श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ४५

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ४५  

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ४५पार्वण आदि श्राद्धों के अधिकारी; एक से अधिक की मृत्यु पर पिण्डदान आदि की व्यवस्था; मृत्युतिथि- मास के अज्ञात होनेपर तथा प्रवासकाल में मृत्यु होने पर श्राद्ध आदि की व्यवस्था; नित्य एवं दैव तथा वृद्धि आदि श्राद्धों की कर्तव्यता का प्रतिपादन का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ४५

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) पञ्चचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 45

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प पैतालीसवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ४५                      

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ४५ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः ४५                 

श्रीविष्णुरुवाच ।

प्रत्यब्दं श्राद्धमेवं ते कथयामि खगेश्वर ।

प्रत्यब्दं पार्वणेनैव कुर्यातां क्षेत्रजोरसौ ॥ २,४५.१ ॥

विधिनाचेतरैरेवमेकोद्दिष्टं न पार्वणम् ॥ २,४५.२ ॥

श्रीविष्णु ने कहा- हे खगेश्वर ! अब मैं प्रतिवर्ष होनेवाले पार्वण श्राद्ध का वर्णन तुमसे कर रहा हूँ । मृत व्यक्ति के औरस और क्षेत्रज पुत्र को प्रतिवर्ष पार्वण श्राद्ध करना चाहिये । औरस एवं क्षेत्रज पुत्रों के अतिरिक्त अन्य को एकोद्दिष्ट – विधि से श्राद्ध करना चाहिये, पार्वण श्राद्ध नहीं ।

अनग्नेश्च सुतौ स्यातामनग्नी क्षेत्रजोरसौ ।

एकोद्दिष्टं न कुर्यातां प्रत्यब्दं तौ तु पार्वणम् ॥ २,४५.३ ॥

यदा त्वन्यतरः साग्निः पुत्रो वाप्यथवा पिता ।

प्रत्यब्दं पार्वणं तत्र कुर्यातां क्षेत्रजौरसौ ॥ २,४५.४ ॥

अनग्नयः साग्नयो वा पुत्रा वा पितरोऽपि वा ।

एकोद्दिष्टं सुतैः कार्यं क्षयाह इति केचन ॥ २,४५.५ ॥

दर्शकाले क्षयो यस्य प्रेतपक्षेऽथ वा पुनः ।

प्रत्यब्दं पार्वणं कार्यं तस्य सर्वैः सुतैरपि ॥ २,४५.६ ॥

अग्निहोत्र न करनेवाले मृत ब्राह्मण के क्षेत्रज तथा औरस दोनों पुत्र यदि अग्निहोत्री नहीं हैं तो उन्हें एकोद्दिष्ट श्राद्ध नहीं करना चाहिये । प्रतिवर्ष पार्वण श्राद्ध करना चाहिये । यदि पुत्र अथवा पिता में से कोई एक साग्निक हो तो प्रतिवर्ष क्षेत्रज और औरस को पार्वण श्राद्ध करना चाहिये। किंतु कुछ लोगों का कहना है कि पुत्र अग्निहोत्री हों या न हों, पितृगण भी अग्निहोत्री रहे हों या न रहे हों, फिर भी एकोद्दिष्ट श्राद्ध पुत्रों को अपने पिता की मृत्यु- तिथि पर करना चाहिये। जिसकी मृत्यु दर्शकाल अथवा प्रेतपक्ष में होती है, उसके सभी पुत्र प्रतिवर्ष पार्वण श्राद्ध करें।

एकोद्दिष्टमपुत्राणां पुंसां स्याद्योपितामपि ।

एकोद्दिष्टे कुशा ग्राह्याः समूला यज्ञकर्मणि ।

बहिर्लूनाः सकृल्लनाः श्राद्धं वृद्धिमृते सदा ॥ २,४५.७ ॥

कर्तव्ये पार्वणे श्राद्धे आशौचं यदि जायते ।

आशौचावगमे कुर्याच्छ्राद्धं हि तदनन्तरम् ॥ २,४५.८ ॥

एकोद्दिष्टे तु सम्प्राप्ते यदि विघ्नः प्रजायते ।

मासेन्यस्मिन् तिथौ तस्यां कुर्याच्छ्राद्धं तदैव हि ॥ २,४५.९ ॥

तूष्णीं श्राद्धान्तु शूद्रस्य भार्यायास्तत्सुतस्य च ।

कन्यायाश्च द्विजातीनामनुपेतद्विजस्य च ॥ २,४५.१० ॥

एककाले गता सूनां बहूनामथ वा द्वयोः ।

तन्त्रेण श्रपणं कुर्याच्छ्राद्धं कुर्यात्पृथक्पृथक् ॥ २,४५.११ ॥

दद्यात्पूर्वं मृतस्यादौ द्वितीयस्य ततः पुनः ।

तृतीयस्य ततः कुर्यात्संनिपाते त्वयं विधिः (क्रमः) ॥ २,४५.१२ ॥

एकोद्दिष्ट श्राद्ध पुत्रहीन पुरुष और स्त्री का भी हो सकता है। एकोद्दिष्ट यज्ञकर्म में समूल कुश का प्रयोग करना चाहिये। बाहर से कटे हुए अथवा एक बार काटे गये कुश ही श्राद्ध में वृद्धिदायक होते हैं। यदि किये जानेवाले पार्वण श्राद्ध के बीच अशौच हो जाता है तो यजमान उस अशौच के समाप्त होने के बाद श्राद्ध करे । एकोद्दिष्ट श्राद्ध का काल आ जाने पर यदि किसी प्रकार का विघ्न आ जाता है तो दूसरे मास उसी तिथि पर वही एकोद्दिष्ट श्राद्ध किया जा सकता है। शूद्र तथा उसकी पत्नी और उसके पुत्र का श्राद्ध मौन अर्थात् मन्त्रोच्चार- रहित होना चाहिये। इसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य इन तीनों द्विजातियों की कन्या और यज्ञोपवीत संस्कार से हीन ब्राह्मण का भी श्राद्ध तूष्णी (मौन) होकर ही करना धर्म - विहित है । एक ही समय में एक ही घर के बहुत-से लोगों की अथवा दो व्यक्तियों की मृत्यु हो गयी हो तो उनके श्राद्ध का पाक एक साथ और श्राद्ध पृथक्-पृथक् करना चाहिये । साथ में मरने पर विधि इस प्रकार - पहले पूर्वमृत को, तदनन्तर द्वितीय और तृतीय को क्रमशः पिण्डदान करना चाहिये ।

प्रत्यब्दमेवं यः कुर्याद्यथातथमतन्द्रितः ।

तारयित्वा पितॄन् सर्वान् प्राप्नोति परमां गतिम् ॥ २,४५.१३ ॥

न ज्ञायते मृताहश्चेत्प्रस्थानदिनमेव च ।

मासश्चेत्स्यात्परिज्ञातस्तद्दर्शे स्यान्मृताहिकम् ॥ २,४५.१४ ॥

यदा मासो न विज्ञातो विज्ञातं दिनमेव च ।

तदा मार्गशिरे मासि माघे वा तद्दिनं भवेत् ॥ २,४५.१५ ॥

दिनमासावविज्ञातौ मरणस्य यदा पुनः ।

प्रस्थानदिनमासौ तु ग्राह्यौ श्राद्धे मयोदितौ ॥ २,४५.१६ ॥

प्रस्थानस्यापि न ज्ञातौ दिनमासौ यदा पुनः ।

मृतवार्ताश्रुतौ ग्राह्यौ पूर्वप्रोक्तक्रमेण तु ॥ २,४५.१७ ॥

प्रवासमन्तरेणापि स्यातां तौ विस्मृतौ यदा ।

तदानीमपि तौ ग्राह्यौ पूर्ववत्तु मृताहिके ॥ २,४५.१८ ॥

गृहस्थे प्रोषिते यच्च कश्चित्तु म्रियते गृहे ।

आसौचापगमे यत्र प्रारब्धे श्राद्धकर्मणि ॥ २,४५.१९ ॥

प्रत्यागतश्चेज्जानाति तत्र वृत्तं गृही तथा ।

आशौचं गृहिणस्तेषां न द्रव्यादेस्तदा भवेत् ॥ २,४५.२० ॥

पुत्रादिना यदारब्धं श्राद्धं तत्त्वेन वाखिलम् ।

समापनीयं तत्रापि श्राद्धं गृहीतु दूरतः ॥ २,४५.२१ ॥

दात्रा बोक्त्रा च न ज्ञातं सूतकं मृतकं तथा ।

उभयोरपि तद्दोषं नारोपयति कर्हिचित् ॥ २,४५.२२ ॥

यदा त्वन्यतरज्ञातं सूतकं मृतकं तथा ।

भोक्तुरेव तदा दोषो नान्यो दाता प्रदुष्यति ॥ २,४५.२३ ॥

जो आलस्यरहित होकर इस विधान के अनुसार अपने माता-पिता का प्रत्येक वर्ष श्राद्ध करता है, वह उनका उद्धार करके स्वयं भी परम गति को प्राप्त करता है। यदि किसी प्राणी की मृत्यु और प्रस्थान-काल का दिन स्मरण नहीं है, किंतु वह मास ज्ञात है तो उसी मास की अमावास्या – तिथि में उस मृतक की मृत्यु - तिथि माननी चाहिये । यदि किसी की मृत्यु का मास ज्ञात नहीं है, किंतु दिन की जानकारी है तो मार्गशीर्ष (अगहन) अथवा माघमास में उसी दिन उसका श्राद्ध किया जा सकता है । जब अपने सम्बन्धी की मृत्यु का दिन एवं मास दोनों अज्ञात हों तो श्राद्ध कर्म के लिये यात्रा के दिन और मास ग्रहण करने चाहिये । जब मृतक के प्रस्थान का भी दिन और मास न ज्ञात हो तो जिस दिन एवं मास में मृत्यु की बात सुनी गयी हो, उसे ही श्राद्ध के लिये उपयुक्त मान ले। बिना प्रवास के भी मृत्यु होने पर दिन तथा मास दोनों विस्मृत हो गया हो तो पूर्ववत् मृत-तिथि का निर्णय करना चाहिये । यदि कोई गृहस्थ प्रवास में है और उसके प्रवास के ही दिनों में उसके घर में किसी की मृत्यु हुई हो तथा मृत्यु के बाद अशौच के दिन बीत चुके हों और अशौच के अनन्तर जो एकादशाह - द्वादशाह आदि श्राद्धविहित हैं वे चल रहे हों, इसी बीच प्रवास में रहनेवाला वह गृहस्थ घर आ जाता हो और आने के बाद ही मृत्यु की जानकारी उसे मिलती हो तो केवल वह गृहस्थ ही अशौच से ग्रस्त होगा और तत्काल यथाशास्त्र अपनी अशौच की निवृत्ति के लिये अपेक्षित विधि अपनायेगा । उसके द्रव्यादि पर अशौच नहीं होगा। उसके घर आने मात्र से उसकी अशुचिता का प्रभाव श्राद्ध के उपयोग में आनेवाली वस्तुओं पर नहीं पड़ेगा। इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि यदि श्राद्ध का मुख्य अधिकारी सुदूर देश में है और उसके घर आकर यथाधिकार श्राद्ध करने की सम्भावना नहीं बनती है, ऐसी स्थिति में अन्य अधिकारी पुत्रादि द्वारा यदि श्राद्धकर्म प्रारम्भ कर दिया गया है तो उसे भी श्राद्ध प्रक्रिया पूर्ण करनी चाहिये। दाता और भोक्ता दोनों को जननाशौच अथवा मरणाशौच ज्ञात न हो तो उन दोनों में किसी को भी दोष नहीं लगता। जननाशौच और मरणाशौच का ज्ञान भोक्ता को हो जाय और दाता को न हो तो उस समय भोक्ता को ही पाप लगता है, उसमें वह दाता दोषी नहीं होगा ।

इत्युक्तेन प्रकारेण यः कुर्यान्मृतवासरम् ।

अविज्ञातमृताहस्य सततं तारयत्यसौ ॥ २,४५.२४ ॥

जिस मृत व्यक्ति की तिथि ज्ञात नहीं है, उसकी मृत-तिथि का निर्धारण पूर्वोक्त प्रकार से करके जो श्राद्धादि करता है, वह मृत व्यक्ति को तार देता है।

नित्यश्राद्धेऽथ गन्धाद्यैर्द्विजानभ्यर्च्य भक्तितः ।

सर्वान् पितृगणान् सम्यक्सहैवोद्दिश्य योजयेत् ॥ २,४५.२५ ॥

आवाहनं स्वधाकारो पिण्डाग्नौकरणादिकम् ।

ब्रह्मचर्यादिनियमा विश्वदेवास्तथैव च ॥ २,४५.२६ ॥

नित्यश्राद्धे त्यजेदेतान् भोज्यमन्नं प्रकल्पयेत् ।

दत्त्वा तु दक्षिणां शक्त्या नमस्कारैर्विसर्जयेत् ॥ २,४५.२७ ॥

नित्य-श्राद्ध में निमन्त्रित ब्राह्मणों की सभी पितरों के साथ भक्तिपूर्वक अर्घ्य, पाद्य तथा गन्धादि के द्वारा पूजा करके पितरों के उद्देश्य से ब्राह्मणों को यथाविधि भोजन कराना चाहिये। आवाहन, स्वधाकार, पिण्डदान, अग्नौकरण, ब्रह्मचर्यादि नियम और विश्वेदेवकृत्यये कर्म नित्य-श्राद्ध में त्याज्य हैं। इस श्राद्ध में ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद उन्हें यथाशक्ति दक्षिणा देकर प्रणाम निवेदन करते हुए बिदा करे।

देवानुद्दिश्य विश्वादीन् यद्दद्याद्द्विजभोजनम् ।

तन्नित्यश्राद्धवत्कार्यं देवश्राद्धं तदुच्यते ॥ २,४५.२८ ॥

विश्वेदेव आदि के उद्देश्य से ब्राह्मणों को नित्य- श्राद्ध की भाँति जो भोजन कराया जाता है, वह 'देवश्राद्ध' कहा जाता है ।

मातृश्राद्धन्तु पूर्वेण कर्मादौ पैतृकं तथा ।

उत्तरेऽहनि वृद्धौ स्यान्मातामहगणस्य तु ॥ २,४५.२९ ॥

श्राद्धत्रयं प्रकुर्र्वीत वैश्वदेवन्तुतान्त्रिकम् ॥ २,४५.३० ॥

मातृभ्यः कल्पयेत्पूर्वं पितृभ्यस्तदनन्तरम् ।

मातामहेभ्यश्च तथा दद्यादित्थं क्रमेण तु ॥ २,४५.३१ ॥

मातृश्राद्धे तु विप्राणामभावे सुकुलोद्गताः ।

पतिपुत्रान्विताः साध्व्यो योषितोऽष्टौ च भावयेत् ॥ २,४५.३२ ॥

यदि अग्रिम दिन कोई शुभ कार्य-विवाह अथवा यज्ञोपवीत आदि करने हैं तो उसके पूर्व- दिन मातृश्राद्ध और पितृश्राद्ध एवं मातामह श्राद्ध ( श्राद्धत्रय) करने चाहिये। इन तीनों श्राद्धों के लिये अपेक्षित विश्वेदेव-कार्य एक ही बार करना चाहिये । अर्थात् तीनों श्राद्धों के लिये तीन बार विश्वेदेव कार्य नहीं करने चाहिये। पहले मातृपितामही तथा प्रपितामही के लिये, तदनन्तर पितृपितामह और प्रपितामह के लिये, तत्पश्चात् मातामहादि के लिये क्रमशः आसनादि के दान की क्रिया सम्पन्न करनी चाहिये । यदि मातृश्राद्ध में ब्राह्मणों का अभाव हो तो श्रेष्ठ परिवार में उत्पन्न हुई पति-पुत्र से सम्पन्न सौभाग्यवती आठ साध्वी स्त्रियों को ही निमन्त्रित किया जा सकता है।

इष्टापूर्तादिके श्राद्धं कुर्यादाभ्युदयं तथा ।

उत्पातादिनिमित्तेषु नित्य श्राद्धवदेव तु ॥ २,४५.३३ ॥

इष्ट और आपूर्त-कृत्यों में आभ्युदयिक श्राद्ध करना चाहिये । उत्पात आदि की शान्ति के लिये नित्य-श्राद्ध के समान नैमित्तिक श्राद्ध करने का विधान है।

नित्यं दैवञ्च वृद्धिञ्च काम्यं नैमित्तिकं तथा ।

श्राद्धान्युक्तप्रकारेण कुर्वन् सिद्धिमवाप्नुयात् ।

इति ते कथितं तार्क्ष्य किमन्यत्परिपृच्छसि ॥ २,४५.३४ ॥

हे तार्क्ष्य ! जैसा मैंने कहा है, उसी प्रकार से नित्यश्राद्ध, दैवश्राद्ध,, वृद्धिश्राद्ध, काम्यश्राद्ध, तथा नैमित्तिक श्राद्ध इन पाँचों श्राद्धों को करता हुआ मनुष्य अपने समस्त अभीष्टों को प्राप्त करता है । इस तरह मैंने सब बता दिया, अब तुम मुझसे और क्या पूछ रहे हो ?

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे प्रत्याब्दिकादि श्राद्धनिरूपणं नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः॥

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 46 

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