसा ॥ २,२६.२९ ॥

अर्वाक्संवत्सरात्सन्धौ पूर्णे संवत्सरेऽपि वा ।

ये सपिण्डीकृताः प्रेतास्तेषां न स्यात्पृथक्क्रिया ॥ २,२६.३० ॥

सपिण्डने कृते वत्स पृथक्त्वं तु विगर्हितम् ।

यस्तु कुर्यात्पृथक्पिण्डं पितृहा सोऽभिजायते ॥ २,२६.३१ ॥

सपिण्डीकरणे वृत्ते पृथक्त्वं नोपपद्यते ।

पृथक्पिण्डे कृते पश्चात्पुनः कुर्यात्सपिण्डनम् ॥ २,२६.३२ ॥

सपिण्डीकरणं कृत्वा एकोद्दिष्टं करोति यः ।

आत्मानं च तथा प्रेतं स नयेद्दमशासनम् ॥ २,२६.३३ ॥

चूडाकरण एवं उपनयन संस्कार से संस्कृत पुत्र पिता के श्राद्ध को करे । जिस पुत्र का उपनयन- संस्कार नहीं हुआ है केवल चूडाकरण-संस्कार हुआ है वह श्राद्ध में स्वधा का उच्चारण तो कर सकता है पर वेदमन्त्र का उच्चारण नहीं कर सकता । स्त्री का सपिण्डीकरण उसके पति, ससुर तथा परश्वशुर के साथ करना चाहिये। स्त्री-जाति का यह कर्म भतीजा तथा सहोदर छोटा भाई भी कर सकता है। संवत्सर पूर्ण होने के पहले अथवा वर्ष के पूर्ण होने पर दूसरे वर्ष के संधिकाल में जिन प्रेतों का सपिण्डीकरण होता है, उनकी क्रिया पृथक् नहीं की जाती । हे वत्स ! सपिण्डीकरण हो जाने के पश्चात् पृथक् क्रिया करना निन्दनीय माना गया है। जो व्यक्ति अपने पिता को पृथक् पिण्डदान देता है, वह पितृहन्ता होता है । सपिण्डीकरण के बाद पृथक् श्राद्ध उचित नहीं है। यदि कोई पृथक् पिण्डदान करता है तो वह पुनः सपिण्डीकरण करे। जो मनुष्य सपिण्डीकरण करके एकोद्दिष्ट श्राद्ध करता है, वह स्वयं को तथा प्रेत को यमराज के अधीन कर देता है।

वर्षं यावक्त्रिया कार्या नामगोत्रेण धीमता ।

घटादि भोजनं नित्यं पददानानि यानि च ।

सपिण्डीकरणे वृत्ते एकस्यैव तु दापयेत् ॥ २,२६.३४ ॥

अन्नं पानीयसहितं संख्यां कृत्वाब्दिकस्य च ।

दातव्यं ब्राह्मणे पक्षिञ्जलपूर्णघटादिकम् ॥ २,२६.३५ ॥

पिण्डान्ते तस्य सकला वर्षवृत्तिः स्वशक्तितः ।

दिव्यदेहो विमानस्थः सुखं याति यमालयम् ॥ २,२६.३६ ॥

हे पक्षिन्! वर्षपर्यन्त प्रेत से सम्बन्धित जो भी क्रिया की जाय उसके नाम और गोत्र के सहित विद्वान् व्यक्ति करे । सपिण्डीकरण कर देने पर भोजन और घटादि का दान, पददान तथा अन्य जो दान हैं उन्हें एक को ( मृत व्यक्ति को) ही उद्देश्य करके देना चाहिये। वर्षभर के लिये अन्न और पूर्ण घटादि की संख्या का निर्धारण करके ब्राह्मण को प्रदान करे। पिण्डदान देने के पश्चात् यथाशक्ति वर्षभर के लिये उपयोगी समस्त सामग्री दान में दे । ऐसा होने पर मृत व्यक्ति दिव्य देह धारण करके विमान द्वारा सुखपूर्वक यमलोक चला जाता है।

जीवमाने च पितरि न हि पुत्त्रे सपिण्डता ।

स्त्रीणां सपिण्डनं नास्ति तथा भर्तरि जीवति ॥ २,२६.३७ ॥

हुताशं या समारूढा चतुर्थेऽह्नि पतिव्रता ।

तस्या भर्तृदिने कार्यं वृषोत्सर्गादिकं च यत् ॥ २,२६.३८ ॥

पुत्त्रिका पतिगोत्रा स्यादधस्तात्पुत्रजन्मनः ।

पुत्रोत्पत्तेः परस्तात्सा पितृगोत्रं व्रजेत्पुनः ॥ २,२६.३९ ॥

पतिपत्न्योः सदैकत्वं हुताशं याधिरोहति ।

पुत्रेणैव पृथक्श्राद्धं क्षयाख्ये तस्य वासरे ॥ २,२६.४० ॥

अपुत्त्रौ चेन्मृतौ स्यातामेकचित्यां समेऽहनि ।

पृथक्श्राद्धानि कुर्वीत सापिड्यं पतिना सह ॥ २,२६.४१ ॥

पृथक्पृथक्च पिण्डेन दम्पती पतिना सह ।

न लिप्यते महादोषैरेतत्सत्यं वचो मम ॥ २,२६.४२ ॥

एकचित्यां समारूढौ दम्पती निधनं गतौ ।

एकपाकं प्रकुर्वीत पिण्डान्दद्यात्पृथक्पृथक् ॥ २,२६.४३ ॥

एकादशे वृषोत्सर्गं प्रेतश्राद्धानि षोडश ।

घटादिपददानानि महादानानि यानि च ।

वर्षं यावत्पृथक्कुर्यात्प्रेतस्तृप्तिं व्रजेच्चिरम् ॥ २,२६.४४ ॥

पिता के जीवित रहने के कारण मृत पुत्र का पिता के साथ सपिण्डीकरण नहीं हो सकता अर्थात् उसका सपिण्डीकरण पितामह आदि के साथ होगा ऐसे ही पति के जीवित होने पर स्त्रियों का सपिण्डीकरण उसकी श्वश्रू आदि के साथ होगा।* पति की मृत्यु हो जाने के बाद चौथे दिन जो पतिव्रता स्त्री अपने शरीर को अग्नि में समर्पित कर देती है, उसका वृषोत्सर्गादि कर्म पति की क्रिया के ही दिन करना चाहिये। पुत्रि का पुत्रोत्पत्ति के पूर्व पति के गोत्रवाली होती है। पुत्रोत्पत्ति के बाद वह पुन: पिता के गोत्र में जाती है। पुत्रिका उस कन्या को कहते हैं, जिस कन्या का पिता विवाह के समय जामाता से यह तय कर लेता है कि इस कन्या से जो पुत्र पैदा होगा वह मेरा पुत्र होगा । यदि स्त्री अपने पति के साथ अग्नि में आरोहण करती है तो उसकी उसके पति के साथ समस्त और्ध्वदैहिक क्रिया करनी चाहिये, किंतु क्षय तिथि में पुत्र को उसका श्राद्ध पृथक् रूप में करना चाहिये । यदि पति-पत्नी पुत्ररहित हैं और वे दोनों एक ही दिन मर जाते हैं तथा उनका दाह संस्कार एक ही चिता पर होता है तो उन दोनों के श्राद्धों को पृथक्-पृथक् करना चाहिये, किंतु पत्नी का सपिण्डीकरण पति के साथ ही होगा । यदि पति के साथ पत्नी का पिण्डदान पृथक्- पृथक् होता है तो उस पिण्डदान से वह दम्पति पापलिप्त नहीं होता, यह मेरा सत्य वचन है। यदि पति - पत्नी दोनों का एक ही चिता पर दाह संस्कार होता है तो उन दोनों के लिये पाक एक ही साथ बनाया जाय, किंतु पिण्डदान पृथक्-पृथक् होना चाहिये । एकादशाह को वृषोत्सर्ग, षोडश प्रेतश्राद्ध, घटादि - दान, पददान और जो महादान हैं उन्हें पति-पत्नी का वर्षपर्यन्त पृथक्-पृथक् ही करना चाहिये। ऐसा करने से प्रेत को चिरकालीन संतृप्ति प्राप्त होती है।

*पिता के जीवित रहने पर पुत्र के मर जाने से पुत्र का सपिण्डीकरण पिता के साथ न करके पितामह के साथ करने का विधान है। इसी प्रकार पति के जीवित रहने पर मृत पत्नी का पति के साथ सपिण्डीकरण न करके उसके श्वश्रू, परश्वश्रू और वृद्ध परश्वश्रू (सास, परसास, वृद्धपरसास ) के साथ सपिण्डीकरण करना चाहिये। इसके समर्थन में ये वाक्य द्रष्टव्य हैं-

अपुत्रायां मृतायां तु पतिः कुर्यात् सपिण्डनम् ।

श्वश्वादिभिः सहैवास्या: सपिण्डीकरणं भवेत् ॥ ( पैठीनसि)

अपुत्रायां मृतायां तु पतिः कुर्यात् सपिण्डनम् ।

श्वश्रूमात्रादिभिः सार्धमेव धर्मेण युज्यते ॥ (व्यास)

एकगोत्रे मृतानां तु स्त्रिया वा पुरुषस्य वा ।

स्थण्डिलं चैकतः कुर्याद्धोमं कुर्यात्पृथक्पृथक् ॥ २,२६.४५ ॥

एकादशेऽह्नि यच्छ्राद्धं पृथक्पिण्डाश्च भोजनम् ।

पाकैरेन पतिस्त्रीणामन्येषां च विगर्हितम् ॥ २,२६.४६ ॥

एकेनैव तु पाकेन श्राद्धानि कुरुते सुतः ।

एकं तु विकिरं कुर्यात्पिण्डान्दद्यद्बहूनपि ।

तीर्थे चापरपक्षे वा चन्द्रसूर्यग्रहेऽपि वा ॥ २,२६.४७ ॥

एक गोत्र सम्बन्धित एक साथ मरे हुए स्त्री अथवा पुरुष से सम्बद्ध-कृत्य में आहुति की वेदी एक ही होनी चाहिये। किंतु होम पृथक् पृथक् होना चाहिये। पति एवं पत्नी का एक साथ मरण होने पर उनका एकादशाह का श्राद्ध एवं उनके निमित्त पिण्डदान, भोजन आदि पृथक्-पृथक् होगा, पर पाक की व्यवस्था एक ही होगी - यह विधान केवल पति-पत्नी के एक साथ मरण में ही है अन्य किसी के मरण में ऐसा विधान गर्हित है । पुत्र माता-पिता के लिये एक ही पाक से यथाविधान श्राद्ध करता है । विकिरान्नदान एक और पिण्डदान पृथक्-पृथक् करने चाहिये। इसी विधि का पालन तीर्थ, पितृपक्ष अथवा चन्द्र और सूर्य ग्रहण के अवसर में भी होना चाहिये ।

नारी भर्तारमासाद्य कुणपं दहते यदा ।

अग्निर्दहति गात्राणि आत्मानं नैव पीडयेत् ॥ २,२६.४८ ॥

दह्यते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मलम् ।

तथा नारी दहेद्देहं हुताशे ह्यमृतोपमे ॥ २,२६.४९ ॥

दिव्यादौ दिव्यदेहस्तु शुद्धो भवति पूरुषः ।

तप्ततैलेन लोहेन वह्निना नैव दह्यते ॥ २,२६.५० ॥

तथा सा पतिसंयुक्ता दह्यते न कदाचन ।

अन्तरात्मा मृते तस्मिन्मृतोऽप्येकत्वमागतः ॥ २,२६.५१ ॥

जब स्त्री अपने मृत पति के साथ अग्नि में जलती है तो अग्नि उसके शरीर को अवश्य जला देती है, किंतु आत्मा को कष्ट नहीं दे पाती है, जिस प्रकार अग्नि में प्रज्वलित धातुओं का मात्र मल ही जलता है, उसी प्रकार अमृत समान अग्नि में प्रविष्ट हुई नारी का शरीर दग्ध होता है। पुरुष शुद्ध होकर दिव्य देहधारी हो जाता है, जिसके कारण वह खौलते हुए तेल, दहकते हुए लौह तथा अग्नि से कदापि नहीं जलता, इसी प्रकार पति के साथ चिता में जली हुई स्त्री को कभी जला हुआ नहीं मानना चाहिये; क्योंकि उसकी अन्तरात्मा मरे हुए पति की अन्तरात्मा से मिलकर एक हो जाती है ।

भर्तृसंगं परित्यज्य अन्यत्र म्रियते यदि ।

भर्तृलोकं न सा याति यावदाभूतसंप्लवम् ॥ २,२६.५२ ॥

लक्ष्मीयुतान्परित्यज्य मातरं पितरं तथा ।

मृतं पतिमनुव्रज्य सा चिरं सुखमेधते ॥ २,२६.५३ ॥

दिव्यवर्षप्रमाणेन तिस्रः कोट्योर्ऽद्धकोटयः ।

तावत्कालं वसेत्स्वर्गे नक्षत्रैः सह सर्वदा ॥ २,२६.५४ ॥

यदि स्त्री पति का साथ छोड़ करके अन्यत्र अपने प्राणों का परित्याग करती है तो वह पतिलोक में तबतक नहीं पहुँच पाती, जबतक प्रलय नहीं हो जाता । धन- दौलत से युक्त माता-पिता को छोड़कर जो स्त्री अपने मरे हुए पति का अनुगमन करती है, वह चिरकालतक सुखोपभोग करती है। वह पतिसंयुक्ता नारी उस स्वर्ग में साढ़े तीन करोड़ दिव्य वर्षों तक नक्षत्रों के साथ स्वर्ग में रहकर अन्त में महती प्रीति प्राप्त करके ऐश्वर्यसम्पन्न कुल में उत्पन्न होती है।

तदन्ते चरते लोके कुले भवति भोगिनाम् ।

सा हि लब्धमहाप्रीतिर्भर्त्रा सह पतिव्रता ॥ २,२६.५५ ॥

एवं न कुरुते नारी धर्मोढा पतिसंगमम् ।

जन्मजन्मनि दुः खार्तादुः शीलाप्रियवादिनी ॥ २,२६.५६ ॥

वल्गुली गृहसोधा वा गोधा वा द्विमुखी भवेत् ।

स्वभर्तारं परित्यज्य परपुंसोनुवर्तिनी ॥ २,२६.५७ ॥

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन स्वपतिं स्त्री निषेवते ।

मनसा कर्मणा वाचा मृतं जीवन्तमेव वा ॥ २,२६.५८ ॥

जीवमाने मृते वापि किल्बिषं कुरुते तु या ।

स च वैधव्यमाप्नोति जन्मजन्मनि दुर्भगा ॥ २,२६.५९ ॥

यद्देवेभ्यो यत्पितृभ्यः श्रद्धयैव प्रदीयते ।

तत्फलं भर्तृपूजातः कुर्याद्भर्त्रर्चनं ततः ॥ २,२६.६० ॥

धर्मपूर्वक विवाहिता जो स्त्री यदि पति-संगति नहीं करती है, तो जन्म-जन्मान्तर तक दुखी, दुःशीला और अप्रियवादिनी होती है। जो स्त्री अपने पति को छोड़कर परपुरुष की अनुगामिनी हो जाती है, वह अन्य जन्मों में चमगादड़ी, छिपकली, गोहनी अथवा द्विमुखी सर्पिणी होती है। अतः स्त्री को मन-वाणी और कर्म इन सभी के द्वारा प्रयत्नपूर्वक अपने मृत या जीवित पति की सेवा करनी चाहिये। पति के जीवित रहते हुए अथवा उसके मरने पर जो स्त्री व्यभिचार करती है, वह अनेक जन्मों तक वैधव्य जीवन प्राप्त करती है और दुर्भाग्य उसका साथ नहीं छोड़ता । देवता और पितरों को श्रद्धापूर्वक जो कुछ दिया जाता है, उसका समग्र फल उसे पति की पूजा करने से ही प्राप्त हो जाता है, इसलिये स्त्री को पति की ही पूजा करनी चाहिये ।

एवं कृते खगश्रेष्ठ पितृलोके चिरं वसेत् ।

यावदादित्यचन्द्रौ च तावद्देवसमा दिवि ॥ २,२६.६१ ॥

पुनश्चिरायुषो भूत्त्वा जायन्ते विपुले कुले ।

पतिव्रता यथा नारी भर्तृदुःखं न विन्दति ॥ २,२६.६२ ॥

हे पक्षिश्रेष्ठ! पातिव्रत्य धर्मरूप सत्कर्म का पालन करने पर स्त्री चिरकाल तक पतिलोक में निवास करती है। जबतक सूर्य और चन्द्र विद्यमान हैं, तबतक वह स्वर्ग में देवतुल्य बनी रहती है। उसके बाद दीर्घायु प्राप्त करके इस लोक में वैभवशाली कुल में जन्म लेती है तथा कभी भी पति-वियोग का दुःख नहीं झेलती ।

सर्वमेतद्धि कथितं मया तव खगेश्वर ।

विशेषं कथयिष्यामि मृतस्यैव सुखप्रदम् ॥ २,२६.६३ ॥

द्वादशाहे कृतं सर्वं वर्षं यावत्सपिण्डनम् ।

पुनः कुर्यात्सदा नित्यं घटान्नं प्रतिमासिकम् ॥ २,२६.६४ ॥

कृतस्य करणं नास्ति प्रेतकार्यादृते खग ।

यः करोति नरः कश्चित्कृत्पूर्वं विनश्यति ॥ २,२६.६५ ॥

मृतस्यैव पुनः कुर्यात्प्रेतोऽक्षय्यमवाप्नुयात् ।

प्रतिमासं घटा देया सोदना जलपूरिताः ॥ २,२६.६६ ॥

अर्वाक्च वृद्धेः करणाच्च तार्क्ष्य सपिण्डनं यः कुरुते हि पुत्रः ।

तथापि मासं प्रतिपिण्डमेकमन्नं च कुम्भं सजलं च दद्यात् ॥ २,२६.६७ ॥

हे खगराज ! मैंने यह सब तुम्हें बता दिया। अब मृत प्राणी को सुख प्रदान करनेवाले विशेष कर्म को बताऊँगा । मृत्यु के बाद द्वादशाह के दिन यथाविधि सपिण्डनादि समस्त कार्य करके वर्ष पर्यन्त प्रतिदिन जलपूर्ण घट और अन्न का दान एवं मासिक श्राद्ध करना चाहिये । हे पक्षिन् ! प्रेतकार्य को छोड़कर अन्य किये हुए कार्य की आवृत्ति नहीं होनी चाहिये । * यदि कोई मनुष्य अन्य कर्म करता है तो पूर्व का किया गया कार्य विनष्ट हो जाता है। मृतक के द्वादशाह के दिन विहित कृत्य वर्षपर्यन्त पुनः करने चाहिये, इससे प्रेत अक्षयसुख प्राप्त करता है। प्रतिमास जल से परिपूर्ण सान्नोदक घट का दान करना चाहिये । हे तार्क्ष्य ! वृद्धिश्राद्ध के कारण जो पुत्र अपने पिता का सपिण्डीकरण श्राद्ध कर देता है तो भी उसे प्रत्येक मास में एक पिण्ड, अन्न और जल से पूर्ण कुम्भ का दान करना चाहिये ।

* उत्तम षोडशी आदि जो प्रेतोद्देश्यक कार्य हैं सपिण्डन के बाद भी इनकी पुनरावृत्ति ऊनमासिक आदि श्राद्ध के द्वारा वर्ष पर्यन्त करना चाहिये। परंतु पितरों के उद्देश्य से किये गये कर्म की पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिये।

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डेद्वितीयांशे धर्मकाण्डे श्रीकृष्णगरुडसंवादे प्रेतकल्पे सपिण्डननिरूपणं नाम षड्विंशोऽध्यायः

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 27

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