श्रीमद्भागवत माहात्म्यम् –
अध्याय ४
श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् का वर्णन स्कन्दपुराण खण्ड- २ (वैष्णवखण्ड)में किया गया है, जो की ४ अध्यायों में है। यहाँ इसका मूलपाठ तथा भावार्थ सहित दिया जा रहा है। श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् – अध्याय ४ में श्रीमद्भागवत का स्वरूप, प्रमाण, श्रोता-वक्ता के लक्षण, श्रवणविधि और माहात्म्य का वर्णन है।
श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् – अध्याय ४
स्कन्दपुराणम् खण्डः २
(वैष्णवखण्डः)/भागवतमाहात्म्यम्/अध्यायः ०४
।।ॐ गणेशाय नमः।।
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।।
।। श्रीऋषय ऊचुः ।। ।।
साधु सूत चिरं जीव चिरमेवं प्रशाधि
नः ।।
श्रीभागवतमाहात्म्यमपूर्वं
त्वन्सुखाच्छ्रुतम् ।। १ ।।
तत्स्वरूपप्रमाणं च विधिं च श्रवणे
वद ।।
तद्वक्तुर्लक्षणं सूत श्रोतुश्चापि
वदाधुना ।। २ ।।
।। श्रीसूत उवाच ।। ।।
श्रीमद्भागवतस्याथ श्रीमद्भगवतः सदा
।।
स्वरूपमेकमेवास्ति
सच्चिदानन्दलक्षणम् ।। ३ ।।
श्रीकृष्णासक्तभक्तानां
तन्माधुर्य्यप्रकाशकम् ।।
समुज्जृम्भति यद्वाक्यं विद्धि
भागवतं हि तत् ।। ४ ।।
ज्ञानविज्ञानभक्त्यङ्गचतुष्टयपरं
वचः ।।
मायामर्दन दक्षं च विद्धि भागवतं च
तत् ।। ५ ।।
प्रमाणं तस्य को वेद
ह्यनंतस्याक्षरात्मनः ।।
ब्रह्मणे हरिणा तद्दिक्चतुःश्लोक्या
प्रदर्शिता ।। ६ ।।
तदानंत्यावगाहेन
स्वेप्सितावहनक्षमाः ।।
त एव संति भो विप्रा
ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।। ७ ।।
मितबुद्ध्यादिवृत्तीनां मनुष्याणां
हिताय च ।।
परीक्षिच्छुकसंवादो योऽसौ व्यासेन
कीर्तितः ।। ८ ।।
ग्रन्थोऽष्टादशसाहस्रो योऽसौ
भागवताभिधः ।।
कलिग्राहगृहीतानां स एव परमाश्रयः
।। ९ ।।
श्रोतारो ऽथ निरूप्यन्ते
श्रीमद्विष्णुकथाश्रयाः ।।
प्रवरा अवराश्चति श्रोतारो द्विविधा
मताः ।। 2.6.4.१० ।।
प्रवराश्चातको हंसः शुको
मीनादयस्तथा ।।
अवरा वृकभूरुण्डवृषोष्ट्राद्याः
प्रकीर्तिताः ।। ११ ।।
अखिलोपेक्षया यस्तु कृष्णशास्त्रश्रुतौ
व्रती ।।
स चातको यथाम्भोदमुक्ते पाथसि चातकः
।। १२ ।।
हंसः स्यात्सारमादत्ते यः श्रोता
विविधाच्छ्रुतात् ।।
दुग्धेनैक्यं गतात्तोयाद्यथा
हंसोऽमलं पयः ।। १३ ।।
शुकः सुष्टु मितं वक्ति व्यासं
श्रोतृंश्च हर्षयन् ।।
सुपाठितः शुको यद्वच्छिक्षकं
पार्श्वगानपि ।। १४ ।।
शब्दं नानिमिषो जातु
करोत्यास्वादयन्रसम् ।।
श्रोता स्निग्धो भवेन्मीनो मीनः
क्षीरनिधौ यथा ।। १५ ।।
यस्तुदन्रसिकाञ्च्छ्रोतॄन्विरौत्यज्ञो
वृको हि सः ।।
वेणुस्वनरसासक्तान्वृकोऽरण्ये
मृगान्यथा ।। १६ ।।
भूरुण्डः शिक्षयेदन्याञ्च्छ्रुत्वा
न स्वयमाचरेत् ।।
यथा हिमवतः शृंगे भूरुण्डाख्यो
विहंगमः ।। १७ ।। (भारुण्ड)
सर्वं श्रुतमुपादत्ते
सारासारान्धधीर्वृषः ।।
स्वादु द्राक्षां खलिं चापि
निर्विशेषं यथा वृषः ।। १८ ।।
स उष्ट्रो मधुरं मुञ्चन्विपरीते
रमेत यः ।।
यथा निम्बं चरत्युष्ट्रो
हित्वाऽऽम्रमपि तद्युतम् ।। १९ ।।
अन्येऽपि बहवो भेदा
द्वयोर्भृंगखरादयः ।।
विज्ञेयास्तत्तदाचारैस्तत्तत्प्रकृतिसंभवैः
।। 2.6.4.२० ।।
यः स्थित्वाऽभिमुखं प्रणम्य विधिवत्त्यक्तान्यवादो हरेर्लीलाः
श्रोतुमभीप्सतेऽतिनिपुणो नम्रो ऽथ
क्लृप्ताञ्जलिः ।।
शिष्यो विश्वसितोऽनुचिन्तनपरः प्रश्नेऽनुरक्तः शुचिर्नित्यं
कृष्णजनप्रियो निगदितः श्रोता स वै वक्तृभिः ।। २१
।।
भगवन्मतिरनपेक्षः सुहृदो दीनेषु
सानुकम्पो यः ।।
बहुधाबोधनचतुरो वक्ता संमानितो
मुनिभिः ।। २२ ।।
अथ भारतभूस्थाने श्रीभागवतसेवने ।।
विधिं शृणुत भो विप्रा येन
स्यात्सुखसंततिः ।। २३ ।।
राजसं सात्त्विकं चापि तामसं
निर्गुणं तथा ।।
चतुर्विधं तु विज्ञेयं श्रीभागवत
सेवनम् ।। २४ ।।
सप्ताहं यज्ञवद्यत्तु सश्रमं सत्वरं
मुदा ।।
सेवितं राजसं तत्तु बहुपूजादिशोभनम्
।।२५।।
मासेन ऋतुना वापि श्रवणं
स्वादसंयुतम्।।
सात्त्विकं यदनायासं
समस्तानन्दवर्द्धनम् ।। २६ ।।
तामसं यत्तु वर्षेण सालसं
श्रद्धयाऽयुतम् ।।
विस्मृतिस्मृतिसंयुक्तं सेवनं तच्च
सौख्यदम् ।। २७ ।।
वर्षमासदिनानां तु विमुच्य
नियमाग्रहम् ।।
सर्वदा प्रेमभक्त्यैव सेवनं
निर्गुणं मतम् ।। २८ ।।
पारीक्षितेऽपि संवादे निर्गुणं
तत्प्रकीर्तितम्।।
तत्र सप्तदिनाख्यानं तदायुर्दिनसंख्यया
।। २९ ।।
अन्यत्र त्रिगुणं चापि निर्गुणं च
यथेच्छया ।।
यथा कथंचित्कर्तव्यं सेवनं
भगवच्छ्रुतेः ।। 2.6.4.३० ।।
ये
श्रीकृष्णविहारैकभजनास्वादलोलुपाः ।।
मुक्तावपि निराकांक्षास्तेषां
भागवतं धनम् ।। ३१ ।।
येऽपि संसारसंतापनिर्विण्णा
मोक्षकांक्षिणः ।।
तेषां भवौषधं चैतत्कलौ सेव्यं
प्रयत्नतः ।। ३२ ।।
ये चापि विषयारामाः
सांसारिकसुखस्पृहाः ।।
तेषां तु कर्ममार्गेण या सिद्धिः
साऽधुना कलौ ।। ।। ३३ ।।
सामर्थ्यधनविज्ञानाभावादत्यन्तदुर्ल्लभा
।।
तस्मात्तैरपि संसेव्या
श्रीमद्भागवती कथा ।। ३४ ।।
धनं पुत्रांस्तथा दारान्वाहनादि यशो
गृहान् ।।
असापत्न्यं च राज्यं च
दद्याद्भागवती कथा ।। ३५ ।।
इह लोके वरान्भुक्त्वा भोगान्वै
मनसेप्सितान् ।।
श्रीभागवतसंगेन यात्यन्ते श्रीहरेः
पदम् ।। ३६ ।।
यत्र भागवती वार्ता ये च तच्छ्रवणे
रताः ।।
तेषां संसेवनं कुर्याद्देहेन च धनेन
च ।। ३७ ।।
तदनुग्रहतोऽस्यापि श्रीभागवतसेवनम्
।।
श्रीकृष्णव्यतिरिक्तं यत्तत्सर्वं
धनसंज्ञितम् ।। ३८ ।।
कृष्णार्थीति धनार्थीति श्रोता
वक्ता द्विधा मतः ।।
यथा वक्ता तथा श्रोता तत्र सौख्यं
विवर्द्धते ।। ३९ ।।
उभयोर्वैपरीत्ये तु रसाभासे
फलच्युतिः।।
किन्तु कृष्णार्थिनां सिद्धिर्विलम्बेनापि
जायते ।। 2.6.4.४० ।।
धनार्थिनस्तु
संसिद्धिर्विधिसंपूर्णतावशात् ।।
कृष्णार्थिनोऽगुणस्यापि प्रेमैव
विधिरुत्तमः ।। ४१ ।।
आसमाप्ति सकामेन कर्तव्यो हि विधिः
स्वयम् ।।
स्नातो नित्य क्रियां कृत्वा
प्राश्य पादोदकं हरेः ।। ४२ ।।
पुस्तकं च गुरुं चैव
पूजयित्वोपचारतः ।।
ब्रूयाद्वा शृणुयाद्वापि
श्रीमद्भागवतं मुदा ।। ४३ ।।
पयसा वा हविष्येण मौनं भोजनमाचरेत्
।।
ब्रह्मचर्य्यमधःसुप्तिं
क्रोधलोभादिवर्ज्जनम् ।। ४४ ।।
कथान्ते कीर्तनं नित्यं समाप्तौ
जागरं चरेत् ।।
ब्राह्मणान्भोजयित्वा तु दक्षिणाभिः
प्रतोषयेत् ।। ४५ ।।
गुरवे वस्त्रभूषादि दत्त्वा गां च
समर्पयेत् ।।
एवं कृते विधाने तु लभते वाञ्छितं
फलम् ।। ४६ ।।
दारागारसुतान्राज्यं धनादि च
यदीप्सितम् ।।
परन्तु शोभते नात्र सकामत्वं
विडम्बनम् ।। ४७ ।।
कृष्णप्राप्तिकरं
शश्वत्प्रेमानन्दफलप्रदम् ।।
श्रीमद्भागवतं शास्त्रं कलौ कीरेण
भाषितम् ।। ४८ ।।
इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये चतुर्थोऽध्यायः ।। ४ ।।
श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् –
अध्याय ४ भावार्थ
चौथा अध्याय
शौनकादि ऋषियों ने कहा —
सूतजी ! आपने हमलोगों को बहुत अच्छी बात बतायी । आपकी आयु बढे,
आप चिरजीवी हों और चिरकाल तक हमें इसी प्रकार उपदेश करते रहें । आज
हमलोगों ने आपके मुख से श्रीमद्भागवत का अपूर्व माहात्म्य सुना है ॥ १ ॥
सूतजी ! अब इस समय आप हमें यह
बताइये कि श्रीमद्भागवत का स्वरूप क्या है ? उसका
प्रमाण — उसकी श्लोक-संख्या कितनी है ? किस विधि से उसका श्रवण करना चाहिये ? तथा
श्रीमद्भागवत के वक्ता और श्रोता के क्या लक्षण हैं ? अभिप्राय
यह कि उसके वक्ता और श्रोता कैसे होने चाहिये ॥ २ ॥
सूतजी कहते हैं —
ऋषिगण ! श्रीमद्भागवत और श्रीभगवान् का स्वरूप सदा एक ही है और वह
हैं — सच्चिदानन्दमय ॥ ३ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण में जिनकी लगन लगी
हैं,
उन भावुक भक्तों के हृदय में जो भगवान् के माधुर्य भाव को अभिव्यक्त
करनेवाला, उनके दिव्य माधुर्यरस का आस्वादन करानेवाला
सर्वोत्कृष्ट वचन हैं, उसे श्रीमद्भागवत समझो ॥ ४ ॥
जो वाक्य ज्ञान,
विज्ञान, भक्ति एवं इनके अङ्गभूत साधन-चतुष्टय
को प्रकाशित करनेवाला हैं तथा जो माया का मर्दन करने में समर्थ हैं, उसे भी तुम श्रीमद्भागवत समझो ॥ ५ ॥
श्रीमद्भागवत अनन्त,
अक्षरस्वरूप है; इसका नियत प्रमाण भला कौन जान
सकता है ? पूर्वकाल में भगवान् विष्णु ने ब्रह्माजी के प्रति
चार श्लोकों में इसका दिग्दर्शनमात्र कराया था ॥ ६ ॥
विप्रगण ! इस भागवत की अपार गहराई
में डुबकी लगाकर इसमें से अपनी अभीष्ट वस्तु को प्राप्त करने में केवल ब्रह्मा,
विष्णु और शिव आदि ही समर्थ हैं; दूसरे नहीं ॥
७ ॥
परन्तु जिनकी बुद्धि आदि वृत्तियाँ
परिमित हैं. ऐसे मनुष्यों का हितसाधन करने के लिये श्रीव्यासजी ने परीक्षित् और
शुकदेवजी के संवाद के रूप में जिसका गान किया है, उसका नाम श्रीमद्भागवत है । इस ग्रन्थ की श्लोक-संख्या अठारह हज़ार हैं ।
इस भवसागर में जो प्राणी कलिरूपी ग्राह से ग्रस्त हो रहे हैं, उनके लिये वह श्रीमद्भागवत ही सर्वोत्तम सहारा है ॥ ८-९ ॥
अब भगवान् श्रीकृष्ण की कथा का
आश्रय लेनेवाले श्रोता का वर्णन करते हैं । श्रोता दो प्रकार के माने गये हैं —
प्रवर (उत्तम) तथा अवर (अधम) ॥ १० ॥
प्रवर श्रोताओं के ‘चातक’, ‘हंस’, ‘शुक’ और ‘मीन’ आदि कई भेद हैं । अवर
के भी ‘वृक’, भूरुण्ड’, ‘वृष’ और ‘उष्ट्र आदि अनेकों
भेद बतलाये गये हैं ॥ ११ ॥
चातक कहते हैं पपीहे को । वह जैसे
बादल से बरसते हुए जल में ही स्पृहा रखता है, दूसरे
जल को छूता ही नहीं — उसी प्रकार जो श्रोता सब कुछ छोड़कर
केवल श्रीकृष्ण-सम्बन्धी शास्त्र के श्रवण का व्रत ले लेता है, वह ‘चातक’ कहा गया हैं ॥ १२ ॥
जैसे हँस दूध के साथ मिलकर एक हुए
जल से निर्मल दुध ग्रहण कर लेता और पानी को छोड़ देता है,
उसी प्रकार जो श्रोता अनेकों शास्त्र का श्रवण करके भी उससे सारभाग
अलग करके ग्रहण करता है, उसे ‘हंस’
कहते हैं ॥ १३ ॥
जिस प्रकार भली-भांति पढाया हुआ
तोता अपनी मधुर वाणी से शिक्षक को तथा पास आनेवाले दूसरे लोगों को भी प्रसन्न करता
है,
उसी प्रकार जो श्रोता कथावाचक व्यास के मुँह से उपदेश सुनकर उसे
सुन्दर और परिमित वाणी में पुनः सुना देता और व्यास एवं अन्यान्य श्रोताओं को
अत्यन्त आनन्दित करता है, वह ‘शुक’
कहलाता है ॥ १४ ॥
जैसे क्षीरसागर में मछली मौन रहकर
अपलक आँखों से देखती हुई सदा दुग्ध पान करती रहती है,
उसी प्रकार जो कथा सुनते समय निर्निमेष नयनों से देखता हुआ मुँह से
कभी एक शब्द भी नहीं निकालता और निरन्तर कथारस का ही आस्वादन करता रहता है,
वह प्रेमी श्रोता ‘मीन’ कहा
गया है ॥ १५ ॥
(ये प्रवर अर्थात् उत्तम श्रोताओं
के भेद बताये गये हैं, अब अवर यानी अधम
श्रोता बताये जाते हैं।) ‘वृक’ कहते
हैं — भेड़िये को । जैसे भेड़िया वन के भीतर वेणु की मीठी
आवाज सुनने में लगे हुए मृग को डरानेवाली भयानक गर्जना करता है, वैसे ही जो मूर्ख कथाश्रवण के समय रसिक श्रोताओं को उद्विग्न करता हुआ
बीच-बीच में जोर-जोर से बोल उठता हैं, वह ‘वृक’ कहलाता है ॥ १६ ॥
हिमालय के शिखर पर एक भूरुण्ड जाति
का पक्षी होता है । वह किसी के शिक्षाप्रद वाक्य सुनकर वैसा ही बोला करता है,
किन्तु स्वयं उससे लाभ नहीं उठाता । इसी प्रकार जो उपदेश की बात
सुनकर उसे दुसरों को तो सिखाये पर स्वयं आचरण में न लाये, ऐसे
श्रोता को ‘भुरुण्ड’ कहते हैं ॥ १७ ॥
वृष’ कहते हैं— बैल को । उसके सामने मीठे-मीठे अंगूर हो
या कड़वी खली, दोनों को वह एक-सा ही मानकर खाता हैं । उसी
प्रकार जो सुनी हुई सभी बातें ग्रहण करता है, पर सार और असार
वस्तु का विचार करने में उसकी बुद्धि अंध — असमर्थ होती है,
ऐसा श्रोता ‘वृष’ कहलाता
हैं ॥ १८ ॥
जिस प्रकार ऊँट माधुर्यगुण से युक्त
आम को भी छोड़कर केवल नीम की ही पत्ती चबाता है, उसी प्रकार जो भगवान् की मधुर कथा को छोड़कर उसके विपरीत संसारी बातों में
रमता रहता है, उसे ‘ऊँट’ कहते हैं ॥ १९ ॥
ये कुछ थोड़े से भेद यहाँ बताये गये
। इनके अतिरिक्त भी प्रवर-अवर दोनों प्रकार के श्रोताओं के ‘भ्रमर’ और ‘गदहा’ आदि बहुत से भेद हैं. इन सब भेदों को उन-उन श्रोताओं के स्वाभाविक
आचार-व्यवहारों से परखना चाहिये ॥ २० ॥
जो वक्ता के सामने उन्हें विधिवत
प्रणाम करके बैठे और अन्य संसारी बातों को छोड़कर केवल श्रीभगवान् की लीला-कथाओं
को ही सुनने की इच्छा रक्खे, समझने में
अत्यन्त कुशल हो, नम्र हो, हाथ जोड़े
रहे, शिष्यभाव से उपदेश ग्रहण करे और भीतर श्रद्धा तथा
विश्वास रखें; इसके सिवाय, जो कुछ सुने
उसका बराबर चिन्तन करता रहे जो बात समझ में न आये, पूछे और
पवित्र भाव से रहे तथा श्रीकृष्ण के भक्तों पर सदा ही प्रेम रखता हो — ऐसे ही श्रोता को वक्ता लोग उत्तम श्रोता कहते हैं ॥ ३१ ॥
अब वक्ता के लक्षण बतलाते हैं जिसका
मन सदा भगवान् में लगा रहे, जिसे किसी भी वस्तु
की अपेक्षा न हो, जो सबका सुहृद् और दीनों पर दया करनेवाला
हो तथा अनेकों युक्तियों से तत्त्व बोध करा देने में चतुर हो, उसी वक्ता का मुनिलोग भी सम्मान करते हैं ॥ २२ ॥
विप्रगण ! अब मैं भारतवर्ष की भूमि
पर श्रीमद्भागवत कथा का सेवन करने के लिये जो आवश्यक विधि है,
उसे बतलाता हूँ — आप सुनें । इस विधि के पालन
से श्रोता की सुख-परम्परा का विस्तार होता हैं ॥ २३ ॥
श्रीमद्भागवत का सेवन चार प्रकार का
है —
सात्विक, राजस, तामस और
निर्गुण ॥ २४ ॥
जिसमें यज्ञ की भाँति तैयारी की गयी
हो,
बहुत-सी पूजा-सामग्रियों के कारण जो अत्यन्त शोभासम्पन्न दिखायी दे
रहा हो और बड़े ही परिश्रम से बहुत उतावली के साथ सात दिनों में ही जिसकी समाप्ति
की जाय, वह प्रसन्नतापूर्वक किया हुआ श्रीमद्भागवत का सेवन ‘राजस’ है ॥ २५ ॥
एक या दो महीने में धीरे-धीरे कथा
के रस का आस्वादन करते हुए बिना परिश्रम के जो श्रवण होता है,
वह पूर्ण आनन्द को बढ़ानेवाला ‘सात्त्विक सेवन
कहलाता है ॥ २६ ॥
तामस सेवन वह है जो कभी भूल से छोड़
दिया जाय और याद आने पर फिर आरम्भ कर दिया जाय, इस
प्रकार एक वर्ष तक आलस्य और अश्रद्धा के साथ चलाया जाय । यह ‘तामस’ सेवन भी न करने की अपेक्षा अच्छा और सुख ही
देनेवाला है ॥ २७ ॥
जब वर्ष,
महीना और दिनों के नियम का आग्रह छोड़कर सदा ही प्रेम और भक्ति के
साथ श्रवण किया जाय, तब वह सेवन निर्गुण’ माना गया है ॥ २८ ॥
राजा परीक्षित् और शुकदेव के संवाद
में भी जो भागवत का सेवन हुआ था, वह निर्गुण ही
बताया गया है । उसमें जो सात दिनों की बात आती है, वह राजा
को आयु के बचे हुए दिनों की संख्या के अनुसार है, सप्ताह-कथा
का नियम करने के लिये नहीं ॥ २९ ॥
भारतवर्ष के अतिरिक्त अन्य स्थानों
में भी त्रिगुण (सात्त्विक, राजस और तामस) अथवा
निर्गुण सेवन अपनी रुचि के अनुसार करना चाहिये । तात्पर्य यह कि जिस किसी प्रकार
भी हो सके श्रीमद्भागवत का सेवन, उसका श्रवण करना ही चाहिये
॥ ३० ॥
जो केवल श्रीकृष्ण की लीलाओं के ही
श्रवण,
कीर्तन एवं रसास्वादन लिये लालायित रहते और मोक्ष की भी इच्छा नहीं
रखते, उनका तो श्रीमद्भागवत ही धन है ॥ ३१ ॥
तथा जो संसार के दुःखों से घबराकर
अपनी मुक्ति चाहते हैं, उनके लिये भी यही
इस भवरोग की ओषधि है । अतः इस कलिकाल में इसका प्रयत्नपूर्वक सेवन करना चाहिये ॥
३२ ॥
इनके अतिरिक्त जो लोग विषयों में ही
रमण करनेवाले हैं, सांसारिक सुखों की
ही जिन्हें सदा चाह रहती है, उनके लिये भी अब इस कलियुग में
सामर्थ्य, धन और विधि-विधान का ज्ञान न होने के कारण
कर्ममार्ग (यज्ञादि) से मिलनेवाली सिद्धि अत्यन्त दुर्लभ हो गयी हैं । ऐसी दशा में
उन्हें भी सब प्रकार से अब इस भागवतकथा का ही सेवन करना चाहिये ॥ ३३-३४ ॥
यह श्रीमद्भागवत की कथा धन,
पुत्र, स्त्री, हाथी-घोड़े
आदि वाहन, यश, मकान और निष्कण्टक राज्य
भी दे सकती हैं ॥ ३५ ॥
सकाम भाव से भागवत का सहारा
लेनेवाले मनुष्य इस संसार में मनोवाञ्छित उत्तम भोगों को भोगकर अन्त में
श्रीमद्भागवत के ही सङ्ग से श्रीहरि के परमधाम को प्राप्त हो जाते हैं ॥ ३६ ॥
जिनके यहाँ श्रीमद्भागवत की कथा-बार्ता
होती हो तथा जो लोग उस कथा श्रवण में लगे रहते हों, उनकी सेवा और सहायता अपने शरीर और धन से करनी चाहिये ॥ ३७ ॥
उन्हीं के अनुग्रह से सहायता
करनेवाले पुरुष को भी भागवत-सेवन का पुण्य प्राप्त होता है । कामना दो वस्तुओं की
होती है —
श्रीकृष्ण की और धन की । श्रीकृष्ण के सिवा जो कुछ भी चाहा जाय,
यह सब धन के अन्तर्गत है, उसकी ‘धन’ संज्ञा है ॥ ३८ ॥
श्रोता और वक्ता भी दो प्रकार के
माने गये हैं, एक श्रीकृष्ण को चाहनेवाले और
दूसरे धन को । जैसा वक्ता, वैसा ही श्रोता भी हो तो वहाँ कथा
में रस मिलता है, अतः सुख की वृद्धि होती है ॥ ३९ ॥
यदि दोनों विपरीत विचार के हों तो
रसाभास हो जाता है, अतः फल की हानि
होती हैं । किन्तु जो श्रीकृष्ण को चाहनेवाले वक्ता और श्रोता हैं, उन्हें विलम्ब होने पर भी सिद्धि अवश्य मिलती है ॥ ४० ॥
पर धनार्थी को तो तभी सिद्धि मिलती
हैं,
जब उनके अनुष्ठान का विधि-विधान पूरा उतर जाय । श्रीकृष्ण की चाह
रखनेवाला सर्वथा गुणहीन हो और उसकी विधि में कुछ कमी रह जाय तो भी, यदि उसके हृदय में प्रेम हैं तो, वहीं उसके लिये
सर्वोत्तम विधि हैं ॥ ४१ ॥
सकाम पुरुष को कथा की समाप्ति के
दिन तक स्वयं सावधानी के साथ सभी विधियों का पालन करना चाहिये । (भागवतकथा श्रोता
और वक्ता दोनों ही पालन करने योग्य विधि यह है — ) प्रतिदिन प्रातःकाल स्नान करके अपना नित्यकर्म पूरा कर ले । फिर भगवान् का
चरणामृत पीकर पूजा के सामान से श्रीमद्भागवत की पुस्तक और गुरुदेव (व्यास) का पूजन
करे । इसके पश्चात् अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक श्रीमद्भागवत की कथा स्वयं कहे अथवा
सुने ॥ ४२-४३ ॥
दूध या खीर का मौन भोजन करे । नित्य
ब्रह्मचर्य का पालन और भूमि पर शयन करे, क्रोध
और लोभ आदि को त्याग दे ॥ ४४ ॥
प्रतिदिन कथा के अन्त में कीर्तन
करे और कथा-समाप्ति के दिन रात्रि में जागरण करे । समाप्ति होने पर ब्राह्मणों को
भोजन कराकर उन्हें दक्षिणा से सन्तुष्ट करे ॥ ४५ ॥
कथावाचक गुरु को वस्त्र,
आभूषण आदि देकर गौ भी अर्पण करे । इस प्रकार विधि-विधान पूर्ण करने
पर मनुष्य को स्त्री, घर, पुत्र,
राज्य और धन आदि जो-जो उसे अभीष्ट होता है, वह
सब मनोवाञ्छित फल प्राप्त होता है । परन्तु सकामभाव बहुत बड़ी विडम्बना है,
वह श्रीमद्भागवत की कथा में शोभा नहीं देता ॥ ४६-४७ ॥
श्रीशुकदेवजी के मुख से कहा हुआ यह
श्रीमद्भागवतशास्त्र तो कलियुग में साक्षात् श्रीकृष्ण की प्राप्ति करानेवाला और
नित्य प्रेमानन्दरूप फल प्रदान करनेवाला है ॥ ४८ ॥
॥ श्रीस्कान्दे महापुराणे
एकाशीतिसाहस्र्यां संहिताया द्वितीये वैष्णवखण्डे श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये
णागवतश्रोतृवक्तृलक्षणश्रवणविधि-निरुपणं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य श्रीस्कन्द महापुराण समाप्त ॥
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