श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय १८

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १८             

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १८ विविध दानादि कर्मों का फल प्रेत को प्राप्त होना, पददान का माहात्म्य, जीव को अवान्तर – देह की प्राप्ति का क्रम का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय १८

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अष्टादशोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 18

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अट्ठारहवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १८             

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १८ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः १८        

श्रीकृष्ण उवाच ।

श्रवणानां वचः श्रुत्वा क्षणं ध्यात्वा पुनस्ततः ।

यत्कृतं तु मनुष्यैश्चपुण्यं पापमहर्निशम् ॥ २,१८.१ ॥

तत्सर्वं च परिज्ञाय चित्रगुप्तो निवेदयेत् ।

श्रीकृष्ण ने कहा- हे पक्षिन् ! इन श्रवणदेवों के वचनों को सुनकर चित्रगुप्त पुनः क्षणभर स्वयं ध्यान करके मनुष्य जो कुछ भी दिन-रात पाप-पुण्य करते हैं, उन्हें धर्मराज से निवेदन करते हैं।

चित्रगुप्तस्ततः सर्वं कर्म तस्मै वदत्यथ ॥ २,१८.२ ॥

वाचैव यत्कृतं कर्म कृतं चैव तु कायिकम् ।

मानसं च तथा कर्म कृतं भुङ्क्ते शुभाशुभम् ॥ २,१८.३ ॥

एवं ते कथितस्तार्क्ष्य प्रेतमार्गस्य निर्णयः ।

विश्रान्ति दानि सर्वाणि स्थानानि कथितानि ते ॥ २,१८.४ ॥

तमुद्दिश्य ददात्यन्नं सुखं याति महाध्वनि ।

हे तार्क्ष्य ! मनुष्य वाणी, शरीर और मन से जो भी शुभाशुभ कर्म करता है, उन सबका वह भोग करता है। इस प्रकार मैंने तुम्हें प्रेतमार्ग का निर्णय सुना दिया। मृत्यु पश्चात् प्रेत कहाँ रुकते हैं, उन सभी स्थानों का भी वर्णन तुमसे कर दिया। जो मनुष्य यह सब समझकर अन्नदान तथा दीपदान करता है, वह उस महामार्ग में सुखपूर्वक गमन करता है।

दिवा रात्रौ तमुद्दिश्य स्थाने दीपप्रदो भवेत् ॥ २,१८.५ ॥

अन्धकारे महाघोरे श्वपूर्णे लक्ष्यवर्जिते ।

दीप्तेऽध्वनि च ते यान्ति दीपो दत्तश्च यैर्नरैः ॥ २,१८.६ ॥

कार्तिके च चतुर्दश्यां दीपदानं सुखाय वै ।

जो दीपदान करते हैं, वे कुत्तों से परिव्याप्त लक्ष्यहीन मार्ग में पूर्ण प्रकाश के साथ गमन करते हैं। कार्तिकमास में कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को रात्रि में किया गया दीपदान प्राणियों के लिये सुखकारी होता है ।

अथ वक्ष्यामि संक्षेपाद्यममार्गस्य निष्कृतिम् ॥ २,१८.७ ॥

अब मैं संक्षेप में तुम्हें प्राणियों के यममार्ग के निस्तार का उपाय बताऊँगा ।

वृषोत्सर्गस्य पुण्येन पितृलोकं स गच्छति ।

एकादशाहपिण्डेन शुद्धदेहो भवेत्ततः ॥ २,१८.८ ॥

उदकुम्भप्रदानेन किङ्करास्तृप्तिमाप्नुयुः ॥ २,१८.९ ॥

शय्यादानाद्बिमानस्थो याति स्वर्गेषु मानवः ।

तदह्नि दीयते सर्वं द्वादशाहे विशेषतः ॥ २,१८.१० ॥

पदानि सर्ववस्तूनि वरिष्ठानि त्रयोदशे ।

यो ददाति मृतस्येह जीवन्नप्यात्महेतवे ॥ २,१८.११ ॥

हे गरुड! वृषोत्सर्ग के पुण्य से मनुष्य पितृलोक को जाता है, एकादशाह में पिण्डदान से देहशुद्धि होती है । जल से परिपूर्ण घड़े का दान करने से यमदूत संतुष्ट होते हैं । उस दिन शय्यादान करने से मनुष्य विमान पर चढ़कर स्वर्गलोक को जाता है। विशेषतः द्वादशाह दिन सभी प्रकार का दान देना चाहिये और तेरह पददान के लिये विहित श्रेष्ठ वस्तुओं को द्वादशाह के दिन अथवा जो जीवित रहते हुए अपने कल्याण के निमित्त दान देता है, वह उसी के सहारे महामार्ग में सुखपूर्वक गमन करता है ।

तदाश्रितो महामार्गे वैनतेय स गच्छति ।

एक एवास्ति सर्वत्रे व्यवहारः खगाधिप ॥ २,१८.१२ ॥

उत्तमाधममध्यानां तत्तदावर्जनं भवेत् ।

यावद्भाग्यं भवेद्यस्य तावन्मार्गेऽतिरिच्यते ॥ २,१८.१३ ॥

स्वयं स्वस्येन यद्दत्तं तत्तत्राधिकरोति तम् ।

मृते यद्बान्धवैर्दत्तं तदाश्रित्य सुखी भवेत् ॥ २,१८.१४ ॥

हे खगराज! उस यममार्ग में सर्वत्र एक जैसा ही व्यवहार होता है । उत्तम, मध्यम और अधमरूप में किसी भी प्रकार का वर्गीकरण वहाँ वर्जित है । जिसका भाग्य जैसा होता है, उसको उस मार्ग में वैसा ही भोग प्राप्त होता है। प्राणी स्वयं अपने लिये स्वस्थचित्त से श्रद्धापूर्वक जो कुछ दान देता है, उसको वहाँ पर प्राप्त करता है। मरने पर जो बन्धु- बान्धवों के द्वारा उसके लिये दिया जाता है, उसका आश्रय ले करके वह सुखी होता है।

गरुड उवाच ।

कस्मात्पदानि देयानि किंविधानि त्रयोदश ।

दीयते कस्य देवेश तद्वदस्व यथातथम् ॥ २,१८.१५ ॥

गरुड ने कहा- हे देवेश ! तेरह पददान किसलिये करना चाहिये ? यह दान किसे देना चाहिये ? यह सब यथोचित रूप से मुझे बतायें।

श्रीभगवानुवाच ।

छत्त्रोपानहवस्त्राणि मुद्रिका च कमण्डलुः ।

आसनं भाजनं चैव पदं सप्तविधं स्मृतम् ॥ २,१८.१६ ॥

आतपस्तत्र यो रौद्रो दह्यते येन मानवः ।

छत्रदानेन सुच्छाया जायते प्रेततुष्टिदा ॥ २,१८.१७ ॥

असिपत्रवनं घोरं सोऽतिक्रामति वै ध्रुवम् ।

अश्वारूढाश्च गच्छन्ति ददते य उपानहौ ॥ २,१८.१८ ॥

आसने स्वागते (भोजने) चैव दत्तं तस्मै द्विजायते ।

सुखेन भुङ्क्ते स प्रेतः पथि गच्छञ्छनैः शनैः ॥ २,१८.१९ ॥

बहुधर्मसमाकीर्णे निर्वाते तोयवर्जिते ।

कमण्डलुप्रदानेन सुखी भवति निश्चितम् ॥ २,१८.२० ॥

मृतोद्देशेन यो दद्यादुदपात्रं तु ताम्रजम् ।

प्रपादानसहस्रस्य तत्फलं सोऽश्नुते ध्रुवम् ॥ २,१८.२१ ॥

श्रीभगवान्ने कहा- हे पक्षिराज ! छत्र, पादुका, वस्त्र, मुद्रिका, कमण्डलु, आसन और भोजनपात्र- ये सात प्रकार के पद माने गये हैं । पूर्ववर्णित महापथ में जो महाभयंकर 'रौद्र' नामक आतप (धूप) है, उसके द्वारा मनुष्य जलता है। छत्र का दान देने से प्रेत को तुष्टि देनेवाली शीतल छाया प्राप्त होती है । पादुका दान देने से मृतप्राणी अश्वारूढ़ होकर घोर असिपत्रवन को निश्चित ही पार कर जाते हैं। मृतप्राणी के उद्देश्य से ब्राह्मण को आसन और भोजन देकर स्वागत करने पर प्रेत महापथ में धीरे-धीरे चलता हुआ उस दान दिये गये अन्न को सुखपूर्वक ग्रहण करता है । कमण्डलु का दान देने से प्राणी उस यमलोक के महापथ में फैले हुए बहुत धूपवाले, वायुरहित और जलहीन मार्ग में निश्चित ही यथेच्छ जल एवं वायु प्राप्तकर सुखपूर्वक गमन करता है । मृतक के उद्देश्य से जो व्यक्ति जलपूर्ण कमण्डलु का दान करता है, उसको निश्चित ही हजार पौसलों के दान का फल प्राप्त होता है।

यमदूता महारौद्राः करालाः कृष्णपिङ्गलाः ।

न पीडयन्ति दाक्षिण्याद्वस्त्राभरणदानतः ॥ २,१८.२२ ॥

सायुधा धावमानाश्च न मार्गे दृष्टिगोचराः ।

प्रयान्ति यमदूतास्ते मुद्रिकायाः प्रदानतः ॥ २,१८.२३ ॥

भाजनासनदानेन आमान्नभोजनेन च ।

आज्ययज्ञोपवीताभ्यां पदं सम्पूर्णतां व्रजेत् ॥ २,१८.२४ ॥

एवं मार्गे गच्छमानस्तृषार्तः श्रमपीडितः ।

महिषीरथ (दुग्ध) दानाच्च सुखी भवति निश्चितम् ॥ २,१८.२५ ॥

उदारतापूर्वक वस्त्र का दान देने से प्रेतात्मा को महाक्रोधी काले और पीले वर्णवाले अत्यन्त भयंकर यमदूत कष्ट नहीं देते हैं। मुद्रिका दान देने से उस महापथ में अस्त्र-शस्त्र से युक्त दौड़ते हुए यमदूत दिखायी नहीं देते हैं । पात्र, आसन, कच्चा अन्न, भोजन, घृत तथा यज्ञोपवीत के दान से पददान की पूर्णता होती है। यममार्ग में जाता हुआ भूख-प्यास से व्याकुल एवं थका हुआ प्रेत भैंस के दूध का दान करने से निश्चित ही सुख का अनुभव करता है।

गरुड उवाच ।

मृतोद्देशेन यत्किञ्चिद्दीयते स्वगृहे विभो ।

स गच्छति महामार्गे तद्दत्तं केन गृह्यते ॥ २,१८.२६ ॥

गरुड ने कहा- हे विभो ! मृत व्यक्ति के उद्देश्य से जो कुछ भी दान अपने घर में किया जाता है, वह प्रेत तक किसके द्वारा पहुँचाया जाता है ?

श्रीभगवानुवाच ।

गृह्णाति वरुणो दानं मम हस्ते प्रयच्छति ।

अहं च भास्करे देवे भास्करात्सोऽश्नुते सुखम् ॥ २,१८.२७ ॥

श्रीभगवान्ने कहा- हे पक्षिन् ! सर्वप्रथम वरुण दान को ग्रहण करते हैं, उसके बाद वे उस दान को मेरे हाथ में दे देते हैं। मैं सूर्यदेव के हाथों में सौंप देता हूँ और सूर्यदेव से वह प्रेत उस दान को लेकर सुख का अनुभव करता है।

विकर्मणः प्रभावेण वंशच्छेदे क्षिताविह ।

सर्वे ते नरकं यान्ति यावत्पापस्य संक्षयः ॥ २,१८.२८ ॥

बुरे कर्म के प्रभाव से वंश का विनाश हो जाता है और उस कुल के सभी प्राणियों को नरक में तबतक रहना पड़ता है, जबतक पाप का क्षय नहीं हो जाता है।

कस्मिंश्चित्समये पूर्णे महिषासनसंस्थितः ।

नरकान्वीक्ष्य धर्मात्मा नानाक्रन्दसमाकुलान् ॥ २,१८.२९ ॥

चतुरशीतिलक्षाणां नरकाणां स ईश्वरः ।

तेषां मध्ये श्रेष्ठतमा घोरा या एकविंशतिः ॥ २,१८.३० ॥

तामिस्त्रं लोहशङ्कुश्च महारौरवशाल्मली ।

रौरवं कुड्वलं कालसूत्रकं पूतिमृतिका ॥ २,१८.३१ ॥

सङ्घातं लोहतोदं च सविषं सम्प्रतापनम् ।

महानरककालोलः सजीवनमहापथः ॥ २,१८.३२ ॥

अवीचिरन्धता मिस्त्रः कुम्भोपाकस्तथैव च ।

असिपत्रवनं चैव पतनश्चैकविंशतिः ॥ २,१८.३३ ॥

येषां तु नरके घोरे बह्वब्दानि गतानि वै ।

सन्तातर्नैव विद्यते दूतत्वं ते तु (प्रेत्य) यान्ति हि ॥ २,१८.३४ ॥

यमेन प्रेषितास्ते वै मानुषस्य मृतस्य तु ।

दिनेदिने प्रगृह्णन्ति दत्तमन्नाद्यपानकम् ॥ २,१८.३५ ॥

प्रेतस्यैव विलुण्ठन्ति मध्ये मार्गे बुभुक्षिताः ।

मासान्ते भोजनं पिण्डमेके यच्छन्ति तत्र वै ॥ २,१८.३६ ॥

तृप्तिं प्रयान्ति ते सर्वे प्रत्यहं चैव वत्सरम् ।

एवमादिकृतैः पुण्यैः क्रमात्सौरिपुरं व्रजेत् ॥ २,१८.३७ ॥

ततः संवत्सरस्यान्ते प्रत्यासन्ने यमालये ।

बहुभीतकरे प्रेतो हस्तमात्रं समुत्सृजेत् ॥ २,१८.३८ ॥

दिवसैर्दशभिर्जातं तं देहं दशपिण्डजम् ।

जामदग्न्यस्येव रामं दृष्ट्वा तेजः प्रसर्पति ॥ २,१८.३९ ॥

कर्मजं देहमाश्रित्य पूर्वदेहं समुत्सजेत् ।

अङ्गुष्ठमात्रो वायुश्च शमीपत्रंसमारुहेत् ॥ २,१८.४० ॥

इन नरकों की संख्या बहुत है। पर इनमें से इक्कीस नरक मुख्यरूप से उल्लेख्य हैं - तामिस्र, लौहशंकु, महारौरव, शाल्मली, रौरव, कुड्वल, कालसूत्र, पूतिमृत्तिका, संघात, लोहतोद, सविष, सम्प्रतापन, महानरक, कालोल, सजीवन, महापथ, अवीचि, अन्धतामिस्र, कुम्भीपाक, असिपत्रवन और पतन नामवाले हैं। घोर यातना भोगते हुए जिनके बहुत-से वर्ष बीत जाते हैं और यदि संतति नहीं है तो वे यम के दूत बन जाते हैं। यम के द्वारा भेजे गये वे दूत मरे हुए मनुष्य के लिये प्रतिदिन बन्धु-बान्धवों से दानस्वरूप प्राप्त अन्न और जल का सेवन करते हैं । मार्ग के मध्य में जब वे भूख-प्यास से व्याकुल हो जाते हैं तो मरे हुए प्राणी का हिस्सा ही लूटकर खा-पी जाते हैं । मास के अन्त में जो भोजन और पिण्डदान देते हैं, जब उसकी प्राप्ति उन्हें हो जाती है तो वे सभी उसको खाकर संतुष्ट हो जाते हैं। इसी से उन्हें प्रतिदिन वर्षभर तृप्ति मिलती है। इस प्रकार किये गये पुण्य के प्रभाव से प्रेत 'सौरिपुर' की यात्रा करता है । तदनन्तर एक वर्ष बीतने पर वह प्रेत, यमराज के भवन के संनिकट स्थित 'बहुभीतिकर' नामक नगर में पहुँचकर दशगात्र पिण्ड से निर्मित हस्तमात्र परिमाण के शरीर को छोड़ देता है। जिस प्रकार राम को देखकर परशुराम का तेज उनके शरीर से निकलकर राम में प्रविष्ट हो गया था, उसी प्रकार कर्मज शरीर का आश्रय लेकर वह पूर्व शरीर का परित्याग कर देता है, अङ्गुष्ठमात्र परिमाणवाला वायुरूप वह शरीर शमीपत्र पर चढ़कर आश्रय लेता है ।

व्रजंस्तिष्ठन्पदैकेन यथैवैकेन गच्छति ।

यथा तृणजलौकेव देही कर्मानुगोऽवशः ॥ २,१८.४१ ॥

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ २,१८.४२ ॥

'जिस प्रकार मनुष्य चलते हुए एक पैर भूमि पर रखकर दूसरे पैर को आगे बढ़ाने के लिये उठाता है, जैसे तृणजलौका (तृण जोंक) एक पाँवपर स्थिर होकर दूसरे पाँव को आगे बढ़ाती है, वैसे ही जीव भी कर्मानुसार एक देह से दूसरे देह को धारण करता है। जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्र का परित्याग कर नवीन वस्त्र धारण कर लेता है, उसी प्रकार जीव अपने पुराने शरीर का त्याग करके नये शरीर को धारण करता है'

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मदृप्रेतदृश्रीकृष्णगरुड संवादे वृषोत्सर्गनानादानफल यमलोकगमन कर्मजदेहप्राप्तिनिरूपणं नामाष्टादशोऽध्यायः॥

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 19

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