श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय १९

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय १९    

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय १९    

"परीक्षित् का अनशनव्रत और शुकदेवजी का आगमन"

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय १९

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः १अध्यायः १९   

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः एकोनविंश अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध उन्नीसवाँ अध्याय

प्रथम स्कन्धः · श्रीमद्भागवत महापुराण

                           {प्रथम स्कन्ध:}

                      एकोनविंश अध्याय:

सूत उवाच ।

महीपतिस्त्वथ तत्कर्म गर्ह्यं

    विचिन्तयन् नात्मकृतं सुदुर्मनाः ।

अहो मया नीचमनार्यवत्कृतं

    निरागसि ब्रह्मणि गूढतेजसि ॥ १ ॥

ध्रुवं ततो मे कृतदेवहेलनाद्

    दुरत्ययं व्यसनं नातिदीर्घात् ।

तदस्तु कामं ह्यघनिष्कृताय मे

    यथा न कुर्यां पुनरेवमद्धा ॥ २ ॥

अद्यैव राज्यं बलमृद्धकोशं

    प्रकोपितब्रह्मकुलानलो मे ।

दहत्वभद्रस्य पुनर्न मेऽभूत्

    पापीयसी धीर्द्विजदेवगोभ्यः ॥ ३ ॥

स चिन्तयन्नित्थमथाशृणोद् यथा

    मुनेः सुतोक्तो निर्‌ऋतिस्तक्षकाख्यः ।

स साधु मेने न चिरेण तक्षका

    नलं प्रसक्तस्य विरक्तिकारणम् ॥ ४ ॥

अथो विहायेमममुं च लोकं

    विमर्शितौ हेयतया पुरस्तात् ।

कृष्णाङ्‌घ्रिसेवामधिमन्यमान

    उपाविशत् प्रायममर्त्यनद्याम् ॥ ५ ॥

या वै लसच्छ्रीतुलसीविमिश्र

    कृष्णाङ्‌घ्रिरेण्वभ्यधिकाम्बुनेत्री ।

पुनाति लोकानुभयत्र सेशान्

    कस्तां न सेवेत मरिष्यमाणः ॥ ६ ॥

इति व्यवच्छिद्य स पाण्डवेयः

    प्रायोपवेशं प्रति विष्णुपद्याम् ।

दधौ मुकुन्दाङ्‌घ्रिमनन्यभावो

    मुनिव्रतो मुक्तसमस्तसङ्गः ॥ ७ ॥

तत्रोपजग्मुर्भुवनं पुनाना

    महानुभावा मुनयः सशिष्याः ।

प्रायेण तीर्थाभिगमापदेशैः

    स्वयं हि तीर्थानि पुनन्ति सन्तः ॥ ८ ॥

अत्रिर्वसिष्ठश्च्यवनः शरद्वान्

    अरिष्टनेमिर्भृगुरङ्‌गिराश्च ।

पराशरो गाधिसुतोऽथ राम

    उतथ्य इन्द्रप्रमदेध्मवाहौ ॥ ९ ॥

मेधातिथिर्देवल आर्ष्टिषेणो

    भारद्वाजो गौतमः पिप्पलादः ।

मैत्रेय और्वः कवषः कुम्भयोनिः

    द्वैपायनो भगवान् नारदश्च ॥ १० ॥

अन्ये च देवर्षिब्रह्मर्षिवर्या

    राजर्षिवर्या अरुणादयश्च ।

नानार्षेयप्रवरान् समेतान्

    अभ्यर्च्य राजा शिरसा ववन्दे ॥ ११ ॥

सुखोपविष्टेष्वथ तेषु भूयः

    कृतप्रणामः स्वचिकीर्षितं यत् ।

विज्ञापयामास विविक्तचेता

    उपस्थितोऽग्रेऽभिगृहीतपाणिः ॥ १२ ॥

राजोवाच

अहो वयं धन्यतमा नृपाणां

    महत्तमानुग्रहणीयशीलाः ।

राज्ञां कुलं ब्राह्मणपादशौचाद्

    दूराद् विसृष्टं बत गर्ह्यकर्म ॥ १३ ॥

तस्यैव मेऽघस्य परावरेशो

    व्यासक्तचित्तस्य गृहेष्वभीक्ष्णम् ।

निर्वेदमूलो द्विजशापरूपो

    यत्र प्रसक्तो भयमाशु धत्ते ॥ १४ ॥

तं मोपयातं प्रतियन्तु विप्रा

    गङ्गा च देवी धृतचित्तमीशे ।

द्विजोपसृष्टः कुहकस्तक्षको वा

    दशत्वलं गायत विष्णुगाथाः ॥ १५ ॥

पुनश्च भूयाद्‍भगवत्यनन्ते

    रतिः प्रसङ्गश्च तदाश्रयेषु ।

महत्सु यां यामुपयामि सृष्टिं

    मैत्र्यस्तु सर्वत्र नमो द्विजेभ्यः ॥ १६ ॥

इति स्म राजाध्यवसाययुक्तः

    प्राचीनमूलेषु कुशेषु धीरः ।

उदङ्‌मुखो दक्षिणकूल आस्ते

    समुद्रपत्‍न्याः स्वसुतन्यस्तभारः ॥ १७ ॥

एवं च तस्मिन् नरदेवदेवे

    प्रायोपविष्टे दिवि देवसङ्घाः ।

प्रशस्य भूमौ व्यकिरन् प्रसूनैः

    मुदा मुहुर्दुन्दुभयश्च नेदुः ॥ १८ ॥

महर्षयो वै समुपागता ये

    प्रशस्य साध्वित्यनुमोदमानाः ।

ऊचुः प्रजानुग्रहशीलसारा

    यदुत्तमश्लोकगुणाभिरूपम् ॥ १९ ॥

न वा इदं राजर्षिवर्य चित्रं

    भवत्सु कृष्णं समनुव्रतेषु ।

येऽध्यासनं राजकिरीटजुष्टं

    सद्यो जहुर्भगवत्पार्श्वकामाः ॥ २० ॥

सर्वे वयं तावदिहास्महेऽद्य

    कलेवरं यावदसौ विहाय ।

लोकं परं विरजस्कं विशोकं

    यास्यत्ययं भागवतप्रधानः ॥ २१ ॥

आश्रुत्य तद् ऋषिगणवचः परीक्षित्

    समं मधुच्युद् गुरु चाव्यलीकम् ।

आभाषतैनानभिनन्द्य युक्तान्

    शुश्रूषमाणश्चरितानि विष्णोः ॥ २२ ॥

समागताः सर्वत एव सर्वे

    वेदा यथा मूर्तिधरास्त्रिपृष्ठे ।

नेहाथवामुत्र च कश्चनार्थ

    ऋते परानुग्रहमात्मशीलम् ॥ २३ ॥

ततश्च वः पृच्छ्यमिमं विपृच्छे

    विश्रभ्य विप्रा इति कृत्यतायाम् ।

सर्वात्मना म्रियमाणैश्च कृत्यं

    शुद्धं च तत्रामृशताभियुक्ताः ॥ २४ ॥

तत्राभवद् भगवान् व्यासपुत्रो

    यदृच्छया गामटमानोऽनपेक्षः ।

अलक्ष्यलिङ्गो निजलाभतुष्टो

    वृतश्च बालैरवधूतवेषः ॥ २५ ॥

तं द्व्यष्टवर्षं सुकुमारपाद

    करोरुबाह्वंसकपोलगात्रम् ।

चार्वायताक्षोन्नसतुल्यकर्ण

    सुभ्र्‌वाननं कम्बुसुजातकण्ठम् ॥ २६ ॥

निगूढजत्रुं पृथुतुङ्गवक्षसं

    आवर्तनाभिं वलिवल्गूदरं च ।

दिगम्बरं वक्त्रविकीर्णकेशं

    प्रलम्बबाहुं स्वमरोत्तमाभम् ॥ २७ ॥

श्यामं सदापीच्यवयोऽङ्गलक्ष्म्या

    स्त्रीणां मनोज्ञं रुचिरस्मितेन ।

प्रत्युत्थितास्ते मुनयः स्वासनेभ्यः

    तल्लक्षणज्ञा अपि गूढवर्चसम् ॥ २८ ॥

स विष्णुरातोऽतिथय आगताय

    तस्मै सपर्यां शिरसाऽऽजहार ।

ततो निवृत्ता ह्यबुधाः स्त्रियोऽर्भका

    महासने सोपविवेश पूजितः ॥ २९ ॥

स संवृतस्तत्र महान् महीयसां

    ब्रह्मर्षिराजर्षिदेवर्षि सङ्घैः ।

व्यरोचतालं भगवान् यथेन्दुः

    ग्रहर्क्षतारानिकरैः परीतः ॥ ३० ॥

प्रशान्तमासीनमकुण्ठमेधसं

    मुनिं नृपो भागवतोऽभ्युपेत्य ।

प्रणम्य मूर्ध्नावहितः कृताञ्जलिः

    नत्वा गिरा सूनृतयान्वपृच्छत् ॥ ३१ ॥

परीक्षिदुवाच ।

अहो अद्य वयं ब्रह्मन् सत्सेव्याः क्षत्रबन्धवः ।

कृपयातिथिरूपेण भवद्‌भिस्तीर्थकाः कृताः ॥ ३२ ॥

येषां संस्मरणात् पुंसां सद्यः शुद्ध्यन्ति वै गृहाः ।

किं पुनर्दर्शनस्पर्श पादशौचासनादिभिः ॥ ३३ ॥

सान्निध्यात्ते महायोगिन् पातकानि महान्त्यपि ।

सद्यो नश्यन्ति वै पुंसां विष्णोरिव सुरेतराः ॥ ३४ ॥

अपि मे भगवान् प्रीतः कृष्णः पाण्डुसुतप्रियः ।

पैतृष्वसेयप्रीत्यर्थं तद्‍गोत्रस्यात्तबान्धवः ॥ ३५ ॥

अन्यथा तेऽव्यक्तगतेः दर्शनं नः कथं नृणाम् ।

नितरां म्रियमाणानां संसिद्धस्य वनीयसः ॥ ३६ ॥

अतः पृच्छामि संसिद्धिं योगिनां परमं गुरुम् ।

पुरुषस्येह यत्कार्यं म्रियमाणस्य सर्वथा ॥ ३७ ॥

यच्छ्रोतव्यमथो जप्यं यत्कर्तव्यं नृभिः प्रभो ।

स्मर्तव्यं भजनीयं वा ब्रूहि यद्वा विपर्ययम् ॥ ३८ ॥

नूनं भगवतो ब्रह्मन् गृहेषु गृहमेधिनाम् ।

न लक्ष्यते ह्यवस्थानं अपि गोदोहनं क्वचित् ॥ ३९ ॥

सूत उवाच ।

एवमाभाषितः पृष्टः स राज्ञा श्लक्ष्णया गिरा ।

प्रत्यभाषत धर्मज्ञो भगवान् बादरायणिः ॥ ४० ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

प्रथमस्कन्धे शुकागमनं नाम एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध उन्नीसवाँ अध्याय श्लोक का हिन्दी अनुवाद

सूतजी कहते हैं ;- राजधानी में पहुँचने पर राजा परीक्षित् को अपने उस निन्दनीय कर्म के लिये बड़ा पश्चाताप हुआ। वे अत्यन्त उदास हो गये और सोचने लगे—‘मैंने निरपराध एवं तेज छिपाये हुए ब्राम्हण के साथ अनार्य पुरुषों के समान बड़ा नीच व्यवहार किया। यह बड़े खेद की बात है ।

अवश्य ही उन महात्मा के अपमान के फलस्वरुप शीग्र-से-शीघ्र मुझ पर कोई घोर विपत्ति आवेगी। मैं भी ऐसा ही चाहता हूँ; क्योंकि उससे मेरे पाप का प्रायश्चित हो जायगा और फिर कभी मैं ऐसा काम करने का दुःसाहस नहीं करूँगा ।

ब्राम्हणों की क्रोधाग्नि आज ही मेरे राज्य, सेना और भरे-पूरे खजाने को जलाकर खाक कर देजिससे फिर कभी मुझ दुष्ट की ब्राम्हण, देवता और गौओं के प्रति ऐसी पाप बुद्धि न हो । वे इस प्रकार की चिन्ता कर ही रहे थे कि उन्हें मालूम हुआऋषि कुमार के शाप से तक्षक मुझे डसेगा। उन्हें वह धधकती हुई आग के समान तक्षक का डसना बहुत भला मालूम उन्होंने सोचा कि बहुत दिनों से मैं संसार के आसक्त हो रहा था, अब मुझे शीघ्र वैराग्य होने का कारण प्राप्त हो गया । वे इस लोक और परलोक के भोगों को तो पहले से ही तुच्छ और त्याज्य समझते थे। अब उनका स्वरुपतः त्याग करके भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की सेवा को ही सर्वोपरि मानकर आमरण अनशनव्रत लेकर वे गंगा तट पर बैठ गये । गंगाजी का जल भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों का वह पराग लेकर प्रवाहित होता है, जो श्रीमती तुलसी की गन्ध से मिश्रित है। यही कारण है कि वे लोकपालों के सहित ऊपर-नीचे के समस्त लोकों को पवित्र करती हैं। कौन ऐसा मरणासन्न पुरुष होगा, जो उनका सेवन न करेगा ? इस प्रकार गंगाजी के तट पर आमरण अनशन का निश्चय करके उन्होंने समस्त आसक्तियों का परित्याग कर दिया और वे मुनियों का व्रत स्वीकार करके अनन्य भाव से श्रीकृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करने लगे । उस समय त्रिलोकी को पवित्र करने वाले बड़े-बड़े महानुभाव ऋषि-मुनि अपने शिष्यों के साथ वहाँ पधारे। संतजन प्रायः तीर्थ यात्रा के बहाने स्वयं उन तीर्थ स्थानों को ही पवित्र करते हैं । उस समय वहाँ पर अत्रि, वसिष्ठ, च्यवन, शरद्वान्, अरिष्टनेमि, भृगु, अंगिरा, पराशर, विश्वामित्र, परशुराम, उतथ्य, इन्द्रप्रमद, इध्मवाह, मेधातिथि, देवल, आर्ष्टिषेण, भारद्वाज, गौतम, पिप्पलाद, मैत्रेय, और्व, कवष, अगस्त्य, भगवान व्यास, नारद तथा इनके अतिरिक्त और भी कई श्रेष्ठ देवर्षि, ब्रम्हर्षि तथा अरुणादि राजर्षिवर्यो का शुभागमन हुआ। इस प्रकार विभिन्न गोत्रों के मुख्य-मुख्य ऋषियों को एकत्र देखकर राजा ने सबका यथायोग्य सत्कार किया और उनके चरणों पर सिर रखकर वन्दना की । जब सब लोग आराम से अपने-अपने आसनों पर बैठ गये, तब महाराज परीक्षित् ने उन्हें फिर से प्रणाम किया और उनके सामने खड़े होकर शुद्ध ह्रदय से अंजलि बाँधकर वे जो कुछ करना चाहते थे, उसे सुनाने लगे ।

राजा परीक्षित् ने कहा ;- अहो! समस्त राजाओं में हम धन्य हैं। धन्यतम हैं; क्योंकि अपने शील-स्वभाव के कारण हम आप महापुरुषों के कृपा पात्र बन गये हैं। राजवंश के लोग प्रायः निन्दित कर्म करने के कारण ब्राम्हणों के चरण-धोवन से दूर पड़ जाते हैंयह कितने खेद की बात है ।

मैं भी राजा ही हूँ। निरन्तर देह-गेह में आसक्त रहने के कारण मैं भी पाप रूप ही हो गया हूँ। इसी से स्वयं भगवान ही ब्राम्हण के शाप के रूप में मुझ पर कृपा करने के लिये पधारे हैं। यह शाप वैराग्य उत्पन्न करने वाला है। क्योंकि इस प्रकार के शाप से संसारासक्त पुरुष भयभीत होकर विरक्त हो जाया करते हैं । ब्राम्हणों! अब मैंने अपने चित्त को भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया है। आप लोग और माँ गंगाजी शरणागत जानकर मुझ पर अनुग्रह करें, ब्राम्हण कुमार के शाप से प्रेरित कोई दूसरा कपट से तक्षक का रूप धरकर मुझे डस ले अथवा स्वयं तक्षक आकर डस ले; इसकी मुझे तनिक भी परवा नहीं है। आप लोग कृपा करके भगवान की रसमयी लीलाओं का गायन करें । मैं आप ब्राम्हणों के चरणों में प्रणाम करके पुनः यही प्रार्थना करता हूँ कि मुझे कर्मवश चाहे जिस योनि में में जन्म लेना पड़े, भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में मेरा अनुराग हो, उनके चरणाश्रित महात्माओं से विशेष प्रीति हो और जगत् के समस्त प्राणियों के प्रति मेरी एक-सी मैत्री रहे। ऐसा ऐसा आप आशीर्वाद दीजिये । महाराज परीक्षित् परम धीर थे। वे ऐसा दृढ़ निश्चय करके गंगाजी के दक्षिण तट पर पूर्वाग्र कुशों एक आसन पर उत्तर मुख होकर बैठ गये। राज-काज का भार तो उन्होंने पहले ही अपने पुत्र जनमेजय को सौंप दिया था । पृथ्वी एक एकच्छत्र सम्राट् परीक्षित् जब इस प्रकार आमरण अनशन का निश्चय करके बैठ गये, तब आकाश में स्थित देवता लोग बड़े आनन्द से उनकी प्रशंसा करते हुए वहाँ पृथ्वी पर पुष्पों की वर्षा करने लगे तथा उनके नगारे बार-बार बजने लगे । सभी उपस्थित महर्षियों ने परीक्षित् के निश्चय की प्रशंसा की और साधु-साधुकहकर उनका अनुमोदन किया। ऋषि लोग तो स्वभाव से ही लोगों पर अनुग्रह की वर्षा करते रहते हैं; यही नहीं, उनकी सारी शक्ति लोक पर कृपा करने के लिये ही होती है। उन लोगों ने भगवान श्रीकृष्ण के गुणों से प्रभावित परीक्षित् के प्रति उनके अनुरूप वचन कहे ।

राजर्षिशिरोमणे! भगवान श्रीकृष्ण के सेवक और अनुयायी आप पाण्डुवंशियों के लिये यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि आप लोगों ने भगवान की सन्निधि प्राप्त करने की आकांक्षा से उस राजसिंहासन का एक क्षण में ही परित्याग कर दिया, जिसकी सेवा बड़े-बड़े राजा अपने मुकुटों से करते थे । हम सब तब तक यहीं रहेंगे, जब तक ये भगवान के परम भक्त परीक्षित् अपने नश्वर शरीर को छोड़कर माया दोष एवं शोक से रहित भगवद्धाम में नहीं चले जाते। ऋषियों के ये वचन बड़े ही मधुर, गम्भीर, सत्य और समता से युक्त थे। उन्हें सुनकर राजा परीक्षित् ने उन योगयुक्त मुनियों का अभिनन्दन किया और भगवान के मनोहर चरित्र सुनने की इच्छा से ऋषियों से प्रार्थना की । महात्माओं! आप सभी सब ओर से यहाँ पधारे हैं। आप सत्य लोक में रहने वाले मूर्तिमान् वेदों के समान हैं। आप लोगों का दूसरों पर अनुग्रह करने के अतिरिक्त, जो आपका सहज स्वभाव ही है, इस लोक या परलोक में और कोई स्वार्थ नहीं है ।

विप्रवरों! आप लोगों पर पूर्ण विश्वास करके मैं अपने कर्तव्य के सम्बन्ध में यह पूछने योग्य प्रश्न करता हूँ। आप सभी विद्वान् परस्पर विचार करके बतलाइये कि सबके लिये सब अवस्थाओं में और विशेष करके थोड़े ही समय में मरने वाले पुरुषों के लिये अन्तःकरण और शरीर से करने योग्य विशुद्ध कर्म कौन-सा है। उसी समय पृथ्वी पर स्वेच्छा से विचरण करते हुए, किसी की कोई अपेक्षा न रखने वाले व्यासनन्दन भगवान श्रीशुकदेवजी महाराज वहाँ प्रकट हो गये। वे वर्ण अथवा आश्रम के बाह्य चिन्हों से रहित एवं आत्मानुभूति में सन्तुष्ट थे। बच्चों और स्त्रियों ने उन्हें घेर रखा था। उनका वेष अवधूत का था । सोलह वर्ष की अवस्था थी। चरण, हाथ, जंघा, भुजाएँ, कंधे, कपोल और अन्य सब अंग अत्यन्त सुकुमार थे। नेत्र बड़े-बड़े और मनोहर थे। नासिका कुछ ऊँची थी।

कान बराबर थे। सुन्दर भौंहें थीं, इनसे मुख बड़ा ही शोभायमान हो रहा था। गला तो मानो सुन्दर शंख ही था । हँसली ढकी हुई, छाती चौड़ी और उभरी हुई, नाभि भँवर के समान गहरी तथा उदर बड़ा ही सुन्दर, त्रिवली से युक्त था। लंबी-लंबी भुजाएँ थीं, मुख पर घुँघराले बाल बिखरे हुए थे। इस दिगम्बर वेष में वे श्रेष्ठ देवता के समान तेजस्वी जान पड़ते थे । श्याम रंग था। चित्त को चुराने वाली भरी जवानी थी। वे शरीर की छटा और मधुर मुसकान से स्त्रियों को सदा ही मनोहर जान पड़ते थे। यद्यपि उन्होंने अपने तेज को छिपा रखा था, फिर भी उनके लक्षण जानने वाले मुनियों ने उन्हें पहचान लिया और वे सब-के-सब अपने-अपने आसन छोड़कर उनके सम्मान के लिये उठ खड़े हुए । राजा परीक्षित ने अतिथि रूप से पधारे हुए श्रीशुकदेवजी को सिर झुकाकर प्रणाम किया और उनकी पूजा की। उनके स्वरुप को न जानने वाले बच्चे और स्त्रियाँ उनकी यह महिमा देखकर वहाँ से लौट गये; सबके द्वारा सम्मानित होकर श्रीशुकदेवजी श्रेष्ठ आसन पर विराजमान हुए । ग्रह, नक्षत्र और तारों से घिरे हुए चन्द्रमा के समान ब्रम्हार्षि, देवर्षि और राजर्षियों के समूह से आवृत श्रीशुकदेवजी अत्यन्त शोभायमान हुए। वास्तव में वे महात्माओं के भी आदरणीय थे । जब प्रखर बुद्धि श्रीशुकदेवजी शान्त भाव से बैठ गये, तब भगवान के परम भक्त परीक्षित ने उनके समीप आकर और चरणों पर सिर रखकर प्रणाम किया। फिर खड़े होकर हाथ जोड़कर नमस्कार किया। उसके पश्चात् बड़ी मधुर वाणी से उनसे यह पूछा ।

 परीक्षित ने कहा ;- ब्रम्हस्वरुप भगवन्! आज हम बड़भागी हुए; क्योंकि अपराधी क्षत्रिय होने पर भी हमें संत-समागम का अधिकारी समझा गया। आज कृपापूर्वक अतिथि रूप से पधार कर आपने हमें तीर्थ के तुल्य पवित्र बना दिया । आप-जैसे महात्माओं के स्मरणमात्र से ही गृहस्थों के घर तत्काल पवित्र हो जाते हैं; फिर दर्शन, स्पर्श, पाद प्रक्षालन और आसन-दानादि का सुअवसर मिलने पर तो कहना ही क्या है । महायोगिन्! जैसे भगवान विष्णु के सामने दैत्य लोग नहीं ठहरते, वैसे ही आपकी सन्निधि से बड़े-बड़े पाप भी तुरंत नष्ट हो जाते हैं । अवश्य ही पाण्डवों के सुहृद् भगवान श्रीकृष्ण मुझ पर अत्यन्त प्रसन्न हैं; उन्होंने अपने फुफेरे भाइयों की प्रसन्नता के लिये उन्हीं के कुल में उत्पन्न हुए मेरे साथ भी अपनेपन का व्यवहार किया है ।

भगवान श्रीकृष्ण की कृपा न होती तो आप-सरीखे एकान्त वनवासी अव्यक्तगति परम सिद्ध पुरुष स्वयं पधारकर इस मृत्यु के समय हम-जैसे प्राकृत मनुष्यों को क्यों दर्शन देते । आप योगियों के परम गुरु हैं, इसलिये मैं आपसे परम सिद्धि के स्वरुप और साधन के सम्बन्ध में प्रश्न कर रहा हूँ। जो पुरुष सर्वथा मरणासन्न है, उसको क्या करना चाहिये ? भगवन्! साथ यह भी बतलाइये कि मनुष्यमात्र को क्या करना चाहिये। वे किसका श्रवण, किसका जप, किसका स्मरण और किसका भजन करें तथा किसका त्याग करें ? भगवत्स्वरूप मुनिवर! आपका दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है; क्योंकि जितनी देर एक गाय दुही जाती है, गृहस्थों के घर पर उतनी देर भी तो आप नहीं ठहरते ।

सूतजी कहते हैं ;- जब राजा ने बड़ी ही मधुर वाणी में इस प्रकार सम्भाषण एवं प्रश्न किये, तब समस्त धर्मों के मर्मज्ञ व्यासनन्दन भगवान श्रीशुकदेवजी उनका उत्तर देने लगे ।

।। इस प्रकार  "श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्ध:" के १९ अध्याय समाप्त हुआ ।।

(अब द्वितीय स्कन्ध: प्रारम्भ होता है)

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