श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय २२
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
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प्रेतकल्प अध्याय २२ प्रेतयोनि दिलानेवाले निन्दित कर्म, पञ्चप्रेतोपाख्यान तथा प्रेतत्वप्राप्ति न करानेवाले श्रेष्ठ कर्म का
वर्णन है।
श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) द्वाविंशतितमोऽध्यायः
Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 22
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
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प्रेतकल्प बाईसवाँ अध्याय
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय २२
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय २२ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित
गरुडपुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः २२
गरुड उवाच ।
सम्भवन्ति कथं प्रेताः केन तेषां
गतिर्भवेत् ।
कीदृक्तेषां भवेद्रूपं भोजनं किं
भवेत्प्रभो ॥ २,२२.१ ॥
सुप्रीतास्ते कथं प्रेताः क्व
तिष्ठन्ति सुरेश्वर ।
प्रसन्नः कृपया देव प्रश्रमेनं
वदस्व मे ॥ २,२२.२ ॥
श्रीगरुड ने कहा- हे प्रभो !
प्रेतों की उत्पत्ति कैसे होती है ? वे
कैसे चलते हैं ? उनका कैसा रूप और कैसा भोजन होता है?
वे किस प्रकार प्रसन्न होते हैं और उनका कहाँ निवास होता है ?
हे प्रसन्नचित्त देवेश ! कृपा कर मेरे इन प्रश्नों का समाधान करें।
श्रीभगवानुवाच ।
पापकर्मरता ये वै पूर्वकर्मवशानुगाः
।
जायन्ते ते मृताः
प्रेतास्ताञ्छृणुष्व वदाम्यहम् ॥ २,२२.३
॥
वापीकूपतडागांश्च आरामं सुरमन्दिरम्
।
प्रपां सद्म सुवृक्षांश्च तथा
भोजनशालिकाः ॥ २,२२.४ ॥
पितृपैतामहं धर्मं किक्रीणाति स
पापभाक् ।
मृतः प्रेतत्वमाप्नोति
यावदाभूतसंप्लवम् ॥ २,२२.५ ॥
गोचरं ग्रामसीमां तडागारामगह्वरम् ।
कर्षयन्ति च ये लोभात्प्रेतास्ते वै
भवन्ति हि ॥ २,२२.६ ॥
चण्डालादुदकात्सर्पाद्ब्राह्मणाद्बैद्युताग्नितः
।
दंष्ट्रिभ्यश्च पशुभ्यश्च मरणं
पापकर्मिणाम् ॥ २,२२.७ ॥
उद्बन्धनमृता ये च विषशस्त्रहताश्च
ये ।
आत्मोपघातिनो ये च
विषूच्यादिहतास्तथा ॥ २,२२.८ ॥
महारोगैर्मृता ये च पापरोगैश्च
दस्युभिः ।
असंस्कृतप्रमीता ये
विहिताचारवर्जिताः ॥ २,२२.९ ॥
वृषोत्सर्गादिलुप्ताश्चलुप्तमासिकपिण्डकाः
।
यस्यानयति शूद्रोग्निं
तृणकाष्ठहवींषि सः ॥ २,२२.१० ॥
पतनात्पर्वतानां च भित्तिपातेन ये
मृताः ।
रजस्वलादिदोषैश्च न च भूमौ मताश्च
ये ॥ २,२२.११ ॥
अन्तरिक्षे मृता ये च
विष्णुस्मरणवर्जिताः ।
सूतकैः श्वादिसंपर्कैः प्रेतभावा इह
क्षितौ ॥ २,२२.१२ ॥
एवमादिभिरन्यैश्च कुमृत्युवशगाश्च
ये ।
ते सर्वे प्रेतयोनिस्था विचरन्ति
मरुस्थले ॥ २,२२.१३ ॥
श्रीभगवान्ने कहा- हे पक्षिराज !
सुनो। जो पूर्वजन्मसंचित कर्म के अधीन रहकर पापकर्म में अनुरक्त रहते हैं,
वे मृत्यु के पश्चात् प्रेतयोनि में जन्म लेते हैं। जो मनुष्य बावली,
कूप, जलाशय, उद्यान,
देवालय, प्याऊ, घर,
आम्रादिक फलदार वृक्ष, रसोईघर, पितृ-पितामह के धर्म को बेच देता है, वह पाप का भागी
होता है । ऐसा व्यक्ति मरने के बाद प्रलयकालतक प्रेतयोनि में रहता है। जो लोग
लोभवश गोचारण की भूमि, ग्राम की सीमा, जलाशय,
उपवन और गुफाभाग को जोत लेते हैं, वे प्रेत
होते हैं। पापियों की मृत्यु चण्डाल, जल, सर्पदंश, ब्राह्मण-शाप, विद्युत्-निपात,
अग्नि, दन्त-प्रहार तथा पशु आक्रमण से होती
है। जो लोग फाँसी लगाने से, विष द्वारा और शस्त्र से मरते
हैं, जो आत्मघाती हैं, जिनकी विषूचिका
(हैजा ) आदि रोगों से मृत्यु होती है, जो क्षयादिक महारोग,
पापजन्य रोग और चोर-डकैतों के द्वारा मारे जाते हैं, जिनका मरने पर संस्कार नहीं हुआ है, विहित आचार से
रहित, वृषोत्सर्गादि से रहित और मासिक पिण्डदान जिनका लुप्त
हो गया है, जिस मरे हुए प्राणी के लिये तृण, काष्ठ, हविष्य तथा अग्नि शूद्र लाता है, पर्वतों अथवा दीवाल के ढहने से जिनकी मृत्यु हो जाती है, निन्दित दोषों से जिनकी मृत्यु होती है, जिनकी
मृत्यु भूमि में नहीं होती, जिनकी मृत्यु अन्तरिक्ष में होती
है, जो भगवान् विष्णु का स्मरण न करते हुए मर जाते हैं,
जिनकी मृत्यु सूतक और श्वानादि निकृष्ट योनियों के संसर्ग में होती
है, वे प्रेतयोनि में जाते हैं। इसी प्रकार के अन्य कारणों से
जो प्राणी दुर्मृत्यु को प्राप्त होते हैं, उनको प्रेतयोनि में
मरुस्थल प्रदेश में भटकना पड़ता है ।
मातरं भगिनीं भार्यां स्नुषां
दुहितरं तथा ।
अदृष्टदोषां त्यजति स प्रेतो
जायतेध्रुवम् ॥ २,२२.१४ ॥
भ्रातृध्रुग्ब्रह्महा गोघ्नः सुरापो
गुरुतल्पगः ।
हेमक्षौमहरस्तार्क्ष्य स वै
प्रेतत्वमाप्नुयात् ॥ २,२२.१५ ॥
न्यासापहर्ता
मित्रध्रुक्परदाररतस्तथा ।
विश्वासघाती क्रूरस्तु स प्रेतो
जायते ध्रुवम् ॥ २,२२.१६ ॥
कुलमार्गांश्च सन्त्यज्य
परधर्मरतस्तथा ।
विद्यावृत्तविहीनश्च स प्रेतो
जायतेध्रुवम् ॥ २,२२.१७ ॥
हे तार्क्ष्य ! जो व्यक्ति निर्दोष
माता,
बहन, पत्नी, पुत्रवधू
तथा कन्या का परित्याग करता है, वह निश्चित ही प्रेत होता है
। जो भ्रातृद्रोही, ब्रह्मघाती, गोहन्ता,
मद्यपी, गुरुपत्नी के साथ सहवास करनेवाला,
स्वर्ण और रेशम का चोर है, वह प्रेतत्व को
प्राप्त होता है । घर में रखी हुई धरोहर का अपहारक, मित्रद्रोही,
परस्त्रीरत, विश्वासघाती एवं क्रूर व्यक्ति
अवश्य प्रेतयोनि में जन्म लेता है । जो वंशपरम्परागत धर्मपथ का परित्याग करके
दूसरे धर्म को स्वीकार करनेवाला है, विद्या और सदाचार से जो
विहीन है, वह भी निस्संदेह प्रेत ही होता है।
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्
।
युधिष्ठिरस्य संवादं भीष्मेण सह
सुव्रत ।
तदहं कथयिष्यामि यच्छ्रुत्वा
सौख्यमाप्नुयात् ॥ २,२२.१८ ॥
हे सुव्रत ! इस विषय में एक प्राचीन
इतिहास है, जो पितामह भीष्म और युधिष्ठिर के
संवाद में कहा गया था। मैं उसी को कहता हूँ, उसे सुन करके
मनुष्य सुख प्राप्त करता है ।
युधिष्ठिर उवाच ।
केन कर्मविपाकेन प्रेतत्वमुपजायते ।
केन वा मुच्यते कस्मात्तन्मे ब्रूहि
पितामह ।
यच्छ्रुत्वा न पुनर्मोहमेवं यास्या
मि सुव्रत ॥ २,२२.१९ ॥
युधिष्ठिर ने कहा - हे पितामह!
प्राणी किस कर्मफल से प्रेत होता है ? उसकी
कैसे और किस उपाय से मुक्ति होती है ? इस बात को आप मुझे बताने
की कृपा करें, जिसको सुन करके मैं पुनःभ्रमित न हो सकूँ।
भीष्म उवाच ।
येनैव जायते प्रेतो येनैव स
विमुच्यते ।
प्राप्नोति नरकं घोरं दुस्तरं
दैवतैरपि ॥ २,२२.२० ॥
सततं श्रवणाद्यस्य
पुण्यश्रवणकीर्तनात् ।
मानवा विप्रमुच्यन्ते आपन्नाः
प्रेतयोनिषु ॥ २,२२.२१ ॥
भीष्म ने कहा—हे वत्स ! मनुष्य को जैसे प्रेतयोनि प्राप्त होती है, वह जैसे उस योनि से मुक्त होता है, जैसे वह दुस्तर
घोर नरक में जाता है, नरक में जाकर दुःख झेल रहे प्राणियों को
जिसका नाम, गुण, कीर्तन और श्रवण करने से
मुक्ति प्राप्त होती है, वह सब मैं तुम्हें बता रहा हूँ ।
श्रूयते हि पुरा वत्स ब्राह्मणः
शंसितव्रतः ।
नाम्ना सन्तप्तकः ख्यात स्तपोर्ऽथे
वनमाश्रितः ॥ २,२२.२२ ॥
स्वाध्याययुक्तो होमेन यो (या)
गयुक्तो दयान्वितः ।
यजन्स सकलान्यज्ञान्युक्त्या कालं च
विक्षिपन् ॥ २,२२.२३ ॥
ब्रहामचर्यसमायुक्तो युक्तस्तपसि
मार्दवे ।
परलोकभयोपेतः सत्यशौचैश्च निर्मलः ॥
२,२२.२४ ॥
युक्तोऽहि गुरुवाक्येन
युक्तश्चातिथिपूजने ।
आत्मयोगे सदोद्युक्तः
सर्वद्वन्द्वविवर्जितः ॥ २,२२.२५
॥
योगाभ्यासे सदा युक्तः
संसारविजिगीषया ।
एवंवृत्तः सदाचारो मोक्षकाङ्क्षी
जितेन्द्रियः ॥ २,२२.२६ ॥
बहून्यब्दानि विजने वने तस्य गतानि
वै ।
तस्य बुद्धिस्ततो जाता तीर्थानुगमनं
प्रति ॥ २,२२.२७ ॥
पुण्यैस्तीर्थजलैरेव शोषयिष्ये
कलेवरम् ।
स तीर्थेत्वरितं स्नात्वा तपस्वी
भास्करोदये ।
कृतजाप्यनमस्कारो ह्यध्वानं
प्रत्यपद्यत ॥ २,२२.२८ ॥
हे पुत्र ! ऐसा सुना जाता है कि
प्राचीनकाल में एक ख्यातिलब्ध संतप्तक नामक सुव्रत तपस्वी ब्राह्मण वन में रहता था
। दयावान्, योगयुक्त, स्वाध्यायरत, अग्निहोत्री उस द्विजश्रेष्ठ का समय
सदैव यज्ञादिक धार्मिक कृत्यों में बीतता था । परलोक का भय उसे बहुत था, अतः ब्रह्मचर्य, सत्य, शौच का
पालन करते हुए और निर्मलचित्त होकर वह तपस्या में संलग्न रहता था । श्रद्धापूर्वक
गुरु के उपदेश, अतिथि- पूजन तथा आत्मतत्त्व के चिन्तन में
अनुरक्त वह तपस्वी सांसारिक द्वन्द्वों से रहित था। इस संसार को जीतने की इच्छा से
योगाभ्यास में सदैव अपने को वह समर्पित रखता था। इस प्रकार का आचरण करते हुए उस
जितेन्द्रिय मुमुक्षु ब्राह्मण को वन में ही बहुत-से वर्ष बीत गये । एक दिन तपस्वी
संतप्तक के मन में तीर्थाटन की इच्छा उत्पन्न हुई। उसने मन में यह संकल्प किया कि
अब मैं तीर्थों के पवित्र जल से इस शरीर को पवित्र बनाऊँगा, अनन्तर
वह स्नान तथा जप- नमस्कारादि कृत्यों को सम्पन्न कर सूर्योदय होने पर वह
तीर्थ-यात्रा पर निकल पड़ा।
एकस्मिन्दिवसे विप्रो मार्गभ्रष्टो
महातपाः ।
ददर्शाध्वनि गच्छन्स पञ्च प्रेतान्
सुदारुणान् ॥ २,२२.२९ ॥
अरण्ये निर्जने देशे संकटे
वृक्षवर्जिते ।
पञ्चैतान्विकृताकारान्दृष्ट्वा वै
घोरदर्शनान् ।
ईषत्सन्त्रस्तहृदयोऽतिष्ठदुन्मील्य
लोचने ॥ २,२२.३० ॥
अवलम्ब्य ततो धैर्यं भयमुत्सृज्य
दूरतः ।
पप्रच्छ मधुराभाषी के यूयं विकृताननाः
॥ २,२२.३१ ॥
किञ्चाशुभं कृतं कर्म येन प्राप्ताः
स्थ वैकृतम् ।
कथं वा चैकतः कर्म प्रस्थिताः कुत्र
निश्चितम् ॥ २,२२.३२ ॥
चलते-चलते वह महातपस्वी ब्राह्मण
मार्ग भूल गया । भ्रान्त मार्ग में चलते हुए उसे अत्यन्त भयानक पाँच प्रेत दिखायी
पड़े। उस निर्जन वन में विकृत शरीरवाले भयंकर प्रेतों को देखकर ब्राह्मण का हृदय
कुछ भयभीत हो उठा। अतः वहीं पर खड़े होकर वह विस्फारित नेत्रों से उसी ओर देखता रहा।
तत्पश्चात् ब्राह्मण ने अपने भय को दूरकर धैर्य का सहारा लिया और मधुर भाषा में
पूछा - 'हे विकृत मुखवालो ! तुम सब कौन हो ? कैसा पापकर्म
तुम लोगों ने किया है, जिसके फलस्वरूप तुम्हें यह विकृति
प्राप्त हुई है? तुम सब कहाँ जाने का निश्चय कर रहे हो?"
प्रेतराज उवाच ।
स्वैः स्वैस्तु कर्मभिः प्राप्तं
प्रेतत्वं हि द्विजोत्तम ।
परद्रोहरताः सर्वे पापमृत्युवशं
गताः ॥ २,२२.३३ ॥
क्षुत्पिपासार्दिता नित्यं
प्रेतत्वं समुपागताः ।
हतवाक्या हतश्रीका हत संज्ञा
विचेतसः ॥ २,२२.३४ ॥
न जानीमो दिशं तात विदिशं चातिदुः
खिताः ।
क्व नु गच्छामहे मूढाः पिशाचाः
कर्मजा वयम् ॥ २,२२.३५ ॥
न माता न पितास्माकं प्रेतत्वं
कर्मभिः स्वकैः ।
प्राप्ताः स्म सहसा जातदुः
खोद्वेगसमाकुलम् ॥ २,२२.३६ ॥
दर्शनेन च ते
ब्रह्मन्मुदिताप्यायिता वयम् ।
मुहूर्तन्तिष्ठ वक्ष्यामि
वृत्तान्तं सर्वमादितः ॥ २,२२.३७
॥
अहं पर्युषितो नाम एष सूचीमुखस्तथा
।
शीघ्रगो रोघ (ह) कश्चैव पञ्चमो
लेखकः स्मतृतः ॥ २,२२.३८ ॥
एवं नाम्ना च सर्वे वै संप्राप्ताः
प्रेततां वयम् ।
प्रेतराज ने कहा- हे द्विजश्रेष्ठ !
हम सभी ने अपने-अपने कर्म के कारण प्रेतयोनि को प्राप्त किया है। परद्रोह में रत
होने के कारण हम पाप और मृत्यु के वश में हुए । नित्य भूख-प्यास से पीड़ित रहकर यह
प्रेत-जीवन बिता रहे हैं। हम लोगों की वाणी उसी पाप से विनष्ट हुई है,
शरीर कान्तिहीन हो गया है, हम संज्ञाहीन और
विकृत चित्तवाले हो गये हैं । हे तात! हमें दिशाओं तथा विदिशाओं का कोई ज्ञान नहीं
है। पाप कर्म से पिशाच बने हुए हम मूढ प्राणी कहाँ जा रहे हैं, इसका भी ज्ञान हमें नहीं है। हम लोगों के न माता हैं और न पिता हैं । अपने
कर्मों के फलस्वरूप, अत्यन्त दुःखदायी यह प्रेतयोनि हम सभी को
प्राप्त हुई है । हे ब्रह्मन् ! आपके दर्शन से हम लोग अत्यधिक प्रसन्न हैं । आप
मुहूर्तभर रुकें । आपसे हम अपना सम्पूर्ण वृत्तान्त प्रारम्भ से कहेंगे। उनमें से
एक प्रेत ने कहा— हे विप्रदेव ! मेरा नाम पर्युषित है,
यह दूसरा सूचीमुख है, तीसरा शीघ्रग, चौथा रोधक और पाँचवाँ लेखक है ।
ब्राह्मण उवाच ।
प्रेतानां कर्मजातानां कथं वै
नामसम्भवः ।
किञ्चित्कारणमुदिश्य येन ब्रूयाः
स्वनामकान् ॥ २,२२.३९ ॥
ब्राह्मण ने कहा- हे प्रेत ! प्राणी
को कर्मफलानुसार प्रेतयोनि मिलती है यह तो ठीक बात है,
पर अपने जो नाम तुम बताते हो, उसके प्राप्त
होने का क्या कारण है ?
प्रेतराज उवाच ।
मया स्वादु सदा भुक्तं दत्तं
पर्युषितं द्विज ॥ २,२२.४० ॥
शीघ्रं गच्छति विप्रेण याचितः
क्षुधितेन वै ।
एतत्कारणमुद्दिश्य नाम पर्युषितं मम
॥ २,२२.४१ ॥
शीघ्रं गच्छति विप्रेण याचितः
क्षुधितेन वै ।
एतत्कारणमुद्दिश्य शीघ्रगोऽयं
द्विजोत्तम ॥ २,२२.४२ ॥
सूचिता बहवोऽनेन विप्रा
अन्नाधिकाङ्क्षया ।
एतत्कारणमुद्दिश्य एष सूचिमुखः
स्मृतः ॥ २,२२.४३ ॥
एकाकी मिष्टमश्राति पोष्यवर्गमृते
सदा ।
ब्राह्मणानामभावेन रोध (ह) कस्तेन
चोच्यते ॥ २,२२.४४ ॥
पुरायं मौनमास्थाय याचितो
विलिखेद्भुवम् ।
तेन कर्मविपाकेन लेखको नाम चोच्यते
॥ २,२२.४५ ॥
प्रेतराज ने कहा- हे द्विजश्रेष्ठ !
मैंने सदैव सुस्वादु भोजन किया और ब्राह्मण को बासी अन्न दिया है,
इस कारण मेरा नाम पर्युषित (बासी) है। भूखे ब्राह्मण की याचना को
सुनकर यह शीघ्र ही वहाँ से हट जाता था, इसलिये यह शीघ्रग नाम
का प्रेत हुआ। अन्नादि की आकांक्षा से इसने बहुत-से ब्राह्मणों को पीड़ित किया था,
इस कारण यह सूचीमुख नामक प्रेत हो गया। इसने पोष्यवर्ग एवं
ब्राह्मणों को दिये बिना अकेले ही मिष्टान्न खाया था, इसलिये
इसको रोधक कहा गया है। यह कुछ माँगने पर मौन धारण करके पृथ्वी कुरेदने लगता था,
अत: उस कर्मफल के अनुसार यह लेखक कहलाया ।
प्रेतत्वं कर्मभावेन प्राप्तं
नामानि च द्विज ।
मेषाननो लेखकोऽयं रोध (ह) कः
पर्वताननः ॥ २,२२.४६ ॥
शीघ्रगः पुशुवक्त्रश्च सूचकः
सूचिवक्त्रवान् ।
दुःखिता नितरां स्वमिन्पश्य
रूपविपर्ययम् ॥ २,२२.४७ ॥
कृत्वा मायामयं रूपं विचरामो महीतले
।
सर्वे च विकृताकारा लम्बोष्ठा
विकृताननाः ॥ २,२२.४८ ॥
बृहच्छरीरिणो रौद्रा जाताः स्वेनैव
कर्मणा ।
एतत्ते सर्वमाख्यातं प्रेतत्वे
कारणं मया ॥ २,२२.४९ ॥
ज्ञानिनोऽपि वयं सर्वे जाताः स्म तव
दर्शनात् ।
यत्र ते श्रवणे श्रद्धा तत्पृच्छ
कथयामि ते ॥ २,२२.५० ॥
हे ब्राह्मण ! कर्मभाव से ही
प्रेतत्व और इस प्रकार नाम की प्राप्ति हुई है। यह लेखक मेषमुख,
रोधक पर्वताकार मुखवाला, शीघ्रग पशु की तरह
मुखवाला और सूचक सुई के समान मुखवाला है, इसके बेढंगे रूप को
देखें । हे नाथ! हम अत्यन्त दुःखित हैं। मायावी रूप बनाकर हम लोग पृथ्वी पर विचरण
करते हैं। हम सभी अपने ही कर्म से विकृत आकारवाले, लम्बे
ओठवाले, विकृत मुखवाले और बृहद् शरीरवाले तथा भयावह हो गये
हैं । हे विप्र ! यह सब मैंने आपसे प्रेतत्व का कारण बता दिया है। आपके दर्शन से
हम सभी में ज्ञान उत्पन्न हो गया है, आपकी जिस बात को सुनने की
अभिरुचि हो, वह आप पूछें, उसे मैं आपको
बताने के लिये तैयार हूँ ।
ब्राह्मण उवाच ।
ये जीवा भुवि जीवन्ति सर्वेऽप्याहारमूलकाः
।
युष्माकमपिचाहारं श्रोतुमिच्छामि
तत्त्वतः ॥ २,२२.५१ ॥
ब्राह्मण ने कहा- हे प्रेतराज !
पृथ्वी पर जो भी जीव जीते हैं, वे सब आहार से
ही जीवित रहते हैं । यथार्थरूप में तुम लोगों के भी आहार को सुनने की मेरी इच्छा
है।
प्रेता ऊचुः ।
यदि ते श्रवणे श्रद्धा आहाराणां
द्विजोत्तम ।
अस्माकं तु महीभाग शृणुत्वं
सुसमाहितः ॥ २,२२.५२ ॥
प्रेतों ने कहा—
हे द्विजराज ! यदि आपकी श्रद्धा हमारे आहार को जानने की है तो
सावधान हो करके आप सुनें ।
ब्राह्मण उवाच ।
कथयन्तु महाप्रेता आहारं च
पृथक्पृथक् ।
इत्युक्तां ब्राह्मणेनेममूचुः
प्रेताः पृथकपृथक् ॥ २,२२.५३ ॥
ब्राह्मण ने कहा- हे महाप्रेतों ! अपने
आहार के विषय में मुझे बताएं।
जब ब्राह्मण ने प्रेतों से इस
प्रकार कहा, तब उन प्रेतों कहना प्रारंभ
किया।
प्रेता ऊचुः ।
शृणु चाहारमस्माकं
सर्वसत्त्बविगर्हितम् ।
यच्छ्रुत्वा गर्हसे ब्रह्मन्
भूयोभूयश्च गर्हितम् ॥ २,२२.५४ ॥
श्लेष्ममूत्रपुरीषोत्थं शरीराणां
मलैः सह ।
उच्छिष्टैश्चैव चान्यैश्च प्रेतानां
भोजनं भवेत् ॥ २,२२.५५ ॥
गृहाणि चाप्यशौचानि
प्रकीर्णोपस्कराणि च ।
मलिनानि प्रसूतानि प्रेता भुञ्जन्ति
तत्र वै ॥ २,२२.५६ ॥
नास्ति सत्यं गृहे यत्र न शौचं न च
संयमः ।
पतितैर्दस्युभिः सङ्गः प्रेता
भुञ्जन्ति तत्र वै ॥ २,२२.५७ ॥
बलिमन्त्रविहीनानि होमहीनानि यानि च
।
स्वाध्याय व्रतहीनानि प्रेता
भुञ्जन्ति तत्र वै ॥ २,२२.५८ ॥
न लज्जा न च मर्यादा यदात्र
स्त्रीजितो गृही ।
गुरवो यत्र पूज्या न प्रेता
भुञ्जन्ति तत्र वै ॥ २,२२.५९ ॥
यत्र लोभस्तथा क्रोधो निद्रा शोको
भयं मदः ।
आलस्यं कलहो नित्यं प्रेता
भुञ्जन्ति तत्र वै ॥ २,२२.६० ॥
भर्तृहीना च या नारी परवीर्यं
निषेवते ।
बीजं मूत्रसमायुर्क्त प्रेता
भुञ्जन्ति तत्तु वै ॥ २,२२.६१ ॥
लज्जा मे जायते तात वदतो भोजनं
स्वकम् ।
यत्स्त्रीरजो योनिगतं प्रेता
भुञ्जन्ति तत्तु वै ॥ २,२२.६२ ॥
निर्विण्णाः प्रेतभावेन पृच्छामि
त्वां दृढव्रत ।
यथा न भविता प्रेतस्तन्मे वद तपोधन
।
नित्यं मृत्युर्वरं जन्तोः
प्रेतत्वं मा भवेत्क्वचित् ॥ २,२२.६३
॥
हम सभी का आहार समस्त प्राणियों के
लिये निन्दनीय है, जिसको सुनकर आप
बार-बार निन्दा करेंगे। प्राणियों के शरीर से निकले हुए कफ, मूत्र
और पुरीषादि मल एवं अन्य प्रकार से उच्छिष्ट भोजन प्रेतों का आहार है। जो घर
अपवित्र रहते हैं, जिनकी घरेलू सामग्रियाँ इधर-उधर बिखरी
रहती हैं, जिन घरों में प्रसूतादि के कारण मलिनता बनी रहती
है, वहीं पर प्रेत भोजन करते हैं। जिस घर में सत्य, शौच और संयम नहीं होता, पतित एवं दस्युजनों का साथ
है, उसी घर में प्रेत भोजन करते हैं। जो घर भूतादिक बलि,
देवमन्त्रोच्चार, अग्निहोत्र, स्वाध्याय तथा व्रतपालन से हीन है, प्रेत उसमें ही
भोजन करते हैं। जो घर लज्जा एवं मर्यादा से रहित है, जिसका
स्वामी स्त्री से जीत लिया गया है, जहाँ माता-पिता और
गुरुजनों की पूजा नहीं होती है, प्रेत वहाँ ही भोजन करते
हैं। जिस घर में नित्य लोभ, क्रोध, निद्रा,
शोक, भय, मद, आलस्य तथा कलह- ये सब दुर्गुण विद्यमान रहते हैं, वहाँ
प्रेत भोजन करते हैं । हे दृढव्रत तपोनिधि विप्रदेव ! हम सब इस प्रेतभाव से दुःखित
हैं, जिससे प्रेतयोनि प्राप्त न हो वह हमें बतायें। प्राणी की
नित्य मृत्यु हो वह अच्छा है पर उसे कभी भी प्रेतयोनि न प्राप्त हो ।
ब्राह्मण उवाच ।
उपवासपरो नित्यं कृच्छ्रचान्द्रायणे
रतः ।
व्रतैश्च विविधैः पूतो न प्रेतो
जायते नरः ॥ २,२२.६४ ॥
एकादश्यां व्रतं कुर्वञ्जागरेण
समन्वितम् ।
अपरैः सुकृतैः पूतो न प्रेतो न
प्रेतो जायते नरः ॥ २,२२.६५ ॥
इष्ट्वा वै
वाश्वमेधादीन्दद्याद्दानानि यो नरः ।
आरामोद्यानवाप्यादेः प्रपायाश्चैव
कारकः ॥ २,२२.६६ ॥
कुमारीं ब्राह्मणानां तु विवाहयति
शक्तितः ।
विद्यादोऽभयदश्चैव न प्रेतो जायते
नरः ॥ २,२२.६७ ॥
शूद्रान्नेन तु भुक्तेन जठरस्थेन यो
मृतः ।
दुर्मृत्युना मृतो यश्च स प्रेतो
जायते नरः ॥ २,२२.६८ ॥
अयाज्ययाजकश्चैव याज्यानां च विवर्जकः
।
कारुभिश्च रतो नित्यं स प्रेतो
जायते नरः ॥ २,२२.६९ ॥
कृत्वा मद्यपसम्पर्कं
मद्यपस्त्रीनिषेवणम् ।
अज्ञानाद्भक्षयन्मांसं स प्रेतो
जायते नरः ॥ २,२२.७० ॥
देवद्रव्यं च ब्रह्मस्वं
गुरुद्रव्यं तथैव च ।
कन्यां ददाति शुल्केन स प्रेतो
जायते नरः ॥ २,२२.७१ ॥
मातरं भगिनीं भार्यां स्नुषां
दुहितरं तथाः ।
अदृष्टदोषास्त्यजति स प्रेतो जादृ ॥
२,२२.७२ ॥
न्यासापहर्ता मित्रध्रुक्परदाररतः
सदा ।
विश्वासघाती कूटश्च स प्रेदृ ॥ २,२२.७३ ॥
भ्रातृध्रुग्ब्रह्महा गोघ्नः सुरापो
गुरुतल्पगः ।
कुलमार्गं परित्यज्य ह्यनृतोक्तौ
सदा रतः ।
हर्ता हेम्नश्च भूमेश्च स प्रेदृ ॥
२,२२.७४ ॥
ब्राह्मण ने कहा - नित्य उपवास रखकर
कृच्छ्र एवं चान्द्रायणव्रत में लगा हुआ तथा अनेक प्रकार से अन्य व्रतों से पवित्र
मनुष्य प्रेत नहीं होता है । जो व्यक्ति जागरणसहित एकादशीव्रत करता है और अन्य
सत्कर्मों से अपने को पवित्र रखता है, वह
प्रेत नहीं होता है। जो प्राणी अश्वमेधादि यज्ञों को सम्पन्न करके नाना प्रकार के
दान देता है तथा क्रीडा, उद्यान, वापी
एवं जलाशय का निर्माता है, ब्राह्मण की कन्याओं का यथाशक्ति
विवाह कराता है, विद्यादान और अशरण को शरण देनेवाला है,
वह प्रेत नहीं होता है। खाये हुए शूद्रान्न के जठर स्थित रहते हुए
जिसकी मृत्यु हो जाती है या जो दुर्मृत्यु से मरता है, वह
प्रेत होता है। जो अयाज्य का याजक तथा मद्यपी का साथ करके मदिरा पीनेवाली स्त्री का
संसर्ग करता है और अज्ञानवश भी मांस खाता है, वह प्रेत होता है।
जो देवता, ब्राह्मण और गुरु के धन का अपहारक है, जो धन लेकर अपनी कन्या देता है, वह प्रेत होता है।
जो माता, भगिनी, स्त्री, पुत्रवधू तथा पुत्री का बिना कोई दोष देखे परित्याग कर देता है, उसे भी प्रेत होना पड़ता है। जो विश्वास पर रखी हुई परायी धरोहर का अपहर्ता
है, मित्रद्रोही है, सदैव परायी स्त्री
में अनुरक्त रहता है, विश्वासघाती और कपटी है, वह प्रेतयोनि में जाता है, जो प्राणी भ्रातृद्रोही,
ब्रह्महन्ता, गोहन्ता, मद्यपी,
गुरुपत्नीगामी, इनका संसर्गी और वंशपरम्परा का
परित्याग करके सदा झूठ बोलता रहता है, स्वर्ण की चोरी तथा
भूमि का अपहरण करता है, वह प्रेत होता है।
भीष्म उवाच ।
एवं ब्रुवति वै विप्रे आकाशे
दुन्दुभिस्वनः ।
अपतत्पुष्पवर्षं च देवर्मुक्तं
द्विजोपरि ॥ २,२२.७५ ॥
पञ्च देवविमानानि प्रेतानामागतानि
वै ।
स्वर्गं गता विमानैस्ते दिव्यैः
संपृच्छ्य तं मुनिम् ॥ २,२२.७६ ॥
ज्ञानं विप्रस्य
सम्भाषात्पुण्यसंकीर्तनेन च ।
प्रेताः पापविनिर्मुक्ताः परं
पदमवाप्नुयुः ॥ २,२२.७७ ॥
भीष्म ने कहा- हे युधिष्ठर ! इस
प्रकार ब्राह्मण संतप्त ऐसा कह ही रहा था कि आकाश में दुन्दुभि बजने लगी। देवों ने
उस ब्राह्मण के ऊपर फूलों की वर्षा की। प्रेतों के लिये वहाँ पाँच देवविमान आ गये।
विधिवत् उस ब्राह्मण की आज्ञा लेकर वे सभी प्रेत दिव्य विमानों में बैठकर स्वर्ग
चले गये। इस प्रकार ब्राह्मण के द्वारा प्राप्त ज्ञान एवं उसके साथ सम्भाषण एवं
पुण्य-संकीर्तन के प्रभाव से उन सभी प्रेतों का पाप विनष्ट हो गया और उन्हें परम
पद की प्राप्ति हुई।
सूत उवाच ।
इदमाख्यानकं श्रुत्वा
कम्पितोऽश्वत्थपत्रवत् ।
मानुषाणां हितार्थाय गरुडः
पृष्टवान्पुनः ॥ २,२२.७८ ॥
सूतजी ने कहा –
इस आख्यान को सुनकर गरुडजी पीपल पत्र के समान काँप उठे। उन्होंने पुनः
मनुष्यों के कल्याण के लिये श्रीभगवान् विष्णु से पूछा ।
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे भीष्म युधिष्ठिरसंवादे
प्रेतत्वोत्पत्तितन्मुक्ति पञ्चप्रेतोपाख्यान निरूपणं नाम द्वाविंशोऽध्यायः॥
जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय 23
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