नरसिंहपुराण अध्याय ३
नरसिंहपुराण अध्याय ३ में ब्रह्माजी
द्वारा लोकरचना और नौ प्रकार की सृष्टियों का निरूपण का वर्णन है।
श्रीनरसिंहपुराण अध्याय ३
Narasingha puran chapter
3
नरसिंह पुराण तीसरा अध्याय
नरसिंहपुराण अध्याय ३
श्रीनरसिंहपुराण तृतीयोऽध्यायः
सूत उवाच
तत्र सुप्तस्य देवस्य नाभौ
पद्ममभून्महत् ।
तस्मिन् पद्मे महाभाग
वेदवेदाङ्गपारगः ॥१॥
ब्रह्मोत्पन्नः स तेनोक्तः प्रजां
सृज महामते ।
एवमुक्त्वा तिरोभावं गतो नारायणः
प्रभुः ॥२॥
तथेत्युक्त्वा स तं देवं विष्णुं
ब्रह्माथ चिन्तयन् ।
आस्ते किंचिज्जगद्वीजं नाध्यगच्छत
किंचन ॥३॥
तावत्तस्य महान् रोषो
ब्रह्मणोऽभून्महात्मनः ।
ततो बालः समुत्पन्नस्तस्याङ्के
रोषसम्भवः ॥४॥
स रुदन्वारितस्तेन ब्रह्मणा
व्यक्तमूर्तिना ।
नाम मे देहि चेत्युक्तस्तस्य
रुद्रेत्यसौ ददौ ॥५॥
सूतजी बोले - महाभाग ! नैमित्तिक
प्रलयकालमें सोये हुए भगवान् नारायणकी नाभिमें एक महान् कमल उत्पन्न हुआ । उसीसे
वेद - वेदाङ्गोंके पारगामी ब्रह्माजीका प्रादुर्भाव हुआ । तब उनसे भगवान् नारायणने
कहा - '
महामते ! तुम प्रजाकी सृष्टि करो ' और यह कहकर
वे अन्तर्धान हो गये । उन भगवान् विष्णुसे ' तथास्तु '
कहकर ब्रह्माजी सोचने लगे - ' क्या जगतकी
सृष्टिका कोई बीज है ? ' परंतु बहुत सोचनेपर भी उन्हें किसी
बीजका पता न लगा । तब महात्मा ब्रह्माजीको महान् रोष हुआ । रोष होते ही उनकी
गोदमें एक बालक प्रकट हो गया, जो उनके रोषसे ही प्रादुर्भूत
हुआ था । उस बालकको रोते देख स्थूळ शरीरधारी ब्रह्माजीने उसे रोनेसे मना किया ।
फिर उसके यह कहनेपर कि ' मेरा नाम रख दीजिये ', उन्होंने उसका ' रुद्र ' नाम
रख दिया ॥१ - ५॥
तेनासौ विसृजस्वेति प्रोक्तो
लोकमिमं पुनः ।
अशक्तस्तत्र सलिले ममज्ज तपसाऽऽदृतः
॥६॥
तस्मिन् सलिलमग्ने तु पुनरन्यं
प्रजापतिः ।
ब्रह्मा ससर्ज भूतेशो
दक्षिणाङ्गुष्ठतोऽपरम् ॥७॥
दक्षं वामे ततोऽङ्गुष्ठे तस्य पत्नी
व्यजायत ।
स तस्यां जनयामास मनुं स्वायम्भुवं
प्रभुः ॥८॥
तस्मात् सम्भाविता सृष्टिः प्रजानां
ब्रह्मणा तदा ।
इत्येवं कथिता सृष्टिर्मया ते
मुनिसत्तम ।
सृजतो जगतीं तस्य किं भूयः
श्रोतुमिच्छसि ॥९॥
इसके बाद ब्रह्माजीने उससे कहा कि '
तुम इस लोककी सृष्टि करो ' - यह कहनेपर उस
कार्यमें असमर्थ होनेके कारण वह सादर तपस्याके लिये जलमें निमग्न हो गया । उसके
जलमें निमग्न हो जानेपर भूतनाथ प्रजापति ब्रह्माजीने फिर अपने दाहिने अँगूठेसे '
दक्ष ' नामक एक दूसरे पुत्रको उत्पन्न किया,
तत्पश्चात् बायें अँगूठेसे उसकी पत्नी प्रकट हुई । प्रभु दक्षने उस
स्त्रीसे स्वायम्भुव मनुको जन्म दिया । तब ब्रह्मजीने उसी मनुसे प्रजाओंकी सृष्टि
बढ़ायी । मुनिवर ! वसुधाकी सृष्टि करनेवाले उस विधाताकी सृष्टि-रचनाका यह क्रम
मैंने आपसे वर्णन किया । अब आप और क्या सुनना चाहते हैं?॥६- ९॥
भरद्वाज उवाच
संक्षेपेण तदाऽऽख्यातं त्वया मे
लोमहर्षण ।
विस्तरेण पुनर्बूहि आदिसर्गं महामते
॥१०॥
भरद्वाजजी बोले - लोमहर्षणजी ! आपने
यह सब वृत्तान्त मुझसे पहले संक्षेपसे कहा है । महामते ! अब आप विस्तारके साथ
आदिसर्गका वर्णन कीजिये ॥१०॥
सूत उवाच
तथैव कल्पावसाने निशासुप्तोत्थितः
प्रभुः ।
सत्त्वोद्रिक्तस्तदा ब्रह्मा शून्यं
लोकमवैक्षत ॥११॥
नारायणः परोऽचिन्त्यः पूर्वेषामपि
पूर्वजः ।
ब्रह्मस्वरुपी भगवाननादिः
सर्वसम्भवः ॥१२॥
इमं चोदाहरन्त्यत्र श्लोकं नारायणं
प्रति ।
ब्रह्मस्वरुपिणं देवं जगतः
प्रभवात्मकम् ॥१३॥
आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै
नरसूनवः ।
अयनं तस्य ताः पूर्वं तेन नारायणः
स्मृतः ॥१४॥
सृष्टिं चिन्तयतस्तस्य कल्पादिषु
यथा पुरा ।
अबुद्धिपूर्वकं तस्य प्रादुर्भूतं
तमस्तदा ॥१५॥
सूतजी बोले - पिछले कल्पका अन्त
होनेपर रात्रिमें सोकर उठनेके बाद सत्त्वगुणके उद्रेकसे युक्त (नारायणस्वरुप)
भगवान् ब्रह्माजीने उस समय सम्पूर्ण लोकको शून्यमय देखा । वे ब्रह्मस्वरुपी भगवान्
ब्रह्मजीने उस समय सम्पूर्ण लोकको शून्यमय देखा । वे ब्रह्मस्वरुपी भगवान् नारायण
सबसे परे हैं, अचिन्त्य हैं, पूर्वजोंके भी पूर्वज हैं, अनादि हैं और सबकी
उत्पत्तिके कारण हैं । इस जगतकी उत्पत्तिके कारणभूत उन ब्रह्मस्वरुप नारायणदेवके
विषयमें पुराणवेत्ता विद्वान् यह श्लोक कहते हैं - '' जल
भगवान् नर - पुरुषोत्तमसे उत्पन्न है, इसलिये ' नार ' कहलाता है । नार ( जल ) ही उनका प्रथम अयन (
आदि शयन - स्थान ) है, इसलिये वे भगवान् ' नारायण ' कहे जाते हैं ।'' इस
प्रकार कल्पके आदिमें पूर्ववत् सृष्टिका चिन्तन करते समय ब्रह्माजीके बिना जाने ही
असावधानता हो जानेके कारण तमोगुणी सृष्टिका प्रादुर्भाव हुआ ॥११ - १५॥
तमो मोहो महामोहस्तामिस्रो
ह्यन्धसंज्ञितः ।
अविद्या पञ्चपर्वैषा प्रादुर्भूता
महात्मनः ॥१६॥
पञ्चधाधिष्ठितः सर्गो
ध्यायतोऽप्रतिबोधवान् ।
बहिरन्तोऽप्रकाशश्च संवृतात्मा
नगात्मकः ।
मुखसर्गः स विज्ञेयः सर्गसिद्धिविचक्षणैः
॥१७॥
यत्पुनर्ध्यायतस स्य ब्रह्मणः
समपद्यत ।
तिर्यक्स्त्रोतस्ततस्तस्मात्
तिर्यग्योनिस्ततः स्मृतः ॥१८॥
पश्चादयस्ते विख्याता
उत्पथग्राहिणश्च ये ।
तमप्यसाधकं मत्वा तिर्यग्योनिं
चतुर्मुखः ॥१९॥
ऊर्ध्वस्त्रोतास्तृतीयस्तु
सात्त्विकः समवर्तत ।
तदा तुष्टोऽन्यसर्गं च चिन्तयामास
वै प्रभुः ॥२०॥
ततश्चिन्तयतस्तस्य सर्गवृद्धिं
प्रजापतेः ।
अर्वाक्स्त्रोताः समुत्पन्ना
मनुष्याः साधका मताः ॥२१॥
ते च प्रकाशबहुलास्तमोयुक्ता
रजोऽधिकाः ।
तस्मात्ते दुःखबहुला भूयो भूयश्च
कारिणः ॥२२॥
उस समय उन महात्मासे तम ( अज्ञान ),
मोह, महामोह ( भोगेच्छा ), तामिस्त्र ( क्रोध ) और अन्धतामिस्त्र ( अभिनिवेश ) नामक पञ्चपर्वा ( पाँच
प्रकारकी ) अविद्या उत्पन्न हुई । फिर सृष्टिके लिये ध्यान करते हुए ब्रह्माजीसे
वृक्ष, गुल्म, लता, वीरुध् एवं तृणरुप पाँच प्रकारका स्थावरात्मक सर्ग हुआ, जो बाहर - भीतरसे प्रकाशरहित, अविद्यासे आवृत्त एवं
ज्ञानशून्य था । सर्गसिद्धिके ज्ञाता विद्वान् इसे ' मुख्य
सर्ग ' समझे; ( क्योकिं अचल वस्तुओंको
मुख्य कहा गया है । ) फिर सृष्टिके लिये ध्यान करनेपर उन ब्रह्माजीसे तिर्यक् -
स्त्रोत नामक सृष्टि हुई । तिरछा चलनेके कारण उसकी ' तिर्यक्
' संज्ञा है । उससे उत्पन्न हुआ सर्ग ' तिर्यग्योनि ' कहा जाता है । वे विख्यात पशु आदि जो
कुमार्गसे चलनेवाले हैं, तिर्यग्योनि कहलाते हैं । चतुर्मुख
ब्रह्माजीने उस तिर्यक्स्त्रोता सर्गको पुरुषार्थका असाधक मानकर जब पुनः सृष्टिके
लिये चिन्तन किया, तब उनसे तृतीय ' ऊर्ध्वस्त्रोता
' नामक सर्ग हुआ । यह सत्त्वगुणसे युक्त था ( यही ' देवसर्ग ' है ) । तब भगवानने प्रसन्न होकर पुनः अन्य
सृष्टिके लिये चिन्तन किया । तदनन्तर सर्गकी वृद्धिके विषयमें चिन्तन करते हुए उन
प्रजापतिसे ' अर्वाकस्त्रोता ' नामक
सर्गकी उत्पत्ति हुई । इसीके अन्तर्गत मनुष्य हैं, जो
पुरुषार्थाके साधक माने गये हैं । इनमें प्रकाश ( सत्त्वगुण ), और रज - इन दो गुणोंको अधिकता है और तमोगुण भी है । इसलिये ये अधिकतर
दुःखी और अत्याधिक क्रियाशील होते हैं ॥१६ - २२॥
एते ते कथिताः सर्गा बहवो मुनिसत्तम
।
प्रथमो महतः सर्गस्तन्मात्राणां
द्वितीयकः ॥२३॥
वैकारिकस्तृतीयस्तु सर्ग ऐन्द्रियकः
स्मृतः ।
मुख्यसर्गश्चतुर्थस्तु मुख्या वै
स्थावराः स्मृताः ॥२४॥
तिर्यक्स्त्रोताश्च यः
प्रोक्तस्तिर्यग्योनिः स उच्यते ।
ततोर्ध्वस्त्रोतसां षष्ठो
देवसर्गस्तु स स्मृतः ॥२५॥
ततोऽर्वाक्स्त्रोतसां सर्गः सप्तमो
मानुषः स्मृतः ।
अष्टमोऽनुग्रहः सर्गः सात्त्विको य
उदाहतः ॥२६॥
नवमो रुद्रसर्गस्तु नव सर्गाः
प्रजापतेः ।
पञ्चैते वैकृताः सर्गाः
प्राक्रुतास्ते त्रयः स्मृताः ।
प्राकृतो वैकृतश्चैव कौमारो नवमः
स्मृतः ॥२७॥
प्राकृता वैकृताश्चैव जगतो मूलहेतवः
।
सृजतो ब्रह्मणः सृष्टिमुत्पन्ना ये
मयेरिताः ॥२८॥
तं तं विकारं च परं परेशो
मायामधिष्ठाय सृजत्यनन्तः ।
अव्यक्तरुपी परमात्मसंज्ञः
सम्प्रेर्यमाणो निखिलात्मवेद्यः
॥२९॥
मुनिश्रेष्ठ ! इन बहुत - से सर्गोका
मैंने आपसे वर्णन किया है । इनमें ' महत्तत्व
' को पहला सर्ग कहा गया है । दूसरा सर्ग ' तन्मात्राओं ' का है । तीसरा वैकारिक सर्ग है,
जो ' ऐन्द्रिय ' ( इन्द्रियसम्बन्धी
) कहलाता है । चौथा ' मुख्य ' कहे गये
हैं । स्थावर ( वृक्ष, तृण, लता आदि )
ही ' मुख्य ' कहे गये हैं ।
तिर्यक्स्त्रोता नामक जो पाँचवाँ सर्ग कहा गया है, वह '
तिर्यग्योनि ' कहलाता है । इसके बाद छठा '
ऊर्ध्वस्तोत्राओं ' का सर्ग है । उसे '
देवसर्ग ' कहा जाता है । फिर सातवाँ
अर्वाक्स्त्रोताओंका सर्ग है, उसे ' मानव
- सर्ग ' कहते हैं । आठवाँ ' अनुग्रह -
सर्ग ' हैं, जिसे ' सात्त्विक ' कहा गया है । नवाँ रुद्रसर्ग ' है - ये ही नौ सर्ग प्रजापतिसे उत्पन्न हुए हैं । इनमें पहलेके तीन '
प्राकृत सर्ग ' कहे गये हैं । उसके बादवाले
पाँच ' वैकृत सर्ग ' हैं और नवाँ जो '
कौमार सर्ग ' है, वह
प्राकृत और वैकृत भी है । इस प्रकार सृष्टि - रचनामें प्रवृत्त हुए ब्रह्माजीसे
उत्पन्न हुए जो जगतकी उत्पत्तिके मूलकारण प्राकृत और वैकृत सर्ग हैं, उनका मैंने वर्णन किया । सबके आत्मरुपसे जाननेयोग्य अव्यक्तस्वरुप
परमात्मा परमेश्वर भगवान् अनन्तदेव अपनी मायाका आश्रय लेकर प्रेरित होते हुए - से
- उन विकारोंकी सृष्टि करते हैं ॥२३ - २९॥
इति श्रीनरसिंहपुराणे
सृष्टिरचनाप्रकारोनाम तृतीयोऽध्यायः ॥३॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें '
सृष्टिरचनाका प्रकार ' नामक तीसरा अध्याय पुरा
हुआ ॥३॥
आगे जारी- श्रीनरसिंहपुराण अध्याय 3
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