श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ४९
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
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प्रेतकल्प अध्याय ४९ भगवान् विष्णु द्वारा गरुड को दिये गये
महत्त्वपूर्ण उपदेश, मनुष्य- योनि प्राप्ति की दुर्लभता का
वर्णन, मनुष्य- शरीर प्राप्तकर आत्मकल्याण के लिये सचेष्ट
रहना, संसार की दुःखरूपता तथा अनित्यता और ईश्वर की नित्यता का
वर्णन, काल के द्वारा सभी विनाश का प्रतिपादन, सत्संग और विवेकज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति, तत्त्वज्ञानरूपी
मोक्षप्राप्ति के उपाय, गरुडपुराण की वक्तृ- श्रोतृ परम्परा
तथा गरुडपुराण का माहात्म्य का वर्णन है।
श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) नवचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः
Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 49
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
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प्रेतकल्प उन्चासवाँ अध्याय
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय ४९
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय ४९ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित
गरुडपुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः
४९
गरुड उवाच ।
श्रुता मया दयासिन्धो
ह्यज्ञानाज्जीवसंसृतिः ।
अधुना श्रोतुमिच्छामि मोक्षोपायं
सनातनम् ॥ २,४९.१ ॥
भगवन्देवदेवेश शरणागतवत्सल ।
असारे घोरसंसारे सर्वदुः खमलीमसे ॥
२,४९.२ ॥
नानाविधशरीरस्था अनन्ता जीवराशयः ।
जायन्ते च म्रियन्ते च तेषामन्तो न
विद्यते ॥ २,४९.३ ॥
सदा दुः खातुरा एव न सखी विद्यते
क्कचित् ।
केनोपायेन मोक्षेश मुच्यन्ते वद मे
प्रभो ॥ २,४९.४ ॥
गरुड ने कहा—हे दया के सागर! अज्ञान के कारण ही जीव की उत्पत्ति इस संसार में होती है,
इस बात को मैंने सुन लिया। अब मैं मोक्ष के सनातन उपाय को सुनना
चाहता हूँ । हे देवदेवेश ! शरणागतवत्सल ! प्रभो ! सभी प्रकार के दुःखों से मलिन
बनाये गये इस दुस्तर असार संसार में नाना प्रकार के शरीरों में प्रविष्ट जीवों की
अनन्त राशियाँ हैं। वे इसी संसार में जन्म लेती हैं और इसी में मर जाती हैं,
किंतु उनका अन्त नहीं होता है। वे सदैव दुःख से व्याकुल ही रहती हैं
। यहाँ कहीं कोई भी सुखी नहीं है। हे मोक्षदाता स्वामिन्! वे किस उपाय से मुक्त हो
सकते हैं? उसको आप मुझे बताने की कृपा करें।
श्रीभगवानुबाच ।
शृणु तार्क्ष्य प्रवक्ष्यामि यन्मां
त्वं परिपृच्छसि ।
यस्य श्रवणमात्रेण संसारान्मुच्यते
नरः ॥ २,४९.५ ॥
श्रीभगवान्ने कहा—हे तार्क्ष्य ! जो तुम मुझसे पूछ रहे हो, जिसको
सुनने मात्र से ही मनुष्य इस संसार के आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाता है,
उसे मैं कह रहा हूँ; तुम सुनो।
अस्ति देवः परब्रह्मस्वरूपो निष्कलः शिवः ।
सर्वज्ञः सर्वकर्ता च सर्वेशो निर्मलोऽद्वयः ॥ २,४९.६ ॥
स्वयञ्ज्योतिरनाद्यन्तो निर्विकारः परात्परः ।
निर्गुणः सच्चिदानन्दस्तदंशा जीवसंज्ञकाः ॥ २,४९.७ ॥
अनाद्यविद्योपहता यथाग्नौ विस्फुलिङ्गकाः ।
देहाद्युपाधिसम्भिन्नास्ते कर्मभिरनादिभिः ॥ २,४९.८ ॥
सुखदुः खप्रदैः पुण्यपारूपैर्नियन्त्रिताः ।
तत्तज्जातियुतं देहमायुर्भोगञ्च कर्मजम् ॥ २,४९.९ ॥
प्रतिजन्म प्रपद्यन्ते तेषामपि परं पुनः ।
ससूक्ष्मलिङ्गशरीरमामोक्षादक्षरं खग ॥ २,४९.१० ॥
हे खगेश! इस जगत् से परे
परब्रह्मस्वरूप, निरवयव, सर्वज्ञ,
सर्वकर्ता, सर्वेश, निर्मल,
अद्वय- तत्त्व, स्वयंप्रकाश, आदि – अन्त से रहित, विकारशून्य, परात्पर, निर्गुण और सच्चिदानन्द शिव हैं, उसी के अंश ये जीव हैं। जो अनादि अविद्या से वैसे ही आच्छादित हैं,
जैसे अग्नि में उसके अंश विस्फुल्लिङ्ग स्थित हैं। अनादि कर्मों के
प्रभाव से प्राप्त शरीरादि नाना उपाधियों में होने के कारण परस्पर भिन्न-भिन्न हो
गये हैं, सुख-दुःख प्रदान करनेवाले पुण्य और पापों का उनके
ऊपर नियन्त्रण है । उसी कर्म के अनुसार उन्हें जाति, देह,
आयु तथा भोग की प्राप्ति होती है। सूक्ष्म या लिङ्ग शरीर के बने
रहनेतक पुनः पुनः जन्म-मरण की परम्परा चलती रहती है।
स्थावराः कृमयश्चाजाः पक्षिणः पशवो नगः ।
धार्मिकास्त्रिदशास्तद्वन्मोक्षिणश्च यथाक्रमम् ॥ २,४९.११ ॥
चतुर्विधशरीराणि धृत्वा मुक्त्वा सहस्रशः ।
सुकृतान्मा नवो भूत्वा ज्ञानी चेन्मोक्षमाप्नुयात् ॥ २,४९.१२ ॥
चतुरशीतिलक्षेषु शरीरेषु शरीरिणाम् ।
न मानुषं विनान्यत्र तत्त्वज्ञानन्तु लभ्यते ॥ २,४९.१३ ॥
अत्र जन्मसहस्राणां सहस्रैरपि कोटिभिः ।
कदाचिल्लभते जन्तुर्मानुष्यं पुण्यसञ्चयात् ॥ २,४९.१४ ॥
स्थावर,
कृमि, पक्षी, पशु,
मनुष्य, धार्मिक, देवता
और मुमुक्षु यथाक्रम चार प्रकार के शरीरों को धारण करके हजारों बार उनका परित्याग
करते हैं। यदि पुण्य कर्म के प्रभाव से उनमें से किसी को मानवयोनि मिल जाय तो उसे
ज्ञानी बनकर मोक्ष प्राप्त करना चाहिये । चौरासी लाख योनियों में स्थित जीवात्माओं
को बिना मानवयोनि मिले तत्त्वज्ञान का लाभ नहीं मिल सकता है। इस मृत्युलोक में
हजार ही नहीं, करोड़ों बार जन्म लेने पर भी जीव को कदाचित्
ही संचित पुण्य के प्रभाव से मानवयोनि मिलती है। यह मानव योनि मोक्ष की सीढ़ी के समान
है ।
सोपानभूतं मोक्षस्य मानुष्यं प्राप्य दुर्लभम् ।
यस्तार यति नात्मानं तस्मात्पापतरोऽत्र कः ॥ २,४९.१५ ॥
इस दुर्लभ योनि को प्राप्त कर जो
प्राणी स्वयं अपना उद्धार नहीं करता है, उससे
बढ़कर पापी इस जगत् में दूसरा कौन हो सकता है।
नरः प्राप्येतरज्जन्म लब्ध्वा चेन्द्रियसौष्ठवम् ।
न वेत्त्यात्महितं यस्तु स भवेद्ब्रह्मघातकः ॥ २,४९.१६ ॥
विना देहेन कस्यापि पुरुषार्थो न विद्यते ।
तस्माद्देहं धनं रक्षेत्पुण्यकर्माणि साधयेत् ॥ २,४९.१७ ॥
रक्षेच्चसर्वदात्मानमात्मा सर्ब्वस्य भाजनम् ।
रक्षणे यत्नमातिष्ठेज्जीवन् भद्राणि पश्यति ॥ २,४९.१८ ॥
पुनर्ग्रामः पुनः क्षेत्र पुनर्वित्तं पुनर्गृहम् ।
पुनः शुभाशुभं कर्म न शरीरं पुनः पुनः ॥ २,४९.१९ ॥
शरीररक्षणोपायाः क्रि यन्ते सर्वदा बुधैः ।
नेच्छन्ति च पुनस्त्यागमपि कुष्ठादिरोगिणः ॥ २,४९.२० ॥
तद्गोपितं स्याद्धर्मार्थं धर्मो ज्ञानार्थमेव च ।
ज्ञानं तु ध्यानयोगार्थमचिरात्प्रविमुच्यते ॥ २,४९.२१ ॥
आत्मैव यदि नात्मानमहीतेभ्यो निवारयेत् ।
कोऽन्यो हितकरस्तस्मादात्मानं सुखयिष्यति ॥ २,४९.२२ ॥
अन्य योनियों से भिन्न
सुन्दर-सुन्दर इन्द्रियोंवाले इस जन्म का लाभ लेकर जो मनुष्य आत्महित का ज्ञान
नहीं रखता है, वह ब्रह्मघाती है। किसी का भी
पुरुषार्थ शरीर के बिना सम्भव नहीं है। अतः शरीररूपी धन की रक्षा करते हुए पुण्य
कर्म करना चाहिये। आत्मा सभी का पात्र है, इसलिये उसकी रक्षा
में मनुष्य सर्वदा संलग्न रहे। जो व्यक्ति आजीवन उस आत्मा की रक्षा में प्रयत्नशील
रहता है, वह जीवित रहते हुए ही अपना कल्याण देखता है ।
मनुष्य को ग्राम, क्षेत्र, धन, घर, शुभाशुभ कर्म और शरीर बार-बार नहीं प्राप्त होता
है। विद्वान् लोग सदैव शरीर की रक्षा के उपाय में लगे रहते हैं । कुष्ठादि महाभयंकर
रोगों से ग्रस्त होनेपर भी मनुष्य उस शरीर को छोड़ना नहीं चाहता है। शरीर की रक्षा
धर्म के लिये, धर्म की रक्षा ज्ञान के लिये और ज्ञान की
रक्षा ध्यानयोग के लिये तथा ध्यानयोग की रक्षा तत्काल मुक्ति प्राप्ति के लिये
होती है। यदि आत्मा ही अहितकारी कार्यों से अपने को दूर करने में समर्थ नहीं हो
सकता है तो अन्य दूसरा कौन ऐसा हितकारी होगा जो आत्मा को सुख प्रदान करेगा।
इहैव नरकव्याधेश्चिकित्सां न करोति
यः ।
गत्वा निरौषधं देशं व्याधिस्थः किं
करिष्यति ॥ २,४९.२३ ॥
व्याघ्रीवास्ते जरा चायुर्याति
भिन्नघटाम्बुवत् ।
निघ्नन्ति
रिपुवद्रोगास्तस्माच्छ्रेयः समभ्यसेत् ॥ २,४९.२४ ॥
यावन्नाश्रयते दुः खं यावन्नायान्ति
चापदः ।
यावन्नेन्द्रियवैकल्यं तावच्छ्रेयः
समभ्यसेत् ॥ २,४९.२५ ॥
यावत्तिष्ठति देहोऽयं तावत्तत्त्वं
समभ्यसेत् ।
सन्दीप्तकोशभवने कूपं खनति दुर्मतिः
॥ २,४९.२६ ॥
यहीं इसी लोक में नरकरूपी व्याधि की
चिकित्सा नहीं की गयी तो औषधिविहीन देश (परलोक) - में जाकर रोगी उससे मुक्ति का
क्या उपाय करेगा ? बुढ़ापा तो बाघिन के
समान है। जिस प्रकार से फूटे हुए घड़े का जल धीरे-धीरे बह जाता है, उसी प्रकार आयु भी क्षीण होती रहती है। शरीर में विद्यमान रोग शत्रु के
सदृश कष्ट देते हैं, इसलिये कल्याण इसी में है कि इन सभी से
मुक्ति प्राप्त करने का सत्प्रयास किया जाय। जबतक शरीर में किसी प्रकार का दुःख
नहीं होता है, जबतक विपत्तियाँ सामने नहीं आती हैं और जबतक
शरीर की इन्द्रियाँ शिथिल नहीं पड़ती हैं, तबतक ही
आत्मकल्याण का प्रयास हो सकता है। जबतक यह शरीर स्वस्थ है, तबतक
ही तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिये सम्यक् प्रयत्न किया जा सकता है। कोशागार में
आग लग जानेपर मूर्ख कुआँ खोदता है, ऐसे प्रयत्न से क्या लाभ।
कालो न ज्ञायते नानाकार्यैः
संसारसम्भवैः ।
सुखं दुःखं जनो हन्त न वेत्ति
हितमात्मनः ॥ २,४९.२७ ॥
जातानार्तान्मृतानापद्भष्टान्दृष्ट्वा
च दुः खितान् ।
लोको मोहसुरां पीत्वा न बिभेति
कदाचन ॥ २,४९.२८ ॥
सम्पदः स्वप्नसंकाशा यौवनं
कुसुमोपमम् ।
तडिच्चपलमायुष्यं कस्य स्याज्जानतो
धृतिः ॥ २,४९.२९ ॥
शतं जीवितमत्यल्पं
निद्रालस्यैस्तदर्धकम् ।
बाल्यरोगजरादुः खैरल्पं तदपि
निष्फलम् ॥ २,४९.३० ॥
मनुष्य नाना प्रकार के सांसारिक
कार्यों में व्यस्त रहने से (बीतते हुए) समय को नहीं जान पाता है। वह दु:ख-सुख तथा
आत्महित को भी नहीं जानता है। पैदा होनेवालों को, रोगियों को, मरनेवाले को, आपत्तिग्रस्त
को और दुःखी लोगों को देखकर भी मनुष्य मोहरूपी मदिरा को पीकर (जन्म-मरणादि दुःख से
युक्त संसार से) नहीं डरता । सम्पदाएँ स्वप्न के समान हैं, यौवन
पुष्प के सदृश है, आयु चञ्चल बिजली के तुल्य नष्टप्राय है,
ऐसा जानकर भी किसको धैर्य हो सकता है ? सौ
वर्ष का जीवन अत्यल्प है। वह भी निद्रा तथा आलस्य में आधा चला जाता है। तदनन्तर
बाल्यावस्था, रोग, वृद्धावस्था एवं
अन्यान्य दुःखों में व्यतीत हो गया और जो थोड़ा बचा वह भी निष्फल हो जाता है।
प्रारब्धव्ये निरुद्योगी जागर्तव्ये
प्रसुप्तकः ।
विश्वस्तश्च भयस्थाने हा नरः को न
हन्यते ॥ २,४९.३१ ॥
तोयफेनसमे देहे जीवेनाक्रम्य
संस्थिते ।
अनित्याप्रयसवासे कथ तिष्ठति
निर्भयः ॥ २,४९.३२ ॥
अहिते हितसंज्ञः स्यादध्रुवे
ध्रुवसंज्ञकः ।
अनर्थे चार्थविज्ञानः स्वमर्थं यो न
वेत्ति सः ॥ २,४९.३३ ॥
पश्यन्नपि प्रस्खलति शृण्वन्नपि न
बुध्यति ।
पठन्नपि न जानाति देवमायाविमोहितः ॥
२,४९.३४ ॥
जिस कार्य को तुरंत आरम्भ कर देना
चाहिये,
उसके संदर्भ में जो उद्योगहीन होकर बैठा है, जहाँ
जागते रहना चाहिये, वहाँ जो सोता रहे तथा भय के स्थान पर जो
आश्वस्त होकर रहता है—ऐसा वह कौन मनुष्य है, जो मारा नहीं जाता ? जल के फेन के समान इस शरीर को
आक्रमण करके जीव स्थित है, यहाँ जिन प्रिय वस्तुओं के साथ
संनिवास है, वे अनित्य हैं। अतः जीव कैसे निर्भय होकर
नितान्त अनित्य, शरीर, भोग और पुत्र-
कलत्रादि के साथ रहता है। जो अहित में हित, अनिश्चित में
निश्चित और अनर्थ में अर्थ को विशेष रूप से जाननेवाला है, वह
व्यक्ति अपने मुख्य प्रयोजन को नहीं जानता। जो देखते हुए भी गिर जाता है, जो सुनते हुए भी सद्- ज्ञान को नहीं प्राप्त कर पाता है, जो सद्ग्रन्थों को पढ़ते हुए भी उसे नहीं समझ पाता है, वह देवमाया से विमोहित है।
तन्निमज्जज्जगदिदं गम्भीरे कालसागरे
।
मृत्युरोगजराग्राहैर्न कश्चिदपि
बुध्यते ॥ २,४९.३५ ॥
प्रतिक्षणभयं कालः क्षीयमाणो न
लक्ष्यते ।
आमकुंभ इवांभः स्थो विशीर्णो न
विभाव्यते ॥ २,४९.३६ ॥
युज्यते वेष्टनं वायोराकाशस्य च
खण्डनम् ।
ग्रथनञ्च तरङ्गाणामास्था नायुषि
युज्यते ॥ २,४९.३७ ॥
पृथिवी दह्यते येन मेरुश्चापि
विशीर्यते ।
शुष्यते सागरजलं शरीरस्य च का कथा ॥
२,४९.३८ ॥
अपत्यं मे कलत्रं मे धनं मे
बान्धवाश्च मे ।
जल्पन्तमिति मर्त्याजं हन्ति
कालवृको बलात् ॥ २,४९.३९ ॥
काल के इस गहरे महासागर में यह
सम्पूर्ण जगत् डूबता -उतराता रहता है । मृत्यु, रोग
और बुढ़ापारूपी ग्राहों से जकड़े जाने पर भी किसी व्यक्ति को ज्ञान नहीं हो पाता
है। मनुष्य के लिये प्रतिक्षण भय है, समय बीत रहा है,
किंतु वह उसी प्रकार दिखायी नहीं देता है, जैसे
जल में पड़ा हुआ कच्चा घड़ा गलता हुआ दिखायी नहीं देता । कदाचित् वायु को बाँधकर
रखा जा सकता है, आकाश का खण्डन हो सकता है, तरंगों को किसी सूत्रादि में पिरोया जा सकता है; किंतु
आयु में विश्वास नहीं किया जा सकता है। जिसके (प्रलयाग्नि के)
प्रभाव से पृथ्वी दहकती है, सुमेरु पर्वत विशीर्ण हो जाता है
तथा सागर का जल सूख जाता है। फिर इस शरीर के सम्बन्ध में तो बात ही क्या ? पुत्र मेरा है, स्त्री मेरी है, धन मेरा है, बन्धु-बान्धव मेरे हैं। इस प्रकार 'में, में' चिल्लाते हुए बकरे की
भाँति कालरूपी भेड़िया बलात् मनुष्य को मार डालता है।
इदं कृतमिदं
कार्यमिदमन्यत्कृताकृतम् ।
एवमीहासमायुक्तं कृतान्तः कुरुते
वशम् ॥ २,४९.४० ॥
श्वः कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाह्ने
चापराह्निकम् ।
न हि मृत्युः प्रतीक्षेत कृतं
वाप्यथ वाकृतम् ॥ २,४९.४१ ॥
जरादर्शितपन्थानं
प्रचण्डव्याधिसैनिकम् ।
अधिष्ठितो मृत्युशत्रुं त्रातारं
किं न पश्यति ॥ २,४९.४२ ॥
तृष्णासूचीविनिर्भिन्नं सिक्तं
विषयसर्पिषा ।
रागद्वेषानले पक्वं मृत्युरश्राति
मानवम् ॥ २,४९.४३ ॥
बालांश्च यौवनस्थांश्च वृद्धान
गर्भगतानपि ।
सर्वानाविशते मृत्युरेवम्भूमिदं
जगत् ॥ २,४९.४४ ॥
स्वदेहमपि जीवोऽयं मुक्त्वा याति
यमालयम् ।
स्त्रीमातृपितृपुत्त्रादिसम्बन्धः
केन हेतुना ॥ २,४९.४५ ॥
दुः खमूलं हि संसारः स यस्यास्ति स
दुः खितः ।
तस्य त्यागः कृतो येन स सुखी नापरः
क्वचित् ॥ २,४९.४६ ॥
यह मैंने किया है,
यह मुझे करना है, यह किया गया है या नहीं किया
गया है— इस प्रकार की भावना से युक्त मनुष्य को मृत्यु अपने
वश में कर लेती है। कल किये जानेवाले कार्य को आज ही कर लेना चाहिये । जो दोपहर
बाद करना है, उसको दोपहर से पहले ही कर लेना चाहिये, क्योंकि कार्य हो गया है अथवा नहीं हुआ है, इसकी
मृत्यु प्रतीक्षा नहीं करती। वृद्धावस्था पथ-प्रदर्शक है, अत्यन्त
भयंकर रोग सैनिक है, मृत्यु शत्रु है, ऐसी
विषम परिस्थिति में फँसा हुआ मनुष्य अपने रक्षक भगवान् विष्णु को क्यों नहीं देखता
है। तृष्णारूपी सूई से छिद्रित, विषयरूपी घृत में डूबे,
राग-द्वेषरूपी अग्नि की आँच में पकाये गये मानव को मृत्यु खा लेती
है । बालक, युवा, वृद्ध और गर्भ में
स्थित सभी प्राणियों को मृत्यु अपने में समाहित कर लेती है, ऐसा
है यह जगत् । यह जीव अपने शरीर को भी छोड़कर यमलोक चला जाता है तो भला स्त्री,
माता-पिता और पुत्रादि का जो सम्बन्ध है, वह
किस कारण से प्रेरित होकर बनाया गया है । संसार दुःख का मूल है, वह किसका होकर रहा है अर्थात् इसकी ओर जिसका मन अधिक रम गया है, वही दुःखित है। जिसने इस सांसारिक व्यामोह का परित्याग कर दिया है,
वह सुखी है। उसके अतिरिक्त कहीं पर भी अन्य कोई दूसरा सुखी नहीं है।
प्रभवं सर्वदुः खानामालयं सकलापदाम् ।
आश्रयं सर्वपापानां संसारं वर्जयेत्क्षणात् ॥ २,४९.४७ ॥
लोहदारुमयैः पाशैः पुमान्बद्धो विमुच्यते ।
पुत्त्रदारमयैः पाशैर्मुच्यते न कदाचन ॥ २,४९.४८ ॥
यावतः कुरुते जन्तुः सम्बन्धान्मनसः प्रियान् ।
तावन्तोऽस्य निखन्यन्ते हृदये शोकशङ्कवः ॥ २,४९.४९ ॥
वञ्चिताशेषवित्तैस्तैर्नित्यं लोको विनाशितः ।
हा हन्त विषयाहारैर्देहस्थोन्द्रियतस्करैः ॥ २,४९.५० ॥
मांसलुब्धो यथा मत्स्यो लोहशङ्कुं न पश्यति ।
सुखलुब्धस्तथा देही यमवाधां न पश्यति ॥ २,४९.५१ ॥
यह जगत् सभी दुःखों का जनक,
समस्त आपदाओं का घर तथा सब प्रकार के पापों का आश्रय है। अतः क्षणभर
में ही मनुष्य को इसका त्याग कर देना चाहिये। लौह और काष्ठ जाल में फँसा हुआ पुरुष
मुक्त हो सकता है; किंतु पुत्र एवं स्त्री के मोहजाल में
फँसा हुआ वह कभी मुक्त नहीं हो सकता। मनुष्य मन को प्रिय लगनेवाले जितने पदार्थों से
अपना सम्बन्ध स्थापित करता जाता है, उतनी शोक की कीलें उसके
हृदय में चुभती जाती हैं। विषय का आहार करनेवाले देहस्थित तथा सभी प्रकार के अशेष
सामर्थ्य से वञ्चित कर देनेवाले जिन इन्द्रियरूपी चोरों के द्वारा लोक विनष्ट हो
रहे हैं। हाय, यह बड़े कष्ट की बात है । जैसे मांस के लोभ में
फँसी हुई मछली बंसी के काँटे को नहीं देखती है, वैसे ही सुख के
लालच में फँसा हुआ शरीरी यम की बाधा को नहीं देखता है।
हिताहितं न जानन्तो नित्यमुन्मार्गगामिनः ।
कुक्षिपूरणनिष्ठा ये ते नरा नारकाः खग ॥ २,४९.५२ ॥
निद्राभीमैथुनाहाराः सर्वेषां प्राणिनां समाः ।
ज्ञानवान्मानवः प्रोक्तो ज्ञानहीनः पशुः स्मृतः ॥ २,४९.५३ ॥
प्रभाते मलमूत्त्राभ्यां क्षुत्तृड्भ्यां मध्यगे रवौ ।
रात्रौ मदननिद्राभ्यां बाध्यन्ते मूढमानवाः ॥ २,४९.५४ ॥
स्वदेहधनदारादिनिरताः सर्वजन्तवः ।
जायन्ते च म्रियन्ते च हा हन्ताज्ञानमोहिताः ॥ २,४९.५५ ॥
तस्मात्सङ्गः सदा त्याज्यः सचेत्त्यक्तुं न शक्यते ।
महद्भिः सह कर्तव्यः सन्तः सङ्गस्य भेषजम् ॥ २,४९.५६ ॥
हे खगेश ! अपने हित-अहित को न जानते
हुए जो नित्य कुपथगामी हैं, जिनका लक्ष्य मात्र
पेट भरना है, वे मनुष्य नारकीय प्राणी हैं। निद्रा, भय, मैथुन तथा आहार की अभिलाषा सभी प्राणियों में
समान रूप से रहती है; उनमें ज्ञानी को मनुष्य और अज्ञानी को
पशु माना गया है। मूर्ख व्यक्ति प्रात:काल में मल-मूत्र, दोपहर
में भूख-प्यास तथा रात में मैथुन और निद्रा से पीड़ित रहते हैं। बड़े दु:ख की बात
है कि अज्ञान से मोहित होकर सभी प्राणी अपने शरीर, धन एवं
स्त्री आदि में अनुरक्त होकर जन्म लेते हैं और मर जाते हैं। अतः व्यक्ति को उनकी
ओर बढ़ी हुई अपनी आसक्ति का परित्याग करना चाहिये । यदि आसक्ति छोड़ी न जा रही हो
तो महापुरुषों के साथ उस आसक्ति को जोड़ देना चाहिये, क्योंकि
आसक्ति रूपी व्याधि की औषधि सज्जन पुरुष ही हैं।
सत्सङ्गश्च विवेकश्च निर्मलं नयनद्वयम् ।
यस्य नास्ति नरः सोऽन्धः कथं न स्यादमार्गगः ॥ २,४९.५७ ॥
सत्संग और विवेक- ये दो प्राणी के
मलरहित,
स्वस्थ दो नेत्र हैं। जिसके पास ये दोनों नहीं हैं, वह मनुष्य अन्धा है। वह कुमार्ग पर कैसे नहीं जायगा ? अर्थात् वह अवश्य ही कुमार्गगामी होगा ।
स्वस्ववर्णाश्रमाचारनिरताः सर्वमानवाः ।
न जानन्ति परं धर्मं वृथा नश्यन्ति दाम्भिकाः ॥ २,४९.५८ ॥
किमायासपराः केचिद्व्रतचर्यादिसंयुताः ।
अज्ञानसंवृतात्मानः सञ्चरन्ति प्रचारकाः ॥ २,४९.५९ ॥
नाममात्रेण सन्तुष्टाः कर्मकाण्डरता नराः ।
मन्त्रोच्चारणहोमाद्यैर्भ्रामिताः क्रतुविस्तरैः ॥ २,४९.६० ॥
एकभुक्तोपवासाद्यैर्नियमैः कायशोषणैः ।
मूढाः परोक्षमिच्छन्ति मम मायाविमोहिताः ॥ २,४९.६१ ॥
अपने-अपने वर्णाश्रम धर्म को
माननेवाले सभी मानव दूसरे के धर्म को नहीं जानते हैं,
किंतु वे दम्भ के वशीभूत हो जायँ तो अपना ही नाश करते हैं।
व्रतचर्यादि में लगे हुए प्रयासरत कुछ लोगों से क्या बनेगा ? क्योंकि अज्ञान से स्वयं अपने आत्मतत्त्व को ढके हुए लोग प्रचारक बनकर
देश- देशान्तर में विचरण करते हैं। नाममात्र से स्वयं संतुष्ट कर्मकाण्ड में लगे
हुए मनुष्य तथा मन्त्रोच्चार एवं होमादि से युक्त याज्ञिक यज्ञविस्तार के द्वारा
भ्रमित हैं। मेरी माया से विमोहित मूढ़ लोग शरीर को सुखा देनेवाले एक भक्त तथा
उपवासादि नियमों से अपने पुण्यरूप अदृष्ट की कामना करते हैं।
देहदण्डनमात्रेण का मुक्तिरविवेकिनाम् ।
वल्मीकताडनादेव मृतः किन्नु महोरगः ॥ २,४९.६२ ॥
जटाभाराजिनैर्युक्ता दाम्भिका वेषधारिणः ।
भ्रमन्ति ज्ञानिवल्लोके भ्रामयन्ति जनानपि ॥ २,४९.६३ ॥
संसारजसुखासक्तं ब्रह्मज्ञोऽस्मीतिवादिनम् ।
कर्मब्रह्मोभयभ्रष्टं तं त्यजेदन्त्यजं यथा ॥ २,४९.६४ ॥
गृहारण्यसमा लोके गतव्रीडा दिगम्बराः ।
चरन्ति गर्दभाद्याश्च विरक्तास्ते भवन्ति किम् ॥ २,४९.६५ ॥
मृद्भस्मोद्धूलनादेव मुक्ताः स्युर्यदि मानवाः ।
मृद्भस्मवासी नित्यं श्वा स किं मुक्तो भविष्यति ॥ २,४९.६६ ॥
तृणपर्णोदकाहाराः सततं वनवासिनः ।
जम्बूकाखुमृगाद्याश्च तापसास्ते भवन्ति किम् ॥ २,४९.६७ ॥
आजन्ममरणान्तञ्च गङ्गादितटिनीस्थिताः ।
मण्डूकमत्स्यप्रमुखा योगिनस्ते भवन्ति किम् ॥ २,४९.६८ ॥
पारावताः शिलाहाराः कदाचिदपि चातकाः ।
न पिबन्ति महीतोयं व्रतिनस्ते भवन्ति किम् ॥ २,४९.६९ ॥
तस्मान्नित्यादिकं कर्म लोकरञ्जनकारकम् ।
मोक्षस्य कारणं साक्षातत्त्वज्ञान खगेश्वर ॥ २,४९.७० ॥
शरीर की ताड़ना मात्र से अज्ञानीजन
क्या मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं? क्या वामी को
पीटने से महाविषधारी सर्प मर सकता है ? यह कदापि सम्भव नहीं
है। जटाओं के भार और मृगचर्म से युक्त वेष धारण करनेवाले दाम्भिक ज्ञानियों की भाँति
इस संसार में भ्रमण करते हैं और लोगों को भ्रमित करते हैं । लौकिक सुख में आसक्त ‘मैं ब्रह्म को जानता हूँ' ऐसा कहनेवाले, कर्म तथा ब्रह्म- इन दोनों से भ्रष्ट, दम्भी एवं
ढोंगी व्यक्ति का अन्त्यज के समान परित्याग कर देना चाहिये। घर को वन के समान
मानकर निर्वस्त्र और लज्जारहित जो साधु गधे अन्य पशुओं की भाँति इस जगत् में घूमते
रहते हैं, क्या वे विरक्त होते हैं ? कदापि
नहीं । यदि मिट्टी, भस्म तथा धूल का लेप करने से मनुष्य
मुक्त हो सकता है तो क्या मिट्टी और भस्म में ही नित्य रहनेवाला कुत्ता मुक्त नहीं
हो जायगा ? वनवासी तापसजन घास फूस, पत्ता
तथा जल का ही सेवन करते हैं, क्या इन्हीं के समान वन में
रहनेवाले सियार, चूहे और मृगादि जीवजन्तु तपस्वी हो सकते हैं
? जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त गङ्गा आदि पवित्रतम नदियों में
रहनेवाले मेढक या मछली आदि प्रमुख जलचर प्राणी योगी हो सकते हैं? कबूतर, शिलाहार और चातक पक्षी कभी भी पृथ्वी का जल
नहीं पीते हैं, क्या उनका व्रती होना सम्भव है। अतः ये
नित्यादिक कर्म लोक रञ्जन के कारक हैं। हे खगेश्वर ! मोक्ष का कारण तो साक्षात्
तत्त्वज्ञान है।
षर्ड्शनमहाकूपे पतिताः पशवः खग ।
परमार्थं न जानन्ति पशुपाशनियन्त्रिताः ॥ २,४९.७१ ॥
वेदशास्त्रार्णवैर्घेरैरुह्यमाना इतस्ततः ।
षडूर्मिनिग्रहग्रस्तास्तिष्ठन्ति हि कुतार्किकाः ॥ २,४९.७२ ॥
वेदागमपुराणज्ञः परमार्थं न वेत्ति यः ।
विडम्बकस्य तस्यैव तत्सर्वं काकभाषितम् ॥ २,४९.७३ ॥
इदं ज्ञानमिदं ज्ञेयमिति चिन्तासमाकुलाः ।
पठन्त्यहर्निशं शास्त्रं परतत्त्वपराङ्मुखाः ॥ २,४९.७४ ॥
वाक्यच्छन्दोनिबन्धेन काव्यालङ्कारशोभिताः ।
चिन्तया दुःखिता मूढास्तिष्ठन्ति व्याकुलेन्द्रियाः ॥ २,४९.७५ ॥
अन्यथा परमं तत्त्वं जनाः क्लिश्यन्ति चान्यथा ।
अन्यथा शास्त्रसद्भावो व्याख्यां कुर्वन्ति चान्यथा ॥ २,४९.७६ ॥
कथयन्त्युवन्मनीभावं स्वयं नानुभवन्ति च ।
अहङ्कारस्ताः केचिदुपदेशादिवार्जिताः ॥ २,४९.७७ ॥
पठन्ति वेदशास्त्राणि बोधयन्ति परस्परम् ।
न जानन्ति परं तत्त्वं दर्वी पाकरसं यथा ॥ २,४९.७८ ॥
शिरो वहति पुष्पाणि गन्धं जानाति नासिका ।
पठन्ति वेदशास्त्राणि दुर्लभो भावबोधकः ॥ २,४९.७९ ॥
तत्त्वमात्मस्थमज्ञात्वा मूढः शास्त्रेषु मुह्यति ।
गोपः कक्षागते च्छागे कूपं पश्यति दुर्मतिः ॥ २,४९.८० ॥
संसारमोहनाशाय शाब्दबोधो न हि क्षमः ।
न निवर्तेत तिमिरं कदाचिद्दीपवार्तया ॥ २,४९.८१ ॥
प्रज्ञाहीनस्य पठनं यथान्धस्य च दर्पणम् ।
अतः प्रज्ञावतां शास्त्रं तत्त्वज्ञानस्य लक्षणम् ॥ २,४९.८२ ॥
इदं ज्ञानमिदं ज्ञेयं सर्वन्तु श्रोतुमिच्छति ।
दिव्यवर्षसहस्राच्च शास्त्रान्तं नैव गच्छति ॥ २,४९.८३ ॥
हे खगेश्वर ! षड्दर्शनरूपी महाकूप में
पशु के समान गिरे हुए मनुष्य पाश से नियन्त्रित पशु की भाँति परमार्थ को नहीं
जानते। वेद-शास्त्रादि के महासमुद्र में इधर-उधर से अनुमान लगानेवाले इस
षड्दर्शनरूपी तरंग से ग्रस्त होकर कुतर्की बन जाते हैं। जो वेद- आगम और पुराण का
ज्ञाता परमार्थ को नहीं जानता है, उस कपटी का सब
कथन कौवे का काँव-काँव ही है। यह ज्ञान है, यह जानने के
योग्य है, ऐसी चिन्ता से भलीभाँति बेचैन तथा परमार्थतत्त्व से
दूर प्राणी दिन- रात शास्त्र का अध्ययन करता है। वाक्य ही छन्द है और उस छन्द से
गुम्फित काव्यों में अलंकार सुशोभित होता है। इस चिन्ता से दुःखित मूर्ख व्यक्ति
अत्यधिक व्याकुल हो जाता है। उस परमतत्त्व का अन्य ही अर्थ है; किंतु लोग उसका दूसरा अर्थ लगाकर दुःखित होते हैं। शास्त्रों का सद्भाव
कुछ और ही है; किंतु वे उसकी व्याख्या उससे भिन्न ही करते
हैं। उपदेशादि से रहित कुछ अहंकारी व्यक्ति उन्मनीभाव की बात कहते हैं, किंतु स्वयं उसका अनुभव नहीं करते हैं । वे वेद-शास्त्रों को पढ़ते हैं और
परस्पर उसको जानने का प्रयास करते हैं; किंतु जैसे कलछी पाक का
रसास्वाद नहीं कर पाती है, वैसे ही वे परमतत्त्व को नहीं जान
पाते हैं। सिर पुष्पों को ढोता है, परंतु उसकी सुगन्ध का
अनुभव नासिका ही करती है। बहुत-से लोग वेद-शास्त्र पढ़ते हैं; किंतु उनके भाव को समझनेवाला दुर्लभ है। अपने ही भीतर विद्यमान उस
परमतत्त्व को न पहचान कर मूर्ख प्राणी शास्त्रों में वैसे ही व्याकुल रहता है,
जैसे कछार में आये हुए बकरी या भेंडके बच्चे को एक गोप कुएँ खोजता
है । सांसारिक मोह को विनष्ट करने में शब्दज्ञान समर्थ नहीं है; क्योंकि दीपक की वार्ता से कभी अन्धकार को दूर नहीं किया जा सकता है।
बुद्धिरहित व्यक्ति का पढ़ना वैसे ही है, जैसे अन्धे के हाथ में
दर्पण हो । अतः प्रज्ञावान् पुरुषों के द्वारा अधीत शास्त्र तत्त्वज्ञान का लक्षण
है। यह ज्ञान है, यह जानने के योग्य है, ऐसे विचारों में फँसा हुआ मनुष्य सब कुछ जानने की इच्छा करता है, किंतु हजार दिव्य वर्षों तक पढ़ने पर भी वह शास्त्रों का अन्त नहीं समझ
पाता है।
अनेकानि च शास्त्राणि
स्वल्पायुर्विघ्नकोटयः ।
तस्मात्सारं विजानीयात्क्षीरं हंस
इवाम्भसि ॥ २,४९.८४ ॥
शास्त्र तो अनेक हैं,
किंतु आयु बहुत ही कम है और उसमें भी करोड़ों विघ्न-बाधाएँ हैं ।
इसलिये जल में मिले हुए क्षीर को जैसे हंस ग्रहण कर लेता है, वैसे ही उनके सार तत्त्व को ग्रहण करना चाहिये।
अभ्यस्य वेदशास्त्राणि तत्त्वं ज्ञात्वाथ बुद्भिमान् ।
पलालमिव धान्यार्थी सर्वशास्त्राणि सन्त्यजेत् ॥ २,४९.८५ ॥
यथामृतेन तृप्तस्य नाहारेण प्रयोजनम् ।
तत्त्वज्ञस्य तथा तार्क्ष्य न शास्त्रेण प्रयोजनम् ॥ २,४९.८६ ॥
न वेदाध्ययनान्मुक्तिर्न शास्त्रपठनादपि ।
ज्ञानादेव हि कैवल्यं नान्यथा विनतात्मजः ॥ २,४९.८७ ॥
नाश्रमः कारणं मुक्तेर्दर्शनानि न कारणम् ।
तथैव सर्वकर्माणि ज्ञानमेव हि कारणम् ॥ २,४९.८८ ॥
मुक्तिदा गुरुवागेका विद्याः सर्वा विडम्बिकाः ।
शास्त्रभारसहस्रेषु ह्येकं सञ्जीवनं परम् ॥ २,४९.८९ ॥
अद्वैतं हि शिवं प्रोक्तं क्रिययापरिवर्जितम् ।
गुरुवक्त्रेण लभ्येत नाधीतागमकोटिभिः ॥ २,४९.९० ॥
हे तार्क्ष्य ! वेद-शास्त्रों का
अभ्यास करके जो बुद्धिमान् व्यक्ति उस परमतत्त्व का ज्ञान प्राप्त कर लेता है,
उसको उन सभी का परित्याग उसी प्रकार करना चाहिये, जिस प्रकार एक धान्यार्थी पुरुष धान ग्रहण कर लेता है और पुआल को फेंक
देता है। जैसे अमृत पान से संतृप्त प्राणी का भोजन से कोई सरोकार नहीं रह जाता है,
वैसे ही तत्त्व को जाननेवाले विद्वान्का शास्त्र से कोई प्रयोजन
नहीं रह जाता है । हे विनतात्मज ! वेदाध्ययन से मुक्ति सम्भव नहीं है और न तो
शास्त्रों को पढ़ने से वह प्राप्त हो सकती है, वह कैवल्य
ज्ञान से ही सुलभ है, किसी अन्य साधन से नहीं । आश्रम उस
मोक्ष का कारण नहीं हो सकता है। दर्शन भी उसकी प्राप्ति के कारण नहीं हैं। वैसे ही
सभी कर्मों को उसका कारण नहीं मानना चाहिये। उसका कारण ज्ञान है । मुक्ति देनेवाली
गुरु की एक वाणी है। अन्य सभी विद्याएँ विडम्बना करनेवाली हैं। हजार शास्त्रों का भार
सिर पर होने पर भी प्राणी को तो संजीवन देनेवाला वह परमतत्त्व अकेला ही है। सभी
प्रकार की क्रियाओं से रहित वह अद्वैत शिवतत्त्व कहा गया है। उसको गुरु के मुख से
प्राप्त करना चाहिये । वह करोड़ों आगम-शास्त्रों का अध्ययन करने से मिलनेवाला नहीं
है।
आगमोक्तं विवेकोत्थं द्विधा ज्ञानं प्रचक्षते ।
शब्दव्रह्मागममयं परं ब्रह्म विवेकजम् ॥ २,४९.९१ ॥
अद्वैतं केचिदिच्छन्ति द्वैतमिच्छन्ति चापरे ।
समं तत्त्वं न जानन्ति द्वैताद्द्वैतविवर्जितम् ॥ २,४९.९२ ॥
ज्ञान दो प्रकार का कहा जाता है। एक
है शास्त्रकथित ज्ञान और दूसरा है विवेक से प्राप्त हुआ ज्ञान। इसमें शब्द ही
ब्रह्म है, ऐसा आगम- शास्त्र कहते हैं । वह
परमतत्त्व ही ब्रह्म है, ऐसा विवेकी जन कहते हैं । कुछ लोग
अद्वैत को प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं और कुछ लोग द्वैत को चाहते हैं; किंतु वे सभी यह नहीं जानते हैं कि वह परमतत्त्व समभाववाला है। वह
द्वैताद्वैत से रहित है।
द्वे पदे बन्धमोक्षाय नममेति ममेति च ।
ममेति बध्यते जन्तुर्नममेति प्रमुच्यते ॥ २,४९.९३ ॥
बन्धन और मोक्ष के लिये इस संसार में
दो ही पद हैं। एक पद है 'यह मेरा है' और दूसरा पद है 'यह मेरा नहीं है'। 'यह मेरा है' इस ज्ञान से वह
बँध जाता है और 'यह मेरा नहीं है' इस
ज्ञान से वह मुक्त हो जाता है।
तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तिदा ।
आयासायापरं कर्म विद्यान्या शिल्पनैपुणम् ॥ २,४९.९४ ॥
यावत्कर्माणि दीप्यन्ते यावत्संसारवासना ।
यावदिन्द्रियचापल्यं तावत्तत्त्वकथा कुतः ॥ २,४९.९५ ॥
जो कर्म इस जीवात्मा को बन्धन में
नहीं ले जाता है, वही सत्कर्म है। जो
प्राणी को मुक्ति प्रदान करने में समर्थवती है, वही विद्या
है। इसके अतिरिक्त दूसरा कर्म तो परिश्रम करने के लिये होता है और दूसरी विद्या
कलानैपुण्य को प्रदर्शित करने के लिये होती है। जबतक प्राणियों को कर्म अपनी ओर
आकृष्ट करते हैं, जबतक उनमें सांसारिक वासना विद्यमान है और
जबतक उनकी इन्द्रियों में चञ्चलता रहती है, तबतक उन्हें
परमतत्त्व का ज्ञान कहाँ हो सकता है।
यावद्देहाभिमानश्च ममता यावदेव हि ।
यावत्प्रयत्नवेगोऽस्ति यावत्संकल्पकल्पना ॥ २,४९.९६ ॥
यावन्नो मनसः स्थैर्यं न यावच्छास्त्रचिन्तनम् ।
यावन्न गुरुकारुण्यं तावत्तत्त्वकथा कुतः ॥ २,४९.९७ ॥
जबतक व्यक्ति शरीर का अभिमान है,
जबतक उसमें ममता है, जबतक उस प्राणी में
प्रयत्न की क्षमता रहती है, जबतक उसमें संकल्प तथा कल्पना
करने की शक्ति है, जबतक उसके मन में स्थिरता नहीं है,
जबतक वह शास्त्र - चिन्तन नहीं करता है एवं जबतक उस पर गुरु की दया
नहीं होती है, तबतक उसको परमतत्त्व-कथा कहाँ से प्राप्त हो
सकती है ?
तावत्तपो व्रतं तीर्थं जपहोमार्चनादिकम् ।
वेदशास्त्रागमकथा यावत्तत्त्वं न विन्दति ॥ २,४९.९८ ॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन सर्वावस्थासु सर्वदा ।
तत्त्वनिष्ठो भवेत्तार्क्ष्य यदीच्छेन्मोक्षमात्मनः ॥ २,४९.९९ ॥
धर्मज्ञानप्रसूनस्य स्वर्गमोक्षफलस्य च ।
तापत्रयादिसन्तप्तश्छायां मोक्षतरोः श्रयेत् ॥ २,४९.१०० ॥
तस्माज्ज्ञानेनात्मतत्त्वं विज्ञेयं श्रीगुरोर्मुखात् ।
सुखेन मुच्यते जन्तुर्घोरसंसारबन्धनात् ॥ २,४९.१०१ ॥
'तभीतक ही तप, व्रत, तीर्थ, जप तथा होमादिक
कृत्य एवं वेद-शास्त्र तथा आगम की कथा है, जबतक व्यक्ति उस परमार्थ-तत्त्व
को नहीं जान जाता है । हे तार्क्ष्य ! यदि व्यक्ति अपना मोक्ष चाहता हो तो वह सभी
अवस्थाओं में प्रयत्नपूर्वक सदैव तत्त्वनिष्ठ होकर रहे। दैहिक, दैविक और भौतिक- इन तीनों तापों से संतप्त प्राणी को धर्म और ज्ञान जिसका
पुष्प है, स्वर्ग तथा मोक्ष जिसका फल है, ऐसे मोक्षरूपी वृक्ष की छाया का आश्रय करना चाहिये। अतः श्रीगुरुदेव के
मुख से प्राप्त ज्ञान के द्वारा आत्मतत्त्व को जानना चाहिये । ऐसा करने से जीव इस
दुर्धर्ष संसार के बन्धन से सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है।
तत्त्वज्ञस्यान्तिमं कृत्यं शृणु वक्ष्यामि तेऽधुना ।
येन मोक्षमवाप्नोति ब्रह्म निर्वाणसंज्ञकम् ॥ २,४९.१०२ ॥
हे गरुड ! उस तत्त्वज्ञ का अन्तिम
कृत्य सुनो, जिसके द्वारा ब्रह्मपद या
निर्वाण नामवाला मोक्ष प्राप्त होता है, अब मैं उसे कहूँगा ।
अन्तकाले तु पुरुष आगते गतसाध्वसः ।
छिन्द्यादसंगशस्त्रेण स्पृहां देहेऽनु या च तम् ॥ २,४९.१०३ ॥
गृहात्प्रव्राजितो धीरः पुण्यतीर्थजलाप्लुतः ।
शुचौ विविक्त आसीनो विधिवत्कल्पितासने ॥ २,४९.१०४ ॥
अभ्यसेन्मनसा शुद्धं त्रिवृद्ब्रह्माक्षरं परम् ।
मनो यष्छेज्जितश्वासो ब्रह्म बीजमविस्मरन् ॥ २,४९.१०५ ॥
नियच्छेद्विषयेभ्योऽक्षान्मनसा बुद्धि सारथिः ।
मनः कर्मभिराक्षिप्तं शुभार्थे धारयेद्धिया ॥ २,४९.१०६ ॥
अन्त समय आ जाने पर पुरुष भयरहित
होकर असंगरूपी शस्त्र से देहादि की आसक्ति को काट दे । घर से संन्यासी बनकर निकला
धीरवान् पुरुष पवित्र तीर्थ में जाकर उसके जल में स्नान करे । तदनन्तर वहीं पर
एकान्त देश में किसी स्वच्छ एवं शुद्ध भूमि में विधिवत् आसन लगाकर बैठ जाय तथा
एकाग्रचित्त होकर गायत्री आदि मन्त्रों के द्वारा उस परम शुद्ध ब्रह्माक्षर का
ध्यान करे। ब्रह्म के बीजमन्त्र को बिना भुलाये वह अपनी श्वास को रोककर मन को वश में
करे। मनरूपी घोड़े को बुद्धिरूपी सारथी द्वारा सांसारिक विषयों से उसका नियन्त्रण
करे। अन्य कर्मों से मन को रोककर बुद्धि के द्वारा शुभकर्म में मन को लगाये ।
अहं ब्रह्म परं धाम ब्रह्माहं परमं पदम् ।
एवं समीक्ष्य चात्मानमात्मन्याधाय निष्कले ॥ २,४९.१०७ ॥
मैं ब्रह्म हूँ। मैं परम धाम हूँ।
मैं ही ब्रह्म हूँ। परमपद मैं हूँ। इस प्रकार की समीक्षा करके आत्मा को निष्कल
आत्मा में प्रविष्ट करना चाहिये ।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥ २,४९.१०८ ॥
'जो मनुष्य 'ॐ' इस एकाक्षर ब्रह्म का जप करता है, वह अपने शरीर का परित्याग कर परमपद प्राप्त करता है'।
न यत्र दाम्भिका यान्ति ज्ञानवैराग्यवर्जिताः ।
सुधियस्तां गतिं यान्ति तानहं कथयामि ते ॥ २,४९.१०९ ॥
जहाँ ज्ञान-वैराग्य से रहित अहंकारी
प्राणी नहीं जाते हैं वहाँ सुधीजन जाते हैं। उनके विषय में अब तुम्हें बताता हूँ-
निर्मानमोहा जितसंगदोषा
अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुः
खसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥ २,४९.११० ॥
मान – मोह से रहित,
आसक्ति दोष से परे, नित्य अध्यात्म-चिन्तन में
दत्तचित्त, सांसारिक समस्त कामनाओं से रहित और सुख - दुःख
नामक द्वन्द्व से मुक्त जो ज्ञानी पुरुष हैं, वे ही उस
अव्ययपद को प्राप्त करते हैं।
ज्ञानह्रदे सत्यजले रागद्वेषमलापहे ।
यः स्नाति मानसे तीर्थे स वै मोक्षमवाप्नुयात् ॥ २,४९.१११ ॥
'जो व्यक्ति ज्ञानरूपी हृद में
राग-द्वेष नामवाले मल को दूर करनेवाले सत्यरूपी जल से भरे हुए मानसतीर्थ में स्नान
करता है, उसी को मोक्ष प्राप्त होता है'।
प्रौढवैराग्यमास्थाय भजते मामनन्यभाक् ।
पूर्णदृष्टिः प्रसन्नात्मा स वै मोक्षमवाप्नुयात् ॥ २,४९.११२ ॥
'प्रौढ़ वैराग्य में स्थित होकर
अनन्यभाव से जो मनुष्य मेरा भजन करता है, वह पूर्ण
दृष्टिवाला प्रसन्नात्मा व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करता है'।
त्यक्त्वा गृहं च यस्तीर्थे निवसेन्मरणोत्सुकः ।
मुक्तिक्षेत्रेषु म्रियते स वै मोक्षमवाप्नुयात् ॥ २,४९.११३ ॥
अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिक ।
पुरी द्वारवती ज्ञेयाः सप्तैता मोक्षदायिकाः ॥ २,४९.११४ ॥
'घर छोड़कर मरने की अभिलाषा से जो
तीर्थ में निवास करता है और मुक्ति क्षेत्र में मरता है, उसे
मुक्ति प्राप्त होती है। अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, काञ्ची, अवन्तिका तथा द्वारका- ये सात पुरियाँ मोक्षप्रदा हैं'।
इति ते कथितं तार्क्ष्य मोक्षधर्मं सनातनम् ।
ज्ञानवैराग्यसहितं श्रुत्वा मोक्षमवाप्नुयात् ॥ २,४९.११५ ॥
हे तार्क्ष्य ! ज्ञान-वैराग्य से
युक्त यह सनातन मोक्ष-धर्म ऐसा ही है। इसको तुम्हें सुना भी दिया है। दूसरा प्राणी
भी ज्ञान-वैराग्यपूर्वक इसको सुनकर मोक्ष प्राप्त करता है ।
मोक्षं गच्छन्ति तत्त्वज्ञा धार्मिकाः स्वर्गतिं नराः ।
पापिनो दुर्गतिं यान्ति संसरन्ति खगादयः ॥ २,४९.११६ ॥
'तत्त्वज्ञ मोक्ष प्राप्त करते
हैं, धर्मनिष्ठ स्वर्ग जाते हैं। पापी नरक में जाते हैं।
पक्षी आदि इसी संसार में अन्य योनियों में प्रविष्ट होकर घूमते रहते हैं'।
सूत उवाच ।
स्वप्रश्रोत्तरराद्धान्तमेवं भगवतो मुखात् ।
श्रुत्वा हृष्टतनुस्तार्क्ष्यो ननाम जगदीश्वरम् ॥ २,४९.११७ ॥
सन्देहो मे महान्नष्टो भवद्वाक्यविरोचनात् ।
इत्युक्त्वा विष्णुमामन्त्र्य स गतः कश्यपाश्रमम् ॥ २,४९.११८ ॥
सूतजी ने कहा - हे महर्षियो ! अपने प्रश्न
के उत्तर के रूप में भगवान्के मुख से इस प्रकार सिद्धान्त को सुनकर प्रसन्न
शरीरवाले गरुड ने जगदीश्वर को प्रणाम किया और कहा प्रभो! आपके इन आह्लादकारी वचनों
से मेरा बहुत बड़ा संदेह दूर हो गया। ऐसा कहकर उन्होंने भगवान् विष्णु से जाने की आज्ञा
ली और वे कश्यपजी के आश्रम में चले गये।
सद्यो देहान्तरं याति यथा याति विलम्बतः ।
अनयोरुभयोश्चैव न विरोधस्तथैव वः ॥ २,४९.११९ ॥
सर्वमाख्यातवांस्तात श्रुतो भगवतो यथा ।
मारीचोऽपि मुदं लेभे श्रुत्वा वाक्यं रमापतेः ॥ २,४९.१२० ॥
अपाकृतस्तु सन्देहो ब्राह्मणा भवतां मया ।
उक्तं सुपर्णसंज्ञन्तु पुराणं परमाद्भुतम् ॥ २,४९.१२१ ॥
हे ब्राह्मणो ! जिस प्रकार प्राणी
मृत्यु के बाद तत्काल दूसरी योनि में चला जाता है अथवा जैसे वह विलम्ब से देहान्तर
को प्राप्त करता है, इन दोनों बातों में
परस्पर कोई विरोध नहीं है। हे तात! जैसा मैंने भगवान् से सुना है, वैसा ही मैंने आपको सुना दिया है। लक्ष्मीपति भगवान् नारायण के इन वाक्यों
को सुनकर मरीचपुत्र कश्यप भी बहुत प्रसन्न हुए । ब्रह्मा से इस महापुराण को सुनकर
मैंने आप लोगों को भी वही सुनाया है। इससे आप सभी का संदेह भी दूर हो गया। गरुड के
द्वारा कहा गया यह महापुराण बड़ा ही विचित्र है ।
इदमाप हरेस्तार्क्ष्यस्तार्क्ष्यादाप ततो भृगुः ।
भृगोर्वसिष्ठः संप्राप वामदेवस्ततः
पुनः ॥ २,४९.१२२ ॥
पराशरमुनिः प्राप तस्माद्व्यासस्ततो ह्यहम् ।
मया तु भवतां प्रोक्तं परं गुह्यं हरेरिदम् ॥ २,४९.१२३ ॥
य इदं शृणुयान्मर्त्यो यो वाप्यभिदधाति च ।
इहामुत्र च लोके स सर्वत्र सुखमाप्नुयात् ॥ २,४९.१२४ ॥
व्रजतः संयमन्यां यद्दुः खमत्र निरूपितम् ।
अस्य श्रवणतः पुण्यं तन्मुक्तो जायते ततः ॥ २,४९.१२५ ॥
अत्रोक्तकर्मपाकादिश्रवणाच्च नृणामिह ।
वैराग्यमावहेद्यस्मात्तस्माच्छ्रोतव्यमेव च ॥ २,४९.१२६ ॥
इस महापुराण को गरुड ने हरि से
प्राप्त किया था। उसके बाद गरुड से भृगु को प्राप्त हुआ। तदनन्तर भृगु से वसिष्ठ,
वसिष्ठ से वामदेव, वामदेव से पराशरमुनि,
पराशरमुनि से व्यास और व्यास से मैंने इसे सुना है। हे ऋषियो ! मेरे
द्वारा अब आप सबको परम गोपनीय यह वैष्णव पुराण सुनाया गया है। जो मनुष्य इस
महापुराण को सुने या जो इसको पढ़े, वह इस लोक और परलोक सभी में
सुख प्राप्त करता है। संयमनी पुरी में जाते हुए प्रेत को जो दु:ख प्राप्त होता है,
उसका जैसा निरूपण इस महापुराण में किया गया है। इसे सुनने से जो
पुण्य होता है, उसके कारण वह प्रेत मुक्त हो जाता है। इस
महापुराण में कहे गये कर्म-विपाकादि को सुनने से मनुष्य को यहीं पर वैराग्य
प्राप्त हो जाता है। अतः जिस प्रकार से हो सके प्राणी को इसे अवश्य सुनना चाहिये ।
भजत जितहृषीकाः कृष्णमेनं मुनीशं
समजनि बत यस्माद्गीः सुधासारधारा ।
पृषतमपि यदीयं वर्णरूपं निपीय
श्रुतिपुटचुलुकेन प्राप्नुयादात्मनैक्यम् ॥ २,४९.१२७ ॥
हे जितेन्द्रिय ऋषियो ! आप लोग
मुनीश भगवान् श्रीकृष्ण का भजन करें, जिनके
मुख से निकली हुई सुधासार की धारा के मात्र एक वर्णरूपी सीकर को श्रुतिपूरकरूपी
चिल्लू से पीकर परमात्मा के साथ ऐक्य प्राप्त हो जाता है।
व्यास उवाच ।
इति
सूतमुखोद्गीर्णांसर्वशास्त्रार्थमण्डिताम् ।
वैष्णवीं वाक्सुधां पीत्वा
ऋषयस्तुष्टिमाययुः ॥ २,४९.१२८ ॥
प्रशशंसुस्तथान्योन्यं सूतं
सर्वार्थदर्शिनम् ।
प्रहर्षमतुलं प्रापुर्मुनयः
शौनकादयः ॥ २,४९.१२९ ॥
इति हरिवचनानि सूतवाचा
खगपतिसंशयभेदकानि यानि ।
स मुनिरपि निशम्य शौनकेन्द्रो
बहुतरमानयति स्म चात्मनि स्वम् ॥ २,४९.१३०
॥
अपूजयंस्ते
मुनयस्तदानीमुदाखाग्भिर्मुहुरेव सूतम् ।
धन्योऽसि सूत
त्वमिहेत्युदैरयन्व्यसर्जयंस्तं च निवर्तितेऽध्वरे ॥ २,४९.१३१ ॥
व्यासजी ने कहा - इस प्रकार सूत के
मुख से निकली हुई समस्त शास्त्रों के अर्थ से सुशोभित भगवान् विष्णु की वाणी का
अमृत पान करके ऋषिगण परम संतुष्ट हुए । परस्पर उन लोगों के बीच सर्वार्थदर्शी
सूतजी महाराज की प्रशंसा होने लगी। शौनक आदि ऋषियों को भी अत्यन्त प्रसन्नता हुई। सूतजी
के द्वारा कही गयी पक्षिराज गरुड के संदेहों को विनष्ट करनेवाली भगवान् विष्णु की
वाणी को सुनकर जितेन्द्रिय मुनिराज शौनक ने मन- ही मन अपने को धन्य माना। उस समय
अपनी उदार वाणी से उन मुनियों ने सूतजी को बार-बार धन्य हैं,
आप धन्य हैं— कहकर धन्यवाद दिया । तदनन्तर
यज्ञ समाप्त होने पर उन्हें विदाई दी।
पुराणं गारुडं पुण्यं पवित्रं पापनाशनम् ॥
शृण्वतां कामनापूरं श्रोतव्यं सर्वदैव हि ॥ २,४९.१३२ ॥
'यह गारुडमहापुराण बड़ा ही पवित्र
और पुण्यदायक है। यह सभी पापों का विनाशक एवं सुननेवालों की समस्त कामनाओं का पूरक
है। इसका सदैव श्रवण करना चाहिये'।
श्रुत्वा दानानि देयानि
वाचकायाखिलानि च ।
पूर्वोक्तशयनादीनि नान्यथा सफलं
भवेत् ॥ २,४९.१३३ ॥
पुराणं पूजयेत्पूर्वं वाचकं
तदनन्तरम् ।
वस्त्रालङ्कारगोदानैर्दक्षिणाभिश्च
सादरम् ॥ २,४९.१३४ ॥
अन्नदानैर्हेमदानैर्भमिदानैश्च
भूरिभिः ।
पूजयेद्वाचकं भक्त्या
बहुपुण्यफलाप्तये ॥ २,४९.१३५ ॥
इस महापुराण को सुनने के बाद वाचक को
शय्यादि सभी प्रकार के विधिवत् दान देने का विधान है अन्यथा कथा सुनने का लाभ
उन्हें नहीं प्राप्त होता । श्रोता को सर्वप्रथम इस महापुराण की पूजा करनी चाहिये
। उसके बाद वस्त्र, अलंकार, गौ तथा दक्षिणा आदि से वाचक की ससम्मान पूजा करनी चाहिये। अधिक पुण्य-लाभ के
लिये अधिकाधिक अन्नदान, स्वर्णदान और भूमिदान से वाचक की
पूजा करनी चाहिये ।
यश्चेदं शृणुयान्मर्त्यो यथापि परिकीर्तयेत् ।
विहाय यातनां घोरां धूतपापो दिवं व्रजेत् ॥ २,४९.१३६ ॥
'जो मनुष्य इस महापुराण को सुने
या जैसे भी हो, वैसे ही उसका पाठ करे तो वह प्राणी यमराज की
भयंकर यातनाओं को तोड़कर निष्पाप होकर स्वर्ग को प्राप्त करता है'।
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे श्रीकृष्णगरुडसंवादे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे मोक्षोपायनिरूपणं
नामैकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥
इति श्रीगारुडे महापुराणे द्वितीयो
धर्मकाण्डः समाप्तः॥
॥ धर्मकाण्ड - प्रेतकल्प सम्पूर्ण ॥
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गरुड महापुराण सम्पूर्ण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प के अंक पढ़ें-
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6 अध्याय
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11 अध्याय 12
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