श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय १७

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १७             

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १७ समस्त शुभाशुभ कर्मों के साक्षी ब्रह्मा के पुत्र श्रवणदेवों का स्वरूप का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय १७

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) सप्तदशोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 17

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प सत्रहवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १७             

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १७ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः १७        

गरुड उवाच ।

एको मे संशयो देव हृदये सम्प्रबाधते ।

श्रमणाः कस्य पुत्राश्च कथं यमपुरे स्थिताः ॥ २,१७.१ ॥

मानुषैश्च कृतं कर्म कस्माज्जानन्ति ते प्रभो ।

कथं शृण्वन्ति ते सर्वे कस्माज्ज्ञानं समागतम् ॥ २,१७.२ ॥

कुत्र भुञ्जन्ति देवेश क्रथयस्व प्रसादतः ।

श्रीगरुड ने कहा- हे देव! यह एक संदेह मेरे हृदय को बाधित कर रहा है कि श्रवण किसके पुत्र हैं, यमलोक में वे किस प्रकार से रहते हैं ? हे प्रभो! किस शक्ति के प्रभाव से वे मानव- कर्म को जान लेते हैं? वे कैसे किसी बात को सुन लेते हैं? उनको यह ज्ञान किससे प्राप्त हुआ है ? हे देवेश्वर ! उन्हें भोजन कहाँ से प्राप्त होता है ? आप प्रसन्न होकर मेरे इस समस्त संदेह को नष्ट करें ।

पक्षिराजवचः श्रुत्वा भगवान्वाक्यमब्रवीत् ॥ २,१७.३ ॥

पक्षिराज गरुड के इस कथन को सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण बोले-

श्रीकृष्ण उवाच ।

शृणुष्व वचनं सत्यं सर्वेषां सौख्यदायकम् ।

तदहं कथयिष्यामि श्रवणानां विचेष्टितम् ॥ २,१७.४ ॥

एकीभूतं यदा सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् ।

क्षीरोदसागरे पूर्वं मयि सुप्ते जगत्पतौ ॥ २,१७.५ ॥

नाभिस्थोजस्तपस्तेपे वर्षाणि सुबहून्यपि ।

एकीभूतं जगत्सृष्टं भूतग्रामचतुर्विधम् ॥ २,१७.६ ॥

ब्रह्मणा निर्मितं पूर्वं विष्णुना पालितं तदा ।

रुद्रः संहारमूर्तिश्च निर्मितो ब्रह्मणा ततः ॥ २,१७.७ ॥

वायुः सर्वगतः सृष्टः सूर्यस्तेजोभिवृद्धिमान् ।

धर्मराजस्ततः सृष्टश्चित्रगुप्तेन संयुत ॥ २,१७.८ ॥

श्रीकृष्ण ने कहा- हे तार्क्ष्य ! सभी प्राणियों को सुख देनेवाले मेरे इस वचन को तुम सुनो। श्रवण से सम्बन्धित उन समस्त बातों को तुम्हें मैं बताऊँगा । प्राचीनकाल में जब समस्त स्थावर-जंगमात्मक सृष्टि एकाकार हो गयी थी और मैं समस्त सृष्टि को आत्मलीन करके क्षीरसागर में सो रहा था। उस समय मेरे नाभिकमल पर स्थित ब्रह्मा ने बहुत वर्षों तक तपस्या की। उन्होंने एकाकार उस सृष्टि को चार प्रकार के प्राणियों में विभक्त किया । तदनन्तर ब्रह्मा से ही बनी सृष्टि के पालन का भार विष्णु ने स्वीकार किया। तत्पश्चात् ब्रह्मा के द्वारा संहारमूर्ति रुद्र का निर्माण हुआ । उसके बाद समस्त चराचर जगत्में प्रवाहित होनेवाले वायु, अत्यन्त तेजस्वी सूर्य तथा चित्रगुप्त के साथ धर्मराज की सृष्टि हुई।

सृष्ट्वैतदादिकं सर्वं तपस्तेपे तु पद्मजः ।

गतानि बहुवर्षाणि ब्रह्मणो नाभिपङ्कजे ॥ २,१७.९ ॥

योयो हि निर्मितः पूर्वं तत्तत्कर्म समाचरेत् ।

कस्मिंश्चित्समये तत्र ब्रह्मा लोकसमन्वितः ॥ २,१७.१० ॥

रुद्रो विष्णुस्तथा धर्मः शासयन्ति वसुन्धराम् ।

न जानीमो वयं किञ्चिल्लोककृत्यमिहोच्यताम् ॥ २,१७.११ ॥

इति चिन्तापराः सर्वे देवा विममृशुस्तदा ।

संचिन्त्य ब्रह्मणो मन्त्रं विबुधैः प्रेरितस्तदा ॥ २,१७.१२ ॥

गृहीत्वा पुष्पपत्राणि सोसृजद्द्वादशात्मजान् ।

तेजोराशीन्विशालाक्षान्ब्रह्मणो वचनात्तु ते ॥ २,१७.१३ ॥

योयं वदति लोकेस्मिञ्छुभं वा यदि वाशुभम् ।

प्रापयन्ति ततः शीघ्रं ब्रह्मणः कर्णगोचरम् ॥ २,१७.१४ ॥

दूराच्छ्रवणविज्ञानं दूराद्दर्शनगोचरम् ।

सर्वे शृण्वन्ति यत्पक्षिंस्तेनैव श्रवणा मताः ॥ २,१७.१५ ॥

स्थित्वा चैव तथाकाशे जन्तूनां चेष्टितं च यत् ।

तज्ज्ञात्वा धर्मराजाग्रे मृत्युकाले वदन्ति च ॥ २,१७.१६ ॥

धर्मं चार्थं च कामं च मोक्षं च कथयन्ति ते ।

एको हि धर्ममार्गश्च द्वितीयश्चार्थमार्गकः ॥ २,१७.१७ ॥

अपरः काममार्गश्च मोक्षमार्गश्चतुर्थकः ।

उत्तमा धममार्गेण वैनतेय प्रयान्ति हि ॥ २,१७.१८ ॥

अर्थदाता विमानैस्तु अश्वैः कामप्रदायकः ।

हंसयुक्तविमानैश्च मोक्षाकाङ्क्षी विसर्पति ॥ २,१७.१९ ॥

इतरः पादचारेण त्वसिपत्रवनानि च ।

पाषाणैः कण्टकैः क्लिष्टः पाशबद्धोऽथ याति वै ॥ २,१७.२० ॥

इन सभी की रचना करके ब्रह्मा पुनः तपस्या में निमग्न हो गये । विष्णु के नाभिपङ्कज में तपस्या करते हुए उनको बहुत वर्ष बीत गये। वहीं पर लोकसृष्टि में लगे हुए ब्रह्मा ने कहा कि जिन लोगों की उत्पत्ति पहले हुई है, उन सभी को अपनी योग्यता के अनुसार कर्म में लग जाना चाहिये। अतः रुद्र, विष्णु तथा धर्म पृथ्वी के शासन-कार्य में लग गये, किंतु उन लोगों ने कहा कि हम सभी लोगों को लोक-व्यवहार का कुछ भी ज्ञान नहीं है । इस सम्बन्ध में आप ही कुछ बतायें। इस विषय में चिन्तित होकर सभी देवताओं ने उस समय परस्पर विचार-विमर्श किया। तत्पश्चात् देवताओं ने हाथ में पत्र - पुष्प लेकर ब्रह्म- मन्त्र का ध्यान किया। उसके बाद देवताओं की प्रेरणा से ब्रह्मा ने अत्यन्त तेजस्वी एवं बड़े-बड़े नेत्रोंवाले बारह पुत्रों को जन्म दिया । इस संसार में जो कोई जैसा भी शुभ या अशुभ बोलता है, उसे वे अत्यन्त शीघ्र ब्रह्मा के कानों तक पहुँचाते हैं । हे पक्षिन् ! दूर से ही सुनने एवं दूर से ही देख लेने का विशेष ज्ञान उन्हें प्राप्त है। चूँकि वे सब कुछ सुन लेते हैं, उसी के कारण उन्हें ' श्रवण' कहा गया है। वे आकाश में रहकर प्राणियों की जो भी चेष्टा होती है, उसको जानकर धर्मराज के सामने मृत्युकाल के अवसर पर कहते हैं। उनके द्वारा प्राणियों के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - इन चारों की विवेचना उस समय धर्मराज से की जाती है । हे वैनतेय ! संसार में धर्म, अर्थ, काम और मोक्षये चार मार्ग हैं। जो उत्तम प्रकृतिवाले प्राणी हैं, वे धर्ममार्ग से चलते हैं । जो अर्थ अर्थात् धन- धान्य का दान करनेवाले प्राणी हैं, वे विमान से परलोक जाते हैं। जो प्राणी अभिलषित याचक की इच्छा को संतुष्ट करनेवाले हैं। वे अश्वों पर सवार होकर प्रस्थान करते हैं। जो प्राणी मोक्ष की आकाङ्क्षा रखते हैं, वे हंसयुक्त विमान से परलोक को जाते हैं। इनके अतिरिक्त प्राणी जो धर्मादि पुरुषार्थ चतुष्टय से 'हीन है, वह पैदल ही काँटों तथा पत्थरों के बीच से कष्ट झेलता हुआ 'असिपत्रवन' में जाता है।

यः कश्चिन्मानुषे लोके श्रवणान्पूजयेदिह ।

वर्धन्या जलपात्रेम पक्वान्नपरिपूर्णया ॥ २,१७.२१ ॥

श्रवणान्पूजयेत्तत्र मया सह खगेश्वर ।

तस्याहं तत्प्रदास्यामि यत्सुरैरपि दुर्लभम् ॥ २,१७.२२ ॥

संभोज्य ब्राह्मणान् भक्त्या त्वेकादश शुभाञ्छुचीन् ।

द्वादशं सकलत्रं च मम प्रीत्यै प्रपूजयेत् ॥ २,१७.२३ ॥

देवैः सर्वैश्च संपूज्य स्वर्गं यान्ति सुखेप्सया ।

तैः पूजितैरह तुष्टश्चित्रगुप्तेन धर्मराट् ॥ २,१७.२४ ॥

तैस्तुष्टैर्मत्पुरं यान्ति लोका धर्मपारायणाः ।

श्रवणानां च माहात्म्यमुत्पत्तिं चेष्टितं शुभम् ॥ २,१७.२५ ॥

शृणोति पक्षिशार्दूल स च पापैर्न लिप्यते ।

इह लोके सुखं भुक्त्वा स्वर्गलोके महीयते ॥ २,१७.२६ ॥

हे पक्षिराज ! इस मनुष्यलोक में जो कोई भी पक्वान्न, वर्धनी और जलपात्र के द्वारा मेरे सहित इन श्रवण देवों की पूजा करता है, उसको मैं वह प्रदान करता हूँ, जिसकी प्राप्ति देवताओं के लिये भी दुर्लभ है। भक्तिपूर्वक शुभ एवं पवित्र ग्यारह ब्राह्मण तथा बारहवें सपत्नीक ब्राह्मण को भोजन कराकर मेरी प्रसन्नता के लिये पूजा करनी चाहिये। ऐसा मनुष्य सभी देवताओं से पूजित होकर सुख प्राप्त करता है । उनकी पूजा से मैं और चित्रगुप्त के सहित धर्मराज प्रसन्न होते हैं। उन्हीं की संतुष्टि से धर्मपरायण लोग मेरे विष्णुलोक को प्राप्त करते हैं । हे खगेश्वर! जो प्राणी इन श्रवणदेवों के माहात्म्य, उत्पत्ति और शुभ चेष्टाओं को सुनता है, वह पाप से संलिप्त नहीं होता है। वह इस लोक में सुख भोगकर स्वर्ग में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करता है ।

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे श्रवणमहात्म्यनिरूपणं नाम सप्तदशोऽध्यायः॥

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 18

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