श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय २०

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय २०             

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय २० प्रेतबाधा का स्वरूप तथा मुक्ति के उपाय का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय २०

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) विंशतितमोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 20

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प बीसवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय २०             

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय २० का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः २०        

गरुड उवाच ।

ये केचित्प्रेतरूपेण कुत्र वासं लभन्ति ते ।

प्रेतलोकाद्विनिर्मुक्ताः कथं कुत्र व्रजन्ति ते ॥ २,२०.१ ॥

चतुर्युक्ताशीति लक्षैर्नरकैः पर्युपासिताः ।

यमेन रक्षितास्तत्र भूतैश्चैव सहस्रशः ॥ २,२०.२ ॥

विचरन्ति कथं लोके नरकाच्च विनिर्गताः ।

गरुडोदीरितं श्रुत्वा लक्ष्मीनाथोऽब्रवीदिदम् ॥ २,२०.३ ॥

श्रीगरुड ने कहा- हे प्रभो ! प्रेतयोनि में जो कोई भी प्राणी जाते हैं, वे कहाँ वास करते हैं ? प्रेतलोक से निकलकर वे कैसे और किस स्थान में चले जाते हैं ? चौरासी लाख योनियों से परिव्याप्त, यम तथा हजारों भूतों से रक्षित होने पर भी प्राणी नरक से निकलकर कैसे इस संसार में विचरण करते हैं? इसे आप बताने की कृपा करें।

श्रीकृष्ण उवाच ।

पक्षिराज शृणुष्व त्वं यत्र प्रेताश्चरन्ति वै ।

परार्थदारग्रहणाच्छ (ब) लाद्द्रोहान्निशाचराः ॥ २,२०.४ ॥

तथैव सर्वपापिष्ठः स्वात्मजान्वेषणे रताः ।

विचरन्त्यशरीरास्ते क्षुप्तिपासार्दिता भृशम् ॥ २,२०.५ ॥

बन्दीगृहवि निर्मुक्ता येभ्यो नश्यन्ति जन्तवः ।

ते व्यवस्यन्ति च प्रेता वधोपायं च बन्धुषु ॥ २,२०.६ ॥

पितृद्वदाराणि रुन्धन्ति तन्मार्गोच्छेदकास्तथा ।

पितृभा गान्विगृह्णन्ति पान्थेभ्यस्तस्करा इव ॥ २,२०.७ ॥

स्वं वेश्म पुनरागत्य मित्रस्थाने विशन्ति ते ।

तत्र स्थिता निरीक्षन्ते रोगशोकादिबन्धनाः ॥ २,२०.८ ॥

पीडयन्ति ज्वरीभूय एकान्तरमिषेण तु ।

तृतीयकज्वरा भूत्वा शीतवातादिपीडया ॥ २,२०.९ ॥

अन्यांश्च विविधान्रोगाञ्छिरोऽर्तिं च विषूचिकाम् ।

चिन्त यन्ति सदा तेषामुच्छिष्टादिस्थलस्थिताः ॥ २,२०.१० ॥

आत्मजानां छलाल्लोका भूतसङ्घैश्च रक्षिताः ।

पिबन्ति ते च पानीयं भोजनोच्छिष्टयोजितम् ॥ २,२०.११ ॥

एवं प्रेताः प्रवर्तन्ते नानादोषैर्विकर्मिणः ॥ २,२०.१२ ॥

श्रीकृष्ण ने कहा- हे पक्षिराज ! जहाँ प्रेतगण निवास करते हैं, उसको तुम सुनो। छल से पराये धन और परायी स्त्री का अपहरण तथा द्रोह से मनुष्य निशाचर – योनि को प्राप्त होते हैं। जो लोग अपने पुत्र के हितचिन्तन में ही अनुरक्त रहते हैं तथा सभी प्रकार का पाप करते हैं, वे शरीररहित होकर भूख-प्यास की अथाह पीड़ा को सहन करते हुए यत्र-तत्र भटकते रहते हैं । वे प्रेत चोर के समान उस महापथ के लिये पितृभाग में दिये गये जल का अपहरण करते हैं । तदनन्तर पुनः अपने घर में आकर वे मित्र के रूप में प्रविष्ट हो जाते हैं और वहीं पर रहते हुए स्वयं रोग-शोक आदि की पीड़ा से ग्रसित होकर सब कुछ देखते रहते हैं। वे एक दिन का अन्तराल देकर आनेवाले ज्वर का रूप धारण करके अपने सम्बन्धियों को पीड़ा पहुँचाते हैं अथवा तिजरिया ज्वर बनकर और शीत वातादि से उन्हें कष्ट देते हैं। उच्छिष्ट अर्थात् जूठे अपवित्र स्थानों में निवास करते हुए उन प्रेतों के द्वारा सदैव अभिलक्षित प्राणियों को कष्ट देने के लिये शिरोवेदना, विषूचिका तथा नाना प्रकार के अन्य बहुत-से रोगों का रूप धारण कर लिया जाता है। इस प्रकार वे दुष्कर्मी प्रेत नाना दोषों में प्रवृत्त होते हैं ।

गरुड उवाच ।

कथं कुर्वन्ति ते प्रेताः केन रूपेण कस्य किम् ।

ज्ञायते केन विधिना जल्पन्ति न वदन्ति वा ॥ २,२०.१३ ॥

एनं छिन्धि मनोमोहं मम चेदिच्छसि प्रियम् ।

कलिकाले हृषीकेश प्रेतत्वं जायते बहु ॥ २,२०.१४ ॥

गरुड ने कहा- हे प्रभो ! वे प्रेत किस रूप से किसका क्या करते हैं? किस विधि से उनकी जानकारी प्राप्त की जा सकती है ? क्योंकि वे न कुछ कहते हैं, न बोलते हैं ? हे हृषीकेश ! यदि आप मेरा कल्याण चाहते हों तो मेरे मन के इस व्यामोह को दूर कर दें। इस कलिकाल में प्रायः बहुत से लोग प्रेतयोनि को ही प्राप्त होते हैं।

श्रीविष्णुरुवाच ।

स्वकुलं पीडयेत्पेतः परच्छिद्रेण पीडयेत् ।

जीवन्स दृश्यते स्नेही मृतो दुष्टत्वमाप्नुयात् ॥ २,२०.१५ ॥

रुद्रजापी धर्मरतो देवतातिथिपूजकः ।

सत्यवाक्प्रियवादी च न प्रेतैः स हि पीड्यते ॥ २,२०.१६ ॥

सर्वक्रियापरिभ्रष्टो नास्तिको धर्मनिन्दकः ।

असत्यवादनिरतो नरः प्रेतैः स पीड्यते ।

कलौ प्रेतत्वमाप्नोति तार्क्ष्याशुद्धक्रियापरः ॥ २,२०.१७ ॥

कृतादौ द्वापरान्ते च न प्रेतो नैव पीडनम् ।

बहूनामेकजातानामेकः सौख्यं समश्नुते ॥ २,२०.१८ ॥

एको दुष्कृतकर्मा च एकः सन्ततिमाञ्जनः ।

एकः सम्पीड्यते प्रेतैरेकः सुतधनान्वितः ॥ २,२०.१९ ॥

एकस्य पुत्रनाशः स्यादेको दुहितृमान् भवेत् ।

विरोधो बन्धुभिः सार्धं प्रेतदोषेण काश्यप ॥ २,२०.२० ॥

सन्ततिर्दृश्यते नैव समुत्पन्ना विनश्यति ।

पशुद्रव्यविनाशश्च सा पीडा प्रेतसम्भवा ॥ २,२०.२१ ॥

प्रकृतेः परिवर्तः स्याद्विद्वेषः सह बन्धुभिः ।

अकस्माद्व्यसनप्राप्तिः सा पीडा प्रेतसम्भवा ॥ २,२०.२२ ॥

नास्तिक्यं वृत्तिलोपश्च महालोभस्तथैव च ।

स्याद्धन्तकलहो नित्यं सा पीडा प्रेतसम्भवा ॥ २,२०.२३ ॥

पितृमातृनिहन्ता च देवब्राह्मणनिन्दकः ।

इत्यादोषमवाप्नोति सा पीडा प्रेतसम्भवा ॥ २,२०.२४ ॥

नित्यकर्मविनिंमुक्तो जपहोमविवर्जितः ।

परद्रव्याणां च हर्ता सा पीडा प्रेतसम्भवा ॥ २,२०.२५ ॥

सुवृष्टौ कृषिनाशश्च व्यवहारो विनश्यति ।

लोके कलहकारी च सा पीडा प्रेतसम्भवा ॥ २,२०.२६ ॥

मार्गे जङ्गम्यमानं तं पीडयेद्वातमण्डली ।

प्रेतपीडा तु सा ज्ञेया सत्यंसत्यं खगेश्वर ॥ २,२०.२७ ॥

श्रीविष्णु ने कहा- हे गरुड ! प्रेत होकर प्राणी अपने ही कुल को पीड़ित करता है, वह दूसरे कुल के व्यक्ति को तो कोई आपराधिक छिद्र प्राप्त होने पर ही पीड़ा देता है। जीते हुए तो वह प्रेमी की तरह दिखायी देता है, किंतु मृत्यु होने पर वही दुष्ट बन जाता है। जो भगवान् श्रीरुद्र के मन्त्र का जप करता है, धर्म में अनुरक्त रहता है, देवता और अतिथि की पूजा करता है, सत्य तथा प्रिय बोलनेवाला है, उसको प्रेत पीड़ा नहीं दे पाते हैं । जो व्यक्ति सभी प्रकार की धार्मिक क्रियाओं से परिभ्रष्ट हो गया है, नास्तिक है, धर्म की निन्दा करनेवाला है और सदैव असत्य बोलता है, उसी को प्रेत कष्ट पहुँचाते हैं। हे तार्क्ष्य ! कलिकाल में अपवित्र क्रियाओं को करनेवाला प्राणी प्रेतयोनि को प्राप्त होता है। हे काश्यप ! इस संसार में उत्पन्न एक ही माता – पिता से पैदा हुए बहुत-से संतानों में एक सुख का उपभोग करता है, एक पाप कर्म में अनुरक्त रहता है, एक संतानवान् होता है, एक प्रेत से पीड़ित रहता है और एक पुत्र धनधान्य से सम्पन्न रहता है, एक का पुत्र मर जाता है, एक के मात्र पुत्रियाँ ही होती हैं । प्रेतदोष के कारण बन्धु- बान्धवों के साथ विरोध होता है। प्रेतयोनि के प्रभाव से मनुष्य को संतान नहीं होती है। यदि संतान उत्पन्न भी होती है तो वह मर जाती है। प्रेतबाधा के कारण तो व्यक्ति पशुहीन और धनहीन हो जाता है। उसके कुप्रभाव से उसकी प्रकृति में परिवर्तन आ जाता है, वह अपने बन्धु बान्धवों से शत्रुता रखने लगता है। अचानक प्राणी को जो दुःख प्राप्त होता है, वह प्रेतबाधा के कारण होता है। नास्तिकता, जीवन-वृत्ति की समाप्ति, अत्यन्त लोभ तथा प्रतिदिन होनेवाले कलहयह प्रेत से पैदा होनेवाली पीड़ा है । जो पुरुष माता – पिता की हत्या करता है, जो देवता और ब्राह्मणों की निन्दा करता है, उसे हत्या का दोष लगता है। यह पीड़ा प्रेत से पैदा होती है। नित्य- कर्म से दूर, जप-होम से रहित और पराये धन का अपहरण करनेवाला मनुष्य दुःखी रहता है, इन दुःखों का कारण भी प्रेतबाधा ही है। अच्छी वर्षा होने पर भी कृषि का नाश होता है, व्यवहार नष्ट हो जाता है, समाज में कलह उत्पन्न होता है, ये सभी कष्ट प्रेतबाधा से ही होते हैं। हे पक्षिराज ! मार्ग में चलते हुए पथिक को जो बवंडर से पीड़ा होती है, उसको भी तुम्हें प्रेतबाधा समझना चाहिये। यह बात मैं सत्य ही कह रहा हूँ।

हीनजात्या च सम्बन्धो हीनकर्म करोति यः ।

अधर्मे रमते नित्यं सा पीडा प्रेतसम्भवा ॥ २,२०.२८ ॥

व्यसनैर्द्रव्यनाशः स्यादुपक्रान्तं विनश्यति ।

चौराग्निराजभिर्हानिः सा पीडा प्रेतसम्भवा ॥ २,२०.२९ ॥

महारोगोपलब्धिश्च बालकानां च पीडनम् ।

जाया संपीढ्यते यच्च सा पीडा प्रेतसम्भवा ॥ २,२०.३० ॥

श्रुतिस्मृतिपुराणेषु धर्मशास्त्रसमुद्भवे ।

अभावो जायते धर्मे सा पीडा प्रेतसम्भवा ॥ २,२०.३१ ॥

देवतीर्थद्विजानां तु निन्दांयः कुरुते नरः ।

प्रत्यक्षं वा परोक्षं वा सा पीडा प्रेतसम्भवा ॥ २,२०.३२ ॥

स्ववृत्तिहरणं यच्च स्वप्रतिष्ठाहतिस्तथा ।

वंशच्छेदः नदृश्येत प्रेतदोषाद्विनान्यथा ॥ २,२०.३३ ॥

स्त्रीणां गर्भविनाशः स्यान्न पुष्पं दृश्यते तथा ।

बालानां मरणं यत्र सा पीडा प्रेतसम्भवा ॥ २,२०.३४ ॥

भावशुद्ध्या न कुरुते श्राद्धं सांवत्सरादिकम् ।

स्वयमेव न कुर्वीत सा पीडा प्रेतसम्भवा ॥ २,२०.३५ ॥

तीर्थे गत्त्वा परासक्तः स्वकृत्यं च परित्यजेत् ।

धर्मकार्ये न सम्पत्तिः सा पीडा प्रेतसम्भवा ॥ २,२०.३६ ॥

दम्पत्योः कलहश्चैव भोजने कोपसंयुतः ।

परद्रोहे मतिश्चैव सा पीडा प्रेतसंभवा ॥ २,२०.३७ ॥

पुष्पं यत्र न दृश्येन फलं तथा ।

विरहो भार्यया यत्र सा पीडा प्रेतसग्भवा ॥ २,२०.३८ ॥

प्राणी जो नीच जाति से सम्बन्ध रखता है, हीन कर्म करता है और अधर्म में नित्य अनुरक्त रहता है, वह प्रेत से उत्पन्न पीड़ा है। व्यसनों से द्रव्य का नाश हो जाता है, प्राप्तव्य का विनाश हो जाता है। चोर, अग्नि और राजा से जो हानि होती है, यह प्रेतसम्भूत पीड़ा है। शरीर में महाभयंकर रोग की उत्पत्ति, बालकों की पीड़ा तथा पत्नी का पीड़ित होना—- ये सब प्रेतबाधाजनित हैं । वेद, स्मृति - पुराण एवं धर्मशास्त्र के नियमों का पालन करनेवाले परिवार में जन्म होने पर भी धर्म के प्रति प्राणी अन्तःकरण में प्रेम का न होना प्रेतजनित बाधा ही है। जो मनुष्य प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से देवता, तीर्थ और ब्राह्मण की निन्दा करता है, यह भी प्रेतोत्पन्न पीड़ा है। अपनी जीविका का अपहरण, प्रतिष्ठा तथा वंश का विनाश भी प्रेतबाधा के अतिरिक्त अन्य प्रकार से सम्भव नहीं है। स्त्रियों का गर्भ विनष्ट हो जाता है, जिनमें रजोदर्शन नहीं होता और बालकों की मृत्यु हो जाती है, वहाँ प्रेतजन्य बाधा ही समझनी चाहिये। जो मनुष्य शुद्ध भाव से सांवत्सरादिक श्राद्ध नहीं करता है, वह भी प्रेतबाधा है। तीर्थ में जाकर दूसरे में आसक्त हुआ प्राणी जब अपने सत्कर्म का परित्याग कर दे तथा धर्मकार्य में स्वार्जित धन का उपयोग न करे तो उसको भी प्रेतजन्य पीड़ा ही समझना चाहिये। भोजन करने के समय कोपयुक्त पति-पत्नी के बीच कलह, दूसरों से शत्रुता रखनेवाली बुद्धि - यह सब प्रेत- सम्भूत पीड़ा है। जहाँ पुष्प और फल नहीं दिखायी देते तथा पत्नी का विरह होता है, वहाँ भी प्रेतोत्पन्न पीड़ा है।

येषां वै जायते चिह्नं सदोच्चाटपरं नृणाम् ।

स्वक्षेत्रे निष्फलं तेजः सा पीडा प्रेतसम्भवा ॥ २,२०.३९ ॥

स्वगोत्रघातकश्चैव हन्ति शत्रुमिवात्मजम् ।

न प्रीतिर्नापि सौख्यं च सा पीडा प्रेतसम्भवा ॥ २,२०.४० ॥

पितृवाक्यं न कुरुते स्वपत्नीं च न सेवते ।

सदा क्रूरमतिर्व्यग्रः सा पीडा प्रेतसम्भवा ॥ २,२०.४१ ॥

जिन लोगों में सदैव उच्चाटन के अत्यधिक चिह्न दिखायी देते हैं, अपने क्षेत्र में उसका तेज निष्फल हो जाता है तो उसे प्रेतजनित बाधा ही माननी चाहिये । जो व्यक्ति सगोत्री का विनाशक है, जो अपने ही पुत्र को शत्रु के समान मार डालता है, जिसके अन्तःकरण में प्रेम और सुख की अनुभूतियों का अभाव रहता है, वह दोष उस प्राणी में प्रेतबाधा के कारण होता है । पिता के आदेश की अवहेलना, अपनी पत्नी के साथ रहकर भी सुखोपभोग न कर पाना, व्यग्रता और क्रूर बुद्धि भी प्रेतजन्य बाधा के कारण होती है।

विकर्मा जायते प्रेतो ह्यविधिक्रियया तथा ।

तत्कालदुष्टसंसर्गाद्वृषोत्सर्गादृते तथा ॥ २,२०.४२ ॥

दृष्टगृत्युवशाद्वापि अदग्धवपुषस्तथा ।

प्रेतत्वं जायते तार्क्ष्य पीड्यन्ते येन जन्तवः ॥ २,२०.४३ ॥

एवं ज्ञात्वा खगश्रेष्ठ प्रेतमुक्तिं समाचरेत् ।

यो वै न मन्यते प्रेतान्मृतः प्रेतत्वमाप्नुयात् ॥ २,२०.४४ ॥

प्रेतदोषः कुले यस्य सुखं तस्य न विद्यते ।

मतिः प्रीती रतिर्बुद्धिर्लक्ष्मीः पञ्चविनाशनम् ॥ २,२०.४५ ॥

तृतीये पञ्चमे पुंसि वंशच्छेदो हि जायते ।

दरिद्रो निर्धनश्चैव पापकर्मा भवेभवे ॥ २,२०.४६ ॥

ये केचित्पेतरूपा विकृतमुखदृशो रौद्ररूपाः कराला

मन्यन्ते नैव गोत्रं सुतदुहितृपितॄन् भ्रातृजायां वधूं वा ।

कृत्वा काम्यं च रूपं सुखगतिरहिता भाषमाणा यथेष्टं हा

कष्टं भोक्तुकामा विधिवशपतिताः संस्मरन्ति स्वपाकम् ॥ २,२०.४७ ॥

हे तार्क्ष्य ! निषिद्ध कर्म, दुष्ट- संसर्ग तथा वृषोत्सर्ग के न होने और अविधिपूर्वक की गयी और्ध्वदैहिक क्रिया से प्रेत होता है। अकालमृत्यु या दाह-संस्कार से वञ्चित होने पर प्रेतयोनि प्राप्त होती है, जिससे प्राणी को दुःख झेलना पड़ता है । हे पक्षिराज ! ऐसा जानकर मनुष्य प्रेत-मुक्ति का सम्यक् आचरण करे। जो व्यक्ति प्रेत योनियों को नहीं मानता है, वह स्वयं प्रेतयोनि को प्राप्त होता है। जिसके वंश में प्रेत- दोष रहता है, उसके लिये इस संसार में सुख नहीं है। प्रेतबाधा होने पर मनुष्य की मति, प्रीति, रति, लक्ष्मी और बुद्धि - इन पाँचों का विनाश होता है। तीसरी या पाँचवीं पीढ़ी में प्रेतबाधाग्रस्त कुल का विनाश हो जाता है। ऐसे वंश का प्राणी जन्म-जन्मान्तर दरिद्र, निर्धन और पापकर्म में अनुरक्त रहता है । विकृत मुख तथा नेत्रवाले, क्रुद्ध स्वभाववाले, अपने गोत्र, पुत्र- पुत्री, पिता, भाई, भौजाई अथवा बहू को नहीं माननेवाले लोग भी विधिवश प्रेत- शरीर धारण कर सद्गति से रहित हो 'बड़ा कष्ट है', यह चिल्लाते हुए अपने पाप को स्मरण करते हैं ।

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे प्रेतावासतद्बाधा प्रकारनिरूपणं नाम विंशोऽध्यायः॥

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 21

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