श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ४४
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
–
प्रेतकल्प अध्याय ४४ दुर्मृत्यु तथा अकालमृत्यु पर किये जानेवाले
श्राद्धादि कर्म और सर्पदंश से मृत्यु पर विहित क्रिया-विधान का वर्णन है।
श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) चतुश्चत्वारिंशत्तमोऽध्यायः
Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 44
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
–
प्रेतकल्प चवालिसवाँ अध्याय
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय ४४
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय ४४ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित
गरुडपुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः
४४
श्रीविष्णुरुवाच ।
स्वेच्छया तार्क्ष्य मरणं
शृङ्गिदंष्ट्रिसरीसृपः ।
चाण्डालाद्यात्मघातैश्च
विषाद्यैस्ताडनैस्तथा ॥ २,४४.१ ॥
जलाग्निपातवातैश्च
निराहारादिभिस्तथा ।
येषामेव भवेन्मृत्युः प्रोक्तास्ते
पापकर्मिणः ॥ २,४४.२ ॥
पाषड्यनाश्रमाश्चैव महापातकिनस्तथा
।
स्त्रियश्च व्यभिचारिण्य
आरूढपतितास्तथा ॥ २,४४.३ ॥
न तेषां स्यान्नव श्राद्धं न
संस्कारः सपिण्डनम् ।
श्राद्धानि षोडशोक्तानि न भवन्ति च
तान्यपि ॥ २,४४.४ ॥
वेतनं यत्क्षिपेदप्सु गृह्याग्निश्च
चतुष्पथे ।
पात्राणिनिर्दहेदग्नौ साग्निके
पापकर्मणि ॥ २,४४.५ ॥
श्रीविष्णु ने कहा- हे तार्क्ष्य!
जिनकी मृत्यु स्वेच्छा से आत्मघात के द्वारा होती है,
जो सींग और दाँतवाले पशु, सरकनेवाले जीव,
चाण्डालादि निम्न जातीय पुरुष, आत्मघात -
विषादि अहितकर पेय पदार्थ, आघात-प्रतिघात, जल-अग्निपात और वायु तथा निराहारादि के द्वारा जिनकी मृत्यु होती है,उन्हें पापकर्म करनेवाला कहा गया है। जो पाखण्डी, वर्णाश्रमधर्म से रहित, महापातकी
तथा व्यभिचारिणी स्त्रियाँ और आरूढपतित ( संन्यासाश्रम में जाकर पतित होनेवाले)
हैं, उनका दाहसंस्कार, नव श्राद्ध एवं
सपिण्डन नहीं करना चाहिये । श्राद्ध सोलह बताये गये हैं, उनको
भी ऐसे पापियों के लिये न करे। यदि अग्निहोत्र करनेवाला ब्राह्मण ऐसा पापकर्म करता
है तो घरवाले मरने पर उसकी जो जीविकावृत्ति है, उसको जल में
फेंक दें और उसके घर की अग्नि को चौराहे पर ले जाकर डाल दें तथा उसके पात्रों को
अग्नि में जला दें ।
पूर्णे संवत्सरे तेषामित्थं कार्यं
दयालुभिः ।
एकादशीं समासाद्य शुक्लपक्षे च
काश्यप ॥ २,४४.६ ॥
विष्णुं यमं च सम्पूज्य गन्धपुष्पाक्षतादिभिः
।
दश पिण्डान् घृताक्तांश्च दर्भेषु
मधुसंयुतान् ॥ २,४४.७ ॥
हे काश्यप ! पूर्वोक्त पापियों की
मृत्यु का एक वर्ष पूर्ण हो जाय तो दयावान् परिजनों को शुक्लपक्ष की एकादशी तिथि को
गन्ध - अक्षत – पुष्पादि से विष्णु और यम की पूजा करके कुशों के ऊपर मधुयुक्त और
घृतमिश्रित दस पिण्ड देना चाहिये ।
यज्ञोपवीति सतिलान् ध्यायन् विष्णुं
यमं तथा ।
दक्षिणाभिमुखस्तूष्णीमेकैकं
निर्वपेत्तुतान् ॥ २,४४.८ ॥
उद्धृत्य मिश्रितान्
पश्चात्तीर्थेऽभ्मः सु विनिः क्षिपेत् ।
क्षिपन् संकीर्तयेन्नाम गोत्रं च
मृतकस्य च ॥ २,४४.९ ॥
मौन होकर तिल के सहित विष्णु और यम का
ध्यान करते हुए दक्षिणाभिमुख होकर पूर्वोक्त दस पिण्ड प्रदान करे। उन पिण्डों को
उठाकर और एक में मिलाकर तीर्थ के जल में डालते हुए मृतक के नाम और गोत्र का
उच्चारण करना चाहिये ।
पुनरप्यर्चयेद्विष्णुं यमं
कुसुमचन्दनैः ।
धूपदीपैः
सनैवेद्यैर्भक्ष्यभोज्यसमन्वितैः ॥ २,४४.१०
॥
तस्मिन्नुपवसेदह्नि विप्रांश्चेव
निमन्त्रयेत् ।
कुलविद्यातपोयुक्तान्
साधुशीलसमन्वितान् ॥ २,४४.११ ॥
नव सप्ताथवा पञ्च
स्वसामर्थ्यानुसारतः ।
अपरेऽहनि मध्याह्ने यमं विष्णुं
तथार्चयेत् ॥ २,४४.१२ ॥
उदङ्मुखांस्तथा विप्रांस्तान्
सम्यगुपवेशयेत् ।
आवाहनार्घदानादौ विष्णुं
यमसमन्वितम् ॥ २,४४.१३ ॥
यज्ञोपवीती कुर्वीत प्रेतनाम
प्रकीर्तयेत् ।
प्रेतं यमं च विष्णुं च स्मरन्
श्राद्धं समापयेत् ॥ २,४४.१४ ॥
अन्येभ्यश्चापि सर्वेभ्यः
पिण्डदानार्थमुद्धरेत् ।
पृथग्वा दश पिण्डांश्च पञ्च
दद्यात्क्रमेण तु ॥ २,४४.१५ ॥
प्रथमं विष्णवे दद्याद्ब्रह्मणे च
शिवाय च ।
सभृत्याय शिवायाथ प्रेतायापि च
पञ्चमम् ॥ २,४४.१६ ॥
नाम गोत्रं स्मरेत्तस्य विष्णुशब्दं
प्रकीर्तयेत् ।
नमस्कारशिरस्कन्तु पञ्चमं
पिण्डमुद्धरेत् ॥ २,४४.१७ ॥
गोभूमिपिण्डदानाद्यैः शक्त्या
प्रेतं स्मरंश्च तम् ।
तिलैस्तिलांस्तु विप्राणां
दर्भयुक्तेषु पाणिषु ॥ २,४४.१८ ॥
इसके बाद पुष्प,
चन्दन, धूप, दीप,
नैवेद्य तथा भक्ष्य-भोज्य पदार्थों से विष्णु और यम की पुनः पूजा
करे। उस दिन उपवास रहकर कुल, विद्या, तप
और शील से सम्पन्न यथासामर्थ्य नौ अथवा पाँच साधु ब्राह्मणों को निमन्त्रित करे ।
उसके दूसरे दिन मध्याह्न काल में पूर्वदिन के समान पुनः विष्णु एवं यम की पूजा
करके उत्तराभिमुख उन ब्राह्मणों को आसन पर बैठाये । उसके बाद यज्ञोपवीती कर्ता
आवाहन, अर्घ्य तथा दानादि में विष्णु और यम से समन्वित प्रेत
के नाम का कीर्तन करे तथा प्रेत, यम और विष्णु का स्मरण करते
हुए श्राद्ध सम्पन्न करे । उस अवसर पर पिण्डदान के लिये अन्य देवों का भी आवाहन
करना चाहिये । उसके बाद उन्हें क्रमश: दस अथवा पाँच पृथक्-पृथक् पिण्ड दे । यथा—
पहला पिण्ड विष्णुदेव, दूसरा पिण्ड ब्रह्मा,
तीसरा पिण्ड शिव, चौथा पिण्ड भृत्यसहित शिव और
पाँचवाँ पिण्ड प्रेत के लिये देय है। प्रेत के नाम एवं गोत्र का स्मरण तथा विष्णु
शब्द का उच्चारण करना चाहिये । पिण्डदान होने के बाद सिर झुकाकर नमस्कार करते हुए
पाँचवें पिण्ड को कुशों पर स्थापित करे । तदनन्तर यथाशक्ति गौ-भूमि और पिण्डदानादि
के द्वारा उस प्रेत का स्मरण करते हुए कुश तथा तिल से युक्त उन ब्राह्मणों के
कुशयुक्त हाथों में तिल दान दे।
दद्यादन्नं द्विजानां च ताम्बूलं
दक्षिणां तथा ।
एवं शिष्टतमं विप्रं हरिण्येन
प्रपूजयेत् ॥ २,४४.१९ ॥
नाम गोत्रं स्मरन् दद्याद्विष्णुप्रीतोस्त्विति
ब्रुवन् ।
इसके बाद ब्राह्मणों को अन्न,
ताम्बूल और दक्षिणा देकर श्रेष्ठतम ब्राह्मण की स्वर्णदान से पूजा
करे। यह दान नाम – गोत्र का स्मरण करते हुए 'विष्णु प्रसन्न
हों, ऐसा कहकर देना चाहिये ।
अनुव्रज्य द्विजान्
पश्चात्त्यक्ताम्भो दक्षिणामुखः ॥ २,४४.२०
॥
कीर्तयन्नामगोत्रे तु भुवि
प्रीतोस्त्विति क्षिपेत् ।
मित्रबन्धुजनैः सार्धं शेषं भुञ्जीत
वाग्यतः ।
तदनन्तर ब्राह्मणों का अनुगमन करके
यजमान दक्षिणाभिमुख होकर प्रेत के नाम गोत्र का कीर्तन करते हुए 'प्रीतोऽस्तु' ऐसा कहकर भूमि पर
जल गिरा दे । तत्पश्चात् मित्र एवं बन्धु बान्धवों के साथ श्राद्ध के अवशिष्ट भोजन
को संयत वाक् होकर ग्रहण करे।
प्रतिसंवत्सरादि
स्यादेकोद्दिष्टविधानतः ॥ २,४४.२१
॥
एवं कृते गमिष्यन्ति स्वर्लोकं
पापकर्मिणः ।
सपिण्डीकरणादौ तु कृते
चैवाप्नुवन्तिते ॥ २,४४.२२ ॥
तदनन्तर प्रतिवर्ष सांवत्सर श्राद्ध
एकोद्दिष्ट विधान से करना चाहिये। इस प्रकार की क्रिया करने से पापीजन स्वर्ग चले
जायँगे। इसके बाद वे सपिण्डीकरण आदि की क्रियाओं को करने पर उसे प्राप्त करते हैं।
अथ कश्चित्प्रमादेन म्रियते
ह्युदकादिभिः ।
संसारप्रमुखस्तस्य सर्वं कुर्याद्यथाविधि
॥ २,४४.२३ ॥
प्रमादादिच्छया मर्त्यो न
गच्छेत्सर्पसंमुखः ।
पक्षयोरुभयोर्नागं पञ्चमीषु
प्रपूजयेत् ॥ २,४४.२४ ॥
कुर्यात्पिष्टमयीं लेखां
नागानामाकृतिं भुवि ।
अर्चयेत्तां सितैः पुष्पैः
सुगन्धैश्चन्दनेनच ॥ २,४४.२५ ॥
प्रदद्याद्धूपदीपन्तु तण्डुलांश्च
सितान् क्षिपेत् ।
आमपिष्टं तथैवान्नं क्षीरञ्च
विनिवेदयेत् ॥ २,४४.२६ ॥
उपस्थाय वदेदेवं
मुञ्चन्मुद्रांशुकानि च ।
यदि प्रमादवश किसी मनुष्य की जल आदि
में डूबकर अपमृत्यु हो जाती है तो उसके पुत्र या सगे-सम्बन्धी को यथाविधि सभी
और्ध्वदैहिक कर्म करने आवश्यक हैं। प्रमादवश अथवा इच्छापूर्वक भी प्राणी को सर्प के
सामने कदापि नहीं जाना चाहिये। ( ऐसी स्थिति में सर्प दंश से मृत्यु होनेपर)
प्रतिमास दोनों पक्षों की पञ्चमी तिथि को नागदेवता की पूजा करे। भूमि पर शालिचूर्ण
से नागदेव की आकृति बनावे। श्वेत पुष्प, सुगंध,
धूप, दीप और सफेद अक्षत से उसकी पूजा करके
कच्चा पीसा हुआ अन्न तथा दूध अर्पित करे । उसके बाद उठकर द्रव्य और वस्त्र छोड़ते
हुए 'नागराज प्रसन्न हों' - ऐसा कहे।
मधुरं तद्दिनेऽश्रीयाद्देवश्राद्धं
समापयेत् ॥ २,४४.२७ ॥
सौवर्णं शक्तितो नागं ततो
दद्याद्द्विजोत्तमे ।
धेनुं दत्त्वा ततो ब्रूयात्प्रीयतां
नागराडिति ॥ २,४४.२८ ॥
यथाविभव्यं कुर्वीत कर्माण्यन्यानि
पूर्ववत् ।
उस दिन श्राद्ध सम्पन्न करने के
पश्चात् मधुर अन्न का भोजन करे । यथाशक्ति वह उस दिन श्रेष्ठ ब्राह्मण को सुवर्ण की
बनी हुई नाग-प्रतिमा का दान दे । तदनन्तर उसे गौ का दान देकर पुनः 'नागराज प्रीयताम्' – हे
नागराज ! आप अब मेरे ऊपर प्रसन्न हों - ऐसा कहे। इसके बाद सामर्थ्यानुसार पूर्ववत्
उन कर्मों को भी निर्देशानुसार करे ।
स्वशाखोक्तविधानेन इत्थं
कुर्याद्यथातथम् ।
प्रेतत्वान्मोचयेत्तांस्तु
स्वर्गमार्गं नयेत्च ॥ २,४४.२९ ॥
जो मनुष्य अपनी वैदिक शाखा की विधि के
द्वारा ऐसे कर्म को यथावत् करता है, वह
उन अपमृत्यु - प्राप्त प्राणियों को प्रेतत्व से विमुक्त करके स्वर्गलोक को ले
जाता है।
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे द्वितीयांशाख्ये धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे दुर्मरणे
कार्याकार्यक्रियादिनिरूपणं नाम चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः॥
जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय 45
No comments:
Post a Comment
Please do not enter any spam link in the comment box