श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय १९

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १९             

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १९ जीव का यमपुरी में प्रवेश, वहाँ शुभाशुभ कर्मों का फलभोग, कर्मानुसार अन्य देह की प्राप्ति, मनुष्य जन्म पाकर धर्माचरण ही मुख्य कर्तव्य का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय १९

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) एकोनविंशतितमोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 19

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प उन्नीसवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १९             

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १९ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः १९        

श्रीभगवानुवाच ।

वायुभूतः क्षधाविष्टः कर्मजं देहमाश्रितः ।

ते देहं स समासाद्य यमेन सह गच्छति ॥ २,१९.१ ॥

चित्रगुप्तपुरं तत्र योजनानां तु विंशतिः ।

कायस्थास्तत्र पश्यन्ति पापपुण्यानि सर्वशः ॥ २,१९.२ ॥

महादानेषुदत्तेषु गतस्तत्र सुखी भवेत् ।

योजनानां चतुर्विंशत्पुरं वैवस्वतं शुभम् ॥ २,१९.३ ॥

लोहं लवणकार्पासं तिलपात्रं च यैर्नरैः ।

दत्तं तेनैव तृप्यन्ति यमस्य पुरचारिणः ॥ २,१९.४ ॥

गत्वा च तत्र ते सर्वे प्रतीहारं वदन्ति हि ।

धर्मध्वजप्रतीहारस्तत्र तिष्ठति सर्वदा ॥ २,१९.५ ॥

सप्तधान्यस्य दानेन प्रीतो धर्मध्वजो भवेत् ।

तत्र गत्वा प्रतीहारो ब्रूते तस्य शुभाशुभम् ॥ २,१९.६ ॥

धर्मराजस्य यद्रूपं सन्तः सुकृतिनो जनाः ।

पश्यन्ति च दुरात्मानो यमरूपं सुभीषणम् ॥ २,१९.७ ॥

तं दृष्ट्वा भयभीतस्तु हाहेति वदते जनः ।

कृतं दानं च यैर्मर्त्यैस्तेषां नास्ति भयं क्वचित् ॥ २,१९.८ ॥

श्रीभगवान्ने कहावायुरूप होकर भूख से पीड़ित, कर्मजन्य शरीर का आश्रय लेकर जीव यम के साथ चित्रगुप्तपुर की ओर जाता है। चित्रगुप्तपुर बीस योजन विस्तृत है । वहाँ रहनेवाले कायस्थ* सभी प्राणियों के पाप-पुण्य का भली प्रकार से सर्वेक्षण करते हैं। महादान करने पर वहाँ गया हुआ व्यक्ति सुख का भोग करता है। चौबीस योजन विस्तृत वैवस्वतपुर है। लौह, लवण, कपास और तिल से पूर्ण पात्र का दान करने पर इस दान के फलस्वरूप यमपुर में निवास करनेवाले दाता के पितर लोग संतृप्त होते हैं । वहाँ पर धर्मध्वज नाम का प्रतीहार सदैव द्वार पर अवस्थित रहता है। सप्तधान्य का दान देने से धर्मध्वज प्रसन्न हो जाता है। वहाँ जाकर प्रतीहार प्रेत के शुभाशुभ का वर्णन करता है। धर्मराज का जो प्रशस्त एवं सुन्दर स्वरूप है, उस स्वरूप का दर्शन सज्जन और सुकृतियों को प्राप्त होता है । जो दुराचारी जन हैं, वे अत्यन्त भयंकर यम के स्वरूप को देखकर भयभीत होकर हाहाकार करते हैं। जिन मनुष्यों ने दान किया है, उनके लिये वहाँ पर कहीं भी भय नहीं है।

* कायस्थ नामकी एक देवयोनि विशेष है।

प्राप्तं सुकृतिनं दृष्ट्वा स्थानाच्च लति सूर्यजः ।

एष मे मण्डलं भित्त्वा ब्रह्मलोकं प्रयास्यति ॥ २,१९.९ ॥

दानेन सुलभो धर्मो यममार्गः सुखावहः ।

एष मार्गो विशालोऽत्र न केनाप्य नुगम्यते ।

दानपुण्यं विना वत्स न गच्छेद्धर्ममन्दिरम् ॥ २,१९.१० ॥

तस्मिन्मार्गे तु रौद्रे वै भीषणा यमकिङ्कराः ।

एकैकस्य पुरस्याग्रे तिष्ठत्येकसहस्रकम् ॥ २,१९.११ ॥

पचन्ति पापिनं प्राप्य उदके यातनाकराः ।

गृह्णन्ति मासमासान्ते पादशेषं तु तद्भवेत् ॥ २,१९.१२ ॥

आये हुए सुकृती जन को देखकर यमराज अपने आसन का इसलिये परित्याग कर देते हैं कि यह सुकृती मेरे इस मण्डल का भेदन करके ब्रह्मलोक को जायगा । दान से धर्म सुलभ हो जाता है और यममार्ग सुखावह हो जाता है। इस यमलोक का मार्ग अत्यन्त विशाल है, इसकी दुर्गमता के कारण इसका अनुगमन कोई नहीं करना चाहता । हे वत्स ! बिना दान-पुण्य किये प्राणी का धर्मराज के भवन में पहुँचना सम्भव नहीं है। उस रौद्र मार्ग में महाभयंकर यम के सेवक रहते हैं। एक-एक पुर के आगे एक-एक हजार सेवकों की उपस्थिति रहती है। यातना देनेवाले यमदूत पापी को प्राप्त करके पकाते हैं । वहाँ पर यमदूत उसको एक मास तक रखते हैं। उस मास के बीतते ही वह एक चौथाई शेष रह जाता है।

और्ध्वदैहिकदानानि यैर्न दत्तानि काश्यप ।

महाकष्टेन ते यान्ति तस्माद्देयानि शक्तितः ।

अदत्त्वा पशुवद्यान्ति गृहीतो वन्धबन्धनैः ॥ २,१९.१३ ॥

एवं कृतेन सम्पश्येत्स नरः भूतकर्मणा ।

दैविकीं पैतृकीं योनिं मानुषीं वाथ नारकीम् ॥ २,१९.१४ ॥

धर्मराजस्य वचनान्मुक्तिर्भवति वा ततः ।

मानुष्यं तत्त्वतः प्राप्य स पुत्त्रः पुत्त्रतां व्रजेत् ॥ २,१९.१५ ॥

यथायथा कृतं कर्म तान्तां योनिं व्रजेन्नरः ।

तत्तथैव च भुञ्जानो विचरेत्सर्वलोकगः ॥ २,१९.१६ ॥

अशाश्वतं परिज्ञाय सर्वलोकोत्तरं सुखम् ।

यदा भवति मानुष्यं तदा धर्मं समाचरेत् ॥ २,१९.१७ ॥

कृमयो भस्म विष्ठा वा देहानां प्रकृतिः सदा ।

अन्धकूपे महारौद्रे दीपहस्तः पातेत्तु वै ॥ २,१९.१८ ॥

महापुण्यप्रभावेण मानुष्यं जन्म लभ्यते ।

यस्तत्प्राप्य चरेद्धर्मं स गच्छेत्परमां गतिम् ॥ २,१९.१९ ॥

अपि जानन्वृथा धर्मं दुः खमायाति याति च ॥ २,१९.२० ॥

जातीशतेन लभते किल मानुषत्वं तत्रापि दुर्लभतरं खग भो द्विजत्वम् ।

यस्तत्र पालयति लालयति व्रतानि तस्यामृतं भवति हस्तगतं प्रसादात् ॥ २,१९.२१ ॥

हे कश्यपपुत्र ! जिन लोगों ने और्ध्वदैहिक क्रिया में विहित दानों को नहीं किया है, वे लोग बहुत कष्ट झेलते हुए उस मार्ग में चलते हैं । अतः प्राणी को यथाशक्ति दान देना चाहिये। दान न देने पर प्राणी पशु के समान यमदूतों के द्वारा पाश में बाँधकर ले जाया जाता है। मनुष्य जैसा जैसा कर्म करता है, उसी प्रकार की योनि में उसको जाना पड़ता है। वैसा ही उन योनियों में भोग भोगता हुआ वह सभी प्रकार के लोकों में विचरण करता है। जब मनुष्य- योनि प्राप्त होती है, तब भी लौकिक सुखों को अनित्य जानकर प्राणी को धर्माचरण करना चाहिये । कृमि, भस्म अथवा विष्ठा ही शरीर की परिणति है। जो मनुष्य शरीर प्राप्त करके भी धर्माचरण नहीं करता, वह हाथ में दीपक रखता हुआ भी महाभयंकर अन्धकूप में गिरता है। मनुष्य - जन्म प्राणी को बहुत बड़े पुण्य से प्राप्त होता है। जो जीव इस योनि को पाकर धर्म का आचरण करता है, उसे परम गति की प्राप्ति होती है। धर्म को व्यर्थ माननेवाला प्राणी दु:खपूर्वक जन्म-मरण प्राप्त करता है। हे पक्षिन् ! सैकड़ों बार विभिन्न योनियों में जन्म लेने के बाद प्राणी को मनुष्य- योनि प्राप्त होती है, उसमें भी द्विज होना अत्यन्त दुर्लभ है । जो व्यक्ति द्विज होकर धर्म का पालन करता है और विभिन्न व्रतों का आदर एवं श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान करता है, वह उस धर्म की ही कृपा से अमरत्व हस्तगत कर लेता है।

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे यममन्दिरप्रवेश तदाज्ञालब्धमनुष्यादि देहांन्तरप्राप्तिनिरूपणं नामैकोनविंशोऽध्यायः॥

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 20

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