श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय १८

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय १८   

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय १८   

"महाराज परीक्षित् के द्वारा कलियुग का दमन , राजा परीक्षित् को श्रृंगी ऋषि का शाप"

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय १८

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः १अध्यायः १८  

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः अष्टादश अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवाँ अध्याय

प्रथम स्कन्धः · श्रीमद्भागवत महापुराण

                           {प्रथम स्कन्ध:}

                      【अष्टादश अध्याय:

सूत उवाच ।

यो वै द्रौण्यस्त्रविप्लुष्टो न मातुरुदरे मृतः ।

अनुग्रहाद् भगवतः कृष्णस्याद्‍भुतकर्मणः ॥ १ ॥

ब्रह्मकोपोत्थिताद् यस्तु तक्षकात् प्राणविप्लवात् ।

न सम्मुमोहोरुभयाद् भगवत्यर्पिताशयः ॥ २ ॥

उत्सृज्य सर्वतः सङ्गं विज्ञाताजितसंस्थितिः ।

वैयासकेर्जहौ शिष्यो गङ्गायां स्वं कलेवरम् ॥ ३ ॥

नोत्तमश्लोकवार्तानां जुषतां तत्कथामृतम् ।

स्यात्सम्भ्रमोऽन्तकालेऽपि स्मरतां तत्पदाम्बुजम् ॥ ४ ॥

तावत्कलिर्न प्रभवेत् प्रविष्टोऽपीह सर्वतः ।

यावदीशो महानुर्व्यां आभिमन्यव एकराट् ॥ ५ ॥

यस्मिन्नहनि यर्ह्येव भगवान् उत्ससर्ज गाम् ।

तदैवेहानुवृत्तोऽसौ अधर्मप्रभवः कलिः ॥ ६ ॥

नानुद्वेष्टि कलिं सम्राट् सारङ्ग इव सारभुक् ।

कुशलान्याशु सिद्ध्यन्ति नेतराणि कृतानि यत् ॥ ७ ॥

किं नु बालेषु शूरेण कलिना धीरभीरुणा ।

अप्रमत्तः प्रमत्तेषु यो वृको नृषु वर्तते ॥ ८ ॥

उपवर्णितमेतद् वः पुण्यं पारीक्षितं मया ।

वासुदेव कथोपेतं आख्यानं यदपृच्छत ॥ ९ ॥

या याः कथा भगवतः कथनीयोरुकर्मणः ।

गुणकर्माश्रयाः पुम्भिः संसेव्यास्ता बुभूषुभिः ॥ १० ॥

ऋषय ऊचुः

सूत जीव समाः सौम्य शाश्वतीर्विशदं यशः ।

यस्त्वं शंससि कृष्णस्य मर्त्यानां अमृतं हि नः ॥ ११ ॥

कर्मण्यस्मिन् अनाश्वासे धूमधूम्रात्मनां भवान् ।

आपाययति गोविन्द पादपद्मासवं मधु ॥ १२ ॥

तुलयाम लवेनापि न स्वर्गं नापुनर्भवम् ।

भगवत् सङ्‌गिसंगस्य मर्त्यानां किमुताशिषः ॥ १३ ॥

को नाम तृप्येद् रसवित्कथायां

    महत्तमैकान्त परायणस्य ।

नान्तं गुणानां अगुणस्य जग्मुः

    योगेश्वरा ये भवपाद्ममुख्याः ॥ १४ ॥

तन्नो भवान् वै भगवत्प्रधानो

    महत्तमैकान्त परायणस्य ।

हरेरुदारं चरितं विशुद्धं

    शुश्रूषतां नो वितनोतु विद्वन् ॥ १५ ॥

स वै महाभागवतः परीक्षिद्

    येनापवर्गाख्यमदभ्रबुद्धिः ।

ज्ञानेन वैयासकिशब्दितेन

    भेजे खगेन्द्रध्वजपादमूलम् ॥ १६ ॥

तन्नः परं पुण्यमसंवृतार्थं

    आख्यानमत्यद्‍भुत योगनिष्ठम् ।

आख्याह्यनन्ता चरितोपपन्नं

    पारीक्षितं भागवताभिरामम् ॥ १७ ॥

सूत उवाच ।

अहो वयं जन्मभृतोऽद्य हास्म

    वृद्धानुवृत्त्यापि विलोमजाताः ।

दौष्कुल्यमाधिं विधुनोति शीघ्रं

    महत्तमानामभिधानयोगः ॥ १८ ॥

कुतः पुनर्गृणतो नाम तस्य

    महत्तमैकान्त परायणस्य ।

योऽनन्तशक्तिः भगवाननन्तो

    महद्‍गुणत्वाद् यमनन्तमाहुः ॥ १९ ॥

एतावतालं ननु सूचितेन

    गुणैरसाम्यानतिशायनस्य ।

हित्वेतरान् प्रार्थयतो विभूतिः

    यस्याङ्‌घ्रिरेणुं जुषतेऽनभीप्सोः ॥ २० ॥

अथापि यत्पादनखावसृष्टं

    जगद्विरिञ्चोपहृतार्हणाम्भः ।

सेशं पुनात्यन्यतमो मुकुन्दात्

    को नाम लोके भगवत्पदार्थः ॥ २१ ॥

यत्रानुरक्ताः सहसैव धीरा

    व्यपोह्य देहादिषु सङ्गमूढम् ।

व्रजन्ति तत्पारमहंस्यमन्त्यं

    यस्मिन्नहिंसोपशमः स्वधर्मः ॥ २२ ॥

अहं हि पृष्टोऽर्यमणो भवद्‌भिः

    आचक्ष आत्मावगमोऽत्र यावान् ।

नभः पतन्त्यात्मसमं पतत्त्रिणः

    तथा समं विष्णुगतिं विपश्चितः ॥ २३ ॥

एकदा धनुरुद्यम्य विचरन्मृगयां वने ।

मृगाननुगतः श्रान्तः क्षुधितस्तृषितो भृशम् ॥ २४ ॥

जलाशयमचक्षाणः प्रविवेश तमाश्रमम् ।

ददर्श मुनिमासीनं शान्तं मीलितलोचनम् ॥ २५ ॥

प्रतिरुद्धेन्द्रियप्राण मनोबुद्धिमुपारतम् ।

स्थानत्रयात्परं प्राप्तं ब्रह्मभूतमविक्रियम् ॥ २६ ॥

विप्रकीर्णजटाच्छन्नं रौरवेणाजिनेन च ।

विशुष्यत्तालुरुदकं तथाभूतमयाचत ॥ २७ ॥

अलब्धतृणभूम्यादिः असम्प्राप्तार्घ्यसूनृतः ।

अवज्ञातं इवात्मानं मन्यमानश्चुकोप ह ॥ २८ ॥

अभूतपूर्वः सहसा क्षुत्तृड्भ्यामर्दितात्मनः ।

ब्राह्मणं प्रत्यभूद्‍ब्रह्मन् मत्सरो मन्युरेव च ॥ २९ ॥

स तु ब्रह्मऋषेरंसे गतासुमुरगं रुषा ।

विनिर्गच्छन् धनुष्कोट्या निधाय पुरमागत् ॥ ३० ॥

एष किं निभृताशेष करणो मीलितेक्षणः ।

मृषा समाधिराहोस्वित् किं नु स्यात् क्षत्रबन्धुभिः ॥ ३१ ॥

तस्य पुत्रोऽतितेजस्वी विहरन् बालकोऽर्भकैः ।

राज्ञाघं प्रापितं तातं श्रुत्वा तत्रेदमब्रवीत् ॥ ३२ ॥

अहो अधर्मः पालानां पीव्नां बलिभुजामिव ।

स्वामिन्यघं यद् दासानां द्वारपानां शुनामिव ॥ ३३ ॥

ब्राह्मणैः क्षत्रबन्धुर्हि गृहपालो निरूपितः ।

स कथं तद्‍गृहे द्वाःस्थः सभाण्डं भोक्तुमर्हति ॥ ३४ ॥

कृष्णे गते भगवति शास्तर्युत्पथगामिनाम् ।

तद् भिन्नसेतूनद्याहं शास्मि पश्यत मे बलम् ॥ ३५ ॥

इत्युक्त्वा रोषताम्राक्षो वयस्यान् ऋषिबालकः ।

कौशिक्याप उपस्पृश्य वाग्वज्रं विससर्ज ह ॥ ३६ ॥

इति लङ्‌घितमर्यादं तक्षकः सप्तमेऽहनि ।

दङ्क्ष्यति स्म कुलाङ्गारं चोदितो मे ततद्रुहम् ॥ ३७ ॥

ततोऽभ्येत्याश्रमं बालो गले सर्पकलेवरम् ।

पितरं वीक्ष्य दुःखार्तो मुक्तकण्ठो रुरोद ह ॥ ३८ ॥

स वा आङ्‌गिरसो ब्रह्मन् श्रुत्वा सुतविलापनम् ।

उन्मील्य शनकैर्नेत्रे दृष्ट्वा चांसे मृतोरगम् ॥ ३९ ॥

विसृज्य तं च पप्रच्छ वत्स कस्माद्धि रोदिषि ।

केन वा तेऽपकृतं इत्युक्तः स न्यवेदयत् ॥ ४० ॥

निशम्य शप्तमतदर्हं नरेन्द्रं

    स ब्राह्मणो नात्मजमभ्यनन्दत् ।

अहो बतांहो महदद्य ते कृतं

    अल्पीयसि द्रोह उरुर्दमो धृतः ॥ ४१ ॥

न वै नृभिर्नरदेवं पराख्यं

    सम्मातुमर्हस्यविपक्वबुद्धे ।

यत्तेजसा दुर्विषहेण गुप्ता

    विन्दन्ति भद्राण्यकुतोभयाः प्रजाः ॥ ४२ ॥

अलक्ष्यमाणे नरदेवनाम्नि

    रथाङ्गपाणावयमङ्ग लोकः ।

तदा हि चौरप्रचुरो विनङ्क्ष्यति

    अरक्ष्यमाणोऽविव रूथवत् क्षणात् ॥ ४३ ॥

तदद्य नः पापमुपैत्यनन्वयं

    यन्नष्टनाथस्य वसोर्विलुम्पकात् ।

परस्परं घ्नन्ति शपन्ति वृञ्जते

    पशून् स्त्रियोऽर्थाम् पुरुदस्यवो जनाः ॥ ४४ ॥

तदाऽऽर्यधर्मः प्रविलीयते नृणां

    वर्णाश्रमाचारयुतस्त्रयीमयः ।

ततोऽर्थकामाभिनिवेशितात्मनां

    शुनां कपीनामिव वर्णसङ्करः ॥ ४५ ॥

धर्मपालो नरपतिः स तु सम्राड् बृहच्छ्रवाः ।

साक्षान् महाभागवतो राजर्षिर्हयमेधयाट् ॥ ४६ ॥

क्षुत्तृट्श्रमयुतो दीनो नैवास्मच्छापमर्हति ॥ ४६.५ ।

अपापेषु स्वभृत्येषु बालेनापक्वबुद्धिना ।

पापं कृतं तद्‍भगवान् सर्वात्मा क्षन्तुमर्हति ॥ ४७ ॥

तिरस्कृता विप्रलब्धाः शप्ताः क्षिप्ता हता अपि ।

नास्य तत्प्रतिकुर्वन्ति तद्‍भक्ताः प्रभवोऽपि हि ॥ ४८ ॥

इति पुत्रकृताघेन सोऽनुतप्तो महामुनिः ।

स्वयं विप्रकृतो राज्ञा नैवाघं तदचिन्तयत् ॥ ४९ ॥

प्रायशः साधवो लोके परैर्द्वन्द्वेषु योजिताः ।

न व्यथन्ति न हृष्यन्ति यत आत्मागुणाश्रयः ॥ ५० ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

प्रथमस्कन्धे विप्रशापोपलम्भनं नाम्ना अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवाँ अध्याय श्लोक का हिन्दी अनुवाद

सूतजी कहते हैं ;- अद्भुत कर्मा भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से राजा परीक्षित् अपनी माता की कोख में अश्वत्थामा के ब्रम्हास्त्र से जल जाने पर भी मरे नहीं । जिस समय ब्राम्हण के शाप से उन्हें डसने के लिये तक्षक आया, उस समय वे प्राण नाश के महान् भय से भयभीत नहीं हुए; क्योंकि उन्होंने अपना चित्त भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर रखा था । उन्होंने सबकी आसक्ति छोड़ दी, गंगातट पर जाकर श्रीशुकदेवजी से उपदेश ग्रहण किया और इस प्रकार भगवान के स्वरुप को जानकर अपने शरीर को त्याग दिया । जो लोग भगवान श्रीकृष्ण की लीला कथा कहते रहते हैं, उस कथामृत का पान करते रहते हैं और इन दोनों ही साधनों के द्वारा उनके चरण-कमलों का स्मरण करते रहते हैं, उन्हें अन्तकाल में भी मोह नहीं होता । जब तक पृथ्वी पर अभिमन्युनन्दन महाराज परीक्षित् सम्राट् रहे, तब तक चारों ओर व्याप्त हो जाने पर भी कलियुग का कुछ भी प्रभाव नहीं था । वैसे तो जिस दिन, जिस क्षण श्रीकृष्ण ने पृथ्वी का परित्याग किया, उसी समय पृथ्वी में अधर्म का मूलकारण कलियुग आ गया था । भ्रमर के समान सारग्राही सम्राट् परीक्षित् कलियुग से कोई द्वेष नहीं रखते थे; क्योंकि इसमें वह एक बहुत बड़ा गुण है कि पुण्यकर्म तो संकल्पमात्र से ही फलीभूत हो जाते हैं, परन्तु पापकर्म का फल शरीर से करने पर ही मिलता है; संकल्पमात्र से नहीं । ये भेड़िये के समान बालकों के प्रति शूरवीर और धीर वीर पुरुषों के लिये बड़ा भीरु है। वह प्रमादी मनुष्यों को अपने वश में करने के लिये ही सदा सावधान रहता है ।

शौनकादि ऋषियों! आप लोगों को मैंने भगवान की कथा से युक्त राजा परीक्षित् का पवित्र चरित्र सुनाया। आप लोगों ने यही पूछा था । भगवान श्रीकृष्ण कीर्तन करने योग्य बहुत-सी लीलाएँ करते हैं। इसलिये उनके गुण और लीलाओं से सम्बन्ध रखने वाली जितनी भी कथाएँ हैं, कल्याणकामी पुरुषों को उन सबका सेवन करना चाहिये ।

ऋषियों ने कहा ;- सौम्यस्वभाव सूतजी! आप युग-युग जीयें; क्योंकि मृत्यु के प्रवाह में पड़े हुए हम लोगों को आप भगवान श्रीकृष्ण की अमृतमयी उज्ज्वल कीर्ति का श्रवण कराते हैं । यज्ञ करते-करते उसके धुएँ से हम लोगों का शरीर धूमिल हो गया है। फिर भी इस कर्म का कोई विश्वास नहीं है। इधर आप तो वर्तमान में ही भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के चरणकमलों का मादक और मधुर मधु पिलाकर हमें तृप्त कर रहे हैं । भागवत्-प्रेमी भक्तों के लवमात्र के सत्संग से स्वर्ग एवं मोक्ष की भी तुलना नहीं की जा सकती; फिर मनुष्यों के तुच्छ भोगों की तो बात ही क्या है । ऐसा कौन रस-मर्मज्ञ होगा, जो महापुरुषों के एकमात्र जीवन सर्वस्व श्रीकृष्ण की लीला-कथाओं से तृप्त ही जाय ? समस्त प्राकृत गुणों से का पार तो ब्रम्हा, शंकर आदि बड़े-बड़े योगेश्वर भी नहीं पा सके । विद्वान्! आप भगवान को ही अपने जीवन का ध्रुवतारा मानते हैं। इसलिये आप सत्पुरुषों के एकमात्र आश्रय भगवान के उदार और विशुद्ध चरित्रों का हम श्रद्धालु श्रोताओं के लिये विस्तार से वर्णन कीजिये ।

भगवान के परम प्रेमी महाबुद्धि परीक्षित ने श्रीशुकदेवजी के उपदेश किये हुए जिस ज्ञान से मोक्षस्वरुप भगवान के चरणकमलों को प्राप्त किया, आप कृपा करके उसी ज्ञान और परीक्षित के परम पवित्र उपाख्यान का वर्णन कीजिये; क्योंकि उसमें कोई बात छिपाकर नहीं कही गयी होंगी और भगवत्प्रेम की अद्भुत योगनिष्ठा का निरूपण क्या या होगा। उसमें पद-पद पर भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन हुआ होगा। भगवान के प्यारे भक्तों को वैसा प्रसंग सुनने में बड़ा रस मिलता है ।

सूतजी कहते हैं ;- अहो! विलोम जाति में उत्पन्न होने पर भी महात्माओं की सेवा करने के कारण आज हमारा जन्म सफल हो गया। क्योंकि महापुरुषों के साथ बातचीत करने मात्र से ही नीच कुल में उत्पन्न होने की मनोव्यथा शीघ्र ही मिट जाती है । फिर उन लोगों की तो बात ही क्या है, जो सत्पुरुषों के एकमात्र आश्रय भगवान का नाम लेते हैं! भगवान की शक्ति अनन्त है, वे स्वयं अनन्त हैं। वास्तव में उनके गुणों की अनन्तता के कारण ही उन्हें अनन्त कहा गया है । भगवान के गुणों की समता भी जब कोई नहीं कर सकता, तब उनसे बढ़कर तो कोई हो ही कैसे सकता है। उनके गुणों की यह विशेषता समझाने के लिये इतना कह देना ही पर्याप्त है कि लक्ष्मीजी अपने को प्राप्त करने की इच्छा से प्रार्थना करने वाले ब्रम्हादि देवताओं को छोड़कर भगवान के न चाहने पर भी उनके चरणकमलों की रज का ही सेवन करती हैं ।

ब्रम्हाजी ने भगवान के चरणों का प्रक्षालन करने के लिये जो जल समर्पित किया था, वही उनके चरण नखों से निकालकर गंगाजी के रूप में प्रवाहित हुआ। यह जल महादेवजी सहित सारे जगत् को पवित्र करता है। ऐसी अवस्था में त्रिभुवन में श्रीकृष्ण के अतिरिक्त भगवान्शब्द का दूसरा और क्या अर्थ हो सकता है। जिनके प्रेम को प्राप्त करके धीर पुरुष बिना किसी हिचक के देह-गेह आदि की दृढ़ आसक्ति को छोड़ देते हैं और उस अन्तिम परमहंस-आश्रम को स्वीकार करते हैं, जिनमें किसी को कष्ट न पहुँचाना और सब ओर से उपशान्त हो जाना ही स्वधर्म होता है । सूर्य के समान प्रकाशमान महात्माओं! आप लोगों ने मुझसे जो कुछ पूछा है, वह मैं अपनी समझ के अनुसार सुनाता हूँ। जैसे पक्षी अपनी शक्ति के अनुसार आकाश में उड़ते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग भी अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार ही श्रीकृष्ण की लीला का वर्णन करते हैं । एक दिन राजा परीक्षित् धनुष लेकर वन में शिकार खेलने गये हुए थे। हरिणों के पीछे दौड़ते-दौड़ते वे थक गये और उन्हें बड़े जोर की भूख और प्यास लगी ।

जब कहीं उन्हें कोई जलाशय नहीं मिला, तब वे पास के ही एक ऋषि के आश्रम में घुस गये। उन्होंने देखा कि वहाँ आँखें बंद करके शान्त भाव से एक मुनि आसन पर बैठे हुए हैं । इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धि के अनिरुद्ध हो जाने से वे संसार से ऊपर उठ गये थे। जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्तितीनों अवस्थाओं से रहित निर्विकार ब्रम्हरूप तुरीय पद में वे स्थित थे । उसका शरीर बिखरी हुई जटाओं से और कृष्ण मृगचर्म से ढका हुआ था। राजा परीक्षित् ने ऐसी ही अवस्था में उनसे जल माँगा, क्योंकि प्यास से उनका गला सूखा जा रहा था ।

जब राजा को वहाँ बैठने के लिये तिनके का आसन भी न मिला, किसी ने उन्हें पर भूमि पर भी बैठने को न कहाअर्घ्य और आदर भरी मीठी बातें तो कहाँ से मिलतींतब अपने को अपमानित-सा मानकर वे क्रोध के वश हो गये । शौनकजी! वे भूख-प्यास से छटपटा रहे थे, इसलिये एकाएक उन्हें ब्राम्हण के प्रति ईर्ष्या और क्रोध हो आया। उनके जीवन में इस प्रकार का यह पहला ही अवसर था । वहाँ से लौटते समय उन्होंने क्रोध वश धनुष की नोक से एक मरा साँप उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया और अपनी राजधानी में चले आये ।

उनके मन में यह बात आयी कि इन्होंने जो अपने नेत्र बंद कर रखे हैं, सो क्या वास्तव में इन्होंने अपनी सारी इन्द्रियवृत्तियों का निरोध कर लिया है अथवा इन राजाओं से हमारा क्या प्रयोजन है, यों सोचकर इन्होंने झूठ-मूठ समाधि का ढ़ोंग रच रखा है । उन शमीक मुनि का पुत्र बड़ा तेजस्वी था। वह दूसरे ऋषि कुमारों के साथ पास ही खेल रहा था।

जब उस बालक ने सुना कि राजा मेरे पिता के साथ दुर्व्यवहार किया है, तब वह इस प्रकार कहने लगा ;-  ‘ये नरपति कहलाने वाले लोग उच्छिष्ट भोजी कौओं के समान संड-मुसंड होकर कितना अन्याय करने लगे है! ब्राम्हणों के दास होकर भी ये दरवाजे पर पहरा देने वाले कुत्ते के समान अपने स्वामी का ही तिरस्कार करते हैं । ब्राम्हणों ने क्षत्रियों को अपना द्वारपाल बनाया है। उन्हें द्वार पर रहकर रक्षा करनी चाहिये, घर में घुसकर स्वामी के बर्तनों में खाने का उसे अधिकार नहीं है । अतएव उन्मार्गगामीयों के शासक भगवान श्रीकृष्ण के परमधाम जाने पर इन मर्यादा तोड़ने वालों को आज मैं दण्ड देता हूँ। मेरा तपोबल देखो। अपने साथी बालकों से इस प्रकार कहकर क्रोध से लाल-लाल आँखों वाले उस ऋषि कुमार ने कौशिकी नदी के जल से आचमन करके अपने वाणी-रूपी वज्र का प्रयोग किया । कुलांगार परीक्षित् ने मेरे पिता का अपमान करके मर्यादा का उल्लंघन किया है, इसलिये मेरी प्रेरणा से आज के सातवें दिन उसे तक्षक सर्प डस लेगा

इसके बाद वह बालक अपने आश्रम पर आया और अपने पिता के गले में साँप देखकर उसे बड़ा दुःख हुआ तथा वह ढाड़ मारकर रोने लगा । विप्रवर शौनकजी! शमीक मुनि ने अपने पुत्र का रोना-चिल्लाना सुनकर धीरे-धीरे अपनी आँखें खोली और देखा कि उनके गले में एक मरा साँप पड़ा है । उसे फेंककर उन्होंने अपने पुत्र से पूछा—‘बेटा! तुम क्यों रो रहे हो ? किसने तुम्हारा अपकार किया है ?’ उनके इस प्रकार पूछने पर बालक ने सारा हाल कह दिया ।

ब्रम्हर्षि शमीक ने राजा के शाप की बात सुनकर अपने पुत्र का अभिनन्दन नहीं किया। उनकी दृष्टि में परीक्षित् शाप के योग्य नहीं थे।

उन्होंने कहा ;- ‘ओह, मूर्ख बालक! तूने बड़ा पाप किया! खेद है कि उनकी थोड़ी-सी गलती के लिये तूने उनको इतना बड़ा दण्ड दिया । तेरी बुद्धि अभी कच्ची है। तुझे भगवत्स्वरूप राजा को साधारण मनुष्यों के समान नहीं समझना चाहिये; क्योंकि राजा के दुस्सह तेज से सुरक्षित और निर्भय रहकर ही प्रजा अपना कल्याण सम्पादन करती है ।         

जिस समय राजा का रूप धारण करके भगवान पृथ्वी पर नहीं दिखायी देंगे, उस समय चोर बढ़ जायँगे और अरक्षित भेड़ों के समान एक क्षण में ही लोगों का नाश हो जायगा । राजा के नष्ट हो जाने पर धन आदि चुराने वाले चोर जो पाप करेंगे, उसके साथ हमारा कोई सम्बन्ध न होने पर भी वह हम पर भी लागू होगा। क्योंकि राजा के न रहने पर लुटेरे बढ़ जाते हैं और वे आपस में मार-पीट, गाली-गलौज करते हैं, साथ पशु, स्त्री और धन-सम्पत्ति भी लुट लेते हैं । उस समय मनुष्यों का वर्णाश्रमाचार-युक्त वैदिक आर्य धर्म लुप्त हो जाता है, अर्थ-लोभ और काम-वासना के विवश होकर लोग कुत्तों और बंदरों के समान वर्ण संकर हो जाते हैं। सम्राट् परीक्षित् तो बड़े ही यशस्वी और धर्मधुरन्धर हैं। उन्होंने बहुत-से अश्वमेध यज्ञ किये हैं और वे भगवान के परम प्यारे भक्त हैं; वे ही राजर्षि भूख-प्यास से व्याकुल होकर हमारे आश्रम पर आये थे, वे शाप के योग्य कदापि नहीं हैं ।

इस नासमझ बालक ने हमारे निष्पाप सेवक राजा का अपराध किया है, सर्वात्मा भगवान कृपा करके इसे क्षमा करें । भगवान ने भक्तों में भी बदला लेने की शक्ति होती है, परंतु वे दूसरों के द्वारा किये हुए अपमान, धोखेबाजी, गाली-गलौज, आक्षेप और मार-पीट का कोई बदला नहीं लेते । महामुनि शमीक को पुत्र के अपराध पर बड़ा पश्चाताप हुआ। राजा परीक्षित् ने जो उसका अपमान किया था, उस पर तो उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया । महात्माओं का स्वभाव ही ऐसा होता है कि जगत् में जब दूसरे लोग उन्हें सुख-दुःखादि द्वन्दों में डाल देते हैं, तब भी वे प्रायः हर्षित या व्यथित नहीं होते; क्योंकि आत्मा का स्वरुप तो गुणों से सर्वथा परे है । 

इस प्रकार श्रीमद्‌भागवत महापुराण का  पारमहंस्या संहिताया प्रथमस्कन्ध विप्रशापोपलम्भन नाम्ना अष्टादशोऽध्याय समाप्त हुआ ॥ १८ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ 

No comments:

Post a Comment

Please do not enter any spam link in the comment box