सतीखण्ड अध्याय १०
शिवमहापुराण के द्वितीय रुद्रसंहिता
के द्वितीयखण्ड सतीखण्ड के अध्याय १० में ब्रह्मा और विष्णु के संवाद में
शिवमाहात्म्य का वर्णन किया गया है।
रुद्रसंहिता सतीखण्ड अध्याय १०
Sati
khand chapter 10
शिवपुराणम् संहिता २ (रुद्रसंहिता) खण्डः २ (सतीखण्डः) अध्यायः १०
शिवपुराणम्
रुद्रसंहिता सतीखण्डः दशमोऽध्यायः
शिवमहापुराण द्वितीय रुद्रसंहिता द्वितीय-सतीखण्ड दसवाँ अध्याय
शिवमहापुराण –
द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय
१०
नारद उवाच।।
ब्रह्मन् विधे महाभाग धन्यस्त्वं
शिवसक्तधीः।।
कथितं सुचरित्रं ते शंकरस्य
परात्मनः।।१।।
निजाश्रमे गते कामे सगणे सरतौ ततः।।
किमासीत्किमकार्षीस्त्वं तश्चरित्रं
वदाधुना ।।२।।
नारदजी बोले —
हे ब्रह्मन् ! हे विधे ! हे महाभाग ! आप धन्य हैं, जो आपकी बुद्धि शिव में आसक्त है । आपने परमात्मा शंकरजी के सुन्दर चरि
त्रका आख्यान किया ॥ १ ॥ मारगणों तथा [अपनी स्त्री] रति के साथ जब काम अपने स्थान
पर चला गया, तब क्या हुआ और आपने क्या किया ? अब उस चरित्र को कहिये ॥ २ ॥
ब्रह्मोवाच।।
शृणु नारद सुप्रीत्या चरित्रं
शशिमौलिनः।।
यस्य श्रवणमात्रेण निर्विकारो
भवेन्नरः ।। ३ ।।
निजाश्रमं गते कामे
परिवारसमन्विते।।
यद्बभूव तदा जातं तच्चरित्रं निबोध
मे ।।४।।
नष्टोभून्नारद मदो विस्मयोऽभूच्च मे
हृदि ।।
निरानंदस्य च मुनेऽपूर्णो
निजमनोरथे।।५।।
अशोचं बहुधा चित्ते गृह्णीयात्स कथं
स्त्रियम् ।।
निर्विकारी जितात्मा स शंकरो
योगतत्परः।।६।।
इत्थं विचार्य बहुधा तदाहं विमदो
मुने ।।
हरिं तं सोऽस्मरं भक्त्या
शिवात्मानं स्वदेहदम् ।।७।।
अस्तवं च
शुभस्तोत्रैर्दीनवाक्यसमन्वितैः।।
तच्छ्रुत्वा भगवानाशु बभूवाविर्हि
मे पुरा।।८।।
चतुर्भुजोरविंदाक्षः शंरववार्ज
गदाधरः।।
लसत्पीत पटश्श्यामतनुर्भक्तप्रियो
हरिः ।। ९ ।।
ब्रह्माजी बोले –
हे नारद! आप अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक महादेवजी के चरित्र को सुनिये,
जिसके श्रवणमात्र से मनुष्य विकार से मुक्त हो जाता है ॥ ३ ॥ काम के
सपरिवार अपने आश्रम में चले जाने पर उस समय जो हुआ, उस
चरित्र को मुझसे सुनिये ॥ ४ ॥ हे नारद ! मेरा घमण्ड चूर-चूर हो गया और अपने मनोरथ
के अपूर्ण रहने से मुझ आनन्दरहित के हृदय में विस्मय हुआ ॥ ५ ॥ मैंने मन में अनेक
प्रकार से विचार किया कि वे निर्विकार, जितात्मा तथा
योगपरायण शिव स्त्री को किस प्रकार ग्रहण कर सकते हैं ? ॥ ६
॥ हे मुने ! इस प्रकार अनेक तरह से विचार करके अहंकाररहित मैंने उस समय अपने
जन्मदाता शिवस्वरूप उन विष्णु का भक्तिपूर्वक स्मरण किया और दीनतापूर्ण वाक्यों से
युक्त कल्याणकारी स्तोत्रों से मैं उनकी स्तुति करने लगा । उसे सुनकर चतुर्भुज,
कमलनयन, शंखपद्म-गदाधारी, पीताम्बर से सुशोभित तथा श्यामवर्ण के शरीरवाले भक्तप्रिय भगवान् विष्णु
शीघ्र ही मेरे सम्मुख प्रकट हो गये ॥ ७-९ ॥
तं दृष्ट्वा तादृशमहं सुशरण्यं
मुहुर्मुहुः ।।
अस्तवं च पुनः प्रेम्णा
बाष्पगद्गदया गिरा ।। १०।।
हरिराकर्ण्य तत्स्तोत्रं सुप्रसन्न
उवाच माम् ।।
दुःखहा निजभक्तानां ब्रह्माणं शरणं
गतम् ।। ११ ।।
उस प्रकार के रूपवाले शरणागतवत्सल
उन भगवान् को देखकर मैंने पुनः प्रेम से गद्गद वाणी में बार-बार उनकी स्तुति की ॥
१० ॥ अपने भक्तों के दुःख को दूर करनेवाले भगवान् विष्णु उस स्तोत्र को सुनकर
अत्यन्त प्रसन्न हो मुझ शरणागत ब्रह्मा से कहने लगे —
॥ ११ ॥
हरिरुवाच ।।
विधे ब्रह्मन् महाप्राज्ञ
धन्यस्त्वं लोककारक ।।
किमर्थं स्मरणं मेऽद्य कृतं च
क्रियते नुतिः ।। १२।।
किं जातं ते महद्दुःखं मदग्रे
तद्वदाधुना ।।
शमयिष्यामि तत्सर्वं नात्र कार्य्या
विचारणा ।। १३ ।।
विष्णुजी बोले —
हे विधे ! हे ब्रह्मन् ! हे महाप्राज्ञ ! आप धन्य हैं, हे लोककर्ता ! आपने आज किसलिये मेरा स्मरण किया और किसलिये आप मेरी स्तुति
कर रहे हैं ? ॥ १२ ॥ आपको कौन-सा महान् दुःख हो गया है,
उसे अभी बताइये । उस सम्पूर्ण दुःख का मैं नाश करूँगा, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ १३ ॥
ब्रह्मोवाच ।।
इति विष्णोर्वचश्श्रुत्वा
किंचिदुच्छवसिताननः ।।
अवोच वचनं विष्णुं प्रणम्य
सुकृतांजलिः ।।१४ ।।
ब्रह्माजी बोले —
हे नारद ! विष्णु के इन वचनों को सुनकर मैंने दीर्घ श्वास लिया और
हाथ जोड़कर प्रणाम करके विष्णु से यह वचन कहा — ॥ १४ ॥
ब्रह्मोवाच ।।
देवदेव रमानाथ मद्वार्तां शृणु मानद
।।
श्रुत्वा च करुणां कृत्वा हर दुःखं
कमावह ।।१५।।
रुद्रसंमोहनार्थं हि कामं
प्रेषितवानहम् ।।
परिवारयुतं विष्णो समारमधुबांधवम्
।।१६।।
चक्रुस्ते विविधोपायान् निष्फला
अभवंश्च ते ।।
अभवत्तस्य संमोहो योगिनस्समदर्शिनः
।।१७।।
इत्याकर्ण्य वचो मे स हरिर्मां
प्राह विस्मितः ।।
विज्ञाताखिलदज्ञानी
शिवतत्त्वविशारदः ।। १८ ।।
‘हे देवदेव ! हे रमानाथ ! मेरी बात सुनिये और हे मानद ! उसे सुनकर दया करके
मेरा दुःख दूर कीजिये तथा मुझे सुखी कीजिये ॥ १५ ॥ हे विष्णो ! मैंने रुद्र के
सम्मोहन के लिये सपरिवार मारगण तथा वसन्त के साथ काम को भेजा था ॥ १६ ॥ उन्होंने
शिवजी को मोहित करने के लिये अनेक प्रकार के उपाय किये, परंतु
वे सब निष्फल हो गये । उन समदर्शी योगी को मोह नहीं हुआ’ ॥
१७ ॥ मेरा यह वचन सुनकर शिवतत्त्व के ज्ञाता, विज्ञानी तथा
सब कुछ देनेवाले वे विष्णु विस्मित होकर मुझसे कहने लगे — ॥
१८ ॥
।। विष्णुरुवाच ।।
कस्माद्धेतोरिति मतिस्तव जाता
पितामह ।।
सर्वं विचार्य सुधिया ब्रह्मन्
सत्यं हि तद्वद ।। १९ ।।
विष्णुजी बोले —
हे पितामह ! आपकी इस प्रकार की बुद्धि किस कारण से हो गयी है ?
हे ब्रह्मन् ! अपनी सुबुद्धि से सब विचारकर मुझसे सत्य-सत्य उसे
कहें ॥ १९ ॥
ब्रह्मोवाच ।।
शृणु तात चरित्रं तत् तव माया
विमोहिनी ।।
तदधीनं जगत्सर्वं सुखदुःखादितत्परम्
।। २०।।
ययैव प्रेषितश्चाहं पापं कर्तुं
समुद्यतः ।।
आसं तच्छृणु देवेश वदामि तव शासनात्
।।२१।।
ब्रह्माजी बोले —
हे तात ! अब उस चरित्र को सुनिये । यह आपकी माया मोहनेवाली है,
सुख-दुःखमय यह सारा जगत् उसी के अधीन है ॥ २० ॥ उसी माया के द्वारा
प्रेरित होकर मैं [इस प्रकारका] पाप करने के लिये प्रवृत्त हुआ हूँ । हे देवेश !
आपकी आज्ञा से मैं कह रहा हूँ । आप उसे सुनिये ॥ २१ ॥
सृष्टिप्रारंभसमये दश पुत्रा हि
जज्ञिरे ।।
दक्षाद्यास्तनया चैका
वाग्भवाप्यतिसुन्दरी ।। २२ ।।
धर्मो वक्षःस्थलात्कामो मनसोन्योपि
देहतः ।।
जातास्तत्र सुतां दृष्ट्वा मम मोहो
भवद्धरे ।।२३।।
कुदृष्ट्या तां समद्राक्ष तव
मायाविमोहितः ।।
तत्क्षणाद्धर आगत्य
मामनिन्दत्सुतानपि ।।२४।।
धिक्कारं कृतवान् सर्वान्निजं मत्वा
परप्रभुम् ।।
ज्ञानिनं योगिनं नाथाभोगिनं
विजितेन्द्रियम्।।२५।।
पुत्रो भूत्वा मम हरेऽनिन्दन्मां च
समक्षतः ।।
इति दुःखं महन्मे हि तदुक्तं तव
सन्निधौ ।।२६।।
गृह्णीयाद्यदि पत्नीं स स्यां सुखी
नष्टदुःखधी ।।
एतदर्थं समायातुश्शरणं तव केशव ।।
२७ ।।
सृष्टि के प्रारम्भ में मेरे दक्ष
आदि दस पुत्र उत्पन्न हुए और मेरी वाणी से एक परम सुन्दरी कन्या भी उत्पन्न हुई ॥
२२ ॥ जिसमें धर्म मेरे वक्षःस्थल से, काम
मन से तथा अन्य पुत्र मेरे शरीर से उत्पन्न हुए, हे हरे !
कन्या को देखकर मुझे मोह हो गया ॥ २३ ॥ मैंने आपकी माया से मोहित होकर जब उसे
कुदृष्टि से देखा, तब उसी समय महादेवजी ने आकर मेरी तथा मेरे
पुत्रों की निन्दा की ॥ २४ ॥ हे नाथ ! उन्होंने स्वयं को श्रेष्ठ तथा प्रभु मानकर
ज्ञानी, योगी, जितेन्द्रिय, भोगरहित मुझ ब्रह्मा को तथा मेरे पुत्रों को धिक्कारा ॥ २५ ॥ हे हरे !
मेरे पुत्र होकर भी शिव ने सबके सामने ही मेरी निन्दा की । यही मुझे महान् दुःख है,
इसे मैंने आपके सामने कह दिया ॥ २६ ॥ यदि वे पत्नी ग्रहण कर लें,
तो मैं सुखी हो जाऊँगा और मेरे मन का कष्ट दूर हो जायगा । हे केशव !
इसीलिये मैं आपकी शरण में आया हूँ ॥ २७ ॥
ब्रह्मोवाच ।।
इत्याकर्ण्य वचो मे हि ब्रह्मणो
मधुसूदनः ।।
विहस्य मां द्रुतं प्राह
हर्षयन्भवकारकम् ।। २८ ।।
ब्रह्माजी बोले —
[हे नारद!] मुझ ब्रह्मा का यह वचन सुनकर विष्णु हँसकर मुझ
सृष्टिकर्ता ब्रह्मा को हर्षित करते हुए शीघ्र ही कहने लगे — ॥ २८ ॥
विष्णुरुवाच ।।
विधे शृणु हि मद्वाक्यं सर्वं
भ्रमनिवारणम् ।।
सर्वं वेदागमादीनां संमतं परमार्थतः
।। २९ ।।
महामूढमतिश्चाद्य संजातोसि कथं विधे
।।
वेदवक्तापि निखिललोककर्त्ता हि
दुर्मतिः ।। ३० ।।
जडतां त्यज मन्दात्मन् कुरु त्वं
नेदृशीं मतिम् ।।
किं ब्रुवंत्यखिला वेदाः स्तुत्या
तत्स्मर सद्धिया ।। ३१ ।।
रुद्रं जानासि दुर्बुद्धे स्वसुतं
परमेश्वरम् ।।
वेदवक्तापि विज्ञानं विस्मृतं
तेखिलं विधे ।। ३२ ।।
शंकरं सुरसामान्यं मत्वा द्रोहं
करोषि हि ।।
सुबुद्धिर्विगता तेद्याविर्भूता
कुमतिस्तथा ।।३३।।
तत्त्वसिद्धांतमाख्यातं शृणु
सद्बुद्धिमावह ।।
यथार्थं निगमाख्यातं निर्णीय
भवकारकम् ।।३४।।
विष्णुजी बोले —
हे विधे ! सम्पूर्ण भ्रम का निवारण करनेवाले और वेद तथा आगमों
द्वारा अनुमोदित परमार्थयुक्त मेरे वचन को सुनें ॥ २९ ॥ हे विधे ! वेद के वक्ता
तथा समस्त लोक के कर्ता होकर भी आप इस प्रकार महामूर्ख तथा दुर्बुद्धियुक्त किस
प्रकार हो गये ? ॥ ३० ॥ हे मन्दात्मन् ! आप अपनी जड़ता का
त्याग करें और इस प्रकार की बुद्धि न करें । सम्पूर्ण वेद स्तुति द्वारा क्या कहते
हैं, अच्छी बुद्धि से उसका स्मरण करें ॥ ३१ ॥ हे दुर्बुद्धे
! आप उन परेश, रुद्र को अपना पुत्र समझते हैं । हे विधे ! आप
वेद के वक्ता हैं, फिर भी आपका समस्त ज्ञान विस्मृत हो गया
है ॥ ३२ ॥ [ऐसा ज्ञात होता है कि इस समय आपकी सुबुद्धि नष्ट हो गयी है और आपमें
कुमति उत्पन्न हो गयी है, जो आप शंकर को सामान्य देवता समझकर
उनसे द्रोह कर रहे हैं ॥ ३३ ॥ हे ब्रह्मन् ! निर्णय करके वेदों में वर्णित किया
गया जो कल्याणकारक तत्त्वसिद्धान्त कहा गया है, उसे आप
सुनिये और सद्बुद्धि रखिये ॥ ३४ ॥
शिवस्सर्वस्वकर्ता हि भर्ता हर्ता
परात्परः ।।
परब्रह्म परेशश्च निर्गुणो नित्य एव
च । ३५ ।।
अनिर्देश्यो निर्विकारी
परमात्माऽद्वयोऽच्युतः ।।
अनंतोंतकरः स्वामी व्यापकः
परमेश्वरः ।। ३६ ।।
सृष्टिस्थितिविनाशानां कर्त्ता
त्रिगुणभाग्विभुः ।।
ब्रह्मविष्णुमहेशाख्यो रजस्सत्त्व
तमःपरः ।। ३७ ।।
मायाभिन्नो निरीहश्च मायो
मायाविशारदः ।।
सगुणोपि स्वतंत्रश्च निजानंदो
विकल्पकः ।। ३८ ।।
आत्मा रामो हि निर्द्वन्द्वो
भक्ताधीनस्सुविग्रहः ।।
योगी योगरतो नित्यं
योगमार्गप्रदर्शकः ।। ३९ ।।
गर्वापहारी लोकेशस्सर्वदा दीनवत्सलः
।।
एतादृशो हि यः स्वामी स्वपुत्रं
मन्यसे हि तम् ।। ४० ।।
शिवजी ही समस्त सृष्टि के कर्ता,
भर्ता, हर्ता परात्पर, परब्रह्म,
परेश, निर्गुण, नित्य,
अनिर्देश्य, निर्विकार, परमात्मा,
अद्वैत, अच्युत, अनन्त,
सबका अन्त करनेवाले, स्वामी, व्यापक, परमेश्वर, सृष्टि-पालन-संहार
को करनेवाले, सत्त्व-रज-तम – इन तीन
गुणों से युक्त, सर्वव्यापी, रज-सत्त्व-तमरूप
से ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर नाम धारण करनेवाले, माया से भिन्न, इच्छारहित, मायास्वरूप,
माया रचने में प्रवीण, सगुण, स्वतन्त्र, अपने में आनन्दित रहनेवाले, निर्विकल्पक, अपने में ही रमण करनेवाले, द्वन्द्व से रहित, भक्तों के अधीन रहनेवाले, उत्तम शरीरवाले, योगी, सदा योग
में निरत रहनेवाले, योगमार्ग दिखानेवाले, लोकेश्वर, गर्व को दूर करनेवाले तथा सदैव दीनों पर
दया करनेवाले हैं । जो ऐसे स्वामी हैं, उन्हें आप अपना पुत्र
मानते हैं ! ॥ ३५-४० ॥
ईदृशं त्यज कुज्ञानं शरणं व्रज तस्य
वै ।।
भज सर्वात्मना शम्भुं सन्तुष्टश्शं
विधास्यति ।। ४१ ।।
गृह्णीयाच्छंकरः पत्नीं विचारो हृदि
चेत्तव ।।
शिवामुद्दिश्य सुतपः कुरु ब्रह्मन्
शिवं स्मरन् ।।४२।।
कुरु ध्यानं शिवायात्स्वं
काममुद्दिश्य तं हृदि ।।
सा चेत्प्रसन्ना देवेशी सर्वं
कार्यं विधास्यति ।।४३।।
कृत्वावतारं सगुणा यदि स्यान्मानुषी
शिवा ।।
कस्यचित्तनया लोके सा तत्पत्नी
भवेद्ध्रुवम्।।४४।।
दक्षमाज्ञापय ब्रह्मन् तपः
कुर्य्यात्प्रयत्नतः ।।
तामुत्पादयितुं पत्नीं शिवार्थं
भक्तितत्स्वतः ।।४५।।
भक्ताधीनौ च तौ तात सुविज्ञेयौ
शिवाशिवौ ।।
स्वेच्छया सगुणौ जातौ
परब्रह्मस्वरूपिणौ ।। ४६।।
हे ब्रह्मन् ! [शिव हमारे पुत्र
हैं-] इस प्रकार का अज्ञान छोड़ दीजिये । उन्हीं की शरण में जाइये और सब प्रकार से
शिवजी का भजन कीजिये, वे प्रसन्न होकर
आपका कल्याण करेंगे ॥ ४१ ॥ यदि आपका यह विचार है कि शिवजी अवश्य दारपरिग्रह करें,
तो शिवजी का स्मरण करते हुए आप शिवा को उद्देश्य करके कठोर तप
कीजिये ॥ ४२ ॥ आप अपनी इच्छा को हृदय में धारणकर [भगवती] शिवा का ध्यान कीजिये ।
यदि वे देवेश्वरी प्रसन्न हो गयीं, तो आपका समस्त कार्य
पूर्ण करेंगी ॥ ४३ ॥ यदि वे शिवा सगुणरूप से अवतार लेकर किसी मनुष्य की कन्या बनें,
तो निश्चय ही वे उन (शिव) की पत्नी बन सकती हैं ॥ ४४ ॥ हे ब्रह्मन्
! आप [इस कार्य के लिये] दक्ष को आज्ञा दीजिये कि वे स्वयं भक्तितत्पर होकर उन
शिवपत्नी को उत्पन्न करने के लिये प्रयत्नपूर्वक तप करें ॥ ४५ ॥ हे तात ! आप इसे
भली प्रकार समझ लें कि वे शिवा और शिव भक्तों के अधीन हैं, परब्रह्मस्वरूप
ये दोनों स्वेच्छा से सगुणभाव धारण कर लेते हैं ॥ ४६ ॥
ब्रह्मोवाच ।। ।।
इत्युक्त्वा तत्क्षणं मेशश्शिवं
सस्मार स्वप्रभुम् ।।
कृपया तस्य संप्राप्य ज्ञानमूचे च
मां ततः ।। ४७ ।।
ब्रह्माजी बोले —
लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु ने इस प्रकार कहकर तत्क्षण अपने प्रभु
शिवजी का स्मरण किया और उसके बाद उनकी कृपा से ज्ञान प्राप्तकर वे मुझसे कहने लगे —
॥ ४७ ॥
विष्णुरुवाच ।।
विधे स्मर पुरोक्तं यद्वचनं शंकरेण
च ।।
प्रार्थितेन
यदावाभ्यामुत्पन्नाभ्यां तदिच्छया ।। ४८ ।।
विस्मृतं तव तत्सर्वं धन्या या
शांभवी परा ।।
तया संमोहितं सर्वं दुर्विज्ञेया
शिवं विना ।। ४९ ।।
यदा हि सगुणो जातस्स्वेच्छया
निर्गुणश्शिवः ।।
मामुत्पाद्य ततस्त्वां च स्वशक्त्या
सुविहारकृत् ।। ५० ।।
उपादिदेश त्वां शम्भुस्सृष्टिकार्यं
तदा प्रभुः ।।
तत्पालनं च मां ब्रह्मन्
सोमस्सूतिकरोऽव्ययः ।। ५१ ।।
विष्णुजी बोले —
हे ब्रह्मन् ! पूर्वकाल में शिवजी की इच्छा से उत्पन्न हुए हम दोनों
के द्वारा प्रार्थना करने पर उन्होंने जो-जो वचन कहा था, उसका
स्मरण कीजिये ॥ ४८ ॥ आप वह सब भूल गये हैं । शिवजी की जो पराशक्ति है, वह धन्य है, उसीने इस समस्त जगत् को मोहित कर रखा है
। शिव के अतिरिक्त उसे कोई नहीं जान सकता ॥ ४९ ॥ हे ब्रह्मन् ! जब निर्गुण शिवजी
ने अपनी इच्छा से सगुणरूप धारण किया था, उस समय मुझे तथा
आपको उत्पन्न करके अपनी शक्ति के साथ उत्तम विहार करनेवाले, सृष्टिकर्ता,
अविनाशी, परमेश्वर उन शम्भु ने आपको
सृष्टिकार्य के लिये तथा मुझे उसके पालन के लिये आदेश दिया ॥ ५०-५१ ॥
तदा वां वेश्म संप्राप्तौ सांजली
नतमस्तकौ ।।
भव त्वमपि सर्वेशोऽवतारी गुणरूपधृक्
।।५२।।
इत्युक्तः प्राह स स्वामी विहस्य
करुणान्वितः ।।
दिवमुद्वीक्ष्य सुप्रीत्या
नानालीलाविशारदः ।। ।।५३।।
उसके बाद हम दोनों ने हाथ जोड़कर
विनम्र होकर निवेदन किया कि आप सर्वेश्वर होकर भी सगुणरूप धारणकर अवतार लीजिये ।
ऐसा कहने पर करुणामय तथा अनेक प्रकार की लीलाएँ करने में प्रवीण उन स्वामी शिवजी
ने आकाश की ओर देखकर हँसते हुए प्रेमपूर्वक कहा — ॥ ५२-५३ ॥
मद्रूपं परमं विष्णो ईदृशं ह्यंगतो
विधेः ।।
प्रकटीभविता लोके नाम्ना रुद्रः
प्रकीर्तितः ।। ५४ ।।
पूर्णरूपस्स मे पूज्यस्सदा वां
सर्वकामकृत् ।।
लयकर्त्ता गुणाध्यक्षो निर्विशेषः
सुयोगकृत् ।। ५५ ।।
हे विष्णो ! मेरा ऐसा ही परम रूप
ब्रह्माजी के अंग से प्रकट होगा, जो लोक में
रुद्र नाम से प्रसिद्ध होगा । वह मेरा पूजनीय पूर्णरूप आप दोनों के समस्त कार्य को
पूरा करनेवाला, जगत् का लयकर्ता, सभी
गुणों का अधिष्ठाता, निर्विशेष तथा उत्तम योग करनेवाला होगा
॥ ५४-५५ ॥
त्रिदेवा अपि मे रूपं हरः पूर्णो
विशेषतः ।।
उमाया अपि रूपाणि भविष्यंति त्रिधा
सुताः ।।५६।।
लक्ष्मीर्नाम हरेः पत्नी
ब्रह्मपत्नी सरस्वती ।।
पूर्णरूपा सती नाम रुद्रपत्नी
भविष्यति।।५७।।।
यद्यपि त्रिदेव मेरे स्वरूप हैं,
किंतु ‘हर’ मेरे
पूर्णरूप होंगे । [इसी प्रकार] हे पुत्रो ! उमा के भी तीन प्रकार के रूप होंगे ।
लक्ष्मी विष्णु की पत्नी, सरस्वती ब्रह्मा की पत्नी और
पूर्णरूपा सती रुद्र की पत्नी होंगी ॥ ५६-५७ ॥
विष्णुरुवाच ।।
इत्युक्त्वांतर्हितो जातः कृपां
कृत्वा महेश्वरः ।।
अभूतां सुखिनावावां
स्वस्वकार्यपरायणौ ।। ५८ ।।
समयं प्राप्य सस्त्रीकावावां
ब्रह्मन्न शंकरः।।
अवतीर्णस्स्वयं रुद्रनामा
कैलाससंश्रयः।।५९।।
अवतीर्णा शिवा स्यात्सा सतीनाम
प्रजेश्वर।।
तदुत्पादनहेतोर्हि यत्नोतः कार्य एव
वै ।। ६०।।
इत्युक्त्वांतर्दधे विष्णुः कृत्वा
स करुणां परम् ।।
प्राप्नुवं प्रमुदं चाथ ह्यधिकं
गतमत्सरः।। ।। ६१ ।।
विष्णुजी बोले —
[हे ब्रह्मन्!] भगवान् महेश्वर ऐसा कहकर हमदोनों पर कृपा करके
अन्तर्धान हो गये, उसके बाद हम दोनों सुखी होकर अपने-अपने
कार्यों में लग गये ॥ ५८ ॥ हे ब्रह्मन् ! समय पाकर हमदोनों ने स्त्री ग्रहण कर ली,
किंतु शंकरजी ने नहीं । वे रुद्र नाम से अवतीर्ण हुए हैं और कैलास
पर्वत पर रहते हैं ॥ ५९ ॥ हे प्रजेश्वर ! वे शिवा सती नाम से अवतीर्ण होंगी । अतः
उन्हें उत्पन्न होने के लिये हमदोनों को यत्न करना चाहिये ॥ ६० ॥ परम कृपा करके वे
विष्णु ऐसा कहकर अन्तर्धान हो गये । तब मैं [शिवजी के प्रति] ईर्ष्यारहित होकर
अत्यधिक प्रसन्न हो गया ॥ ६१ ॥
इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां
रुद्रसहितायां द्वितीये सतीखण्डे ब्रह्मविष्णुसंवादो नाम दशमोऽध्यायः।।१०।।
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के
अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में ब्रह्मा और विष्णु का संवाद
नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥
शेष जारी .............. शिवमहापुराण रुद्रसंहिता सतीखण्ड अध्याय 11
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