भविष्यपुराण ब्राह्म पर्व अध्याय १६
भविष्यपुराण ब्राह्म पर्व अध्याय १६-
पंचमहायज्ञों का वर्णन तथा व्रत-उपवासों के प्रकरण में आहार का निरूपण एवं
प्रतिपदा तिथि की उत्पत्ति, व्रत-विधि
और माहात्म्य का वर्णन है ।
भविष्यपुराण ब्राह्म पर्व अध्याय १६
Bhavishya puran Brahma parva
chapter 16
भविष्यपुराणम् पर्व ब्राह्मपर्व अध्यायः १६
भविष्यपुराणम् पर्व १ (ब्राह्मपर्व)
अध्यायः १६
भविष्यपुराण ब्राह्म पर्व सोलहवाँ अध्याय
भविष्यपुराण ब्राह्म पर्व अध्याय १६
भावार्थ सहित
सुमन्तु मुनि ने कहा –
राजन् ! इस प्रकार स्त्रियों के लक्षण और सदाचार का वर्णन करके
ब्रह्माजी अपने लोक, तथा ऋषिगण भी अपने-अपने आश्रमों की ओर
चले गये । अब गृहस्थों को कैसा आचरण करना चाहिये, उसे मैं
बताता हूँ, आप ध्यानपूर्वक सुनें –
गृहस्थों को वैवाहिक अग्नि में
विधि-पूर्वक गृह्यकर्मों को करना चाहिये तथा पञ्च-महायज्ञों का भी सम्पादन करना
चाहिये । गृहस्थों के यहाँ जीव-हिंसा होने के पाँच स्थान हैं –
ओखली, चक्की, चूल्हा,
झाड़ू तथा जल रखने के स्थान । इस हिंसा-दोष से मुक्ति पाने के लिए
गृहस्थों को पञ्च-महायज्ञों – (१) ब्रह्मयज्ञ, (२) पितृयज्ञ, (३) दैवयज्ञ, (४)
भूतयज्ञ तथा (५) अतिथियज्ञ को नित्य अवश्य करना चाहिये ।
अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः
पितृयज्ञश्च तर्पणम् ।
होमो दैवो
बलिर्भौमस्तथान्योऽतिथिपूजनम् ।।७।।
अध्ययन करना तथा अध्यापन करना यह
ब्रह्मयज्ञ हैं, तर्पणादि कर्म
पितृयज्ञ है । देवताओं के लिए हवनादि कर्म दैवयज्ञ है । बलिवैश्वदेव कर्म भूतयज्ञ
है तथा अतिथि एवं अभ्यागतों का स्वागत-सत्कार करना अतिथियज्ञ हैं।
–इन पाँच नियमों का
पालन करने वाला गृहस्थी घर में रहता हुआ भी पञ्चसूना-दोषों से लिप्त नहीं होता ।
यदि समर्थ होते हुए भी वह इन पाँच यज्ञों को नहीं करता है तो उसका जीवन ही व्यर्थ
है ।
राजा शतानीक ने पूछा –
जिस ब्राह्मण के घर में अग्निहोत्र नहीं होता, वह मृतक के समान होता है – यह आपने कहा है, परंतु फिर वह देवपूजा आदि कार्यों को क्यों करे ? और
यदि ऐसी बात है तो देवता, पितर उससे कैसे संतुष्ट होंगे,
इसका आप निराकारण करें ।
सुमन्तु मुनि बोले –
राजन् ! जिन ब्राह्मणों के घर मे अग्निहोत्र न हो उनका उद्धार व्रत,
उपवास, नियम, दान तथा
देवता की स्तुति, भक्ति आदि से होता है । जिस देवता की जो
तिथि हो, उसमें उपवास करने से वे देवता उस पर विशेष-रूप से
प्रसन्न होते है –
व्रतोपवासनियमैर्नानादानैस्तथा
नृप ।
देवादयो भवन्त्येव
प्रीतास्तेषां न संशयः ।। १३।।
विशेषादुपवासेन तिथौ किल महीपते
।
प्रीता देवादयस्तेषां
भवन्ति कुरुनन्दन ।। १४।।
राजा ने फिर कहा –
महाराज ! अब आप अलग-अलग तिथियों में किये जाने वाले व्रतों, तिथि-व्रतों में किये जानेवाले भोजनों तथा उपवास की विधियों का वर्णन करें,
जिनके श्रवण से तथा जिनका आचरण कर संसार-सागर से मैं मुक्त हो जाऊँ
तथा मेरे सभी पाप दूर हो जायँ । साथ ही संसार के जीवों का भी कल्याण हो जाय ।
सुमन्तु मुनि बोले –
मैं तिथियों में विहित कृत्यों का वर्णन करता हूँ, जिनके सुनने से पाप कट जाते हैं और उपवास के फलों की प्राप्ति हो जाती है
।
प्रतिपदा तिथि को दूध तथा द्वितीया
को लवण-रहित भोजन करें । तृतीया के दिन तिलान्न भक्षण करें । इसी प्रकार चतुर्थी
को दूध, पञ्चमी को फल, षष्ठी को शाक, सप्तमी को बिल्वाहार करें । अष्टमी को
पिष्ट, नवमी को अनग्निपाक, दशमी और
एकादशी को घृताहार करें । द्वादशी को खीर, त्रयोदशी को
गो-मूत्र, चतुर्दशी को यवान्न भक्षण करें । पूर्णिमा को कुशा
का जल पीये तथा अमावस्या को हविष्य-भोजन करे । यह सब तिथियों के भोजन की विधि है ।
इस विधि से जो पूरे एक पक्ष भोजन करता है, वह दस
अश्वमेध-यज्ञों का फल प्राप्त करता है और मन्वन्तर तक स्वर्ग में आनन्द भोगता है ।
यदि तीन-चार मास तक इस विधि से भोजन करे तो वह सौ अश्वमेध और सौ राजसूय-यज्ञों का
फल प्राप्त करता है तथा स्वर्ग में अनेक मन्वन्तरों तक सुख भोग करता है । पुरे आठ
महीने इस विधि से भोजन करे तो हजार यज्ञों का फल पाता है और चौदह मन्वन्तर-पर्यन्त
स्वर्ग में वहाँ के सुखों का उपभोग करता है । इसी प्रकार यदि एक वर्ष-पर्यन्त
नियम-पूर्वक इस भोजन-विधि का पालन करता है तो वह सूर्य-लोक में कई मन्वन्तरों तक
आनन्द-पूर्वक निवास करता है । इस उपवास-विधि में चारों वर्णों तथा स्त्री-पुरुषों –
सभी का अधिकार है । जो इन तिथि-व्रतों का आरम्भ आश्विन की नवमी,
माघ की सप्तमी, वैशाख की तृतीया तथा कार्तिक
की पूर्णिमा से करता है, वह लंबी आयु प्राप्त कर अन्त में
सूर्य-लोक को प्राप्त होता हैं । पूर्वजन्म में जिन पुरुषों ने व्रत, उपवास आदि किया, दान दिया, अनेक
प्रकार से ब्राह्मणों, साधू-संतो एवं तपस्वियों को संतुष्ट
किया, माता-पिता और गुरु की सेवा-सुश्रूषा की, विधिपूर्वक तीर्थयात्रा की, वे पुरुष स्वर्ग में
दीर्घ काल तक रहकर जब पृथ्वी पर जन्म लेते है, तब उनके
चिह्न- पुण्य-फल प्रत्यक्ष ही दिखलायी पड़ते है । यहाँ उन्हें हाथी, घोड़े, पालकी, रथ, सुवर्ण, रत्न, कंकण, केयूर, हार, कुण्डल, मुकुट, उत्तम वस्त्र, श्रेष्ठ
सुन्दर स्त्री तथा अच्छे सेवक प्राप्त होते हैं । वे आधि-व्याधि से मुक्त होकर
दीर्घायु होते हैं । पुत्र-पौत्रादि का सुख देखते हैं और वन्दिजनों के स्तुति-पाठ
द्वारा जगाये जाते हैं । इसके विपरीत जिसने व्रत, दान,
उपवास आदि सत्कर्म नहीं किया वह कान, अंधा,
लूला, लँगड़ा, गूँगा,
कुबड़ा तथा रोग और दरिद्रता से पीड़ित रहता है । संसार में आज भी इन
दोनों प्रकार के पुरुष प्रत्यक्ष दिखायी देते हैं । यही पुण्य और पाप की प्रत्यक्ष
परीक्षा है ।
राजा ने कहा –
प्रभो ! आपने अभी संक्षेप में तिथियों को बताया है । अब यह विस्तार
से बतलाने की कृपा करें कि किस देवताकी किस तिथि में पूजा करनी चाहिये और व्रत आदि
किस विधि से करने चाहिये जिनके करने से मैं पवित्र हो जाऊँ और द्वन्द-रहित होकर
यज्ञ के फलों को प्राप्त कर सकूँ ।
सुमन्तु मुनि बोले –
राजन् ! तिथियों का रहस्य, पूजा का विधान,
फल, नियम, देवता तथा
अधिकारी आदि के विषय में मैं बताता हूँ, यह सब आज-तक मैंने
किसी को नहीं बतलाया, इसे आप सुने –
सबसे पहले मैं संक्षेप में सृष्टि
का वर्णन करता हूँ । प्रथम परमात्म ने जल उत्पन्नकर उसमें तेज प्रविष्ट किया,
उससे एक अण्ड उत्पन्न हुआ, उससे ब्रह्मा
उत्पन्न हुए । उन्होंने सृष्टि की इच्छा से उस अण्ड के एक कपाल से भूमि और दूसरे
से आकाश की रचना की । तदनन्तर दिशा, उपदिशा, देवता, दानव आदि रचे और जिस दिन यह सब काम किया उसका
नाम प्रतिप्रदा तिथि रखा । ब्रह्माजी ने इसे सर्वोत्तम माना और सभी तिथियों के
प्रारम्भ में इसका प्रतिपादन किया इसलिये इसका नाम प्रतिपदा हुआ । इसी के बाद सभी
तिथियाँ उत्पन्न हुई ।
अब मैं इसके उपवास-विधि और नियमों
का वर्णन करता हूँ । कार्तिक-पूर्णिमा, माघ-सप्तमी
तथा वैशाख शुक्ल तृतीया से इस प्रतिपदा तिथि के नियम एवं उपवासों को विधि-पूर्वक
प्रारम्भ करना चाहिये । यदि प्रतिपदा तिथि से नियम ग्रहण करना है तो प्रतिपदा से
पूर्व चतुर्दशी तिथि को भोजन के अनन्तर व्रत का संकल्प लेना चाहिये । अमावस्या को
त्रिकाल स्नान करे, भोजन न करे और गायत्री का जप करता रहे ।
प्रतिपदा के दिन प्रातःकाल गन्ध-माल्य आदि उपचारों से श्रेष्ठ ब्राह्मणों की पूजा
करे और उन्हें यथा-शक्ति दूध दे और बाद में ‘ब्रह्माजी मुझपर
प्रसन्न हो’ – ऐसा कहे । स्वयं भी बाद में गाय का दूध पिये ।
इस विधि से एक वर्ष तक व्रत अन्त में गायत्री सहित ब्रह्माजी का पूजन कर व्रत
समाप्त करे ।
इस विधान से व्रत करने पर व्रती के
सब पाप दूर हो जाते हैं और उसकी आत्मा शुद्ध हो जाती है । वह दिव्य-शरीर धारण कर
विमान में बैठकर देवलोक में देवताओं के साथ आनन्द प्राप्त करता है और जब इस पृथ्वी
पर सत्ययुग में जन्म लेता है तो दस जन्म तक वेद-विद्या का पारगामी विद्वान्,
धनवान्, दीर्घ आयुष्य, आरोग्यवान्,
अनेक भोगों से सम्पन्न, यज्ञ करने वाला,
महादानी ब्राह्मण होता है । विश्वामित्र मुनि ने ब्राह्मण होने के
लिए बहुत समय तक घोर तपस्या की, किंतु उन्हें ब्राह्मणत्व
प्राप्त नहीं हो सका । अतः उन्होंने नियम से इसी प्रतिपदा का व्रत किया । इससे
थोड़े से समय में ब्रह्माजी ने उन्हें ब्राह्मण बना दिया । क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र आदि कोई इस तिथि का व्रत करें तो वह सब
पापों से मुक्त होकर दुसरे जन्म में ब्राह्मण होता है । हैहय, तालजंघ, तुरुष्क, यवन,शक आदि म्लेच्छ जातिवाले भी इस व्रत के प्रभाव से ब्राह्मण हो सकते हैं ।
यह तिथि परम पुण्य और कल्याण करने वाली है । जो इसके माहात्म्य को पढ़ता अथवा
सुनता है वह ऋद्धि, वृद्धि और सत्कीर्ति पाकर अन्त में
सद्गति प्राप्त करता है । *
*[इसका वर्णन ठीक इसी
प्रकार वराहपुराण में इससे भी अधिक विस्तार से मिलता है और
मुहूर्त-चिन्तामणि एवं अन्य ज्योतिषग्रन्थों में भी रमणीयतापूर्वक प्रपञ्चित है ।
व्रतकल्पद्रुम, व्रतरत्नाकर,
व्रतराज आदि में भी संगृहीत है]
भविष्यपुराण ब्राह्म पर्व अध्याय १६
सम्पूर्ण।
आगे पढ़ें- भविष्यपुराण ब्राह्म पर्व अध्याय 17
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