श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २१
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २१ "महाराज पृथु का अपनी प्रजा को उपदेश"
श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकविंश अध्यायः
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४
अध्याय २१
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४
अध्यायः २१
श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध इक्कीसवाँ
अध्याय
चतुर्थ
स्कन्ध: श्रीमद्भागवत महापुराण
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २१ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
मैत्रेय उवाच -
(अनुष्टुप्)
मौक्तिकैः कुसुमस्रग्भिः दुकूलैः
स्वर्णतोरणैः ।
महासुरभिभिर्धूपैः मण्डितं तत्र
तत्र वै ॥ १ ॥
चन्दनागुरुतोयार्द्र
रथ्याचत्वरमार्गवत् ।
पुष्पाक्षतफलैस्तोक्मैः
लाजैरर्चिर्भिरर्चितम् ॥ २ ॥
सवृन्दैः कदलीस्तम्भैः पूगपोतैः
परिष्कृतम् ।
तरुपल्लवमालाभिः सर्वतः समलङ्कृतम्
॥ ३ ॥
प्रजास्तं दीपबलिभिः संभृताशेषमङ्गलैः
।
अभीयुर्मृष्टकन्याश्च
मृष्टकुण्डलमण्डिताः ॥ ४ ॥
शङ्खदुन्दुभिघोषेण ब्रह्मघोषेण
चर्त्विजाम् ।
विवेश भवनं वीरः स्तूयमानो गतस्मयः
॥ ५ ॥
पूजितः पूजयामास तत्र तत्र महायशाः
।
पौराञ्जानपदान् स्तांस्तान् प्रीतः
प्रियवरप्रदः ॥ ॥ ६ ॥
स एवमादीन्यनवद्यचेष्टितः
कर्माणि भूयांसि महान्महत्तमः ।
कुर्वन्शशासावनिमण्डलं यशः
स्फीतं निधायारुरुहे परं पदम् ॥ ७ ॥
सूत उवाच -
तदादिराजस्य यशो विजृम्भितं
गुणैरशेषैर्गुणवत्सभाजितम् ।
क्षत्ता महाभागवतः सदस्पते
कौषारविं प्राह गृणन्तमर्चयन् ॥ ८ ॥
विदुर उवाच -
(अनुष्टुप्)
सोऽभिषिक्तः पृथुर्विप्रैः
लब्धाशेषसुरार्हणः ।
बिभ्रत् स वैष्णवं तेजो
बाह्वोर्याभ्यां दुदोह गाम् ॥ ९ ॥
को न्वस्य कीर्तिं न शृणोत्यभिज्ञो
यद्विक्रमोच्छिष्टमशेषभूपाः ।
लोकाः सपाला उपजीवन्ति कामं
अद्यापि तन्मे वद कर्म शुद्धम् ॥ १० ॥
मैत्रेय उवाच -
(अनुष्ट्प्)
गङ्गायमुनयोर्नद्योः अन्तरा
क्षेत्रमावसन् ।
आरब्धानेव बुभुजे भोगान्
पुण्यजिहासया ॥ ११ ॥
सर्वत्रास्खलितादेशः
सप्तद्वीपैकदण्डधृक् ।
अन्यत्र ब्राह्मणकुलाद्
अन्यत्राच्युतगोत्रतः ॥ १२ ॥
एकदासीन् महासत्र दीक्षा तत्र
दिवौकसाम् ।
समाजो ब्रह्मर्षीणां च राजर्षीणां च
सत्तम ॥ १३ ॥
तस्मिन् अर्हत्सु सर्वेषु
स्वर्चितेषु यथार्हतः ।
उत्थितः सदसो मध्ये ताराणां
उडुराडिव ॥ १४ ॥
प्रांशुः पीनायतभुजो गौरः
कञ्जारुणेक्षणः ।
सुनासः सुमुखः सौम्यः पीनांसः सुद्विजस्मितः
॥ १५ ॥
व्यूढवक्षा बृहच्छ्रोणिः
वलिवल्गुदलोदरः ।
आवर्तनाभिरोजस्वी
काञ्चनोरुरुदग्रपात् ॥ १६ ॥
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;-
विदुर जी! उस समय महाराज पृथु का नगर सर्वत्र मोतियों की लड़ियों,
फूलों की मालाओं, रंग-बिरंगे वस्त्रों,
सोने के दरवाजों और अत्यन्त सुगन्धित धूपों से सुशोभित था। उसकी
गलियाँ, चौक और सड़कें चन्दन और अरगजे के जल से सींच दी गयी
थीं तथा उसे पुष्प, अक्षत, फल, यवांकुर, खील और दीपक आदि मांगलिक द्रव्यों से सजाया
गया गया। वह ठौर-ठौर पर रखे हुए फल-फूल के गुच्छों से युक्त केले के खंभों और
सुपारी के पौधों से बड़ा ही मनोहर जान पड़ता था तथा सब ओर आम आदि वृक्षों के नवीन
पत्तों की बंदनवारों से विभूषित था।
जब महाराज ने नगर में प्रवेश किया,
तब दीपक, उपहार और अनेक प्रकार की मांगलिक
सामग्री लिये हुए प्रजाजनों ने तथा मनोहर कुण्डलों से सुशोभित सुन्दरी कन्याओं ने
उनकी अगवानी की। शंख और दुन्दुभि आदि बाजे बजने लगे, ऋत्विजगण
वेदध्वनि करने लगे, वन्दीजनों ने स्तुतिगान आरम्भ कर दिया।
यह सब देख और सुनकर भी उन्हें किसी प्रकार का अहंकार नहीं हुआ। इस प्रकार वीरवर
पृथु ने राजमहल में प्रवेश किया। मार्ग में जहाँ-तहाँ पुरवासी और देशवासियों ने
उनका अभिनन्दन किया। परमयशस्वी महाराज ने उन्हें प्रसन्नतापूर्वक अभीष्ट वर देकर
सन्तुष्ट किया। महाराज पृथु महापुरुष और सभी के पूजनीय थे। उन्होंने इसी प्रकार के
अनेकों उदार कर्म करते हुए पृथ्वी का शासन किया और अन्त में अपने विपुल यश का
विस्तार कर भगवान् का परमपद प्राप्त किया।
सूत जी कहते हैं ;-
मुनिवर शौनक जी! इस प्रकार भगवान् मैत्रेय के मुख से आदिराज पृथु का
अनेक प्रकार के गुणों से सम्पन्न और गुणवानों द्वारा प्रशंसित विस्तृत सुयश सुनकर
परम भागवत विदुर जी ने उनका अभिनन्दन करते हुए कहा।
विदुर जी बोले ;-
ब्रह्मन्! ब्राह्मणों ने पृथु का अभिषेक किया। समस्त देवताओं ने
उन्हें उपहार दिये। उन्होंने अपनी भुजाओं में वैष्णव तेज को धारण किया और उससे
पृथ्वी का दोहन किया। उनके उस पराक्रम के उच्छिष्टरूप विषय भोगों से ही आज भी
सम्पूर्ण राजा तथा लोकपालों के सहित समस्त लोक इच्छानुसार जीवन-निर्वाह करते हैं।
भला, ऐसा कौन समझदार होगा जो उनकी पवित्र कीर्ति सुनना न
चाहेगा। अतः अभी आप मुझे उनके कुछ और भी पवित्र चरित्र सुनाइये।
श्रीमैत्रे जी ने कहा ;-
साधुश्रेष्ठ विदुर जी! महाराज पृथु गंगा और यमुना के मध्यवर्ती देश
में निवास कर अपने पुण्यकर्मो के क्षय की इच्छा से प्रारब्धवश प्राप्त हुए भोगों
को ही भोगते थे। ब्राह्मणवंश और भगवान् के सम्बन्धी विष्णुभक्तों को छोड़कर उनका
सातों द्वीपों के सभी पुरुषों पर अखण्ड एवं अबाध शासन था।
एक बार उन्होंने एक महासत्र की
दीक्षा ली; उस समय वहाँ देवताओं, ब्रह्मार्षियों और राजर्षियों का बहुत बड़ा समाज एकत्र हुआ। उस समाज में
महाराज पृथु ने उन पूजनीय अतिथियों का यथायोग्य सत्कार किया और फिर उस सभा में,
नक्षत्रमण्डल में चन्द्रमा के समान खड़े हो गये। उनका शरीर ऊँचा,
भुजाएँ भरी और विशाल, रंग गोरा, नेत्र कमल के समान सुन्दर और अरुणवर्ण, नासिका सुघड़,
मुख मनोहर, स्वरूप सौम्य, कंधे ऊँचे और मुस्कान से युक्त दन्तपंक्ति सुन्दर थी। उनकी छाती चौड़ी,
कमर का पिछला भाग स्थूल और उदर पीपल के पत्ते के समान सुडौल तथा बल
पड़े हुए होने से और भी सुन्दर जान पड़ता था। नाभि भँवर के समान गम्भीर थी,
शरीर तेजस्वी था, जंघाएँ सुवर्ण के समान
देदीप्यमान थीं तथा पैरों के पंजे उभरे हुए थे।
सूक्ष्मवक्रासितस्निग्ध मूर्धजः
कम्बुकन्धरः ।
महाधने दुकूलाग्र्ये परिधायोपवीय च
॥ १७ ॥
व्यञ्जिताशेषगात्रश्रीः नियमे
न्यस्तभूषणः ।
कृष्णाजिनधरः श्रीमान् कुशपाणिः
कृतोचितः ॥ १८ ॥
शिशिरस्निग्धताराक्षः समैक्षत
समन्ततः ।
ऊचिवान् इदमुर्वीशः सदः
संहर्षयन्निव ॥ १९ ॥
चारु चित्रपदं श्लक्ष्णं मृष्टं
गूढमविक्लवम् ।
सर्वेषां उपकारार्थं तदा अनुवदन्निव
॥ २० ॥
राजोवाच -
सभ्याः श्रृणुत भद्रं वः साधवो य इहागताः
।
सत्सु जिज्ञासुभिर्धर्मं आवेद्यं
स्वमनीषितम् ॥ २१ ॥
अहं दण्डधरो राजा प्रजानामिह योजितः
।
रक्षिता वृत्तिदः स्वेषु सेतुषु
स्थापिता पृथक् ॥ २२ ॥
तस्य मे तदनुष्ठानाद्
यानाहुर्ब्रह्मवादिनः ।
लोकाः स्युः कामसन्दोहा यस्य
तुष्यति दिष्टदृक् ॥ २३ ॥
य उद्धरेत्करं राजा प्रजा
धर्मेष्वशिक्षयन् ।
प्रजानां शमलं भुङ्क्ते भगं च स्वं
जहाति सः ॥ २४ ॥
तत्प्रजा भर्तृपिण्डार्थं
स्वार्थमेवानसूयवः ।
कुरुताधोक्षजधियः तर्हि मेऽनुग्रहः
कृतः ॥ २५ ॥
यूयं तदनुमोदध्वं पितृदेवर्षयोऽमलाः
।
कर्तुः शास्तुरनुज्ञातुः तुल्यं
यत्प्रेत्य तत्फलम् ॥ २६ ॥
अस्ति यज्ञपतिर्नाम
केषाञ्चिदर्हसत्तमाः ।
इहामुत्र च लक्ष्यन्ते
ज्योत्स्नावत्यः क्वचिद्भुवः ॥ २७ ॥
मनोरुत्तानपादस्य ध्रुवस्यापि
महीपतेः ।
प्रियव्रतस्य राजर्षेः अङ्गस्यास्मत्पितुः
पितुः ॥ २८ ॥
ईदृशानां अथान्येषां अजस्य च भवस्य
च ।
प्रह्लादस्य बलेश्चापि कृत्यमस्ति
गदाभृता ॥ २९ ॥
दौहित्रादीन् ऋते मृत्योः शोच्यान्
धर्मविमोहितान् ।
वर्गस्वर्गापवर्गाणां
प्रायेणैकात्म्यहेतुना ॥ ३० ॥
उनके बाल बारीक,
घुँघराले, काले और चिकने थे; गरदन शंख के समान उतार-चढ़ाव वाली तथा रेखाओं से युक्त थी और वे उत्तम
बहुमूल्य धोती पहने और वैसी ही चादर ओढ़े थे। दीक्षा के नियमानुसार उन्होंने समस्त
आभूषण उतार दिये थे; इसी से उनके शरीर के अंग-प्रत्यंग की
शोभा अपने स्वाभाविक रूप में स्पष्ट झलक रही थी। वे शरीर पर कृष्णमृग का चर्म और
हाथों में कुशा धारण किये हुए थे। इससे उनके शरीर की कान्ति और भी बढ़ गयी थी। वे
अपने सारे नित्यकृत्य यथाविधि सम्पन्न कर चुके थे। राजा पृथु ने मानो सारी सभा को
हर्ष से सराबोर करते हुए अपने शीतल एवं स्नेहपूर्ण नेत्रों से चारों ओर देखा और
फिर अपना भाषण प्रारम्भ किया। उनका भाषण अत्यन्त सुन्दर, विचित्र
पदों से युक्त, स्पष्ट, मधुर, गम्भीर एवं निश्शंक था। मानो उस समय वे सबका उपकार करने के लिये अपने
अनुभव का ही अनुवाद कर रहे हों।
राजा पृथु ने कहा ;-
सज्जनों! आपका कल्याण हो। आप महानुभाव, जो
यहाँ पधारे हैं, मेरी प्रार्थना सुनें-जिज्ञासु पुरुषों को
चाहिये कि संत-समाज में अपने निश्चय का निवेदन करें। इस लोक में मुझे प्रजाजनों का
शासन, उनकी रक्षा, उनकी आजीविका का
प्रबन्ध तथा उन्हें अलग-अलग अपनी मर्यादा रखने के लिये राजा बनाया गया है। अतः
इनका यथावत् पालन करने से मुझे उन्हीं मनोरथ पूर्ण करने वाले लोकों की प्राप्ति
होनी चाहिये, जो वेदवादी मुनियों के मतानुसार सम्पूर्ण
कर्मों के साक्षी श्रीहरि के प्रसन्न होने पर मिलते हैं। जो राजा प्रजा को
धर्ममार्ग की शिक्षा न देकर केवल उससे कर वसूल करने में लगा रहता है, वह केवल प्रजा के पाप का ही भागी होता है और अपने ऐश्वर्य से हाथ धो बैठता
है। अतः प्रिय प्रजाजन! अपने इस राजा का परलोक में हित करने के लिये आप लोग परस्पर
दोषदृष्टि छोड़कर हृदय से भगवान् को याद रखते हुए अपने-अपने कर्तव्य का पालन करते
रहिये; क्योंकि आपका स्वार्थ भी इसी में है और इस प्रकार मुझ
पर भी आपका बड़ा अनुग्रह होगा।
विशुद्धचित्त देवता,
पितर और महर्षिगण! आप भी मेरी इस प्रार्थना का अनुमोदन कीजिये;
क्योंकि कोई भी कर्म हो, मरने के अनन्तर उसके
कर्ता, उपदेष्टा और समर्थक को उसका समान फल मिलता है। माननीय
सज्जनों! किन्हीं श्रेष्ठ महानुभावों के मत में तो कर्मों का फल देने वाले भगवान्
यज्ञपति ही हैं; क्योंकि इहलोक और परलोक दोनों ही जगह
कोई-कोई शरीर बड़े तेजोमय देखे जाते हैं। मनु, उत्तानपाद,
महीपति ध्रुव, राजर्षि प्रियव्रत, हमारे दादा अंग तथा ब्रह्मा, शिव, प्रह्लाद, बलि और इसी कोटि के अन्यान्य महानुभावों
के मत में तो धर्म-अर्थ-काम-मोक्षरूप चतुर्वर्ग तथा स्वर्ग और अपवर्ग के स्वाधीन
नियामक, कर्म फलदातारूप से भगवान् गदाधर की आवश्यकता है ही।
इस विषय में तो केवल मृत्यु के दौहित्र वेन आदि कुछ शोचनीय और धर्मविमूढ़ लोगों का
ही मतभेद है। अतः उसका कोई विशेष महत्त्व नहीं हो सकता।
यत्पादसेवाभिरुचिः तपस्विनां
अशेषजन्मोपचितं मलं धियः ।
सद्यः क्षिणोत्यन्वहमेधती सती
यथा पदाङ्गुष्ठविनिःसृता सरित् ॥ ३१ ॥
विनिर्धुताशेषमनोमलः पुमान्
असङ्गविज्ञानविशेषवीर्यवान् ।
यदङ्घ्रिमूले कृतकेतनः पुनः
न संसृतिं क्लेशवहां प्रपद्यते ॥ ३२ ॥
तमेव यूयं भजतात्मवृत्तिभिः
मनोवचःकायगुणैः स्वकर्मभिः ।
अमायिनः कामदुघाङ्घ्रिपङ्कजं
यथाधिकारावसितार्थसिद्धयः ॥ ३३ ॥
असौ इहानेकगुणोऽगुणोऽध्वरः
पृथक् विधद्रव्यगुणक्रियोक्तिभिः ।
सम्पद्यतेऽर्थाशयलिङ्गनामभिः
विशुद्धविज्ञानघनः स्वरूपतः ॥ ३४ ॥
प्रधानकालाशयधर्मसङ्ग्रहे
शरीर एष प्रतिपद्य चेतनाम् ।
क्रियाफलत्वेन विभुर्विभाव्यते
यथानलो दारुषु तद्गुणात्मकः ॥ ३५ ॥
अहो ममामी वितरन्त्यनुग्रहं
हरिं गुरुं यज्ञभुजामधीश्वरम् ।
स्वधर्मयोगेन यजन्ति मामका
निरन्तरं क्षोणितले दृढव्रताः ॥ ३६ ॥
मा जातु तेजः प्रभवेन्महर्द्धिभिः
तितिक्षया तपसा विद्यया च ।
देदीप्यमानेऽजितदेवतानां
कुले स्वयं राजकुलाद् द्विजानाम् ॥ ३७ ॥
ब्रह्मण्यदेवः पुरुषः पुरातनो
नित्यं हरिर्यच्चरणाभिवन्दनात् ।
अवाप लक्ष्मीं अनपायिनीं यशो
जगत्पवित्रं च महत्तमाग्रणीः ॥ ३८ ॥
यत्सेवयाशेषगुहाशयः स्वराड्
विप्रप्रियस्तुष्यति काममीश्वरः ।
तदेव तद्धर्मपरैर्विनीतैः
सर्वात्मना ब्रह्मकुलं निषेव्यताम् ॥ ३९ ॥
पुमान् लभेतान् अतिवेलमात्मनः
प्रसीदतोऽत्यन्तशमं स्वतः स्वयम् ।
यन्नित्यसंबन्धनिषेवया ततः
परं किमत्रास्ति मुखं हविर्भुजाम् ॥ ४० ॥
अश्नात्यनन्तः खलु तत्त्वकोविदैः
श्रद्धाहुतं यन्मुख इज्यनामभिः ।
न वै तथा चेतनया बहिष्कृते
हुताशने पारमहंस्यपर्यगुः ॥ ४१ ॥
यद्ब्रह्म नित्यं विरजं सनातनं
श्रद्धातपोमङ्गल मौनसंयमैः ।
समाधिना बिभ्रति हार्थदृष्टये
यत्रेदमादर्श इवावभासते ॥ ४२ ॥
तेषामहं पादसरोजरेणुं
आर्या वहेयाधिकिरीटमाऽऽयुः ।
यं नित्यदा बिभ्रत आशु पापं
नश्यत्यमुं सर्वगुणा भजन्ति ॥ ४३ ॥
जिनके चरणकमलों की सेवा के लिये
निरन्तर बढ़ने वाली अभिलाषा उन्हीं के चरणनख से निकली हुई गंगाजी के समान,
संसारताप से संतप्त जीवों के समस्त जन्मों के संचित मनोमल को तत्काल
नष्ट कर देती है, जिनके चरणतल का आश्रय लेने वाला पुरुष सब
प्रकार के मानसिक दोषों को धो डालता तथा वैराग्य और तत्त्वसाक्षात्काररूप बल पाकर
फिर इस दुःखमय संसार चक्र में नहीं पड़ता और जिनके चरणकमल सब प्रकार की कामनाओं को
पूर्ण करने वाले हैं-उन प्रभु को आप लोग अपनी-अपनी आजीविका के उपयोगी
वर्णाश्रमोचित अध्यापनादि कर्मों तथा ध्यान-स्तुति-पुजादि मानसिक, वाचिक एवं शारीरिक क्रियाओं के द्वारा भजें। हृदय में किसी प्रकार का कपट
न रखें तथा यह निश्चय रखें कि हमें अपने-अपने अधिकारानुसार इसका फल अवश्य प्राप्त
होगा।
भगवान् स्वरूपतः विशुद्ध विज्ञानघन
और समस्त विशेषणों से रहित हैं; किन्तु इस
कर्ममार्ग में जौ-चावल आदि विविध द्रव्य, शुक्लादि गुण,
अवघात (कूटना) आदि क्रिया एवं मन्त्रों के द्वारा और अर्थ, आशय (संकल्प), लिंग (पदार्थ-शक्ति) तथा ज्योतिष्टोम
आदि नामों से सम्पन्न होने वाले, अनेक विशेषण युक्त यज्ञ के
रूप में प्रकाशित होते हैं। जिस प्रकार एक ही अग्नि भिन्न-भिन्न काष्ठों में
उन्हीं के आकारादि के अनुरूप भासती है, उसी प्रकार वे
सर्वव्यापक प्रभु परमानन्दस्वरूप होते हुए भी प्रकृति, काल,
वासना और अदृष्टि से उत्पन्न हुए शरीर में विषयाकार बनी हुई बुद्धि
में स्थित होकर उन यज्ञ-यागादि क्रियाओं के फलरूप से अनेक प्रकार के जान पड़ते
हैं।
अहो! इस पृथ्वीतल पर मेरे जो
प्रजाजन यज्ञ-भोक्ताओं के अधीश्वर सर्वगुरु श्रीहरि का एकनिष्ठ भाव से अपने-अपने
धर्मों के द्वारा निरन्तर पूजन करते हैं, वे
मुझ पर बड़ी कृपा करते हैं। सहनशीलता, तपस्या और ज्ञान इन
विशिष्ट विभूतियों के कारण वैष्णव और ब्राह्मणों के वंश स्वभावतः ही उज्ज्वल होते
हैं। उन पर राजकुल का तेज, धन, ऐश्वर्य
आदि समृद्धियों के कारण अपना प्रभाव न डाले। ब्रह्मादि समस्त महापुरुषों में
अग्रगण्य, ब्राह्मण भक्त, पुराणपुरुष
श्रीहरि ने भी निरन्तर इन्हीं के चरणों की वन्दना करके अविचल लक्ष्मी और संसार को
पवित्र करने वाली कीर्ति प्राप्त की है। आप लोग भगवान् के लोक संग्रहरूप धर्म का
पालन करने वाले हैं तथा सर्वान्तर्यामी स्वयंप्रकाश ब्राह्मण प्रिय श्रीहरि
विप्रवंश की सेवा करने से ही परम सन्तुष्ट होते हैं, अतः आप
सभी को सब प्रकार से विनयपूर्वक ब्राह्मण कुल की सेवा करनी चाहिये। इनकी नित्य
सेवा करने से शीघ्र ही चित्त शुद्ध हो जाने के कारण मनुष्य स्वयं ही (ज्ञान और
अभ्यास आदि के बिना ही) परम शान्तिरूप मोक्ष प्राप्त कर लेता है। अतः लोक में इन
ब्राह्मणों से बढ़कर दूसरा कौन है जो हविष्यभोजी देवताओं का मुख हो सके?
उपनिषदों के ज्ञानपरक वचन एकमात्र
जिनमें ही गतार्थ होते हैं, वे भगवान् अनन्त
इन्द्रादि यज्ञीय देवताओं के नाम से तत्त्वज्ञानियों द्वारा ब्राह्मणों के मुख में
श्रद्धापूर्वक हवन किये हुए पदार्थ को जैसे चाव से ग्रहण करते हैं, वैसे ही चेतनाशून्य अग्नि में होमे हुए द्रव्य को नहीं ग्रहण करते।
सभ्यगण! जिस प्रकार स्वच्छ दर्पण में प्रतिबिम्ब का भान होता है-उसी प्रकार जिससे
इस सम्पूर्ण प्रपंच का ठीक-ठीक ज्ञान होता है, उस नित्य,
शुद्ध और सनातन ब्रह्म (वेद) को जो परमार्थ-तत्त्व की उपलब्धि के
लिये श्रद्धा, तप, मंगलमय आचरण,
स्वाध्यायविरोधी वार्तालाप के त्याग तथा संयम और समाधि के अभ्यास
द्वारा धारण करते हैं, उन ब्राह्मणों के चरणकमलों की धूलि को
मैं आयु पर्यन्त अपने मुकुट पर धारण करूँ; क्योंकि उसे
सर्वदा सिर पर चढ़ाते रहने से मनुष्य के सारे पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं और
सम्पूर्ण गुण उसकी सेवा करने लगते हैं।
गुणायनं शीलधनं कृतज्ञं
वृद्धाश्रयं संवृणतेऽनु सम्पदः ।
प्रसीदतां ब्रह्मकुलं गवां च
जनार्दनः सानुचरश्च मह्यम् ॥ ४४ ॥
मैत्रेय उवाच -
(अनुष्ट्प्)
इति ब्रुवाणं नृपतिं
पितृदेवद्विजातयः ।
तुष्टुवुर्हृष्टमनसः साधुवादेन
साधवः ॥ ४६ ॥
पुत्रेण जयते लोकान् इति सत्यवती
श्रुतिः ।
ब्रह्मदण्डहतः पापो
यद्वेनोऽत्यतरत्तमः ॥ ४७ ॥
हिरण्यकशिपुश्चापि भगवन् निन्दया
तमः ।
विविक्षुरत्यगात्सूनोः
प्रह्लादस्यानुभावतः ॥ ४८ ॥
वीरवर्य पितः पृथ्व्याः समाः सञ्जीव
शाश्वतीः ।
यस्येदृश्यच्युते भक्तिः
सर्वलोकैकभर्तरि ॥ ४९ ॥
अहो वयं ह्यद्य पवित्रकीर्ते
त्वयैव नाथेन मुकुन्दनाथाः ।
य उत्तमश्लोकतमस्य विष्णोः
ब्रह्मण्यदेवस्य कथां व्यनक्ति ॥ ५० ॥
नात्यद्भुतमिदं नाथ
तवाजीव्यानुशासनम् ।
प्रजानुरागो महतां प्रकृतिः
करुणात्मनाम् ॥ ५१ ॥
अद्य नस्तमसः पारः त्वयोपासादितः प्रभो
।
भ्राम्यतां नष्टदृष्टीनां
कर्मभिर्दैवसंज्ञितैः ॥ ५२ ॥
नमो विवृद्धसत्त्वाय पुरुषाय महीयसे
।
यो ब्रह्म क्षत्रमाविश्य बिभर्तीदं
स्वतेजसा ॥ ५३ ॥
उस गुणवान्,
शीलसम्पन्न, कृतज्ञ और गुरुजनों की सेवा करने
वाले पुरुष के पास सारी सम्पदाएँ अपने-आप आ जाती हैं। अतः मेरी तो यही अभिलाषा है
कि ब्राह्मण कुल, गोवंश और भक्तों के सहित श्रीभगवान् मुझ पर
प्रसन्न रहें।
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;-
महाराज पृथु का यह भाषण सुनकर देवता, पितर और
ब्राह्मण आदि सभी साधुजन बड़े प्रसन्न हुए और ‘साधु! साधु!’
यों कहकर उनकी प्रशंसा करने लगे। उन्होंने कहा, ‘पुत्र के द्वारा पिता पुण्यलोकों को प्राप्त कर लेता है’ यह श्रुति यथार्थ है; पापी वेन ब्राह्मणों के शाप से
मारा गया था; फिर भी इनके पुण्यबल से उसका नरक से निस्तार हो
गया।
इसी प्रकार हिरण्यकशिपु भी भगवान्
की निन्दा करने के कारण नरकों में गिरने वाला ही था कि अपने पुत्र प्रह्लाद के
प्रभाव से उन्हें पार कर गया।
वीरवर पृथु जी! आप तो पृथ्वी के
पिता ही हैं और सब लोकों के एकमात्र स्वामी श्रीहरि में भी आपकी ऐसी अविचल भक्ति
है,
इसलिये आप अनन्त वर्षों तक जीवित रहें। आपका सुयश बड़ा पवित्र है;
आप उदारकीर्ति ब्राह्मण्यदेव श्रीहरि की कथाओं का प्रचार करते हैं।
हमारा बड़ा सौभाग्य है; आज आपको अपने स्वामी के रूप में पाकर
हम अपने को भगवान् के ही राज्य में समझते हैं।
स्वामिन्! अपने आश्रितों को इस
प्रकार का श्रेष्ठ उपदेश देना आपके लिये कोई आश्चर्य की बात नहीं है;
क्योंकि अपनी प्रजा के ऊपर प्रेम रखना तो करुणामय महापुरुषों का
स्वभाव ही होता है। हम लोग प्रारब्धवश विवेकहीन होकर संसारारण्य में भटक रहे थे;
सो प्रभो! आज आपने हमें इस अज्ञानान्धकार के पार पहुँचा दिया। आप
शुद्ध सत्त्वमय परम पुरुष हैं, जो ब्राह्मण जाति में
प्रविष्ट होकर क्षत्रियों की और क्षत्रिय जाति में प्रविष्ट होकर ब्राह्मणों की
तथा दोनों जातियों में प्रतिष्ठित होकर सारे जगत् की रक्षा करते हैं। हमारा आपको
नमस्कार है।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥
इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण का
परमहंस संहिता स्कन्ध ४ अध्याय २१ समाप्त हुआ ॥ २१ ॥
आगे जारी-पढ़े............... स्कन्ध ४ अध्याय २२
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