श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय ८

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय ८                                                       

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय ८ "नामकरण- संस्कार और बाललीला"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय ८

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पूर्वार्धं अष्टम: अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय ८                                                                           

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः १० पूर्वार्ध अध्यायः८

श्रीमद्भागवत महापुराण दसवाँ स्कन्ध आठवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय ८ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतं - दशमस्कन्धः पूर्वार्धं

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ दशमस्कन्धः पूर्वार्धं ॥

॥ अष्टमोऽध्यायः - ८ ॥

श्रीशुक उवाच

गर्गः पुरोहितो राजन् यदूनां सुमहातपाः ।

व्रजं जगाम नन्दस्य वसुदेवप्रचोदितः ॥ १॥

तं दृष्ट्वा परमप्रीतः प्रत्युत्थाय कृताञ्जलिः ।

आनर्चाधोक्षजधिया प्रणिपातपुरःसरम् ॥ २॥

सूपविष्टं कृतातिथ्यं गिरा सूनृतया मुनिम् ।

नन्दयित्वाब्रवीद्ब्रह्मन् पूर्णस्य करवाम किम् ॥ ३॥

महद्विचलनं नॄणां गृहिणां दीनचेतसाम् ।

निःश्रेयसाय भगवन् कल्पते नान्यथा क्वचित् ॥ ४॥

ज्योतिषामयनं साक्षाद्यत्तज्ज्ञानमतीन्द्रियम् ।

प्रणीतं भवता येन पुमान् वेद परावरम् ॥ ५॥

त्वं हि ब्रह्मविदां श्रेष्ठः संस्कारान् कर्तुमर्हसि ।

बालयोरनयोर्नॄणां जन्मना ब्राह्मणो गुरुः ॥ ६॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! यदुवंशियों के कुल पुरोहित थे श्री गर्गाचार्य जी। वे बड़े तपस्वी थे। वसुदेव जी की प्रेरणा से वे एक दिन नन्दबाबा के गोकुल में आये। उन्हें देखकर नन्दबाबा को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए। उनके चरणों में प्रणाम किया। इसके बाद ये स्वयं भगवान ही हैं’- इस भाव से उनकी पूजा की। जब गर्गाचार्य जी आराम से बैठ गये और विधिपूर्वक उनका आतिथ्य- सत्कार हो गया, तब नन्दबाबा ने बड़ी ही मधुर वाणी से उनका अभिनन्दन किया और कहा- भगवन! आप तो स्वयं पूर्णकाम हैं, फिर मैं आपकी क्या सेवा करूँ? आप-जैसे महात्माओं का हमारे-जैसे गृहस्थों के घर आ जाना ही हमारे परम कल्याण का कारण है। हम तो घरों में इतने उलझ रहे हैं और इन प्रपंचों में हमारा चित्त इतना दीन हो रहा है कि हम आपके आश्रम तक जा भी नहीं सकते। हमारे कल्याण के सिवा आपके आगमन का और कोई हेतु नहीं है। प्रभो! जो बात साधारणतः इन्द्रियों की पहुँच के बाहर है अथवा भूत और भविष्य के गर्भ में निहित हैं, वह भी ज्योतिष-शास्त्र के द्वारा प्रत्यक्ष जान ली जाती है। आपने उसी ज्योतिष-शास्त्र की रचना की है। आप ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। इसलिए मेरे इन दोनों बालकों का नामकरण आदि संस्कार आप ही कर दीजिये; क्योंकि ब्राह्मण जन्म से ही मनुष्य-मात्र का गुरु है।

गर्ग उवाच

यदूनामहमाचार्यः ख्यातश्च भुवि सर्वतः ।

सुतं मया संस्कृतं ते मन्यते देवकीसुतम् ॥ ७॥

कंसः पापमतिः सख्यं तव चानकदुन्दुभेः ।

देवक्या अष्टमो गर्भो न स्त्री भवितुमर्हति ॥ ८॥

इति सञ्चिन्तयञ्छ्रुत्वा देवक्या दारिकावचः ।

अपि हन्ताऽऽगताशङ्कस्तर्हि तन्नोऽनयो भवेत् ॥ ९॥

गर्गाचार्यजी ने कहा ;- नन्द जी! मैं सब जगह यदुवंशियों के आचार्य के रूप में प्रसिद्ध हूँ। यदि तुम्हारे पुत्र के संस्कार करूँगा, तो लोग समझेंगे कि यह तो देवकी का पुत्र है। कंस की बुद्धि बुरी है, वह पाप ही सोचा करती है। वसुदेव जी के साथ तुम्हारी बड़ी घनिष्ठ मित्रता है। जब से देवकी की कन्या से उसने यह बात सुनी है कि उसको मारने वाला और कहीं पैदा हो गया है, तबसे वह यही सोचा करता है कि देवकी के आठवें गर्भ से कन्या का जन्म नहीं होना चाहिए। यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार कर दूँ और वह इस बालक को वसुदेव जी का लड़का समझकर मार डाले, तो हमसे बड़ा अनर्थ हो जायेगा।

नन्द उवाच

अलक्षितोऽस्मिन् रहसि मामकैरपि गोव्रजे ।

कुरु द्विजातिसंस्कारं स्वस्तिवाचनपूर्वकम् ॥ १०॥

नन्दबाबा ने कहा ;- आचार्य जी! आप चुपचाप इस एकान्त गौशाला में केवल स्वस्तिवाचन करके इस बालक का द्विजाति समुचित नामकरण-संस्कार मात्र कर दीजिये। औरों की कौन कहे, मेरे सगे-सम्बन्धी भी इस बात को न जानने पावें।

श्रीशुक उवाच

एवं सम्प्रार्थितो विप्रः स्वचिकीर्षितमेव तत् ।

चकार नामकरणं गूढो रहसि बालयोः ॥ ११॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- गर्गाचार्य जी तो संस्कार करना चाहते ही थे। जब नन्दबाबा ने उनसे इस प्रकार प्रार्थना की, तब उन्होंने एकान्त में छिपकर गुप्त रूप से दोनों बालकों का नामकरण-संस्कार कर दिया।

गर्ग उवाच

अयं हि रोहिणीपुत्रो रमयन् सुहृदो गुणैः ।

आख्यास्यते राम इति बलाधिक्याद्बलं विदुः ।

यदूनामपृथग्भावात्सङ्कर्षणमुशन्त्युत ॥ १२॥

आसन् वर्णास्त्रयो ह्यस्य गृह्णतोऽनुयुगं तनूः ।

शुक्लो रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गतः ॥ १३॥

गर्गाचार्य जी ने कहा ;- ‘यह रोहिणी का पुत्र है। इसलिये इसका नाम होगा रौहिणेय। यह अपने सगे-सम्बन्धी और मित्रों को अपने गुणों से अत्यन्त आनन्दित करेगा। इसलिए इसका दूसरा नाम होगा राम। इसके बल की कोई सीमा नहीं है, अतः इसका एक नाम बल भी है। यह यादवों में और तुम लोगों में कोई भेदभाव नहीं रखेगा और लोगों में फूट पड़ने पर मेल करवायेगा, इसलिए इसका एक नाम संकर्षण भी है। और यह जो साँवला- साँवला है, यह प्रत्येक युग में शरीर ग्रहण करता है। पिछले युगों में इसने क्रमशः श्वेत, रक्त और पीत, ये तीन विभिन्न रंग स्वीकार किये थे। अब की बार यह कृष्णवर्ण हुआ है। इसलिये इसका नाम कृष्ण होगा।

प्रागयं वसुदेवस्य क्वचिज्जातस्तवात्मजः ।

वासुदेव इति श्रीमानभिज्ञाः सम्प्रचक्षते ॥ १४॥

बहूनि सन्ति नामानि रूपाणि च सुतस्य ते ।

गुणकर्मानुरूपाणि तान्यहं वेद नो जनाः ॥ १५॥

एष वः श्रेय आधास्यद्गोपगोकुलनन्दनः ।

अनेन सर्वदुर्गाणि यूयमञ्जस्तरिष्यथ ॥ १६॥

पुरानेन व्रजपते साधवो दस्युपीडिताः ।

अराजके रक्ष्यमाणा जिग्युर्दस्यून् समेधिताः ॥ १७॥

य एतस्मिन् महाभागाः प्रीतिं कुर्वन्ति मानवाः ।

नारयोऽभिभवन्त्येतान् विष्णुपक्षानिवासुराः ॥ १८॥

तस्मान्नन्दात्मजोऽयं ते नारायणसमो गुणैः ।

श्रिया कीर्त्यानुभावेन गोपायस्व समाहितः ॥ १९॥

इत्यात्मानं समादिश्य गर्गे च स्वगृहं गते ।

नन्दः प्रमुदितो मेने आत्मानं पूर्णमाशिषाम् ॥ २०॥

कालेन व्रजताल्पेन गोकुले रामकेशवौ ।

जानुभ्यां सह पाणिभ्यां रिङ्गमाणौ विजह्रतुः ॥ २१॥

तावङ्घ्रियुग्ममनुकृष्य सरीसृपन्तौ

घोषप्रघोषरुचिरं व्रजकर्दमेषु ।

तन्नादहृष्टमनसावनुसृत्य लोकं

मुग्धप्रभीतवदुपेयतुरन्ति मात्रोः ॥ २२॥

तन्मातरौ निजसुतौ घृणया स्नुवन्त्यौ

पङ्काङ्गरागरुचिरावुपगुह्य दोर्भ्याम् ।

दत्त्वा स्तनं प्रपिबतोः स्म मुखं निरीक्ष्य

मुग्धस्मिताल्पदशनं ययतुः प्रमोदम् ॥ २३॥

यर्ह्यङ्गना दर्शनीयकुमारलीला-

वन्तर्व्रजेतदबलाः प्रगृहीतपुच्छैः ।

वत्सैरितस्तत उभावनुकृष्यमाणौ

प्रेक्षन्त्य उज्झितगृहा जहृषुर्हसन्त्यः ॥ २४॥

 नंद जी! यह तुम्हारा पुत्र पहले कभी वसुदेव जी के घर भी पैदा हुआ था, इसलिये इस रहस्य को जानने वाले लोग इसे श्रीमान वासुदेवभी कहते हैं। तुम्हारे पुत्र के और भी बहुत-से नाम हैं तथा रूप भी अनेक हैं। इसके जितने गुण हैं और जितने कर्म, उन सबके अनुसार अलग-अलग नाम पड़ जाते हैं। मैं तो उन नामों को जानता हूँ, परन्तु संसार के साधारण लोग नहीं जानते। यह तुम लोगों का परम कल्याण करेगा। समस्त गोप और गौओं को यह बहुत ही आनन्दित करेगा। इसकी सहायता से तुम लोग बड़ी-बड़ी विपत्तियों को बड़ी सुगमता से पार कर लोगे।

ब्रजराज! पहले युग की बात है। एक बार पृथ्वी में कोई राजा नहीं रह गया था। डाकुओं ने चारों ओर लूट-खसोट मचा रखी थी। तब तुम्हारे इसी पुत्र ने सज्जन पुरुषों की रक्षा की और इससे बल पाकर उन लोगों ने लुटेरों पर विजय प्राप्त की। जो मनुष्य तुम्हारे इस साँवले-सलोने शिशु से प्रेम करते हैं। वे बड़े भाग्यवान हैं। जैसे विष्णु भगवान के करकमलों की छत्रछाया में रहने वाले देवताओं को असुर नहीं जीत सकते, वैसे ही इससे प्रेम करने वालों को भीतर या बाहर किसी भी प्रकार के शत्रु नहीं जीत सकते। नंद जी! चाहे जिस दृष्टि से देखें - गुण में, संपत्ति और सौन्दर्य में, कीर्ति और प्रभाव में तुम्हारा यह बालक साक्षात भगवान नारायण के समान है। तुम बड़ी सावधानी और तत्परता से इसकी रक्षा करो।'

इस प्रकार नन्दबाबा को भलीभाँति समझाकर, आदेश देकर गर्गाचार्य जी अपने आश्रम को लौट गये। उनकी बात सुनकर नन्दबाबा को बड़ा ही आनन्द हुआ। उन्होंने ऐसा समझा कि मेरी सब आशा-लालसाएँ पूरी हो गयीं, मैं अब कृतकृत्य हूँ। परीक्षित! कुछ ही दिनों में राम और श्याम घुटनों और हाथों के बल बकैयाँ चल-चलकर गोकुल में खेलने लगे। दोनों भाई अपने नन्हें-नन्हें पाँवों को गोकुल की कीचड़ में घसीटते हुए चलते। उस समय उनके पाँव और कमर के घुंघरू रुनझुन बजने लगते। वह शब्द बड़ा भला मालूम पड़ता। वे दोनों स्वयं वह ध्वनि सुनकर खिल उठते। कभी-कभी वे रास्ते चलते किसी अज्ञात व्यक्ति के पीछे हो लेते। फिर जब देखते कि यह तो कोई दूसरा है, तब झक-से रह जाते और डरकर अपनी माताओं - रोहिणी जी और यशोदा जी के पास लौट आते। माताएँ यह सब देख-देखकर स्नेह से भर जातीं। उनके स्तनों से दूध की धारा बहने लगती थी।

जब उसके दोनों नन्हें-नन्हें-से शिशु अपने शरीर में कीचड़ का अंगराग लगाकर लौटते, तब उनकी सुन्दरता और भी बढ़ जाती थी। माताएँ उन्हें आते ही दोनों हाथों से गोद से लेकर हृदय से लगा लेतीं और स्तनपान कराने लगतीं, जब वे दूध पीने लगते और बीच-बीच में मुस्करा-मुस्कराकर अपनी माताओं की ओर देखने लगते, तब वे उनकी मन्द-मन्द मुसकान, छोटी-छोटी दंतुलियाँ और भोला-भाला मुँह देखकर आनन्द के समुद्र में डूबने-उतराने लगतीं। जब राम और श्याम दोनों कुछ और बड़े हुए, तब ब्रज में घर के बाहर ऐसी-ऐसी बाललीलाएँ करने लगे, जिन्हें गोपियाँ देखती ही रह जातीं। जब वे किसी बैठे हुए बछड़े की पूँछ पकड़ लेते और बछड़े डरकर इधर-उधर भागते, तब वे दोनों और भी ज़ोर से पूँछ पकड़ लेते और बछड़े उन्हें घसीटते हुए दौड़ने लगते। गोपियाँ अपने घर का काम-धंधा छोड़कर यही सब देखतीं रहतीं और हँसते-हँसते लोट-पोट होकर परम आनन्द में मग्न हो जातीं ।

शृङ्ग्यग्निदंष्ट्र्यसिजलद्विजकण्टकेभ्यः

क्रीडापरावतिचलौ स्वसुतौ निषेद्धुम् ।

गृह्याणि कर्तुमपि यत्र न तज्जनन्यौ

शेकात आपतुरलं मनसोऽनवस्थाम् ॥ २५॥

कालेनाल्पेन राजर्षे रामः कृष्णश्च गोकुले ।

अघृष्टजानुभिः पद्भिर्विचक्रमतुरञ्जसा ॥ २६॥

ततस्तु भगवान् कृष्णो वयस्यैर्व्रजबालकैः ।

सह रामो व्रजस्त्रीणां चिक्रीडे जनयन् मुदम् ॥ २७॥

कृष्णस्य गोप्यो रुचिरं वीक्ष्य कौमारचापलम् ।

शृण्वन्त्याः किल तन्मातुरिति होचुः समागताः ॥ २८॥

वत्सान् मुञ्चन् क्वचिदसमये क्रोशसञ्जातहासः

स्तेयं स्वाद्वत्त्यथ दधि पयः कल्पितैः स्तेययोगैः ।

मर्कान् भोक्ष्यन् विभजति स चेन्नात्ति भाण्डं भिन्नत्ति

द्रव्यालाभे स गृहकुपितो यात्युपक्रोश्य तोकान् ॥ २९॥

हस्ताग्राह्ये रचयति विधिं पीठकोलूखलाद्यैः

छिद्रं ह्यन्तर्निहितवयुनः शिक्यभाण्डेषु तद्वित् ।

ध्वान्तागारे धृतमणिगणं स्वाङ्गमर्थप्रदीपं

काले गोप्यो यर्हि गृहकृत्येषु सुव्यग्रचित्ताः ॥ ३०॥

एवं धार्ष्ट्यान्युशति कुरुते मेहनादीनि वास्तौ

स्तेयोपायैर्विरचितकृतिः सुप्रतीको यथाऽऽस्ते ।

इत्थं स्त्रीभिः सभयनयनश्रीमुखालोकिनीभिः

व्याख्यातार्था प्रहसितमुखी न ह्युपालब्धुमैच्छत् ॥ ३१॥

एकदा क्रीडमानास्ते रामाद्या गोपदारकाः ।

कृष्णो मृदं भक्षितवानिति मात्रे न्यवेदयन् ॥ ३२॥

सा गृहीत्वा करे कृष्णमुपालभ्य हितैषिणी ।

यशोदा भयसम्भ्रान्तप्रेक्षणाक्षमभाषत ॥ ३३॥

कस्मान्मृदमदान्तात्मन् भवान् भक्षितवान् रहः ।

वदन्ति तावका ह्येते कुमारास्तेऽग्रजोऽप्ययम् ॥ ३४॥

कन्हैया और बलदाऊ दोनों ही बड़े चंचल और बड़े खिलाड़ी थे। वे कहीं हिरण, गाय आदि सींग वाले पशुओं के पास दौड़ जाते, तो कहीं धधकती हुई आग से खेलने के लिए कूद पड़ते। कभी दाँत से काटने वाले कुत्तों के पास पहुँच जाते, तो कभी आँख बचाकर तलवार उठा लेते। कभी कुएँ या गड्ढे के पास जल में गिरते-गिरते बचते, कभी मोर आदि पक्षियों के निकट चले जाते और कभी काँटों की ओर बढ़ जाते थे। माताएँ उन्हें बहुत बरजतीं, परन्तु एक न चलती। ऐसी स्थिति में वे घर काम-धंधा भी नहीं संभाल पातीं। उनका चित्त बच्चों को भय की वस्तुओं से बचाने की चिन्ता से अत्यन्त चंचल रहता था। राजर्षे! कुछ ही दिनों में यशोदा और रोहिणी के लाड़ले लाल घुटनों का सहारा लिए बिना अनायास ही खड़े होकर गोकुल में चलने-फिरने लगे।

ये ब्रजवासियों के कन्हैया स्वयं भगवान हैं, परम सुन्दर और परम मधुर! अब वे और बलराम अपनी ही उम्र के ग्वालबालों को अपने साथ लेकर खेलने के लिए ब्रज में निकल पड़ते और ब्रज की भाग्यवती गोपियों को निहाल करते हुए तरह-तरह के खेल खेलते। उनके बचपन की चंचलताएँ बड़ी ही अनोखी होती थीं। गोपियों को तो वे बड़ी ही सुन्दर और मधुर लगतीं। एक दिन सब-की-सब इकट्ठी होकर नन्दबाबा के घर आयीं और यशोदा माता को सुना-सुनाकर कन्हैया के करतूत कहने लगीं।

अरी यशोदा! यह तेरा कान्हा बड़ा नटखट हो गया है। गाय दुहने का समय न होने पर भी यह बछड़ों को खोल देता है और हम डाँटती हैं, तो ठठा-ठठाकर हँसने लगता है। यह चोरी के बड़े-बड़े उपाय करके हमारे मीठे-मीठे दही-दूध चुरा-चुराकर खा जाता है। केवल अपनी ही खाता तो भी एक बात थी, यह तो सारा दही-दूध वानरों को बाँट देता है और जब वे भी पेट भर जाने पर नहीं खा पाते, तब यह हमारे मटकों को ही फोड़ डालता है। यदि घर में कोई वस्तु इसे नहीं मिलती तो यह घर और घरवालों पर बहुत खीझता है और हमारे बच्चों को रुलाकर भाग जाता है। जब हम दही-दूध को छीकों पर रख देतीं हैं और इसके छोटे-छोटे हाथ वहाँ तक नहीं पहुँच पाते, तब यह बड़े-बड़े उपाय रचता है।

कहीं दो-चार पीढ़ो को एक के ऊपर एक रख देता है। कहीं उखल पर चढ़ जाता है तो कहीं उखल पर पीढ़ा रख देता है, जब इतने पर काम नहीं चलता, तब यह नीचे से ही उन बर्तनों में छेद कर देता है। इसे इस बात की पक्की पहचान रहती है कि किस छीके पर किस बर्तन में क्या रखा है। और ऐसे ढंग से छेड़ करना जानता है कि किसी को पता तक न चले।

जब हम अपनी वस्तुओं को बहुत अँधेरे में छिपा देतीं हैं, तब नन्दरानी! तुमने जो इसे बहुत से मणिमय आभूषण पहना रखे हैं, उनके प्रकाश से अपने-आप ही सब कुछ देख लेता है। इसके शरीर में भी ऐसी ज्योति है कि जिससे इसे सब कुछ दीख जाता है। यह इतना चालाक है कि कब कौन कहाँ रहता है, इसका पता रखता है और जब हम सब घर के काम-धंधों में उलझी रहतीं हैं, तब यह अपना काम बना लेता है।

ऐसा करके भी ढिठाई की बातें करता है - उलटे हमें ही चोर बनाता और अपने घर का मालिक बन जाता है। इतना ही नहीं, यह हमारे लिपे-पुते स्वच्छ घरों में मूत्र आदि भी कर देता है। तनिक देखो तो इसकी ओर, वहाँ तो चोरी के अनेकों उपाय करके काम बनाता है और यहाँ मालूम हो रहा है मानो पत्थर की मूर्ति खड़ी हो! वाह रे भोले-भाले साधु!इस प्रकार गोपियाँ कहतीं जातीं और श्रीकृष्ण के भीत-चकित नेत्रों से मुखमंडल को देखती जातीं। उनकी यह दशा देखकर नन्दरानी यशोदा उनके मन का भाव ताड़ लेतीं और उनके हृदय में स्नेह और आनन्द की बाढ़ आ जाती। वे इस प्रकार हँसने लगतीं कि अपने लाड़ले कन्हैया को इस बात का उलाहना भी न दे पातीं, डाँटने की बात तक नहीं सोंचती। एक दिन बलराम आदि ग्वालबाल श्रीकृष्ण के साथ खेल रहे थे। उन लोगों ने माँ यशोदा के पास आकर कहा ;- ‘माँ! कन्हैया ने मिट्टी खायी है

हितैषिणी यशोदा ने श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लिया। उस समय श्रीकृष्ण की आँखें डर के मारे नाच रहीं थीं।

यशोदा मैया ने डाँटकर कहा ;- ‘क्यों रे नटखट! तू बहुत ढीठ हो गया है। तूने अकेले में छिपकर मिट्टी क्यों खायी? देख तो तेरे दल के तेरे सखा क्या कह रहे हैं! तेरे बड़े भैया बलदाऊ भी तो उन्हीं ओर से गवाही दे रहें हैं

श्रीकृष्ण उवाच

नाहं भक्षितवानम्ब सर्वे मिथ्याभिशंसिनः ।

यदि सत्यगिरस्तर्हि समक्षं पश्य मे मुखम् ॥ ३५॥

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- ‘माँ! मैंने मिट्टी नहीं खायी। ये सब झूठ बक रहें हैं। यदि तुम इन्हीं की बात सच मानती हो तो मेरा मुँह तुम्हारे सामने ही है, तुम अपनी आँखों से देख लो।

यद्येवं तर्हि व्यादेहीत्युक्तः स भगवान् हरिः ।

व्यादत्ताव्याहतैश्वर्यः क्रीडामनुजबालकः ॥ ३६॥

सा तत्र ददृशे विश्वं जगत्स्थास्नु च खं दिशः ।

साद्रिद्वीपाब्धिभूगोलं स वाय्वग्नीन्दुतारकम् ॥ ३७॥

ज्योतिश्चक्रं जलं तेजो नभस्वान् वियदेव च ।

वैकारिकाणीन्द्रियाणि मनो मात्रा गुणास्त्रयः ॥ ३८॥

एतद्विचित्रं सह जीवकाल-

स्वभावकर्माशयलिङ्गभेदम् ।

सूनोस्तनौ वीक्ष्य विदारितास्ये

व्रजं सहात्मानमवाप शङ्काम् ॥ ३९॥

किं स्वप्न एतदुत देवमाया

किं वा मदीयो बत बुद्धिमोहः ।

अथो अमुष्यैव ममार्भकस्य

यः कश्चनौत्पत्तिक आत्मयोगः ॥ ४०॥

अथो यथावन्न वितर्कगोचरं

चेतो मनःकर्मवचोभिरञ्जसा ।

यदाश्रयं येन यतः प्रतीयते

सुदुर्विभाव्यं प्रणतास्मि तत्पदम् ॥ ४१॥

अहं ममासौ पतिरेष मे सुतो

व्रजेश्वरस्याखिलवित्तपा सती ।

गोप्यश्च गोपाः सह गोधनाश्च मे

यन्माययेत्थं कुमतिः स मे गतिः ॥ ४२॥

इत्थं विदिततत्त्वायां गोपिकायां स ईश्वरः ।

वैष्णवीं व्यतनोन्मायां पुत्रस्नेहमयीं विभुः ॥ ४३॥

सद्योनष्टस्मृतिर्गोपी साऽऽरोप्यारोहमात्मजम् ।

प्रवृद्धस्नेहकलिलहृदयाऽऽसीद्यथा पुरा ॥ ४४॥

त्रय्या चोपनिषद्भिश्च साङ्ख्ययोगैश्च सात्वतैः ।

उपगीयमानमाहात्म्यं हरिं सामन्यतात्मजम् ॥ ४५॥

यशोदा जी ने कहा ;- ‘अच्छी बात। यदि ऐसा है, तो मुँह खोल।माता के ऐसा कहने पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपना मुँह खोल दिया।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण का ऐश्वर्य अनन्त है। वे केवल लीला के लिए ही मनुष्य के बालक बने हुए हैं ।यशोदा जी ने देखा कि उनके मुँह में चर-अचर सम्पूर्ण जगत विद्यमान है। आकाश , दिशाएँ, पहाड़, द्वीप और समुद्रों के सहित सारी पृथ्वी, बहने वाली वायु, विद्युत, अग्नि, चन्द्रमा और तारों के साथ सम्पूर्ण ज्योतिर्मण्डल, जल, तेज, पवन, वियत, वैकारिक अहंकार के कार्य देवता, मन-इन्द्रिय, पंचतन्मात्राएँ और तीनों गुण श्रीकृष्ण के मुख में दीख पड़े। परीक्षित! जीव, काल, स्वाभाव, कर्म, उसकी वासना और शरीर आदि के द्वारा विभिन्न रूपों में दीखने वाला यह सारा विचित्र संसार, सम्पूर्ण ब्रज और अपने-आपको भी यशोदा जी ने श्रीकृष्ण के नन्हें से खुले हुए मुख में देखा। वे बड़ी शंका में पड़ गयीं। वे सोचने लगीं कि यह कोई स्वप्न है या भगवान की माया? कहीं मेरी बुद्धि में ही तो कोई भ्रम नहीं हो गया है? सम्भव है, मेरे इस बालक में ही कोई जन्मजात योगसिद्धि हो।' ‘जो चित्त, मन, कर्म और वाणी के द्वारा ठीक-ठीक तथा सुगमता से अनुमान के विषय नहीं होते, यह सारा विश्व जिनके आश्रित है, जो इसके प्रेरक हैं और जिनकी सत्ता से ही इसकी प्रतीति होती है, जिसका स्वरूप सर्वथा अचिन्त्य है - उन प्रभु को मैं प्रणाम करती हूँ।

यह मैं हूँ और ये मेरे पति तथा यह मेरा लड़का है, साथ ही मैं ब्रजराज की समस्त संपत्तियों की स्वामिनी धर्मपत्नी हूँ; ये गोपियाँ गोपुर गोधन मेरे अधीन हैं - जिनकी माया से मुझे इस प्रकार की कुमति घेरे हुए है, वे भगवान ही मेरे एकमात्र आश्रय हैं - मैं उन्हीं की शरण में हूँ।' जब इस प्रकार यशोदा माता श्रीकृष्ण का तत्त्व समझ गयीं, तब सर्वशक्तिमान सर्व्यापक प्रभु ने अपनी पुत्र स्नेहमयी वैष्णवी योगमाया का उनके हृदय में संचार कर दिया। यशोदा जी को तुरंत वह घटना भूल गयी। उन्होंने अपने दुलारे लाल को गोद में उठा लिया। जैसे पहले उनके हृदय में प्रेम का समुद्र उमड़ता रहता था, वैसे ही फिर उमड़ने लगा। सारे वेद, उपनिषद, सांख्य, योग और भक्तजन जिनके माहात्मय का गीत गाते-गाते अघाते नहीं - उन्हीं भगवान को यशोदा जी अपना पुत्र मानती थीं।

राजोवाच

नन्दः किमकरोद्ब्रह्मन् श्रेय एवं महोदयम् ।

यशोदा च महाभागा पपौ यस्याः स्तनं हरिः ॥ ४६॥

पितरौ नान्वविन्देतां कृष्णोदारार्भकेहितम् ।

गायन्त्यद्यापि कवयो यल्लोकशमलापहम् ॥ ४७॥

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन! नन्दबाबा ने ऐसा कौन-सा बहुत बड़ा मंगलमय साधन किया था? और परमभाग्यवती यशोदा जी ने भी ऐसी कौन-सी तपस्या की थी, जिसके कारण स्वयं भगवान ने अपने श्रीमुख से उनका स्तनपान किया। भगवान श्रीकृष्ण की वे बाल-लीलाएँ, जो वे अपने ऐश्वर्य और महत्ता आदि को छिपाकर ग्वालबालों में करते हैं, इतनी पवित्र हैं कि उनका श्रवण-कीर्तन करने वाले लोगों के भी सारे पाप-ताप शान्त हो जाते हैं। त्रिकालदर्शी ज्ञानी पुरुष आज भी उनका गान करते रहते हैं। वे ही लीलाएँ उनके जन्मदाता माता-पिता देवकी-वसुदेव जी को तो देखने तक को न मिलीं और नन्द-यशोदा उनका अपार सुख लूट रहे हैं। इसका क्या कारण है?

श्रीशुक उवाच

द्रोणो वसूनां प्रवरो धरया सह भार्यया ।

करिष्यमाण आदेशान् ब्रह्मणस्तमुवाच ह ॥ ४८॥

जातयोर्नौ महादेवे भुवि विश्वेश्वरे हरौ ।

भक्तिः स्यात्परमा लोके ययाञ्जो दुर्गतिं तरेत् ॥ ४९॥

अस्त्वित्युक्तः स भगवान् व्रजे द्रोणो महायशाः ।

जज्ञे नन्द इति ख्यातो यशोदा सा धराभवत् ॥ ५०॥

ततो भक्तिर्भगवति पुत्रीभूते जनार्दने ।

दम्पत्योर्नितरामासीद्गोपगोपीषु भारत ॥ ५१॥

कृष्णो ब्रह्मण आदेशं सत्यं कर्तुं व्रजे विभुः ।

सह रामो वसंश्चक्रे तेषां प्रीतिं स्वलीलया ॥ ५२॥

श्री शुकदेव जी ने कहा ;- परीक्षित! नन्दबाबा पूर्वजन्म में एक श्रेष्ठ वसु थे। उनका नाम था द्रोण और उनकी पत्नी का नाम था धरा। उन्होंने ब्रह्मा जी के आदेशों का पालन करने की इच्छा से उनसे कहा ;- ‘भगवन! जब हम पृथ्वी पर जन्म लें, तब जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण में हमारी अनन्य प्रेममयी भक्ति हो - जिस भक्ति के द्वारा संसार में लोग अनायास ही दुर्गतियों को पार कर जाते हैं।' ब्रह्मा जी ने कहा ;- ‘ऐसा ही होगा।वे ही परम यशस्वी भवन्मय द्रोण ब्रज में पैदा हुए और उनका नाम हुआ नन्द। और वे ही धरा इस जन्म में यशोदा के नाम से उनकी पत्नी हुईं। परीक्षित! अब इस जन्म में जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ाने वाले भगवान उनके पुत्र हुए और समस्त गोप-गोपियों की अपेक्षा इन पति-पत्नी नन्द और यशोदा जी का उनके प्रति अत्यन्त प्रेम हुआ। ब्रह्मा जी की बात सत्य करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण बलराम जी के साथ ब्रज में रहकर समस्त ब्रजवासियों को अपनी बाल-लीला से आनन्दित करने लगे।

इति श्रीमद्भाग्वते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे विश्वरूपदर्शने अष्टमोऽध्यायः ॥ ८॥

जारी-आगे पढ़े............... दशम स्कन्ध अध्याय 9  

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