श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय ९

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय ९                                                       

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय ९ "श्रीकृष्ण का उखल से बाँधा जाना"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय ९

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पूर्वार्धं नवम अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय ९                                                                           

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः १० पूर्वार्ध अध्यायः९ 

श्रीमद्भागवत महापुराण दसवाँ स्कन्ध नवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय ९ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतं - दशमस्कन्धः पूर्वार्धं

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ दशमस्कन्धः पूर्वार्धं ॥

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ नवमोऽध्यायः - ९ ॥

श्रीशुक उवाच

एकदा गृहदासीषु यशोदा नन्दगेहिनी ।

कर्मान्तरनियुक्तासु निर्ममन्थ स्वयं दधि ॥ १॥

यानि यानीह गीतानि तद्बालचरितानि च ।

दधिनिर्मन्थने काले स्मरन्ती तान्यगायत ॥ २॥

क्षौमं वासः पृथुकटितटे बिभ्रती सूत्रनद्धं

पुत्रस्नेहस्नुतकुचयुगं जातकम्पं च सुभ्रूः ।

रज्ज्वाकर्षश्रमभुजचलत्कङ्कणौ कुण्डले च

स्विन्नं वक्त्रं कबरविगलन्मालती निर्ममन्थ ॥ ३॥

तां स्तन्यकाम आसाद्य मथ्नन्तीं जननीं हरिः ।

गृहीत्वा दधिमन्थानं न्यषेधत्प्रीतिमावहन् ॥ ४॥

तमङ्कमारूढमपाययत्स्तनं

स्नेहस्नुतं सस्मितमीक्षती मुखम् ।

अतृप्तमुत्सृज्य जवेन सा यया-

वुत्सिच्यमाने पयसि त्वधिश्रिते ॥ ५॥

सञ्जातकोपः स्फुरितारुणाधरं

सन्दश्य दद्भिर्दधिमन्थभाजनम् ।

भित्त्वा मृषाश्रुर्दृषदश्मना रहो

जघास हैयङ्गवमन्तरं गतः ॥ ६॥

उत्तार्य गोपी सुशृतं पयः पुनः

प्रविश्य सन्दृश्य च दध्यमत्रकम् ।

भग्नं विलोक्य स्वसुतस्य कर्म त-

ज्जहास तं चापि न तत्र पश्यती ॥ ७॥

उलूखलाङ्घ्रेरुपरि व्यवस्थितं

मर्काय कामं ददतं शिचि स्थितम् ।

हैयङ्गवं चौर्यविशङ्कितेक्षणं

निरीक्ष्य पश्चात्सुतमागमच्छनैः ॥ ८॥

तामात्तयष्टिं प्रसमीक्ष्य सत्वर-

स्ततोऽवरुध्यापससार भीतवत् ।

गोप्यन्वधावन्न यमाप योगिनां

क्षमं प्रवेष्टुं तपसेरितं मनः ॥ ९॥

अन्वञ्चमाना जननी बृहच्चल-

च्छ्रोणीभराक्रान्तगतिः सुमध्यमा ।

जवेन विस्रंसितकेशबन्धन-

च्युतप्रसूनानुगतिः परामृशत् ॥ १०॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! एक समय की बात है, नन्दरानी यशोदा जी ने घर की दासियों को तो दूसरे कामों में लगा दिया और स्वयं दही मथने लगीं मैंने तुमसे अब तक भगवान की जिन-जिन बाल-लीलाओं का वर्णन किया है, दधिमंथन के समय वे उन सबका स्मरण करतीं और गातीं भी जाती थीं।

वे अपने स्थूल कटिभाग में सूत से बाँधकर रेशमी लहँगा पहने हुए थीं। उनके स्तनों में से पुत्र-स्नेह की अधिकता से दूध चूता जा रहा था और वे काँप भी रहे थे। नेती खींचते रहने से बाँहें कुछ थक गयी थीं। हाथों में कंगन और कानों में कर्णफूल हिल रहे थे। मुँह पर पसीने की बूँदें झलक रहीं थीं। चोटी में गुँथे हुए मालती के सुन्दर पुष्प गिरते जा रहे थे। सुन्दर भौंहों वाली यशोदा इस प्रकार दही मथ रहीं थीं।

उसी समय भगवान श्रीकृष्ण स्तन पीने के लिए दही मथती हुई अपनी माता के पास आये। उन्होंने अपनी माता के हृदय में प्रेम और आनन्द को और भी बढ़ाते हुए दही की मथानी पकड़ ली तथा उन्हें मथने से रोक दिया श्रीकृष्ण माता यशोदा की गोद में चढ़ गये। वात्सल्य-स्नेह की अधिकता से उनके स्तनों से दूध तो स्वयं झर ही रहा था। वे उन्हें पिलाने लगीं और मन्द-मन्द मुस्कान से युक्त उनका मुख देखने लगीं। इतने में ही दूसरी ओर अँगीठी पर रखे हुए दूध में उफान आया। उसे देखकर यशोदा जी उन्हें अतृप्त ही छोड़कर जल्दी से दूध उतारने के लिए चली गयीं।

इससे श्रीकृष्ण को कुछ क्रोध आ गया। उनके लाल-लाल होंठ फड़कने लगे। उन्हें दाँतों से दबाकर श्रीकृष्ण ने पास ही बड़े हुए लोढ़े से दही का मटका फोड़-फाड़ डाला, बनावटी आँसू आँखों में भर लिये और दूसरे घर में जाकर अकेले में बासी माखन खाने लगे यशोदा जी औटे हुए दूध को उतारकर फिर मथने के घर में चली आयीं। वहाँ देखती हैं तो दही का मटका टुकड़े-टुकड़े हो गया है। वे समझ गयीं कि सब सब मेरे लाला की ही करतूत है। साथ ही उन्हें वहाँ न देखकर यशोदा माता हँसने लगीं। इधर-उधर ढूंढने पर पता चला कि श्रीकृष्ण एक उलटे हुए ऊखल पर खड़े हैं और छीके पर का माखन ले-लेकर बंदरों को खूब लुटा रहे हैं। उन्हें यह भी डर है कि कहीं मेरी चोरी खुल न जाय, इसलिए चौकन्ने होकर चारों ओर ताकते जाते हैं। यह देखकर यशोदा रानी पीछे से धीरे-धीरे उनके पास जा पहुँची।

जब श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरी माँ हाथ में छड़ी लिये मेरी ही ओर आ रहीं हैं, तब झट से ओखली पर से कूद पड़े और डरे हुए की भाँति भागे। परीक्षित! बड़े-बड़े योगी तपस्या के द्वारा अपने मन को अत्यन्त सूक्ष्म और शुद्ध बनाकर भी जिनमें प्रवेश नहीं करा पाते, पाने की बात तो दूर रही, उन्हीं भगवान के पीछे-पीछे उन्हें पकड़ने के लिये यशोदा जी दौड़ीं जब इस प्रकार माता यशोदा श्रीकृष्ण के पीछे दौड़ने लगीं, तब कुछ ही देर में बड़े-बड़े एवं हिलते हुए नितम्बों के कारण उनकी चाल धीमी पड़ गयी। वेग से दौड़ने के कारण चोटी की गाँठ ढीली पड़ गयी। वे ज्यों-ज्यों आगे बढती, पीछे-पीछे चोटी में गुँथे हुए फूल गिरते जाते। इस प्रकार सुन्दरी यशोदा ज्यों-त्यों करके उन्हें पकड़ सकीं।

कृतागसं तं प्ररुदन्तमक्षिणी

कषन्तमञ्जन्मषिणी स्वपाणिना ।

उद्वीक्षमाणं भयविह्वलेक्षणं

हस्ते गृहीत्वा भिषयन्त्यवागुरत् ॥ ११॥

त्यक्त्वा यष्टिं सुतं भीतं विज्ञायार्भकवत्सला ।

इयेष किल तं बद्धुं दाम्नातद्वीर्यकोविदा ॥ १२॥

न चान्तर्न बहिर्यस्य न पूर्वं नापि चापरम् ।

पूर्वापरं बहिश्चान्तर्जगतो यो जगच्च यः ॥ १३॥

तं मत्वाऽऽत्मजमव्यक्तं मर्त्यलिङ्गमधोक्षजम् ।

गोपिकोलूखले दाम्ना बबन्ध प्राकृतं यथा ॥ १४॥

तद्दाम बध्यमानस्य स्वार्भकस्य कृतागसः ।

द्व्यङ्गुलोनमभूत्तेन सन्दधेऽन्यच्च गोपिका ॥ १५॥

यदासीत्तदपि न्यूनं तेनान्यदपि सन्दधे ।

तदपि द्व्यङ्गुलं न्यूनं यद्यदादत्त बन्धनम् ॥ १६॥

एवं स्वगेहदामानि यशोदा सन्दधत्यपि ।

गोपीनां सुस्मयन्तीनां स्मयन्ती विस्मिताभवत् ॥ १७॥

स्वमातुः स्विन्नगात्राया विस्रस्तकबरस्रजः ।

दृष्ट्वा परिश्रमं कृष्णः कृपयाऽऽसीत्स्वबन्धने ॥ १८॥

एवं सन्दर्शिता ह्यङ्ग हरिणा भृत्यवश्यता ।

स्ववशेनापि कृष्णेन यस्येदं सेश्वरं वशे ॥ १९॥

नेमं विरिञ्चो न भवो न श्रीरप्यङ्ग संश्रया ।

प्रसादं लेभिरे गोपी यत्तत्प्राप विमुक्तिदात् ॥ २०॥

नायं सुखापो भगवान् देहिनां गोपिकासुतः ।

ज्ञानिनां चात्मभूतानां यथा भक्तिमतामिह ॥ २१॥

कृष्णस्तु गृहकृत्येषु व्यग्रायां मातरि प्रभुः ।

अद्राक्षीदर्जुनौ पूर्वं गुह्यकौ धनदात्मजौ ॥ २२॥

पुरा नारदशापेन वृक्षतां प्रापितौ मदात् ।

नलकूबरमणिग्रीवाविति ख्यातौ श्रियान्वितौ ॥ २३॥

 यशोदा मैया श्रीकृष्ण का हाथ पकड़कर उन्हें डराने-धमकाने लगीं। उस समय श्रीकृष्ण की झाँकी बड़ी विलक्षण हो रही थी। अपराध तो किया ही था, इसलिये रुलाई रोकने पर भी न रुकती थी। हाथों से आँखें मल रहे थे, इसलिए मुँह पर काजल की स्याही फ़ैल गयी थीं, पिटने के भय से आँखें ऊपर की ओर उठ गयी थीं, उनसे व्याकुलता सूचित होती थी जब यशोदा जी ने देखा कि लल्ला बहुत डर गया है, तब उनके हृदय में वात्सल्य-स्नेह उमड़ आया। उन्होंने छड़ी फ़ेंक दी। इसके बाद सोचा कि इसको एक बार रस्सी से बाँध देना चाहिए।

परीक्षित! सच पूछो तो यशोदा मैया को अपने बालक के ऐश्वर्य का पता नहीं था जिसमें न बाहर है न भीतर, न आदि है और न अन्त; जो जगत के पहले भी थे, बाद में भी रहेंगे, इस जगत के भीतर तो हैं ही, बाहरी रूपों में भी हैं; और तो क्या, जगत के रूप में भी स्वयं वही हैं; यही नहीं, जो समस्त इन्द्रियों से परे और अव्यक्त हैं - उन्हीं भगवान को मनुष्य का-सा रूप धारण करने के कारण पुत्र समझकर यशोदा रानी रस्सी से उखल में ठीक वैसे ही बाँध देतीं हैं, जैसे कोई साधारण-सा बालक हो। जब माता यशोदा अपने ऊधमी और नटखट लड़के को रस्सी से बाँधने लगीं, तब वह दो अंगुल छोटी पड़ गयी! तब उन्होंने दूसरी रस्सी लाकर उसमें जोड़ी जब वह भी छोटी हो गयी, तब उसके साथ और जोड़ी, इस प्रकार वे ज्यों-ज्यों रस्सी लाती और जोड़तीं गयीं, त्यों-त्यों जुड़ने पर भी वे सब दो-दो अंगुल छोटी पड़ती गयीं।

यशोदा रानी ने घर की सारी रस्सियाँ जोड़ डालीं, फिर भी वे भगवान श्रीकृष्ण को न बाँध सकीं। उनकी असफलता पर देखने वाली गोपियाँ मुस्कराने लगीं और वे स्वयं भी मुस्कराती हुई आशचर्यचकित हो गयीं। भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरी माँ का शरीर पसीने से लथपथ हो गया है, चोटी में गुँथी हुई मालाएँ गिर गयीं हैं और वे बहुत थक भी गयीं हैं; तब कृपा करके वे स्वयं ही अपनी माँ के बंधन में बन्ध गये।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण परम स्वतंत्र हैं। ब्रह्मा, इन्द्र आदि के साथ यह सम्पूर्ण जगत उनके वश में है। फिर भी इस प्रकार बँधकर उन्होंने संसार को यह बात दिखला दी कि मैं अपने प्रेमी भक्तों के वश में हूँ। ग्वालिनी यशोदा ने मुक्तिदाता मुकुन्द से जो कुछ अनिर्वचनीय कृपा प्रसाद प्राप्त किया वह प्रसाद ब्रह्मा पुत्र होने पर भी, शंकर आत्मा होने पर भी और वक्षःस्थल पर विराजमान लक्ष्मी अर्धांगिनी होने पर भी न पा सके। यह गोपिकानंदन भगवान अनन्यप्रेमी भक्तों के लिए जितने सुलभ हैं, उतने देहाभिमानी कर्मकाण्डी एवं तपस्वियों को तथा अपने स्वरूप भूत ज्ञानियों के लिए भी नहीं हैं। इसके बाद नन्दरानी यशोदा जी तो घर के काम-धंधों में उलझ गयीं और ऊखल में बंधे हुए भगवान श्यामसुन्दर ने उन दोनों अर्जुन वृक्षों को मुक्ति देने की सोची, जो पहले यक्षराज कुबेर के पुत्र थे। इनके नाम थे नलकूबर और मणिग्रीव। इनके पास धन, सौन्दर्य और ऐश्वर्य की पूर्णता थी। इनका घमण्ड देखकर ही देवर्षि नारदजी ने इन्हें शाप दे दिया था और ये वृक्ष हो गये थे।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे गोपीप्रसादो नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९॥

जारी-आगे पढ़े............... दशम स्कन्ध अध्याय 10 

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