श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १०

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १०                                                       

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १० "यमलार्जुन का उद्धार"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १०

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पूर्वार्धं दशम अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १०                                                                           

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः १० पूर्वार्ध अध्यायः १०                                                                              

श्रीमद्भागवत महापुराण दसवाँ स्कन्ध दसवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १० श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतं - दशमस्कन्धः पूर्वार्धं

॥ दशमस्कन्धः पूर्वार्धं ॥

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ दशमोऽध्यायः -१० ॥

राजोवाच

कथ्यतां भगवन्नेतत्तयोः शापस्य कारणम् ।

यत्तद्विगर्हितं कर्म येन वा देवर्षेस्तमः ॥ १॥

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन! आप कृपया यह बतलाइये कि नलकूबर और मणिग्रीव को शाप क्यों मिला। उन्होंने ऐसा कौन-सा निन्दित कर्म किया था, जिसके कारण परम शान्त देवर्षि नारद जी को भी क्रोध आ गया?

श्रीशुक उवाच

रुद्रस्यानुचरौ भूत्वा सुदृप्तौ धनदात्मजौ ।

कैलासोपवने रम्ये मन्दाकिन्यां मदोत्कटौ ॥ २॥

वारुणीं मदिरां पीत्वा मदाघूर्णितलोचनौ ।

स्त्रीजनैरनुगायद्भिश्चेरतुः पुष्पिते वने ॥ ३॥

अन्तः प्रविश्य गङ्गायामम्भोजवनराजिनि ।

चिक्रीडतुर्युवतिभिर्गजाविव करेणुभिः ॥ ४॥

यदृच्छया च देवर्षिर्भगवांस्तत्र कौरव ।

अपश्यन्नारदो देवौ क्षीबाणौ समबुध्यत ॥ ५॥

तं दृष्ट्वा व्रीडिता देव्यो विवस्त्राः शापशङ्किताः ।

वासांसि पर्यधुः शीघ्रं विवस्त्रौ नैव गुह्यकौ ॥ ६॥

तौ दृष्ट्वा मदिरामत्तौ श्रीमदान्धौ सुरात्मजौ ।

तयोरनुग्रहार्थाय शापं दास्यन्निदं जगौ ॥ ७॥

श्री शुकदेव जी ने कहा ;- परीक्षित! नलकूबर और मणिग्रीव - ये दोनों एक तो धनाध्यक्ष कुबेर के लाड़ले लड़के थे और दूसरे इनकी गिनती हो गयी रुद्र भगवान के अनुचरों में। इससे उनका घमण्ड बढ़ गया। एक दिन वे दोनों मन्दाकिनी के तट पर कैलाश के रमणीय उपवन में वारुणी मदिरा पीकर मदोन्मत्त हो गये थे। नशे के कारण उनकी आँखें घूम रही थीं। बहुत-सी स्त्रियाँ उनके साथ गा-बजा रहीं थीं और वे पुष्पों से लदे हुए वन में उनके साथ विहार कर रहे थे। उस समय गंगा जी में पाँत-के-पाँत कमल खिले हुए थे। वे स्त्रियों के साथ जल के भीतर घुस गये और जैसे हाथियों का जोड़ा हथिनियों के साथ जलक्रीडा कर रहा हो, वैसे ही वे उन युवतियों के साथ तरह-तरह की क्रीडा करने लगे।

परीक्षित! संयोगवश उधर से परम समर्थ देवर्षि नारद जी आ निकले। उन्होंने उन यक्ष-युवकों को देखा और समझ लिया कि ये इस समय मतवाले हो रहे हैं। देवर्षि नारद को देखकर वस्त्रहीन अप्सराएँ लजा गयीं। शाप के डर से उन्होंने तो अपने-अपने कपड़े झटपट पहन लिये, परन्तु इन यक्षों ने कपड़े नहीं पहने। जब देवर्षि नारद ने देखा कि ये देवताओं के पुत्र होकर श्रीमद से अन्धे और मदिरापान करके उन्मत्त हो रहे हैं, तब उन्होंने उन पर अनुग्रह करने के लिए शाप देते हुए यह कहा -

नारद उवाच

न ह्यन्यो जुषतो जोष्यान् बुद्धिभ्रंशो रजोगुणः ।

श्रीमदादाभिजात्यादिर्यत्र स्त्रीद्यूतमासवः ॥ ८॥

हन्यन्ते पशवो यत्र निर्दयैरजितात्मभिः ।

मन्यमानैरिमं देहमजरामृत्यु नश्वरम् ॥ ९॥

देवसंज्ञितमप्यन्ते कृमिविड्भस्मसञ्ज्ञितम् ।

भूतध्रुक् तत्कृते स्वार्थं किं वेद निरयो यतः ॥ १०॥

देहः किमन्नदातुः स्वं निषेक्तुर्मातुरेव च ।

मातुः पितुर्वा बलिनः क्रेतुरग्नेः शुनोऽपि वा ॥ ११॥

एवं साधारणं देहमव्यक्तप्रभवाप्ययम् ।

को विद्वानात्मसात्कृत्वा हन्ति जन्तून् ऋतेऽसतः ॥ १२॥

असतः श्रीमदान्धस्य दारिद्र्यं परमञ्जनम् ।

आत्मौपम्येन भूतानि दरिद्रः परमीक्षते ॥ १३॥

यथा कण्टकविद्धाङ्गो जन्तोर्नेच्छति तां व्यथाम् ।

जीवसाम्यं गतो लिङ्गैर्न तथाऽऽविद्धकण्टकः ॥ १४॥

दरिद्रो निरहंस्तम्भो मुक्तः सर्वमदैरिह ।

कृच्छ्रं यदृच्छयाऽऽप्नोति तद्धि तस्य परं तपः ॥ १५॥

नित्यं क्षुत्क्षामदेहस्य दरिद्रस्यान्नकाङ्क्षिणः ।

इन्द्रियाण्यनुशुष्यन्ति हिंसापि विनिवर्तते ॥ १६॥

दरिद्रस्यैव युज्यन्ते साधवः समदर्शिनः ।

सद्भिः क्षिणोति तं तर्षं तत आराद्विशुद्ध्यति ॥ १७॥

साधूनां समचित्तानां मुकुन्दचरणैषिणाम् ।

उपेक्ष्यैः किं धनस्तम्भैरसद्भिरसदाश्रयैः ॥ १८॥

तदहं मत्तयोर्माध्व्या वारुण्या श्रीमदान्धयोः ।

तमो मदं हरिष्यामि स्त्रैणयोरजितात्मनोः ॥ १९॥

यदिमौ लोकपालस्य पुत्रौ भूत्वा तमःप्लुतौ ।

न विवाससमात्मानं विजानीतः सुदुर्मदौ ॥ २०॥

अतोऽर्हतः स्थावरतां स्यातां नैवं यथा पुनः ।

स्मृतिः स्यान्मत्प्रसादेन तत्रापि मदनुग्रहात् ॥ २१॥

वासुदेवस्य सान्निध्यं लब्ध्वा दिव्यशरच्छते ।

वृत्ते स्वर्लोकतां भूयो लब्धभक्ती भविष्यतः ॥ २२॥

नारद जी ने कहा ;- जो लोग अपने प्रिय विषयों का सेवन करते हैं, उनकी बुद्धि को सबसे बढ़कर नष्ट करने वाला है श्रीमद - धन सम्पत्ति का नशा। हिंसा आदि रजोगुणी कर्म और कुलीनता आदि का अभिमान भी उससे बढ़कर बुद्धिभ्रंशक नहीं है; क्योंकि श्रीमद के साथ-साथ तो स्त्री, जुआ और मदिरा भी रहती है।

ऐश्वर्यमद और श्रीमद से अंधे होकर अपनी इन्द्रियों के वश में रहने वाले क्रूर पुरुष अपने नाशवान शरीर को तो अजर-अमर मान बैठते हैं और अपने ही जैसे शरीर वाले पशुओं की हत्या करते हैं। जिस शरीर को भूदेव’, ‘नरदेव’, ‘देवआदि नामों से पुकारते हैं - उसकी अन्त में क्या गति होगी? उसमें कीड़े पड़ जायँगे, पक्षी खाकर उसे विष्ठा बना देंगे या वह जलकर राख का ढेर बन जायगा। उसी शरीर के लिये प्राणियों से द्रोह करने में मनुष्य अपना कौन-सा स्वार्थ समझता है? ऐसा करने में तो उसे नरक की ही प्राप्ति होगी।

बतलाओ तो सही, यह शरीर किसकी सम्पत्ति है? अन्न देकर पालने वाले की है या गर्भाधान अक्राने वाले पिता की? यह शरीर उसे नौ महीने पेट में रखने वाली माता का है अथवा माता को पैदा करने वाले नाना का? जो बलवान पुरुष बलपूर्वक इससे काम करा लेता है, उसका है अथवा दाम देकर खरीद लेने वाले का? चिता की जिस धधकती आग में यह जल जायगा, उसका है अथवा जो कुत्ते-स्यार उसको चीथ-चीथकर खा जाने की आशा लगाये बैठे हैं, उनका?

जो दुष्ट श्रीमद से अंधे हो रहे हैं, उनकी आँखों में ज्योति डालने के लिए दरिद्रता ही सबसे बड़ा अंजन है; क्योंकि दरिद्र यह देख सकता है कि दूसरे प्राणी भी मेरे ही जैसे हैं ।

जिसके शरीर में एक बार काँटा गड़ जाता है, वह नहीं चाहता कि किसी भी प्राणी को काँटा गड़ने की पीड़ा सहनी पड़े; क्योंकि उस पीड़ा और उसके द्वारा होने वाले विकारों से वह समझता है कि दूसरे को भी वैसी ही पीड़ा होती है। परन्तु जिसे कभी काँटा गड़ा ही नहीं, वह उसकी पीड़ा का अनुमान नहीं कर सकता।

दरिद्र में घमण्ड और हेकड़ी नहीं होती; वह सब तरह के मदों से बचा रहता है। बल्कि देववश उसे जो कष्ट उठाना पड़ता है, वह उसके लिए एक बहुत बड़ी तपस्या भी है।

जिसे प्रतिदिन भोजन के लिय अन्न जुटाना पड़ता है, भूख से जिसका शरीर दुबला-पतला हो गया है, उस दरिद्र की इन्द्रियाँ भी अधिक विषय नहीं भोगना चाहतीं, सूख जाती हैं और फिर वह अपने भोगों के लिए दूसरे प्राणियों को सताता नहीं - उसकी हिंसा नहीं करता।

यद्यपि साधु पुरुष समदर्शी होते हैं, फिर भी उनका समागम दरिद्र के लिये ही सुलभ है; क्योंकि उसके भोग तो पहले से ही छूटे हुए हैं। अब संतों के संग से उसकी लालसा-तृष्णा भी मिट जाती है और शीघ्र ही उसका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। जिन महात्माओं के चित्त में सबके लिये समता है, जो केवल भगवान के चरणारविन्दों का मकरन्द-रस पीने के लिए सदा उत्सुक रहते हैं, उन्हें दुर्गुणों के खजाने अथवा दुराचारियों की जीविका चलाने वाले और धन के मद से मतवाले दुष्टों की क्या आवश्यकता है? वे तो उसकी उपेक्षा के ही पात्र हैं।

ये दोनों यक्ष वारुणी मदिरा का पान करके मतवाले और श्रीमद से अंधे हो रहे हैं। अपनी इन्द्रियों के अधीन रहनेवाले इन स्त्री-लम्पट यक्षों का अज्ञानजनित मद मैं चूर-चूर कर दूँगा। देखो तो सही, कितना अनर्थ है कि ये लोकपाल कुबेर के पुत्र होने पर भी मदोन्मत्त होकर अचेत हो रहे हैं और इनको इस बात का भी पता नहीं है कि हम बिलकुल नंग-धडंग हैं। इसलिए ये दोनों अब वृक्ष योनि में जाने के योग्य हैं। ऐसा होने से इन्हें फिर इस प्रकार का अभिमान न होगा। वृक्ष योनि में जाने पर भी मेरी कृपा से इन्हें भगवान की स्मृति बनी रहेगी और मेरे अनुग्रह से देवताओं के सौ वर्ष बीतने पर इन्हें भगवान श्रीकृष्ण का सानिध्य प्राप्त होगा और फिर भगवान के चरणों में परम प्रेम प्राप्त करके ये अपने लोक में चले आयेंगे।

श्रीशुक उवाच

एवमुक्त्वा स देवर्षिर्गतो नारायणाश्रमम् ।

नलकूवरमणिग्रीवावासतुर्यमलार्जुनौ ॥ २३॥

ऋषेर्भागवतमुख्यस्य सत्यं कर्तुं वचो हरिः ।

जगाम शनकैस्तत्र यत्रास्तां यमलार्जुनौ ॥ २४॥

देवर्षिर्मे प्रियतमो यदिमौ धनदात्मजौ ।

तत्तथा साधयिष्यामि यद्गीतं तन्महात्मना ॥ २५॥

इत्यन्तरेणार्जुनयोः कृष्णस्तु यमयोर्ययौ ।

आत्मनिर्वेशमात्रेण तिर्यग्गतमुलूखलम् ॥ २६॥

बालेन निष्कर्षयतान्वगुलूखलं त-

द्दामोदरेण तरसोत्कलिताङ्घ्रिबन्धौ

निष्पेततुः परमविक्रमितातिवेप-

स्कन्धप्रवालविटपौ कृतचण्डशब्दौ ॥ २७॥

तत्र श्रिया परमया ककुभः स्फुरन्तौ

सिद्धावुपेत्य कुजयोरिव जात वेदाः

कृष्णं प्रणम्य शिरसाखिललोकनाथं

द्धाञ्जली विरजसाविदमूचतुः स्म ॥ २८॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- देवर्षि! नारद इस प्रकार कहकर भगवान नर-नारायण के आश्रम पर चले गये। नलकूबर और मणिग्रीव - ये दोनों एक ही साथ अर्जुन वृक्ष होकर यमलार्जुन नाम से प्रसिद्ध हुए। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने परम प्रेमी भक्त देवर्षि नारद की बात सत्य करने के लिए धीरे-धीरे ऊखल घसीटते हुए उस ओर प्रस्थान किया, जिधर यमलार्जुन वृक्ष थे। भगवान ने सोचा कि देवर्षि नारद मेरे अत्यन्त प्यारे हैं और ये दोनों भी मेरे भक्त कुबेर के लड़के हैं। इसलिए महात्मा नारद ने जो कुछ कहा है, उसे मैं ठीक उसी रूप में पूरा करूँगा।

यह विचार करके भगवान श्रीकृष्ण दोनों वृक्षों के बीच में घुस गये। वे तो दूसरी ओर निकल गये, परन्तु ऊखल टेढ़ा होकर अटक गया। दामोदर भगवान श्रीकृष्ण की कमर में रस्सी कसी हुई थी। उन्होंने अपने पीछे लुढ़कते हुए ऊखल को ज्यों ही तनिक ज़ोर से खींचा, त्यों ही पेड़ों की सारी जड़ें उखड़ गयीं। समस्त बल-विक्रम के केन्द्र भगवान का तनिक-सा ज़ोर लगते ही पेड़ों के तने, शाखाएँ, छोटी-छोटी डालियाँ और एक-एक पत्ता काँप उठा और वे दोनों बड़े ज़ोर से तड़तड़ाते हुए पृथ्वी पर गिर पड़े। उन दोनों वृक्षों में से अग्नि के समान तेजस्वी दो सिद्ध पुरुष निकले। उनके चमचमाते हुए सौन्दर्य से दिशाएँ दमक उठीं। उन्होंने सम्पूर्ण लोकों के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण के पास आकर उनके चरणों में सर रखकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर शुद्ध हृदय से वे उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे -

कृष्ण कृष्ण महायोगिंस्त्वमाद्यः पुरुषः परः ।

व्यक्ताव्यक्तमिदं विश्वं रूपं ते ब्राह्मणा विदुः ॥ २९॥

त्वमेकः सर्वभूतानां देहास्वात्मेन्द्रियेश्वरः ।

त्वमेव कालो भगवान् विष्णुरव्यय ईश्वरः ॥ ३०॥

त्वं महान् प्रकृतिः सूक्ष्मा रजःसत्त्वतमोमयी ।

त्वमेव पुरुषोऽध्यक्षः सर्वक्षेत्रविकारवित् ॥ ३१॥

गृह्यमाणैस्त्वमग्राह्यो विकारैः प्राकृतैर्गुणैः ।

को न्विहार्हति विज्ञातुं प्राक्सिद्धं गुणसंवृतः ॥ ३२॥

तस्मै तुभ्यं भगवते वासुदेवाय वेधसे ।

आत्मद्योतगुणैश्छन्नमहिम्ने ब्रह्मणे नमः ॥ ३३॥

यस्यावतारा ज्ञायन्ते शरीरेष्वशरीरिणः ।

तैस्तैरतुल्यातिशयैर्वीर्यैर्देहिष्वसङ्गतैः ॥ ३४॥

स भवान् सर्वलोकस्य भवाय विभवाय च ।

अवतीर्णोंऽशभागेन साम्प्रतं पतिराशिषाम् ॥ ३५॥

नमः परमकल्याण नमः परममङ्गल ।

वासुदेवाय शान्ताय यदूनां पतये नमः ॥ ३६॥

अनुजानीहि नौ भूमंस्तवानुचरकिङ्करौ ।

दर्शनं नौ भगवत ऋषेरासीदनुग्रहात् ॥ ३७॥

वाणी गुणानुकथने श्रवणौ कथायां

हस्तौ च कर्मसु मनस्तव पादयोर्नः ।

स्मृत्यां शिरस्तव निवासजगत्प्रणामे

दृष्टिः सतां दर्शनेऽस्तु भवत्तनूनाम् ॥ ३८॥

उन्होंने कहा ;- सच्चिदानन्दस्वरूप! सबको अपनी ओर आकर्षित करने वाले परम योगेश्वर श्रीकृष्ण! आप प्रकृति से अतीत स्वयं पुरुषोत्तम हैं। वेदज्ञ ब्राह्मण यह बात जानते हैं कि यह व्यक्त और अव्यक्त सम्पूर्ण जगत आपका ही रूप है। आप ही समस्त प्राणियों के शरीर, प्राण, अंतःकरण और इन्द्रियों के स्वामी हैं तथा आप ही सर्वशक्तिमान काल, सर्वव्यापक एवं अविनाशी ईश्वर हैं। आप ही महत्तत्त्व और वह प्रकृति हैं, जो अत्यन्त सूक्ष्म एवं सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणरूपा है। आप ही समस्त स्थूल और सूक्ष्म शरीरों के कर्म, भाव, धर्म और सत्ता को जानने वाले सबके साक्षी परमात्मा हैं। वृत्तियों से ग्रहण किये जाने वाले प्रकृति के गुणों और विकारों के द्वार आप पकड़ में नहीं आ सकते।

स्थूल और सूक्ष्म शरीर के आवरण से ढका हुआ ऐसा कौन-सा पुरुष है, जो आपको जान सक? क्योंकि आप तो उन शरीरों के पहले भी एकरस विद्यमान थे। समस्त प्रपंच के विधाता भगवान वासुदेव को हम नमस्कार करते हैं। प्रभो! आपके द्वारा प्रकाशित होने वाले गुणों से ही आपने अपनी महिमा छिपा रखी है। परब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्ण! हम आपको नमस्कार करते हैं। आप प्राकृत शरीर से रहित हैं। फिर भी जब ऐसे पराक्रम प्रकट करते हैं, जो साधारण शरीरधारियों के लिए शक्य नहीं है और जिसने बढ़कर तो क्या जिनके समान भी कोई नहीं कर सकता, तब उनके द्वारा उन शरीरों में आपके अवतारों का पता चलता है।

प्रभो! आप ही समस्त लोकों के अभ्युदय और निःश्रेयसके लिए इस समय अपनी सम्पूर्ण शक्तियों से अवतीर्ण हुए हैं। आप समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले हैं। परम कल्याण (साध्य) स्वरूप! आपको नमस्कार है। परम मंगल (साधन) स्वरूप! आपको नमस्कार हैं। परम शान्त, सबके हृदय में विहार करने वाले यदुवंश शिरोमणि श्रीकृष्ण को नमस्कार है। अनन्त! हम आपके दासानुदास हैं। आप यह स्वीकार कीजिये। देवर्षि भगवान नारद के परम अनुग्रह से ही हम अपराधियों को आपका दर्शन प्राप्त हुआ है।

प्रभो! हमारी वाणी आपके मंगलमय गुणों का वर्णन करती रहे। हमारे कान आपकी रसमयी कथा में लगे रहें। हमारे हाथ आपकी सेवा में और मन आपके चरण-कमलों की स्मृति में रम जाये। यह सम्पूर्ण जगत आपका निवास-स्थान है। हमारा मस्तक सबके सामने झुका रहे। संत आपके प्रत्यक्ष शरीर हैं। हमारी आँखें उनके दर्शन करती रहें।

श्रीशुक उवाच

इत्थं सङ्कीर्तितस्ताभ्यां भगवान् गोकुलेश्वरः ।

दाम्ना चोलूखले बद्धः प्रहसन्नाह गुह्यकौ ॥ ३९॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- सौन्दर्य-माधुर्यनिधि गोकुलेश्वर श्रीकृष्ण नलकूबर और मणिग्रीव के इस प्रकार स्तुति करने पर रस्सी से उखल बँधे-बँधे ही हँसते हुए उनसे कहा -

श्रीभगवानुवाच

ज्ञातं मम पुरैवैतदृषिणा करुणात्मना ।

यच्छ्रीमदान्धयोर्वाग्भिर्विभ्रंशोऽनुग्रहः कृतः ॥ ४०॥

साधूनां समचित्तानां सुतरां मत्कृतात्मनाम् ।

दर्शनान्नो भवेद्बन्धः पुंसोऽक्ष्णोः सवितुर्यथा ॥ ४१॥

तद्गच्छतं मत्परमौ नलकूबर सादनम् ।

सञ्जातो मयि भावो वामीप्सितः परमोऽभवः ॥ ४२॥

श्री भगवान ने कहा ;- तुम लोग श्रीमद से अंधे हो रहे थे। मैं पहले से ही यह बात जानता था कि परम कारुणिक देवर्षि नारद ने शाप देकर तुम्हारा ऐश्वर्य नष्ट कर दिया तथा इस प्रकार तुम्हारे ऊपर कृपा की।

जिसकी बुद्धि समदर्शिनी है और हृदय पूर्ण रूप से मेरे प्रति समर्पित है, उन साधु पुरुषों के दर्शन से बंधन होना ठीक वैसे ही सम्भव नहीं है, जैसे सूर्योदय होने पर नेत्रों के सामने अन्धकार होना।

इसलिए नलकूबर और मणिग्रीव! तुम लोग मेरे परायण होकर अपने-अपने घर जाओ। तुम लोगों को संसार चक्र से छुड़ाने वाले अनन्य भक्तिभाव की, जो तुम्हें अभीष्ट है, प्राप्ति हो गयी है।

श्रीशुक उवाच

इत्युक्तौ तौ परिक्रम्य प्रणम्य च पुनः पुनः ।

बद्धोलूखलमामन्त्र्य जग्मतुर्दिशमुत्तराम् ॥ ४३॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- जब भगवान ने इस प्रकार कहा, तब उन दोनों ने उनकी परिक्रमा की और बार-बार प्रणाम किया। इसके बाद ऊखल में बंधे हुए सर्वेश्वर की आज्ञा प्राप्त करके उन लोगों ने उत्तर दिशा की यात्रा की।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे नारदशापो नाम दशमोऽध्यायः ॥ १०॥

जारी-आगे पढ़े............... दशम स्कन्ध अध्याय 11

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