श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय २१
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
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प्रेतकल्प अध्याय २१ प्रेतबाधाजन्य दीखनेवाले स्वप्न, उनके निराकरण के उपाय तथा नारायणबलि का विधान का वर्णन है।
श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) एकविंशतितमोऽध्यायः
Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 21
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
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प्रेतकल्प इक्कीसवाँ अध्याय
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय २१
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय २१ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित
गरुडपुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः २१
गरुड उवाच ।
मुक्तिं यान्ति कथं प्रेतास्तदहं
प्रष्टुमुत्सुकः ।
यन्मुक्तौ च मनुष्याणां न पीडा
जायते पुनः ॥ २,२१.१ ॥
एतैश्च लक्षणैर्देव पीडोक्ता
प्रेतजा त्वया ।
तेषां कदा भवेन्मुक्तिः प्रेतत्वं न
कथं भवेत् ॥ २,२१.२ ॥
प्रेतत्वे हि प्रमाणं च कति वर्षाणि
संख्यया ।
चिरं प्रेतत्वमापन्नः कथं
मुक्तिमवाप्नुयात् ॥ २,२१.३ ॥
श्रीगरुड ने कहा- हे भगवन् ! प्रेत
किस प्रकार से मुक्त होते हैं ? जिनकी मुक्ति
होने पर मनुष्यों को प्रेतजन्य पीड़ा पुनः नहीं होती । हे देव ! जिन लक्षणों से
युक्त बाधा को आपने प्रेतजन्य कहा है, उनकी मुक्ति कब सम्भव
है और क्या किया जाय कि प्राणी को प्रेतत्व की प्राप्ति न हो सके ? प्रेतत्व कितने वर्षों का होता है ? चिरकाल से
प्रेतयोनि को भोग रहा प्राणी उससे किस प्रकार मुक्त हो सकता है ? यह सब आप बतलाने की कृपा करें।
श्रीकृष्ण उवाच ।
मुक्तिं प्रायन्ति ते प्रेतास्तदहं
कथयामि ते ।
यदैव मनुजोऽवैति मम पीडा कृता
त्वियम् ॥ २,२१.४ ॥
पृच्छार्थं हितमन्विच्छन्दै वज्ञे
विनिवदयेत् ।
स्वप्ने दृष्टः शुभो वृक्षः
फलितश्चूतचम्पकः ॥ २,२१.५ ॥
विप्रो वा वृषभो देवो भ्रमते
तीर्थगो यदि ।
एवं दृष्टो यदा स्वप्नो मृतः
कोऽपिस्वगोत्रजः ॥ २,२१.६ ॥
स्वप्ने सत्यं परिज्ञाय दृष्टं
प्रेतप्रभावतः ।
अद्भुतानि प्रदृश्यन्ते
प्रेतदोषाद्विनिश्चितम् ॥ २,२१.७
॥
तीर्थस्नाने मतिर्यावच्चित्तं
धर्मपरायणम् ।
धर्मापायं प्रकुरुते प्रेतपीडा तदा
व्रजेत् ॥ २,२१.८ ॥
तदा तत्र विनाशाय चित्तभङ्गं करोति
सा ।
श्रेयांसि बहुविघ्नानि सम्भवन्ति
पदेपदे ॥ २,२१.९ ॥
अश्रेयसि प्रवृत्ति च प्रेरयन्ति
पुनः पुनः ।
उच्चाटनं च क्रूरत्वं सर्वं
प्रेतकृतं खग ॥ २,२१.१० ॥
सर्वविघ्नानि सन्त्यज्य
मुक्त्युपायं करोति यः ।
तस्य कर्मफलं साधु प्रेतवृत्तिश्च
शाश्वती ॥ २,२१.११ ॥
स भवेत्तेन मुक्तस्तु दत्तं
श्रेयस्करं परम् ।
स्वयं तृप्यति भोः
पक्षिन्यस्योद्देशेन दीयते ॥ २,२१.१२
॥
शृणु सत्यमिदं तार्क्ष्य यद्ददाति
भुनक्ति सः ।
आत्मानं श्रेयसा
युञ्ज्यात्प्रेतस्तृप्तिं चिरं व्रजेत् ॥ २,२१.१३ ॥
ते तृप्ताः शुभमिच्छन्ति निजबन्धुषु
सर्वदा ।
अज्ञातयस्तु ये दुष्टाः पीडयन्ति
स्ववंशजान् ॥ २,२१.१४ ॥
निवारयन्ति तृप्तास्ते
जायमानानुकम्पकाः ।
पश्चात्ते मुक्तिमायन्ति काले
प्राप्ते स्वपुत्रतः ।
सदा बन्धुषु यच्छन्ति वृद्धिमृद्धिं
खगाधिप ॥ २,२१.१५ ॥
दर्शनाद्भाषणाद्यस्तु चेष्टातः
पीडनाद्गतिम् ।
न प्रापयति मूढात्मा प्रेतशापैः स
लिप्यते ॥ २,२१.१६ ॥
अपुत्रकोऽपशुश्चैव दरिद्रो
व्याधितस्तथा ।
वृत्तिहीनश्च हीनश्च
भवेज्जन्मनिजन्मनि ॥ २,२१.१७ ॥
एवं ब्रुवन्ति ते प्रेताः
पुनर्याभ्यं समाश्रिताः ।
तत्रस्थानां भवेन्मुक्तिः स्वकाले
कर्मसंक्षये ॥ २,२१.१८ ॥
श्रीकृष्ण ने कहा- हे गरुड ! प्रेत
जिस प्रकार प्रेतयोनि से मुक्त होते हैं, उसे
मैं बतला रहा हूँ । जब मनुष्य यह जान ले कि प्रेत मुझको कष्ट दे रहा है तो
ज्योतिर्विदों से इस विषय में निवेदन करे । प्रेतग्रस्त प्राणी को बड़े ही अद्भुत
स्वप्न दिखायी देते हैं। जब तीर्थ-स्नान की बुद्धि होती है, चित्त
धर्मपरायण हो जाता है और धार्मिक कृत्यों को करने की मनुष्य की प्रवृत्ति होती है
तब प्रेतबाधा उपस्थित होती है एवं उन पुण्य कार्यों को नष्ट करने के लिये
चित्त-भंग कर देती है । कल्याणकारी कार्यों में पग- पग पर बहुत से विघ्न होते हैं
। प्रेत बार-बार अकल्याणकारी मार्ग में प्रवृत्त होने के लिये प्रेरणा देते हैं।
शुभकर्मों में प्रवृत्ति का उच्चाटन और क्रूरता— यह सब प्रेत
के द्वारा किया जाता है। जब व्यक्ति समस्त विघ्नों को विधिवत् दूर करके मुक्ति
प्राप्त करने के लिये सम्यक् उपाय करता है तो उसका वह कर्म हितकारी होता है और
उसके प्रभाव से शाश्वत प्रेतनिवृत्ति हो जाती है।
हे पक्षिन्! दान देना अत्यन्त
श्रेयस्कर है, दान देने से प्रेत मुक्त हो
जाता है। जिसके उद्देश्य से दान दिया जाता है, उसको तथा
स्वयं को वह दान तृप्त करता है । हे तार्क्ष्य ! यह सत्य है कि जो दान देता है वही
उसका उपभोग करता है। दानदाता दान से अपना कल्याण करता है और ऐसा करने से प्रेत को भी
चिरकालिक संतृप्ति प्राप्त होती है। संतृप्त हुए वे प्रेत सदैव अपने बन्धु
बान्धवों का कल्याण चाहते हैं। यदि विजातीय दुष्ट प्रेत उसके वंश को पीड़ित करते
हैं तो संतृप्त हुए सगोत्री प्रेत अनुग्रहपूर्वक उन्हें रोक देते हैं। उसके बाद
समय आने पर अपने पुत्र से प्राप्त हुए पिण्डादिक दान के फल से वे मुक्त हो जाते
हैं । हे पक्षिराज ! यथोचित दानादि के फल से संतृप्त प्रेत बन्धु-बान्धवों को
धन्य-धान्य से समृद्धि प्रदान करते हैं ।
जो व्यक्ति स्वप्न में प्रेत- दर्शन,
भाषण, चेष्टा और पीड़ा आदि को देखकर भी
श्राद्धादि द्वारा उनकी मुक्ति का उपाय नहीं करता, वह
प्रेतों के द्वारा दिये गये शाप से संलिप्त होता है। ऐसा व्यक्ति जन्म-जन्मान्तर तक
निःसन्तान, पशुहीन, दरिद्र, रोगी, जीविका के साधन से रहित और निम्नकुल में
उत्पन्न होता है। ऐसा वे प्रेत कहते हैं और पुनः यमलोक जाकर पापकर्मों का भोग द्वारा
नाश हो जाने के अनन्तर अपने समय से प्रेतत्व की मुक्ति हो जाती है।
गरुड उवाच ।
नाम गोत्रं न दृश्येत प्रतीतिर्नैव
जायते ।
केचिद्वदन्ति दैवज्ञाः पीडां
प्रेतसमुद्भवाम् ॥ २,२१.१९ ॥
न स्वप्नश्चैष्टितं नैव दर्शनं न
कदाचन ।
किं कर्तव्यं सुरश्रेष्ठ तत्र मे
ब्रूहि निश्चितम् ॥ २,२१.२० ॥
गरुड ने कहा- हे देवेश्वर ! यदि
किसी प्रेत का नाम और गोत्र न ज्ञात हो सके, उसके
विषय में विश्वास न हो रहा हो, कुछ ज्योतिषी पीड़ा प्रेतजन्य
कहते हों, कभी भी मनुष्य को प्रेत स्वप्न में न दिखायी दे,
उसकी कोई चेष्टा न होती हो तो उस समय मनुष्य को क्या करना चाहिये ?
उस उपाय को मुझे बतायें।
श्रीभगवानुवाच ।
सत्यं वाप्यनृतं वापि वदन्ति
क्षितिदेवताः ।
तदा सञ्चिन्त्य हृदये
सत्यमेतद्द्विजेरितम् ॥ २,२१.२१ ॥
भावभक्तिं पुरस्कृत्य
पितृभक्तिपरायणः ।
कृत्वा कृष्णबलिं चैव पुरश्चरण
पूर्वकम् ॥ २,२१.२२ ॥
जपहोमैस्तथा दानैः
प्रकुर्याद्देहसोधनम् ।
कृतेन तेन विघ्नानि विनश्यन्ति
खगेश्वर ॥ २,२१.२३ ॥
भूतप्रेतपिशाचैर्वा स चेदन्यैः
प्रपीड्यते ।
पित्रुद्देशेन वै
कुर्यान्नारायणबलिं तदा ।
विमुक्तः सर्वपीडाभ्य इति सत्यं वचो
मम ॥ २,२१.२४ ॥
पितृपीडा भवेद्यत्र कृत्यैरन्यैर्न
मुच्यते ।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन पितृभक्तिपरो
भवेत् ॥ २,२१.२५ ॥
नवमे दशमे वर्षे पिक्षुद्देशेन वै
पुमान् ।
गायत्त्रीमयुतं जप्त्वा दशांशेन च
होमयेत् ॥ २,२१.२६ ॥
कृत्वा कृष्णबलिं पूर्वं
वृषोत्सर्गादिकाः क्रियाः ।
सर्वोपद्रवहीनस्तु
सर्वसौख्यमवाप्नुयात् ।
उत्तमं लोकमाप्नोति
ज्ञातिप्राधान्यमेव च ॥ २,२१.२७ ॥
श्रीभगवान्ने कहा –
हे खगराज ! पृथ्वी के देवता ब्राह्मण जो कुछ भी कहते हैं, उस वचन को हृदय से सत्य समझकर भक्ति-भावपूर्वक पितृभक्तिनिष्ठ हो
पुरश्चरणपूर्वक नारायणबलि करके जप, होम तथा दान से देह -
शोधन करना चाहिये। उससे समस्त विघ्न नष्ट हो जाते हैं। यदि वह प्राणी भूत, प्रेत, पिशाच अथवा अन्य किसी से पीड़ित होता है तो
उसको अपने पितरों के लिये नारायणबलि करनी चाहिये। ऐसा कर वह सभी प्रकार की पीड़ाओं
से मुक्त हो जाता है। यह मेरा सत्य वचन है। अतः सभी प्रयत्नों से पितृभक्तिपरायण
होना चाहिये।
नवें या दसवें वर्ष अपने पितरों के
निमित्त प्राणी को दस हजार गायत्री मन्त्रों का जप करके दशांश होम करना चाहिये ।
नारायणबलि करके वृषोत्सर्गादि क्रियाएँ करनी चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य सभी
प्रकार के उपद्रवों से रहित हो जाता है, समस्त
सुखों का उपभोग करता है तथा उत्तम लोक को प्राप्त करता है और उसे जाति- प्राधान्य प्राप्त
होता है।
पितृमा तृसमं लोके
नास्त्यन्यद्दैवतं परम् ।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन पूजयेत्पितरौ
सदा ॥ २,२१.२८ ॥
हितानामुपदेष्टा हि प्रत्यक्षं
दैवतं पिता ।
अन्या या देवता लोके न देहप्रभवो हि
ताः ॥ २,२१.२९ ॥
इस संसार में माता-पिता के समान
श्रेष्ठ अन्य कोई देवता नहीं है। अतः सदैव सम्यक् प्रकार से अपने माता-पिता की
पूजा करनी चाहिये । हितकर बातों का उपदेष्टा होने से पिता प्रत्यक्ष देवता है ।
संसार में जो अन्य देवता हैं वे शरीरधारी नहीं हैं।
शरीरमेव जन्तूनां
स्वर्गमोक्षैकसाधनम् ।
देहो दत्तो हि येनैवं कोऽन्यः पूज्यतमस्ततः
॥ २,२१.३० ॥
प्राणियों का शरीर ही स्वर्ग एवं
मोक्ष का एकमात्र साधन है। ऐसा शरीर जिसके द्वारा प्राप्त हुआ है,
उससे बढ़कर पूज्य कौन है ?
इति सञ्चिन्त्यहृदये
पक्षिन्यद्यत्प्रयच्छति ।
तत्सर्वमात्मना भुङ्क्ते दानं
वेदविदो विदुः ॥ २,२१.३१ ॥
हे पक्षिन् ! ऐसा विचार करके मनुष्य
जो-जो दान देता है उसका उपभोग वह स्वयं करता है, ऐसा वेदविद् विद्वानों का कथन है ।
पुन्नामनरकाद्यस्मात्पितरं त्रायते
सुतः ।
तस्मात्पुत्त्र इति प्रोक्त इह चापि
परत्र च ॥ २,२१.३२ ॥
पुन्नामका जो नरक है उससे पिता की
रक्षा पुत्र करता है। उसी कारण से इस लोक और परलोक में उसे पुत्र कहा जाता है।
अपमृत्युमृतौ स्यातां पितरौ
कस्यचित्खग ।
व्रततीर्थाविवाहादिश्राद्धं
संवत्सरं त्यजेत् ॥ २,२१.३३ ॥
स्वप्नाध्यायमिमं यस्तु प्रेत
लिङ्गनिदर्शकम् ।
यः पठेच्छृणुयाद्वापि प्रेतचिह्नं न
पश्यति ॥ २,२१.३४ ॥
हे खगराज ! किसी के माता-पिता की
अकालमृत्यु हो जाय तो उसे व्रत, तीर्थ,
वैवाहिक माङ्गलिक कार्य संवत्सरपर्यन्त नहीं करना चाहिये। जो मनुष्य
प्रेत-लक्षण बतानेवाले इस स्वप्नाध्याय का अध्ययन अथवा श्रवण करता है, वह प्रेत का एक चिह्न नहीं देखता है।
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकादृप्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे स्वप्नाध्यायो
नामैकविंशोऽध्यायः॥
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