श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३७
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
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प्रेतकल्प अध्याय ३७ और्ध्वदैहिक कर्म में उदकुम्भदान का माहात्म्य का
वर्णन है।
श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) सप्तत्रिंशत्तमोऽध्यायः
Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 37
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
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प्रेतकल्प सैंतीसवाँ अध्याय
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय ३७
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय ३७ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित
गरुडपुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः
३७
तार्क्ष्य उवाच ।
उदकुम्भप्रदानं मे कथयस्व यथातथम् ।
विधिना केन कर्तव्या कृतिरेषा
जनार्दन ॥ २,३७.१ ॥
किंलक्षणाः केन पूर्णाः कस्य देया
जनार्दन ।
कस्मिन् काले प्रदातव्या
प्रेततृप्तिप्रसाधकाः ॥ २,३७.२ ॥
तार्क्ष्य ने कहा –
हे जनार्दन ! जिस प्रकार से जलपूर्ण कुम्भ का दान करना चाहिये,
उसका वर्णन करें। यह कार्य किस विधि करना चाहिये? इसके लक्षण कैसे हैं? इसकी पूर्ति कैसे होती है?
इसको किसे देना चाहिये? प्रेतों को संतुष्टि
प्रदान करने में समर्थ इन कुम्भों का दान किस काल में उचित है? यह बताने की कृपा करें।
श्रीकृष्ण उवाच ।
सत्यं पुनः प्रवक्ष्यामि
उदकुम्भप्रदानकम् ।
प्रेतोद्देशेन दातव्या
अन्नपानीयसंयुताः ।
विशेषेण महापक्षिन्
प्रेतमुक्तिप्रदायकाः ॥ २,३७.३ ॥
द्वादशाहे च पण्मासे त्रैपक्षे वापि
वत्सरे ।
उदकुम्भाः प्रदातव्या मार्गे तस्य
सुखाय वै ॥ २,३७.४ ॥
अहन्यहनि दातव्या
उदकुम्भास्तिलैर्युताः ।
सुलिप्ते भूमिभागे तु
पक्कान्नजलपूरिताः ॥ २,३७.५ ॥
प्रेतस्य तत्र दातव्यं भाजनञ्च
यदृच्छया ।
सुप्रीतस्तेन दत्तेन प्रेतो याम्यैः
स गच्छति ॥ २,३७.६ ॥
श्रीकृष्ण ने कहा—हे गरुड ! जलपूर्ण कुम्भदान के विषय में पुन: मैं तुम्हें भली प्रकार से
बता रहा हूँ । हे महापक्षिन्! अन्न और जल से
परिपूर्ण कुम्भों का दान प्रेत के उद्देश्य से देना चाहिये। यह दान विशेषरूप से
प्रेत के लिये मुक्तिदायक है। बारहवें दिन, छठे मास,त्रिपक्ष और वार्षिक श्राद्ध के दिन विशेषरूप से जीव को यममार्ग में सुख
प्रदान करने के लिये उदकुम्भ देना चाहिये। गोबर से भलीभाँति लीपकर स्वच्छ बनायी
गयी भूमि पर प्रतिदिन तिल या पक्वान्न से युक्त जलपूर्ण कुम्भ का दान देना चाहिये।
उसी स्थान पर प्रेत के निमित्त स्वेच्छा से उस पात्र का दान भी दे देना चाहिये ।
उससे प्रसन्न होकर प्रेत यमदूतों के साथ चला जाता है।
द्वादशाहे विशेषेण उदकम्भान्
प्रदापयेत् ।
विधिना तत्र सङ्कल्पय घटान्
द्वादशसंख्यकान् ॥ २,३७.७ ॥
एकाषि बर्धनी तत्र पक्वान्नफलपूरिता
।
विष्णुमुद्दिश्य दातव्या संकल्प्य ब्राह्मणे
शुभे ॥ २,३७.८ ॥
एको वै धर्मराजाय तेन तुष्टेन
मुक्तिभाक् ।
चित्रगुप्ताय चैकं तु गतस्तत्र सुखी
भवेत् ॥ २,३७.९ ॥
प्रेत के द्वादशाह-संस्कार के अवसर पर
जलपूरित कुम्भों का दान विशेष महत्त्व रखता है । यजमान उस दिन बारह जल भरे घटों का
संकल्प करके दान करे । उसी दिन वह पक्वान्न और फल से परिपूर्ण एक वर्द्धनी (विशेष
प्रकार का जलपात्र) भगवान् विष्णु के लिये संकल्प करके सुयोग्य एवं सच्चरित्र
ब्राह्मण को प्रदान करे । तदनन्तर वह एक वर्द्धनी, पक्वान्न तथा फल धर्मराज को समर्पित करे। उससे संतुष्ट होकर धर्मराज उस
प्रेत को मोक्ष प्रदान करते हैं। उसी समय एक वर्द्धनी चित्रगुप्त के लिये दान में
देना चाहिये। उसके पुण्य से प्रेत वहाँ पहुँचकर सुखी रहता है।
षोडशाद्याः प्रदातव्या
माषान्नजलपूरिताः ॥ २,३७.१० ॥
उक्त्रान्तिश्राद्धमारभ्य
श्राद्धषोडषोडशकस्य तु ।
षोडशब्राह्मणानान्तु एकैकं
विनिवदयेत् ॥ २,३७.११ ॥
एकादशाहात्प्रभृति देयो नित्यं
दृढाह्वयः ।
पक्वान्नजलपूर्णो हि यावत्संवत्सरं
दिनम् ॥ २,३७.१२ ॥
जलपात्राणि वृद्धानि दत्तानिघटकानि
च ।
एका वै वर्धनी तत्र तस्यां
पात्रन्तु वंशजम् ॥ २,३७.१३ ॥
वस्त्रेणाच्छादयेत्तान्तु पूजयित्वा
सुगन्धिभिः ।
ब्राह्मणेभ्यो विशेषेण जलपूर्णानि
दापयेत् ॥ २,३७.१४ ॥
अहन्यहनि सङ्कल्प्य विधिपूर्वं
खगेश्वर ।
ब्राह्मणाय कुलीनाय वेदवृत्तयुताय च
॥ २,३७.१५ ॥
विद्यावृत्तवते देयं मूर्खे तन्न
कदाचन ।
समर्थो वेदवृत्ताढ्यस्तारणे तरणेऽपि
च ॥ २,३७.१६ ॥
अपने मृत पिता के कल्याणार्थ उड़द
और जल से पूर्ण सोलह घटों का दान दे। उसका विधान यह है कि उत्क्रान्ति श्राद्ध से
लेकर षोडश श्राद्ध तक के लिये सोलह ब्राह्मणों को एक-एक घट दान में दिया जाय ।
एकादशाह से लेकर वर्षपर्यन्त प्रतिदिन नियमपूर्वक पक्वान्न एवं जल से पूर्ण एक घट का
दान देय है। हे खगेश्वर ! यह बात तो उचित है कि जलपूर्ण पात्र और पक्वान्नपूरित
बड़े घटों का दान नित्य दिया जाय, किंतु वहीं पर
एक वर्द्धनी (कलश) ऐसी होनी चाहिये जिसके ऊपर बाँस - निर्मित पात्र में मिष्टान्न
रखकर पितृ का आह्वान करके कुंकुम, अगुरु आदि सुगन्धित पदार्थों
से उनका पूजन करे। तत्पश्चात् वस्त्राच्छादन करके विधिवत् संकल्पपूर्वक वैदिक
धर्माचरण से परिपूर्ण कुलीन ब्राह्मण को नित्य ऐसे एक-एक घट दान दे। यह दान विद्या
और सदाचार से युक्त ब्राह्मण को ही देना चाहिये। कभी मूर्ख को यह दान न दे,
क्योंकि वेदसम्मत आचार-विचारवाला ब्राह्मण यजमान और स्वयं का भी
उद्धार करने में समर्थ है।
इति श्रीगारुडे महापुराणे
द्वितीयांशे प्रेतकल्पे धर्मकाण्डे सोदकुम्भश्राद्धनिरूपणं नाम
सप्तत्रिंशोऽध्यायः॥
जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय 38
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