श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ४६

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ४६

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ४६ सत्कर्म की महिमा तथा कर्मविपाक का फल का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ४६

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) षड्चत्वारिंशत्तमोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 46

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प छयालिसवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ४६                       

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ४६ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः ४६                 

तार्क्ष्य उवाच ।

सुकृतस्य प्रभावेण स्वर्गो नानाविधो नणाम् ।

भोगाः सौख्याति रूपञ्च बलं बुद्धैः पराक्रमः ॥ २,४६.१ ॥

सत्यं पुण्यवतां देव जायतेऽत्र परत्र च ।

सत्यंसत्यं पुनः सत्यं वेदवाक्यं न चान्यथा ॥ २,४६.२ ॥

तार्क्ष्य ने कहा- हे सुरश्रेष्ठ! मनुष्यों को स्वर्ग और नाना प्रकार के भोग तथा सुख एवं रूप, बल- बुद्धि एवं पराक्रम पुण्य के प्रभाव से प्राप्त होते हैं। पूर्वोक्त प्रकार के लौकिक एवं पारलौकिक भोग पुण्यवान् व्यक्तियों को उनके पुण्य से ही प्राप्त होते हैं, अन्यथा नहीं - ये वेदवाक्य सर्वथा सत्य हैं।

धर्मो जयति नाधर्मः सत्यं जयाते नानृतम् ।

क्षमा जयति न क्रोधो विष्णुर्जयति नासुरः ॥ २,४६.३ ॥

जिस प्रकार धर्म की ही विजय होती है, अधर्म की नहीं। सत्य की ही विजय होती है, असत्य की नहीं । क्षमा की ही विजय होती है, क्रोध की नहीं । विष्णु ही विजय प्राप्त करते हैं असुर नहीं।

तद्वत्सत्यं मया ज्ञातं सुकृताच्छोभनं भवेत् ।

यतोत्कृष्टतमं पुण्यं तथोत्कृष्टतरोनरः ॥ २,४६.४ ॥

एवन्तु श्रोतुमिच्छामि जायन्ते पापिनो यथा ।

येन कर्मविपाकेन यथा नियमभाग्भवेत् ॥ २,४६.५ ॥

यांयां योनिमवाप्नोति यथारूपश्च जायते ।

तन्मे वद सुरश्रेष्ठ समासेनापि काङ्क्षितम् ॥ २,४६.६ ॥

- उसी प्रकार मैंने सत्य-रूप से यह जाना है कि सुकृत से ही कल्याण होता है। जिसका पुण्य जितना उत्कृष्टतम है, वह मनुष्य भी उतना ही श्रेष्ठतम है। जिस प्रकार पापी जन्म लेते हैं, जिस कर्मफल के अनुसार जीव जिस भोग का भागी होता है, वह जिन-जिन योनियों को जिस रूप में प्राप्त करता है, जैसा उसका रूप होता है वह सब मैं सुनना चाहता हूँ। हे देव! संक्षेप में आप मेरी इस इच्छित बात को बताने की कृपा करें।

श्रीकृष्ण उवाच ।

शुभाशुभफलैस्तार्क्ष्य भुक्तभोगा नरास्त्विह ।

जायन्ते लक्षणैर्यैस्तुतानि मे शृणु काश्यप ॥ २,४६.७ ॥

श्रीकृष्ण ने कहा- हे कश्यपपुत्र गरुड ! शुभाशुभ फलों के भोग के अनन्तर जिन लक्षणों से युक्त होकर मनुष्य इस लोक में उत्पन्न होते हैं, उनको तुम मुझसे सुनो।

गुरुरात्मवतां शास्ता राजा शास्ता दुरात्मनाम् ।

इह प्रच्छन्नपापानां शास्ता वैवस्वतो यमः ॥ २,४६.८ ॥

हे पक्षिश्रेष्ठ! इस लोक में आत्मज्ञानियों का शासक गुरु है। दुरात्माओं का शासक राजा है और गुप्तरूप से पाप करनेवाले प्राणियों का शासक सूर्य-पुत्र यम है।

प्रायश्चित्तेष्वचीर्णेषु यमलोका ह्यनेकधा ।

यातनाभिर्विमुक्ता ये यान्ति ते जीवसन्ततीम् ॥ २,४६.९ ॥

गत्वा मानुषभावे तु पापचिह्ना भवन्ति ते ।

तान्यहं तव चिह्नानि कथयिष्ये खगोत्तम ॥ २,४६.१० ॥

अपने पापों का प्रायश्चित्त न किये जाने पर उन्हें अनेक प्रकार के नरक प्राप्त होते हैं । वहाँ की यातनाओं से विमुक्त होकर प्राणी मर्त्यलोक में जन्म लेते हैं। मानवयोनि में जन्म लेकर वे अपने पूर्व- पापों के जिन चिह्नों से युक्त रहते हैं, मैं उन लक्षणों को तुम्हें बताऊँगा ।

सोढ्वा वै यातनाः सर्वा गत्वा वैवस्वतक्षयम् ।

निस्तीर्णयातनास्ते तु लोकमायान्ति चिह्निताः ॥ २,४६.११ ॥

गद्गदोऽनतवादी स्यान्मूकश्चैव गवानृते ।

ब्रह्महा जायते कुष्ठी श्यावदन्तश्च मद्यपः ॥ २,४६.१२ ॥

कुनखी स्वर्णहरणाद्दुश्चर्मा गुरुतल्पगः ।

संयोगी हीनयोनिः स्याद्दरिद्रोऽदत्तदानतः ॥ २,४६.१३ ॥

अयाज्ययाजको याति ग्राहमसूकरतां द्विजः ।

खरो वै बहुयाजी स्यात्काको निर्मन्त्रभोजनात् ॥ २,४६.१४ ॥

सभी पापी यमराज के घर पहुँचकर नाना प्रकार के कष्ट सहन करते हैं । जब उन यातनाओं से उन्हें मुक्ति प्राप्त होती है तो उनके पापों का भावी शरीर पर चिह्नाङ्कन होता है। उन्हीं चिह्नों से संयुक्त होकर वे पुन: इस पृथ्वीलोक में जन्म ग्रहण करते हैं। यथा-असत्यवादी हकलाकर बोलनेवाला, गाय के विषय में झूठ बोलनेवाला गूँगा, ब्रह्महन्ता कोढ़ी, मद्यपी काले रंग के दाँतोंवाला, स्वर्णचोर कुत्सित एवं विकृत नखोंवाला और गुरुपत्नीगामी चर्मरोगी होता है तथा पापियों से सम्बन्ध रखनेवाला निम्नयोनि में जन्म लेता है और दान न देनेवाला दरिद्र, अयाज्य का यज्ञ करनेवाला ब्राह्मण ग्राम सूकर, बहुतों का यज्ञ करानेवाला गधा और अमन्त्रक भोजन करनेवाला कौआ होता है।

अपरीक्षितभोक्तारो व्याघ्राः स्युर्निर्जने वने ।

बहुतर्जको मार्जरः खद्योतः कक्षदाहकः ॥ २,४६.१५ ॥

पात्रे विद्याप्रदाता यो बलीवर्दो भवेत्तसः ।

अन्नं पर्युषितं विप्रे प्रददत्कुक्करो भवेत् ॥ २,४६.१६ ॥

मात्सर्यादपि जात्यन्धो जन्मान्धः पुस्तकं हरन् ।

बिना परीक्षण किये हुए भोजन को ग्रहण करनेवाले निर्जन वन में व्याघ्र होते हैं । अन्य प्राणियों को बहुत तर्जना देनेवाले पापी बिलार, कक्ष को जलानेवाला जुगुनू, पात्र को विद्या न देनेवाला बैल, ब्राह्मण को बासी अन्न देनेवाला कुत्ता, दूसरे से ईर्ष्या और पुस्तक की चोरी करनेवाला जात्यन्ध और जन्मान्ध होता है ।

फलान्याहरतोऽपत्यं म्रियते नात्र संशयः ॥ २,४६.१७ ॥

मृतो वानरतां याति तन्मुखो गण्डवान् भवेत् ।

अदत्त्वा भक्ष्यमश्राति अनपत्यो भवेत्तु सः ॥ २,४६.१८ ॥

हरन्वस्त्रं भवेद्गोधा गरदः पवनाशनः ।

प्रवज्यागमनाद्राजन् भवेन्मरुपिशाचकः ॥ २,४६.१९ ॥

चातको जलहर्ता स्याद्धान्यहर्ता च मूषिकः ।

अप्राप्तयौवनां सेवन् भवेत्सर्प इति श्रुतिः ॥ २,४६.२० ॥

फलों की चोरी करने से मनुष्य के संतान की मृत्यु हो जाती है, इसमें संदेह नहीं है। वह मरने के बाद बंदर की योनि में जाता है । तदनन्तर उसी के समान मुख प्राप्त कर पुनः मानवयोनि में उत्पन्न होता है और गण्डमाला के रोग से ग्रस्त रहता है। जो बिना दिये स्वयं खा लेता है, वह संतानहीन होता है । वस्त्र की चोरी करनेवाला गोह, विष देनेवाला वायुभक्षी सर्प, संन्यास – मार्ग का परित्याग करके पुनः अपने पूर्व आश्रम में प्रविष्ट हो जानेवाला मरुस्थल का पिशाच होता है। जलापहर्ता पापी को चातक, धान्य के अपहरणकर्ता को मूषक और युवावस्था को न प्राप्त हुई कन्या का संसर्ग करनेवाले को सर्प की योनि प्राप्त होती है।

गुरुदाराभिलाषी च कृकलासो भवेद्ध्रुवम् ।

जलप्रस्त्रवणं यस्तु भिन्द्यान्मत्स्यो भवेन्नरः ॥ २,४६.२१ ॥

अविक्रेयक्रयाच्चैव बको गृध्रो भवेन्नरः ।

अयोनिगो वृको हि स्यादुलूकः क्रयवञ्चनात् ॥ २,४६.२२ ॥

मृतस्यैकादशाहे तु भुञ्जानश्चाभिजायते ।

प्रतिश्रुत्य द्विजेभ्योर्ऽथमददज्जम्बुको भवेत् ॥ २,४६.२३ ॥

राज्ञरिं गत्वा भवेद्दंष्ट्री तस्करो विङ्वराहकः ।

शारिवा फलविक्रेता वृषश्च वृषलीपतिः ॥ २,४६.२४ ॥

मार्जरोऽग्निं पदा स्पृष्ट्वा रोगवान्परमांसभुक् ।

उदक्यागमनात्षण्डो दुर्गन्धश्च सुगन्धहृत् ॥ २,४६.२५ ॥

यद्वा तद्वापि पारक्यं स्वल्पं वा हरते बहु ।

हृत्वा वै योनिमाप्नोति तिरश्चां नात्र संशयः ॥ २,४६.२६ ॥

गुरुपत्नीगामी निश्चित ही गिरगिट होता है। जो व्यक्ति जलप्रपात के स्थान को तोड़कर नष्ट करता है, वह मत्स्य होता है । न बेचने योग्य वस्तु को जो खरीदता है, वह बगुला तथा गिद्ध होता है । अयोनिग व्यक्ति भेड़िया और खरीदी जा रही वस्तु में छल करनेवाला उलूक की योनि प्राप्त करता है । जो मृतक के एकादशाह में भोजन करनेवाला होता है तथा प्रतिज्ञा करके ब्राह्मणों को धन नहीं देता, वह सियार होता है । रानी के साथ सम्भोग करके मनुष्य दंष्ट्री होता है। चोरी करनेवाला ग्रामसूकर, फलविक्रेता श्यामलता होता है। वृषली के साथ गमन करनेवाला वृष होता है। जो पुरुष पैरों से अग्नि का स्पर्श करता है वह बिलौटा, दूसरे का मांस भक्षण करनेवाला रोगी, रजस्वला स्त्री से गमन करनेवाला नपुंसक, सुगन्धित वस्तुओं की चोरी करनेवाला दुर्गन्धदायक प्राणी होता है। दूसरे का थोड़ा या बहुत जिस किसी भी प्रकार से जो कुछ भी मनुष्य अपहरण करता है, वह उस पाप से निश्चित ही तिर्यक् योनि में जाता है।

एवमादीनि चिह्नानि अन्यान्यपि खगेश्वर ।

स्वकर्मविततान्येव? दृश्यन्ते यैस्तु मानवैः ॥ २,४६.२७ ॥

एवं दुष्कृतकर्मा हि भुक्त्वा च नरकान्क्रमात् ।

जायते कर्मशेषेण उक्तास्वेतासु योनिषु ॥ २,४६.२८ ॥

ततो जन्मशतं मर्त्ये सर्वजन्तुषु काश्यप ।

जायते नात्र सन्देहः समीभूते शुभाशुभे ॥ २,४६.२९ ॥

स्त्रीपुंसयो प्रसङ्गेन निरुद्धे शुक्रसोणिते ।

समुपेतः पञ्चभूतैर्जायते पाञ्चभौतिकः ॥ २,४६.३० ॥

इन्द्रियाणि मनः प्राणा ज्ञानमायुः सुखं धृतिः ।

धारणा प्रेरणं दुः खं मिथ्याहङ्कार एव च ॥ २,४६.३१ ॥

प्रयताकृतिवर्णस्तु रागद्वेषौ भवाभवौ ।

तस्येदमात्मनः सर्वमनादेरादिमिच्छतः ॥ २,४६.३२ ॥

स्वकर्म बद्धस्य तदा गर्भवृद्धिर्भवेदिति ।

हे खगेन्द्र ! ऐसे तो पहलेवाले चिह्न हैं ही, किंतु इनके अतिरिक्त भी अन्य बहुत-से चिह्न हैं, जो अपने-अपने कर्मानुसार प्राणियों के शरीर में व्याप्त रहते हैं। ऐसा पापी क्रमशः नाना प्रकार के नरकों का भोग करके अवशिष्ट कर्मफल के अनुसार इन पूर्वकथित योनियों में जन्म लेता है। हे काश्यप ! उसके बाद मृत्यु होनेपर जबतक शुभ और अशुभ कर्म समाप्त नहीं हो जाते हैं, तबतक सभी योनियों में सैकड़ों बार उसका जन्म होता है; इसमें संदेह नहीं है। जब स्त्री तथा पुरुष के संयोग से गर्भ में शुक्र और शोणित जाता है तो उसी में पञ्चभूतों से समन्वित होकर यह पाञ्चभौतिक शरीर जन्म लेता है । तदनन्तर उसमें इन्द्रियाँ, मन, प्राण, ज्ञान, आयु, सुख, धैर्य, धारणा, प्रेरणा, दुःख, मिथ्याहंकार, यत्न, आकृति, वर्ण, राग-द्वेष और उत्पत्ति-विनाश- ये सब उस अनादि आत्मा को सादि मानकर पाञ्चभौतिक शरीर के साथ उत्पन्न होते हैं । उसी समय से वह पाञ्चभौतिक शरीर पूर्वकर्मों से आबद्ध होकर गर्भ में बढ़ने लगता है ।

पुरा यथा मया प्रोक्तं तव जन्तोर्हि लक्षणम् ॥ २,४६.३३ ॥

एवं प्रवर्तितं चक्रं भूतग्रामे चतुर्विधे ।

समुत्पत्तिर्विनाशश्च जायते तार्क्ष्य देहिनाम् ॥ २,४६.३४ ॥

स्वधर्मेणैवोर्ध्वगतिरधर्मेणाप्यधोगतिः ।

जायते सर्ववर्णानां स्वधर्मचलनात्खग ॥ २,४६.३५ ॥

देवत्वे मानुषत्वे च दानभोगादिकाः क्रियाः ।

या दृश्यन्ते वैनतेय तत्सर्वं कर्मजं फलम् ॥ २,४६.३६ ॥

अकर्मविहिते घोरे कामक्रोधार्जितेऽशुभे ।

पतेद्वै नरके भूयो तस्योत्तारो न विद्यते ॥ २,४६.३७ ॥

हे तार्क्ष्य! मैंने जैसा तुमसे पहले कहा है, वैसा ही जीव का लक्षण है। चार प्रकार के प्राणिसमूह में इसी प्रकार के परिवर्तन का चक्र घूमता रहता है। उसी में शरीरधारियों का उद्भव और विनाश होता है । यथाविहित अपने धर्म का पालन करने से प्राणियों को ऊर्ध्वगति तथा अधर्म की ओर बढ़ने से अधोगति प्राप्त होती है । अतः सभी वर्णों की सद्गति अपने धर्म पर चलने से ही होती है। हे वैनतेय ! देव और मानवयोनि में जो दान तथा भोगादि की क्रियाएँ दिखायी देती हैं, वे सब कर्मजन्य फल हैं। घोर अकर्म से और काम-क्रोध के द्वारा अर्जित जो अशुभ पापाचार हैं, उनसे नरक प्राप्त होता है तथा वहाँ से जीव का उद्धार नहीं होता है।

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे जीवस्य शुभाशुभगतिनिरूपणं नाम षट्चत्वारिंशोध्यायः॥

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 47

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