श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय २७
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
–
प्रेतकल्प अध्याय २७ बभ्रुवाहन की कथा का वर्णन है।
श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) सप्तविंशतितमोऽध्यायः
Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter
27
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
–
प्रेतकल्प सत्ताईसवाँ अध्याय
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय २७
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय २७ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित
गरुडपुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः
२७
तार्क्ष्य उवाच ।
कथं प्रेता वसन्त्यत्र कीदृग्रूपा
भवन्ति ते ।
महाप्रेताः पिशाचाश्च कैःकैः
कर्मफलैर्विभो ।
सर्वेषामनुकम्पार्थं ब्रूहि मे
मधुसूदन ॥ २,२७.१ ॥
प्रेतत्वान्मुच्यते येन दानेन च
शुभे न च ।
तन्मे कथय देवेश मम चेदिच्छसि
प्रियम् ॥ २,२७.२ ॥
तार्क्ष्य ने कहा- हे विभो ! आपने
जिन प्रेतों का वर्णन किया है, वे इस धरती पर
कैसे निवास करते हैं; उनके रूप किस प्रकार के होते हैं,
वे कौन- कौन-से कर्म-फलों के द्वारा महाप्रेत और पिशाच जाते हैं और
किस शुभ दान से प्राणी की प्रेतयोनि छूट जाती है ? हे मधुसूदन
! समस्त जगत्के कल्याणार्थ मुझको यह सब बताने की कृपा करें।
श्रीकृष्ण उवाच ।
साधु पृष्टं त्वया तार्क्ष्य
मानुषाणां हिताय वै ।
शृणुचावहितो भूत्वा यद्वच्मि
प्रेतलक्षणम् ॥ २,२७.३ ॥
गुह्यद्गुह्यतरं ह्येतन्नाख्येयं
यस्य कस्यचित् ।
भक्तस्त्वं हि महाबाहो तेन ते कथयाम्यहम्
॥ २,२७.४ ॥
श्रीकृष्ण ने कहा- हे तार्क्ष्य !
तुमने मानव- कल्याण के लिये बहुत अच्छी बात पूछी। प्रेत का लक्षण मैं कह रहा हूँ,
उसे सावधान होकर सुनो। यह अत्यन्त गुप्त है । जिस किसी के सामने
इसको नहीं कहना चाहिये। तुम मेरे भक्त हो, इसलिये मैं
तुम्हारे सामने इसे कह रहा हूँ ।
पुरा त्रेतायुगे तात
राजासीद्बभ्रुवाहनः ।
महोदयपुरे रम्ये धर्मनिष्ठो महाबलः
॥ २,२७.५ ॥
यज्वा दानपतिः श्रीमान्ब्रह्मण्यः
साधुसंमतः ।
शीलाचारगुणोपेतो दयादाक्षिण्यसंयुतः
॥ २,२७.६ ॥
प्रजाः पालयते नित्यं पुत्रानिव
महाबलः ।
क्षत्त्रधर्मरतो नित्यं स
दण्ड्यान्दण्डयन्नृपः ॥ २,२७.७ ॥
स कदाचिन्महाबाहुः ससैन्योमृगयां
गतः ।
वनं विवेश गहनं नानावृक्षसमन्वितम्
॥ २,२७.८ ॥
शार्दूलशतसंजुष्टं
नानापक्षिनिनादितम् ।
वनमध्ये तदा राजा मृगं दूरादपश्यत ॥
२,२७.९ ॥
तेन विद्धो मृगोऽतीव बाणेन सुदृढेन
च ।
बाणमादाय तं तस्य स वनेऽदर्शनं ययौ
॥ २,२७.१० ॥
कक्षे तच्छोणितस्त्रावात्स
राजानुजगाम तम् ।
ततो मृगप्रसङ्गेन वनमन्यद्विवेश सः
॥ २,२७.११ ॥
हे पुत्र गरुड ! पुराने समय में
बभ्रुवाहन नाम का एक राजा था, जो महोदय
(कान्यकुब्ज) नामक सुन्दर नगर में रहता था । वह धर्मनिष्ठ, महापराक्रमी,
यज्ञपरायण, दानशील, लक्ष्मीवान्,
ब्राह्मणहितकारी, साधुसम्मत, सुशील, सदाचारी तथा दया- दाक्षिण्यादि सद्गुणों से
संयुत था। वह महाबली राजा सदैव अपनी प्रजा का पालन पुत्रवत् करता तथा क्षत्रिय-
धर्म का सम्यक् पालन करते हुए सदैव अपराधियों को दण्डित किया करता। कभी विशाल
भुजाओं वाले उस राजा ने अपनी सेना के सहित शिकार करने के लिये नाना प्रकार के
वृक्षों से भरे हुए सैकड़ों सिंहों से परिव्याप्त, विभिन्न
प्रकार के पक्षियों के कलरव से निनादित एक घनघोर वन में प्रवेश किया। वन के बीच में
जाकर राजा ने दूर से ही एक मृग को देखा और उसके ऊपर अपने बाण को छोड़ दिया। उसके
द्वारा छोड़े गये उस कठिन बाण से वह मृग अत्यन्त आहत हो उठा और शरीर में बिंधे हुए
उस बाण सहित वह मृग वहाँ से भागकर वन में लुप्त हो गया, किंतु
उसकी काँख से बह रहे रक्त के चिह्नों से राजा ने उसका पीछा किया। इस प्रकार उसके
पीछे-पीछे वह राजा दूसरे वन में जा पहुँचा ।
क्षुत्क्षामकण्ठो नृपतिः
श्रमसन्तापमूर्छितः ।
जलस्थानं समासाद्य साश्व एवावगाहत ॥
२,२७.१२ ॥
पीत्वा तदु दकं शीतं
पद्मगन्धाधिवासितम् ।
तत उत्तीर्य
सलिलाद्विमलाद्बभ्रुवाहनः ॥ २,२७.१३
॥
न्यग्रोधवृक्षमासाद्य शीतच्छायं
मनोहरम् ।
महाविटपिनं हृद्यं
पक्षिसङ्घातनादितम् ॥ २,२७.१४ ॥
वनस्य तस्य सर्वस्य
केतुभूतमिवोच्छ्रितम् ।
तं महातरुमासाद्य निषसाद महीपतिः ॥
२,२७.१५ ॥
अथ प्रेतं ददर्शासौ
क्षुत्तृष्णाव्याकुलेन्द्रियम् ।
उत्कचं मलिनं कुब्जं (रूक्षं)
निर्मांसं भीमदर्शनम् ॥ २,२७.१६ ॥
स्नायुबद्धास्थिचरणं धावमानमितस्ततः
।
अन्यैश्च बहुभिः प्रेतैः
समन्तात्परिवारितम् ॥ २,२७.१७ ॥
तं दृष्ट्वा विकृतं घोरं विस्मितो
बभ्रुवाहनः ।
प्रेतोऽपि दृष्ट्वा तां
घोरामटवीमागतं नृपम् ॥ २,२७.१८ ॥
तदा हृष्टमना भूत्वा
तस्यान्तिकमुपागतः ।
अब्रवीत्स तदा तार्क्ष्य प्रेतराजो
नृपं वचः ॥ २,२७.१९ ॥
भूख और प्यास से उसका कण्ठ सूख रहा
था तथा परिश्रम करने के कारण अत्यन्त थकान का अनुभव करता हुआ वह मूर्च्छित-सा हो
गया था;
उसको वहाँ एक जलाशय दिखायी दिया। जलाशय देखकर घोड़े के सहित उसने
वहाँ स्नान किया और कमलपराग से सुवासित शीतल जल का पान किया। तत्पश्चात् उस जल से
निकलकर राजा बभ्रुवाहन विशाल वटवृक्ष की मनमोहक शीतल छाया के नीचे बैठ गया,
जो पक्षियों के कलरव से निनादित तथा उस समूचे वन की पताका के रूप में
अवस्थित था । इसके बाद उस राजा ने वहाँ पर भूख-प्यास से व्याकुल इन्द्रियोंवाले एक
प्रेत को देखा, जिसके सिर की केशराशि ऊपर की ओर खड़ी थी ।
उसका शरीर मलिन, कुब्जा (रूक्ष), मांसरहित
और देखने में महाभयंकर लगता था । मात्र शरीर में शेष स्नायु – तन्त्रिकाओं से
जुड़ी हुई हड्डियोंवाला वह अपने पैरों से इधर-उधर दौड़ रहा था और अन्य बहुत से
प्रेत उसको चारों ओर से घेरे हुए थे । तार्क्ष्य ! उस विकृत प्रेत को देखकर
बभ्रुवाहन विस्मित हो गया और उस प्रेत को भी महाभयंकर वन में आये हुए राजा को
देखकर कम आश्चर्य नहीं हुआ । प्रसन्नचित्त होकर प्रेत ने उस राजा के पास जाकर कहा-
प्रेतभावो मया त्यक्तः प्राप्तोऽस्मि
परमां गतिम् ।
त्वत्संयोगान्महाबाहो नास्तिधन्यतरो
मम ॥ २,२७.२० ॥
प्रेत ने कहा- हे महाबाहो ! आज आपके
दर्शन का यह संयोग प्राप्त कर मैंने प्रेतभाव को त्यागकर परम गति प्राप्त कर ली है
। मुझसे बढ़कर धन्य कोई नहीं है।
नृपतिरुवाच ।
कृष्णवर्णः करालास्यस्त्वं प्रेत इव
लक्ष्यसे ।
कथयस्व मम प्रीत्या यथैवं चासि
तत्त्वतः ॥ २,२७.२१ ॥
तथा पृष्टः स वै राज्ञा प्रोवाच
सकलं स्वकम् ॥ २,२७.२२ ॥
राजा ने कहा—हे प्रेत! तुम मुझे कृष्णवर्णवाले भयंकर प्रेत के समान दिखायी दे रहे हो।
तुम्हें इस प्रकार का स्वरूप जैसे प्राप्त हुआ है वैसा मुझे बताओ ।
राजा के ऐसा कहने पर उस प्रेत ने
अपने सम्पूर्ण जीवनवृत्त को इस प्रकार कहा-
प्रेत उवाच ।
कथयामि नृपश्रेष्ठ सर्वमेवादितस्तव
।
प्रेतत्वे कारणं श्रुत्वा दयां
कर्तुं ममार्हसि ॥ २,२७.२३ ॥
वैदिशं नाम नगरं
सर्वसम्पत्समन्वितम् ।
नानाजनपदाकीर्णं नानारत्नसमाकुलम् ।
नानापुण्यसमायुक्तं
नानावृक्षसमाकुलम् ॥ २,२७.२४ ॥
तत्राहं न्यवसं भूयो देवार्चनरतः
सदा ।
वैश्यो जात्या सुदेवोऽहं नाम्ना
विदितमस्तु ते ॥ २,२७.२५ ॥
हव्येन तर्पिता देवाः कव्येन
पितरस्तथा ।
विविधैर्दानयोगैश्च विप्राः
सन्तर्पिता मया ॥ २,२७.२६ ॥
आवाहाश्च विवाहाश्च मया वै
सुनिवेशिताः ।
दीनानाथविशिष्टेभ्यो मया दत्तमनेकधा
॥ २,२७.२७ ॥
तत्सर्वं विफलं तात मम दैवादुपागतम्
।
यथा मे निष्फलं जातं सुकृतं
तद्वदामि ते ॥ २,२७.२८ ॥
प्रेत ने कहा –
हे नृपश्रेष्ठ ! मैं अपने सम्पूर्ण जीवन-वृत्त का विवरण आपको आदि से
सुना रहा हूँ, मेरे इस प्रेतत्व का कारण सुन करके आप दया
अवश्य करेंगे। हे राजन् ! नाना रत्नों से युक्त तथा अनेक जनपदों में व्याप्त समस्त
सम्पदाओं से भरा हुआ, विभिन्न पुण्यों से प्रख्यात अनेकानेक
वृक्षों से आच्छादित विदिशा नाम का एक नगर है। मैं वहीं पर निरन्तर देवपूजा में
अनुरक्त रहकर निवास करता था । उस जन्म में मेरी जाति वैश्य की थी और नाम मेरा
सुदेव था । मैं उस जन्म में हव्य से देवताओं को, कव्य से
पितरों को तथा नाना प्रकार के दान से ब्राह्मणों को सदैव संतृप्त किया करता था।
मेरे द्वारा दीन-हीन, अनाथ और विशिष्ट जनों की अनेक प्रकार से
सहायता की गयी थी, किंतु दुर्भाग्यवश वह सब कुछ मेरा निष्फल
हो गया। मेरे वे पुण्य जिस प्रकार से विफल हुए, मैं आपको वह
सुनाता हूँ ।
न मेऽस्ति सन्ततिस्तात न सुहृन्न च
बान्धवः ।
न च मित्रं हि मे तादृग्यः कुर्यादौर्ध्वदैहिकम्
॥ २,२७.२९ ॥
प्रेतत्वं सुस्थिरं तेन मम जातं
नृपोत्तम ।
एकादशं त्रिपक्षं च
षाण्मासिकमथाब्दिकम् ।
प्रतिमास्यानि चान्यानि एवं
श्राद्धानि षोडश ॥ २,२७.३० ॥
यस्यैतानि न दीयन्ते
प्रेतश्राद्धानि भूपते ।
प्रेतत्वं सुस्थिरं तस्य दत्तैः श्राद्धशतैरपि
॥ २,२७.३१ ॥
एवं ज्ञात्वा महाराज
प्रेतत्वादुद्धरस्व माम् ।
वर्णानां चापि सर्वेषां राजा
बन्धुरिहोच्यते ॥ २,२७.३२ ॥
तन्मां तारय राजेन्द्र मणिरत्नं
ददामि ते ।
यथा मम शुभावाप्तिर्भवेन्नृपवरोत्तम
॥ २,२७.३३ ॥
तथा कार्यं महाबाहो कृपा यदि
मयीष्यते ।
आत्मनश्च कुरु क्षिप्रं
सर्वमेवौर्ध्वेदैहिकम् ॥ २,२७.३४
॥
हे तात! पूर्वजन्म में न मेरे कोई
संतान हुई, न कोई ऐसा बन्धु-बान्धव या
मित्र ही रहा जो मेरी और्ध्वदैहिक क्रिया सम्पन्न करता । हे नृपोत्तम ! उसी के
कारण मुझे यह प्रेतयोनि प्राप्त हुई है। हे राजन् ! एकादशाह, त्रिपक्ष, षाण्मासिक, सांवत्सरिक,
प्रतिमासिक और इसी प्रकार के अन्य जो षोडश श्राद्ध हैं, वे जिस प्रेत के लिये सम्पन्न नहीं किये जाते हैं, उस
प्रेत की प्रेतयोनि बाद में स्थिरता को प्राप्त कर लेती है, भले
ही बाद में क्यों न उसके लिये सैकड़ों श्राद्ध किये जायँ । हे महाराज ! ऐसा जानकर
आप मेरा इस प्रेतयोनि से उद्धार करें। राजा को सभी वर्णों का बन्धु कहा जाता है।
मैं आपको एक मणिरत्न दे रहा हूँ । हे राजेन्द्र ! इस नरक से मुझे उबार लें। हे
नृपश्रेष्ठ! हे महाबाहो ! यदि आपकी मेरे ऊपर कृपा है तो जिस प्रकार से मुझे शुभ
गति प्राप्त हो मेरे लिये वही उपाय करें और आप अपना भी समस्त प्रकार से
और्ध्वदैहिक कार्य करें।
नृपतिरुवाच ।
कथं प्रेता भवन्तीह
कृतैरप्यौर्ध्वदैहिकैः ।
पिशाचाश्च भवन्तीह कर्मभिः कैश्च
तद्वद ॥ २,२७.३५ ॥
राजा ने कहा- हे प्रेत !
और्ध्वदैहिक कर्म करने पर भी प्राणी कैसे प्रेत हो जाते हैं ?
किन कर्मों को करने से उन्हें पिशाच होना पड़ता है ? तुम उसे भी बताओ ।
प्रेत उवाच ।
देवद्रव्यं च ब्रह्मस्वं
स्त्रीबालधनसञ्चयम् ।
ये हरन्ति नृपश्रेष्ठ प्रेतयोनिं
व्रजन्ति ते ॥ २,२७.३६ ॥
तापसीं च सगोत्रां च अगम्यां ये
भजन्ति हि ।
भवन्ति ते महाप्रेता अम्बुजानि
हरन्ति ये ॥ २,२७.३७ ॥
प्रवालवज्रहर्तारो ये च
वस्त्रापहारकाः ।
तथा हिरण्यहर्तारः
संयुगेऽसन्मुखागताः ॥ २,२७.३८ ॥
कृतघ्ना नास्तिका रौद्रास्तथा
साहसिका नराः ।
पञ्चयज्ञविनिर्मुक्ता महादानरताश्च
ये ॥ २,२७.३९ ॥
स्वामिद्रोहकरा मित्रब्राह्मद्रोहकराश्च
ये ।
तीर्थपापकरा राजञ्जायन्ते
प्रेतयोनयः ।
एवमाद्या महाराज जायन्ते प्रेतयोनयः
॥ २,२७.४० ॥
प्रेत ने कहा- हे नृपश्रेष्ठ ! जो
लोग देवद्रव्य, ब्राह्मण-द्रव्य और स्त्री एवं
बालकों के संचित धन का अपहरण करते हैं, वे प्रेतयोनि प्राप्त
करते हैं। जिनके द्वारा तपस्विनी, सगोत्रा एवं अगम्या स्त्री
का भोग किया जाता है, जो कमलपुष्पों की चोरी करते हैं,
वे महाप्रेत होते हैं। हे राजन्! जो हीरा - मूँगा - सोना और वस्त्र के
अपहर्ता हैं, जो युद्ध में पीठ दिखाते हैं, जो कृतघ्न, नास्तिक, क्रूर तथा
दुःसाहसी हैं, जो पञ्चयज्ञ नहीं करते, किंतु
बहुत बड़े-बड़े दान देने में अनुरक्त रहते हैं, जो अपने
स्वामी से वैर करते हैं, जो मित्र और ब्राह्मणद्रोही हैं,
जो तीर्थ में जाकर पापकर्म करते हैं, वे
प्रेतयोनि में जन्म लेते हैं। हे महाराज ! इस प्रकार इन सभी प्राणियों का जन्म प्रेतयोनि
में होता है।
राजोवाच ।
कथं मुक्ता भवन्तीह प्रेतत्वात्त्वं
च तेऽपि च ।
कथं चापि मया
कार्यमौर्ध्वदैहिकमात्मनः ।
विधिना केन तत्कार्यं
सर्वमेतद्वदस्व मे ॥ २,२७.४१ ॥
राजा ने कहा- हे प्रेतराज ! इस
प्रेतत्व से तुम्हें और तुम्हारे साथियों को कैसे मुक्ति प्राप्त हो सकती है ?
मैं किस प्रकार से अपना और्ध्वदैहिक कर्म कर सकता हूँ? वह कार्य किस विधान से सम्भव है ? यह सब कुछ मुझे
बताओ।
प्रेत उवाच ।
शृणु राजेन्द्र संक्षेपाद्विधिं
नारायणात्मकम् ।
सच्छास्त्रश्रवणं विष्णोः पूजा
सज्जनसंगतिः ॥ २,२७.४२ ॥
प्रेतयोनिविनाशाय भवन्तीति मया
श्रुतम् ।
अतो वक्ष्यामि ते विष्णुपूजां
प्रेतत्वनाशिनीम् ॥ २,२७.४३ ॥
प्रेत ने कहा- हे राजेन्द्र !
संक्षेप में नारायणबलि की विधि सुनें। मैंने सुना है कि सद्ग्रन्थों का श्रवण,
विष्णु का पूजन तथा सज्जनों का साथ प्रेतयोनि को विनष्ट करने में
समर्थ होता है। अतः मैं आपको प्रेतत्वभाव को नष्ट करनेवाली विष्णुपूजा का विधान
बताऊँगा ।
सुवर्णद्वयमाहृत्य मूर्तिं भूप
प्रकल्पयेत् ।
नारायणस्य देवस्य सर्वाभरणभूषिताम्
॥ २,२७.४४ ॥
पीतवस्त्रयुगाच्छन्नां
चन्दनागुरुचर्चिताम् ।
स्नापयेद्विविधैस्तोयैरधिवास्य
यजेत्ततः ॥ २,२७.४५ ॥
पूर्वे तु श्रीधरं देवं दक्षिणे
मधुसूदनम् ।
पश्चिमे वानमं देवमुत्तरे च गदाधरम्
॥ २,२७.४६ ॥
मध्ये पितामहं पूज्य तथा देवं
महेश्वरम् ।
पूजयेच्च विधानेन गन्धपुष्पादिभिः
पृथक् ॥ २,२७.४७ ॥
ततः प्रदक्षिणीकृत्य अग्नौ
सन्तर्प्य देवताः ।
घृतेन दध्ना क्षीरेण
विश्वान्देवांस्तथा नृप ॥ २,२७.४८
॥
ततः स्नातो विनीतात्मा यजमानः
समाहितः ।
नारायणाग्रे
विधिवत्स्वक्रियामौर्ध्वदैहिकीम् ॥ २,२७.४९
॥
आरभेत विनीतात्मा क्रोधलोभविवर्जितः
।
श्राद्धानि कुर्यात्सर्वाणि
वृषस्योत्सर्जनं तथा ॥ २,२७.५० ॥
त्रयोदशानां विप्राणां
वस्त्रच्छत्राण्युपानहौ ।
अङ्गुलीयकमुक्तानि भाजनासनभोजनैः ॥
२,२७.५१ ॥
सान्नाश्च सोदका देया घटाः
प्रेतहिताय वै ।
शय्यादानमथो दत्त्वा घटं प्रेतस्य
निर्वपेत् ॥ २,२७.५२ ॥
नारायणेति सन्नाम संपुटस्थं
समर्चयेत् ।
एवं कृत्वाथ विधिवच्छुभाशुभफलं
लभेत् ॥ २,२७.५३ ॥
हे राजन्! दो सुवर्ण* ले करके उससे भगवान् नारायण की सभी आभूषणों से
विभूषित प्रतिमा का निर्माण करवाना चाहिये । मूर्ति को दो पीले वस्त्रों से
आच्छादित करके चन्दन तथा अगुरु से सुवासित करे। तदनन्तर नाना तीर्थों से लाये गये
पवित्र जल के द्वारा सविधि स्नान कराकर तथा अधिवासित कर पूर्व में भगवान् श्रीधर,
दक्षिण में भगवान् मधुसूदन, पश्चिम में भगवान्
वामन, उत्तर में भगवान् गदाधर, मध्यभाग
में पितामह ब्रह्मा और भगवान् महेश्वर की विधिवत् पूजा गन्ध-पुष्पादि से पृथक्
पृथक् रूप में की जाय । तत्पश्चात् उस देवमण्डल की प्रदक्षिणा करके अग्नि में
देवताओं की संतुष्टि के लिये आहुति दे । घृत, दही और दूध से
विश्वेदेवों को संतृप्त करे। उसके बाद यजमान फिर से स्नान करके विनम्रतापूर्वक
एकाग्रचित्त से भगवान् नारायण के सामने विधिवत् अपनी और्ध्वदैहिक क्रिया सम्पन्न
करे । विनीतभाव से क्रोध एवं लोभरहित होकर कार्य आरम्भ करना चाहिये। इस अवसर पर
सभी श्राद्ध और वृषोत्सर्ग करने चाहिये । तेरह ब्राह्मणों को वस्त्र, छत्र, जूता, मुक्तामणिजटित
अँगूठी, पात्र, आसन और भोजन देकर
संतुष्ट करे। उसके बाद प्रेतकल्याण के लिये अन्न और जलपूर्ण कुम्भ का दान देना
चाहिये। शय्यादान करके घटदान भी प्रेत के उद्देश्य से करे। तदनन्तर 'नारायण' नाम ही सत्य है—ऐसा
कहकर सम्पुट में स्थित भगवान् नारायण की पूजा करे। ऐसा विधिवत् करने पर निश्चित ही
प्राणी को शुभ फल प्राप्त होता है।
राजोवाच ।
कथं प्रेतघटं कुर्याद्दद्यात्केन
विधानतः ।
ब्रूहि सर्वानुकम्पार्थं घटं
प्रेतविमुक्तिदम् ॥ २,२७.५४ ॥
राजा ने कहा- हे प्रेत ! प्रेतघट
कैसा होना चाहिये, उसको प्रदान करने का
क्या विधान है ? सभी प्राणियों पर कृपा करने के लिये तुम
प्रेत के लिये मुक्तिदायक घट के विषय में मुझे बताओ ।
प्रेत उवाच ।
साधु पृष्टं महाराज कथयामि निबोध ते
।
प्रेतत्वं न भवेद्येन दानेन सुदृढेन
च ॥ २,२७.५५ ॥
प्रेत ने कहा—
हे महाराज ! आपने बड़ा अच्छा प्रश्न किया है। जिस दान से प्रेतत्व
प्राप्त नहीं होता, उसे मैं कहता हूँ, सुनें।
दानं प्रेतघटं नाम सर्वाशुभविनाशनम्
।
दुर्लभं सर्वलोकानां
दुर्गतिक्षयकारकम् ॥ २,२७.५६ ॥
सन्तप्तहाटकमयं तु घटं विधाय
ब्रह्मोशकेशवयुतं सह लोकपालैः ।
क्षीराज्यपूर्णविवरं प्रणिपत्य
भक्त्या विप्राय देहि तव दानशतैः किमन्यैः ॥ २,२७.५७ ॥
ब्रह्मा मध्ये तथा विष्णुः शङ्करः शङ्करोऽव्ययः
।
प्राच्यादिषु च तत्कण्ठे
लोकपालान्क्रमेण तु ॥ २,२७.५८ ॥
सम्पूज्य विधिवद्राजन्धूपैः
कुसुमचन्दनैः ।
ततो दुग्धाज्यसहितं घटं देयं
हिरण्मयम् ॥ २,२७.५९ ॥
सर्वदानाधिकञ्चैतन्महापातकनाशनम् ।
कर्तव्यं श्रद्धया
राजन्प्रेतत्वविनिवृत्तये ॥ २,२७.६०
॥
प्रेतघट नाम का दान समस्त अमङ्गलों का
विनाशक है । दुर्गति को क्षय करनेवाला यह प्रेतघट का दान सभी लोकों में दुर्लभ है।
संतप्त स्वर्णमय घट बनवाकर उसे घृत और दूध से परिपूर्ण करके लोकपालोंसहित ब्रह्मा,
शिव और केशव को भक्तिपूर्वक प्रणाम कर ब्राह्मण को दान में दे । अन्य
सैकड़ों दान देने से क्या लाभ? इसके मध्यभाग में ब्रह्मा,
विष्णु, महेश तथा पूर्वादिक सभी दिशाओं में और
कण्ठभाग में यथाक्रम लोकपालों की विधिवत् पुष्प, धूप एवं
चन्दनादि से पूजा करके उसे दूध और घी से पूर्ण स्वर्णमय घट दान में देना चाहिये।
यह सभी दानों से बढ़कर दान है। इस दान से सभी महापातकों का विनाश हो जाता है।
प्रेतत्व की निवृत्ति के लिये श्रद्धापूर्वक यह दान अवश्य करना चाहिये।
श्रीभागवानुवाच ।
एवं संजल्षतस्तस्य प्रेतेन
नियतात्मनः ।
सेनाजगामानुपदं हस्त्यश्वरथसंकुला ॥
२,२७.६१ ॥
ततो बले समायाते दत्त्वा राज्ञे
महामणिम् ।
नमस्कृत्य पुनः प्रार्थ्य
प्रेतोऽदर्शनमीयिवान् ॥ २,२७.६२ ॥
तस्माद्वनाद्विनिष्क्रम्य राजापि
स्वपुरं ययौ ।
स्वपुरं स समासाद्य सर्वं
तत्प्रेतभाषितम् ॥ २,२७.६३ ॥
चकार विधिवत्पक्षिन्नौर्ध्वदेहादिकं
विधिम् ।
तस्य पुण्यप्रदानेन प्रेतो मुक्तो
दिवं ययौ ॥ २,२७.६४ ॥
श्रीभगवान्ने कहा- हे वैनतेय ! उस
प्रेत के साथ इस प्रकार का वार्तालाप राजा का चल ही रहा था कि उसी समय उनके
पदचिह्नों का अनुगमन करती हुई हाथी, घोड़े
तथा रथ से परिव्याप्त उनकी सेना वहाँ आ पहुँची । सेना के वहाँ आ जाने पर प्रेत ने
राजा को एक महामणि देकर प्रणाम किया और अपने प्रेतत्व- विमुक्ति की प्रार्थना करके
अदृश्य हो गया। उस वन से निकलकर राजा भी अपने नगर को चला गया। हे पक्षिन्! नगर में
पहुँचकर राजा ने उस प्रेत के द्वारा कही गयी सम्पूर्ण और्ध्वदैहिक क्रिया को
विधि-विधान से सम्पन्न किया। उसके पुण्य से वह प्रेत बन्धन- विमुक्त होकर स्वर्ग
चला गया।
श्राद्धेन परदत्तेन गतः प्रेतोऽपि
सद्गतिम् ।
किं पुनः पुत्रदत्तेन पिता यातीति
चात्भुतम् ॥ २,२७.६५ ॥
इतिहासमिमं पुण्यं शृणोति
श्रावयेच्च यः ।
न तौ प्रेतत्वमायातः पापाचारयुतावपि
॥ २,२७.६६ ॥
हे गरुड ! पुत्र द्वारा दिये गये
श्राद्ध से पिता को सद्गति प्राप्त होती है, इसमें
आश्चर्य क्या है ? जो मनुष्य इस पुण्यदायक इतिहास को सुनता
है और जो सुनाता है, वह पापाचार से युक्त होने पर भी
प्रेतत्व- योनि को प्राप्त नहीं होता है ।
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे
बभ्रुवाहनप्रेतसंवादे प्रेतत्वहेतुतन्निवृत्त्युपायनिरूपणं नाम सप्तविंशोऽध्यायः
जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय 28
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