विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ११

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ११      

विष्णु पुराण के प्रथम अंश के अध्याय ११ में ध्रुव का वनगमन और मरीचि आदि ऋषियों से भेट का वर्णन है।

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ११

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ११      

Vishnu Purana first part chapter 11

विष्णुपुराणम् प्रथमांशः एकादशोऽध्यायः  

विष्णुपुराणम्/प्रथमांशः/अध्यायः ११   

श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश ग्यारहवाँ अध्याय

श्रीपराशर उवाच

प्रियव्रतोत्तानपादौ मनोः स्वायंभुवस्य तु ।

द्वौ पुत्रौ तु महावीर्यौ धर्मज्ञौ कथितौ तव ॥ १ ॥

तयोरुत्तानपादस्य सुरुच्यामुत्तमः सुतः ।

अभीष्टायामभूद्ब्रह्यन्पितुरत्यन्तवल्लभः ॥ २ ॥

सुनीतिर्नाम या राज्ञस्तस्यासीन्महिषी द्विज ।

स नाति प्रीतिमांस्तस्यामभूद्यस्या ध्रुवः सुतः ॥ ३ ॥

श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! मैंने तुम्हे स्वायम्भुवमनु के प्रियव्रत एवं उत्तानपाद नामक दो महाबलवान और धर्मज्ञ पुत्र बतलाये थे || || हे ब्रह्मन ! उनमें से उत्तानपाद की प्रेयसी पत्नी सुरुचि से पिता का अत्यंत लाडला उत्तम नामक पुत्र हुआ || || हे द्विज ! उस राजा की जो सुनीति नामक राजमहिषी थी उसमें उसका विशेष प्रेम न था | उसका पुत्र ध्रुव हुआ || ||

राजासनस्थितस्याङ्कं पितुर्भ्रतरमाश्रितम् ।

दृष्ट्वोत्तमं ध्रुव श्चक्रे तमारोढुं मनोरथम् ॥ ४ ॥

प्रत्यक्षं भूपतिस्तस्याः सुरुच्या नाभ्यनन्दत ।

प्रणयेनागतं पुत्रमुत्संगारोहणोत्सुकम् ॥ ५ ॥

सपत्नी तनयं दृष्ट्वा तमङ्कारोहणोत्सुकम् ।

स्वपुत्रं च तथारूढं सुरुचिर्वाक्यमब्रवीत् ॥ ६ ॥

क्रियते किं वृथा वत्स महानेष मनोरथः ।

अन्यस्त्रीगर्भजातेन ह्यसंभूय ममोदरे ॥७ ॥

उत्तमोत्तममप्राप्यमविवेको हि वाञ्छसि ।

सत्यं सुतस्त्वमप्यस्य किं तु न त्वं मया धृतः ॥८ ॥

एतद्राजासनं सर्व भूभृत्संश्रयकेतनम् ।

योग्यं ममैव पुत्रस्य किमात्मा क्लिश्यतेत्वया ॥ ९ ॥

उच्चैर्मनोरथस्तेयं मत्पुत्रस्येव किं वृथा ।

सुनीत्यामात्मनो जन्म किं त्वया नावगम्यते ॥ १० ॥ एक दिन राजसिंहासन पर बैठे हुए पिताकी गोद में अपने भाई उत्तम को बैठा देख ध्रुव की इच्छा भी गोदमें बैठने की हुई || || किन्तु राजाने अपनी प्रेयसी सुरुचि के सामने, गोदमें चढने के लिये उत्कंठित होकर प्रेमवश आये हुए उस पुत्र का आदर नहीं किया || || अपनी सौत के पुत्र को गोद में चढने के लिये उत्सुक और अपने पुत्र को गोद में बैठा देख सुरुचि इसप्रकार कहने लगी || || ‘अरे लल्ला ! बिना मेरे पेट से उत्पन्न हुए किसी अन्य स्त्री का पुत्र होकर भी तू व्यर्थ क्यों ऐसा बड़ा मनोरथ करता है ? || || तू अविवेकी है, इसीलिये ऐसी अलभ्य उत्तमोत्तम वस्तु की इच्छा करता है | यह ठीक है कि तू भी इन्ही राजाका पुत्र है, तथापि मैंने तो तुझे अपने गर्भ में धारण नहीं किया || || समस्त चक्रवर्ती राजाओं का आश्रयरूप यह राजसिंहासन तो मेरे ही पुत्र के योग्य है; तू व्यर्थ क्यों अपने चित्त को संताप देता है ? || || मेरे पुत्र के समान तुझे वृथा ही यह ऊँचा मनोरथ क्यों होता है ? क्या तू नही जानता कि तेरा जन्म सुनीति से हुआ है ?’ || १० ||

श्रीपराशर वाच

उत्सृज्य पितरं बालस्तच्छ्रुत्वा मातृभाषितम् ।

जगाम कुपितो मातुर्निजाया द्विजमन्दिरम् ॥ ११ ॥

तं दृष्ट्वा कुपितं पुत्रमीषत्प्रस्फुरिताधरम् ।

सुनीतिरङ्कमारोप्य मैत्रेयेदमभाषत ॥ १२ ॥

वत्स कः कोपहेतुस्ते कश्च त्वां नाभि नन्दति ।

कोवजानाति पितरं वत्स यस्तेपराध्यति ॥ १३ ॥

श्रीपराशरजी बोले ;– हे द्विज ! विमाताका ऐसा कथन सुन वह बालक कुपित हो पिताको छोडकर अपनी माता के महल को चल दिया || ११ || हे मैत्रेय ! जिसके ओष्ठ कुछ-कुछ काँप रहे थे ऐसे अपने पुत्र को क्रोधयुक्त देख सुनीति ने उसे गोद में बिठाकर पूछा || १२ || ‘बेटा ! तेरे क्रोध का क्या कारण है ? तेरा किसने आदर नही किया ? तेरा अपराध करके कौन तेरे पिताजी का अपमान करने चला है ?’ || १३ ||

श्रीपराशर वाच

इत्युक्तः सकलं मात्रे कथयामास तद्यथा ।

सुरुचिः प्राह भूपालप्रत्यक्षमतगर्विता ॥ १४ ॥

विनिश्वस्येति कथिते तस्मिन्पुत्रेण दुर्मनाः ।

श्वसक्षामेक्षणा दीना सुनीतिर्वाक्यमब्रवीत् ॥१५ ॥

श्रीपराशरजी बोले ;– ऐसा पुछ्नेपर ध्रुव ने अपनी मातासे वे सब बातें कह दी जो अति गर्वीली सुरुचि ने उससे पिताके सामने कही थी || १४ || अपने पुत्र के सिसक-सिसककर ऐसा कहनेपर दु:खिनी सुनीति ने खिन्न चित्त और दीर्घ नि:श्वास के कारण मलिननयना होकर कहा || १५ ||

सुनीतिरुवाच

सुरुचिः सत्यमाहेदं मन्दभाग्योसिःपुत्रक ।

न हि पुण्यवतां वत्स सपत्नैरेव मुच्यते ॥ १६ ॥

नोद्वेगस्तात कर्तव्यः कृतं यद्भवता पुरा ।

तत्कोपहर्तु शक्नोति दातुं कश्चाकृतं त्वया ॥ १७ ॥

तत्त्वया नात्र कर्तव्यं दुःखं तद्वाक्यसम्भवम् ॥ १८ ॥

राजासनं राजच्छत्रं वराश्चावरवारणाः ।

यस्य पुण्यानि तस्यैते मत्वैतच्छांम्य पुत्रक ॥ १९ ॥

अन्यजन्मकृतैः पुण्यैः सुरुच्या सुरुचिर्नृपः ।

भार्येति प्रोच्यते चान्यां मद्विधा पुण्यवर्जिता ॥२० ॥

पुण्योपचयसंपन्नस्तस्याः पुत्रस्तथोत्तमः ।

मम पुत्रस्तथा जातः स्वल्पपुण्यो ध्रुवो भवान् ॥ २१ ॥

तथापि दुःखं न भवान् कर्तुमर्हसि पुत्रक ।

यस्य यावत्स तेनैव स्वेन तुष्यति मानवः ॥ २२ ॥

यदि ते दुःखमत्यर्थं सुरुच्या वचसाभवत् ।

तत्पुण्योपचये यत्नं कुरु सर्वफलप्रदे ॥ २३ ॥

सुशीलो भव धर्मात्मा मैत्रः प्राणिहिते रतः ।

निम्नं यथापः प्रवणाः पात्रमायान्ति सम्पदः ॥ २४ ॥

सुनीति बोली ;– बेटा ! सुरुचि ने ठीक ही कहा है, अवश्य ही तू मंदभाग्य है | हे वत्स ! पुण्यवानों से उनके विपक्षी ऐसा नही कह सकते || १६ || बच्चा ! तू व्याकुल मत हो, क्योंकि तूने पूर्व-जन्मों में जो कुछ किया है उसे दूर कौन कर सकता है ? और जो नही किया वह तुझे दे भी कौन सकता है ? इसलिये तुझे उसके वाक्यों से खेद नही करना चाहिये || १७ १८ || हे वत्स ! जिसका पुण्य होता है, उसीको राजासन, राजच्छत्र तथा उत्तम-उत्तम घोड़े और हाथी आदि मिलते है ऐसा जानकर तू शांत हो जा || १९ || अन्य जन्मों में किये हुए पुण्य-कर्मों के कारण ही सुरुचि में राजा की सुरुचि (प्रीति) है और पुण्यहीना होने से ही मुझ-जैसी स्त्री केवल भार्या (भरण करने योग्य) ही कही जाती है || २० || उसीप्रकार उसका पुत्र उत्तम भी बड़ा पुण्य-पुज्जसम्पन्न है और मेरा पुत्र तू ध्रुव मेरे समान ही अल्प पुण्यवान हैं || २१ || तथापि बेटा ! तुझे दु:खी नही होना चाहिये, क्योंकि जिस मनुष्य को जितना मिलता है वह अपनी ही पूँजी में मग्न रहता है || २२ || और यदि सुरुचि के वाक्यों से तुझे अत्यंत दुःख ही हुआ है तो सर्वफलदायक पुण्य के संग्रह करने का प्रयत्न कर || २३ || तू सुशील, पुण्यात्मा, प्रेमी और समस्त प्राणियों का हितैषी बन, क्योंकि जैसे नीची भूमि की ओर ढलकता हुआ जल अपने आप ही पात्र में आ जाता है वैसे ही सत्पात्र मनुष्य के पास स्वत: ही समस्त सम्पत्तियाँ आ जाती है ||२४||

ध्रुव उवाच

अम्ब यत्त्वमिदं प्रात्थ प्रशमाय वचो मम ।

नैतद्दुर्वाचसा भिन्ने हृदये मम तिष्ठति ॥ २५ ॥

सोऽहं तथा यतिष्यामि यथा सर्वोत्तमोत्तमम् ।

स्थानं प्राप्स्याम्यशोषाणां जगतामभि पूजितम् ॥ २६ ॥

सुरुचिर्दयिता राज्ञस्तस्या जातोस्मि नोदरात् ।

प्रभावं पश्य मेंब त्वं वृद्धस्यापि तवोदरे ॥ २७ ॥

उत्तमः स मम भ्राता यो गर्भेण धृतस्तया ।

स राजासनमाप्नोतु पित्रा दत्तं तथास्तु तत् ॥ २८ ॥

नान्यदत्तमभीप्स्यामि स्तानमम्ब स्वकर्मणा ।

इच्छामि तदहं स्थानं यत्र प्राप पिता मम ॥ २९ ॥

ध्रुव बोला ;– माताजी ! तुमने मेरे चित्त को शांत करने के लिये जो वचन कहे है वे दुर्वाक्यों से बिंधे हुए मेरे ह्रदय में तनिक भी नही ठहरते || २५ || इसलिये मैं तो अब वही प्रयत्न करूँगा जिससे सम्पूर्ण लोकों से आदरणीय सर्वश्रेष्ठ पदको प्राप्त कर सकूँ || २६ || राजा की प्रेयसी तो अवश्य सुरुचि ही है और मैंने उसके उदर से जन्म भी नहीं लिया है, तथापि हे माता ! अपने गर्भ में बढ़े हुए मेरा प्रभाव भी तुम देखना || २७ || उत्तम, जिसको उसने अपने गर्भ से धारण किया है , मेरा भाई ही है | पिताका दिया हुआ राजासन वही प्राप्त करे | [ भगवान करे ] ऐसा ही हो || २८ || माताजी ! मैं किसी दूसरे की दिये हुए पदका इच्छुक नहीं हूँ; मैं तो अपने पुरुषार्थ से ही उस पदकी इच्छा करता हूँ जिसको पिताजी ने भी नही प्राप्त किया है || २९ ||

श्रीपराशर उवाच

निर्जगाम गृहान्मातुरित्युक्त्वा मातरं ध्रुवः ।

पुराच्च निर्गम्य ततस्तद्बाह्योपवनं ययो ॥ ३० ॥

स ददर्श मुनींस्तत्र सप्तपूर्वागतान्ध्रुवः ।

कुष्माजिनोत्तरीयेषु विष्टरेषु समास्थितान् ॥ ३१ ॥

स राजपुत्रस्तान्सर्वान्प्रणिपत्याभ्य भाषत ।

प्रश्रयावनतः सम्यगभिवादनपूर्वकम् ॥ ३२ ॥

श्रीपराशरजी बोले ;– मातासे इसप्रकार कह ध्रुव उसके महल से निकल पड़ा उअर फिर नगरसे बाहर आकर बाहरी उपवन में पहुँचा || ३० || वहाँ ध्रुव ने पहलेसे ही आये हुए सात मुनीश्वरों को कृष्ण मृग-चर्म के बिछौनो से युक्त आसनोंपर बैठे देखा || ३१ || उस राजकुमार ने उस सबको प्रणाम कर अति नम्रता और समुचित अभिवादनादिपूर्वक उनसे कहा || ३२ ||

ध्रुव उवाच

उत्तानपादतनयं मां निबोधत सत्तमाः ।

जातं सुनीत्यां निर्वेदाद्युष्माकं प्राप्तमन्तिकम् ॥ ३३ ॥

ध्रुव ने कहा ;– हे महात्माओं ! मुझे आप सुनीति से उत्पन्न हुआ राजा उत्तानपाद का पुत्र जाने | मैं आत्मग्लानि के कारण आपके निकट आया हूँ || ३३ ||

ऋषय ऊचुः

चतुःपञ्चा ब्दसंभूतो बालस्त्वं तृपनन्दन ।

निर्वेदकारणं किञ्चित्तव नाद्यापि वर्तते ॥ ३४ ॥

न चिन्त्यं भवतः किञ्चिद्ध्रयते भूपतिः पिता ।

न चैवैष्ट वियोगादि तव पश्याम बालक ॥ ३५ ॥

शरीरे न च ते व्याधिरस्माभिरुपलक्ष्यते ।

निर्वेदः किन्निमित्तस्ते कथ्यतां यदि विद्यते ॥३६ ॥

ऋषि बोले ;– राजकुमार ! अभी तो तू चार पाँच वर्षका ही बालक है | अभी तेरे निर्वेद का कोई कारण नहीं दिखायी पड़ता | | ३४ || तुझे कोई चिंता का विषय भी नहीं है, क्योंकि अभी तेरा पिता राजा जीवित है और हे बालक ! तेरी कोई इष्ट वस्तु खो गयी हो ऐसा भी हमें दिखायी नही देता || ३५ || तथा हमें तेरे शरीर में भी कोई व्याधि नहीं दीख पडती फिर बता, तेरी ग्लानिका क्या कारण है ? || ३६ ||

श्रीपराशर उवाच

ततः स कथयामास सुरुच्या यदुदाहृतम् ।

तन्निशम्य ततः प्रोचुर्मुनयस्ते परस्परम् ॥३७ ॥

अहो क्षात्रं परं तेजो बालस्यापि यदक्षमा ।

सपत्न्या मातुरुक्तं यद्धृदयान्नापसर्पति ॥ ३८ ॥

भोभोः क्षत्रियदायादः निर्वेदाद्यत्त्वायाधुना ।

कर्तुं व्यवसितं तन्नः कथ्यतां यदि रोचते ॥ ३९ ॥

यच्च कार्यं तवास्माभिः साहाय्यममितद्युते ।

तदुच्यतां विवक्षुस्त्वमस्माभिरुपलक्ष्यसे ॥ ४० ॥

श्रीपराशरजी बोले ;– तब सुरुचि ने तुमसे जो कुछ कहा था वह सब उसने कह सुनाया | उसे सुनकर वे ऋषिगण आपस में इसप्रकार कहने लगे || ३७ || ‘अहो ! क्षात्रतेज कैसा प्रबल है, जिससे बालक में भी इतनी अक्षमा है कि अपनी विमाता का कथन उसके ह्रदय से नहीं टलता || ३८ || हे क्षत्रियकुमार ! इस निर्वेद के कारण तूने जो कुछ करने का निश्चय किया है, यदि तुझे रुचे तो वह हमलोगों से कह दे || ३९ | और हे अतुलिततेजस्वी ! यह भी बता कि हम तेरी क्या सहायता करें, क्योंकि हमें ऐसा प्रतीत होता है कि तू कुछ कहना चाहता है || ४० ||

ध्रुव उवाच

नाह मर्थमभीप्सामि न राज्यं द्विजसत्तमाः ।

तत्स्थानमेकमिच्छामि भुक्तं नान्येन यत्पुरा ॥ ४१ ॥

एतन्मे क्रियतां सम्यक्कथ्यतां प्राप्यते यथा ।

स्थानमग्र्यं समस्तेभ्यः स्थानेभ्यो मुनिसत्तमाः ॥ ४२ ॥ ध्रुव ने कहा ;– हे द्वीजश्रेष्ठ ! मुझे न तो धन की इच्छा है और न राज्य की, मैं तो केवल एक उसी स्थान को चाहता हूँ जिसको पहले कभी किसीने न भोग हो || ४१ || हे मुनिश्रेष्ठ ! आपकी यही सहायता होगी कि आप मुझे भलीप्रकार यह बता दें कि क्या करने से वह सबसे अग्रगण्य स्थान प्राप्त हो सकता है || ४२ ||

मरीचिरुवाच

अनाराधितगोविन्दैर्नरैः स्थानं नृपात्मज ।

न हि संप्राप्यते श्रेष्ठं तस्मादाराधयाच्युतम् ॥ ४३ ॥

मरीचि बोले ;– हे राजपुत्र ! बिना गोविन्द की आराधना किये मनुष्यको वह श्रेष्ठ स्थान नही मिल सकता, अत: तू श्रीअच्युत की आराधना कर || ४३ ||

अत्रिरुवाच

परः पराणां पुरुषो यस्य तुष्टो जनार्दनः ।

संप्राप्नोत्यक्षयं स्थानमेतत्सत्यं मयोदितम् ॥ ४४ ॥

अत्रि बोले ;– जो परा प्रकृति आदिसे भी परे हैं वे परमपुरुष जनार्दन जिससे संतुष्ट होते है उसी को वह अक्षयपद मिलता है यह मैं सत्य-सत्य कहता हूँ || ४४ ||

अङ्गिरा उवाच

यस्यान्तः सर्वमेवेदमच्युतस्याव्ययात्मनः ।

तमाराधय गोविन्दं स्थानमग्र्यं यदीच्छसि ॥ ४५ ॥

अंगिरा बोले ;– यदि तू अग्रयस्थान का इच्छुक है तो जिन अव्ययात्मा अच्युत में यह सम्पूर्ण जगत ओतप्रोत है उन गोविन्द की ही आराधना कर || ४५ ||

पुलस्त्य उवाच

परं ब्रह्म परं धाम योऽसौ ब्रह्म तथा परम् ।

तमाराध्य हरिं याति मुक्तिमप्यति दुर्लभाम् ॥ ४६ ॥

पुलस्त्य बोले ;– जो परब्रह्म परमधाम और परस्वरूप है उन हरि की आराधना करने से मनुष्य अति दुर्लभ मोक्षपद को भी प्राप्त कर लेता है || ४६ ||

पुलह उवाच

ऐन्द्रमिन्द्रः परं स्थानं यमाराध्य जगत्पतिम् ।

प्राप यज्ञपतिं विष्णुं तमाराधय सुव्रत ॥ ४७ ॥

पुलह बोले ;– हे सुव्रत ! जिन जगत्पति की आराधना से इंद्र ने अत्युत्तम इंद्रपद प्राप्त किया है तू उन यज्ञपति भगवान विष्णु की आराधना कर || ४७ ||

क्रतुरुवाच

यो यज्ञपुरुषो यज्ञो योगेशः परमः पुमान् ।

तस्मिंस्तुष्टे यदप्राप्यं किन्तदस्ति जनार्दने ॥ ४८ ॥

क्रतु बोले ;– जो परमपुरुष यज्ञपुरुष, यज्ञ और योगेश्वर हैं उन जनार्दन के संतुष्ट होनेपर कौन-सी वस्तु दुर्लभ रह सकती है ? ||४८ ||

वसिष्ठ उवाच

प्राप्नोष्याराधिते विष्णौ मनसा यद्यदिच्छति ।

त्रेलोक्यान्तर्गतं स्थानं किमु वत्सोत्तमोत्तमम् ॥ ४९ ॥

वसिष्ठ बोले ;– हे वत्स ! विष्णुभगवान् की आराधना करनेपर तू अपने मनसे जो कुछ चाहेगा वही प्राप्त कर लेगा, फिर त्रिलोकी के उत्तमोत्तम स्थान की तो बात ही क्या है || ४९ ||

ध्रुव उवाच

आराध्यः कथितो देवो भवद्भिः प्रणतस्य मे ।

मया तत्परीतोषाय यज्जप्तव्यं तदुच्यताम् ॥ ५० ॥

यथा चाराधनं तस्य मया कार्यं महात्मनः ।

प्रसादसुमुखास्तन्मे कथयन्तु महर्षयः ॥ ५१ ॥

ध्रुव ने कहा ;– हे महर्षिगण ! मुझ विनीत को आपने आराध्यदेव तो बता दिया | अब उसको प्रसन्न करने के लिये मुझे क्या जपना चाहिये यह बताइये | उस महापुरुष की मुझे जिसप्रकार आराधना करनी चाहिये, वह आपलोग मुझसे प्रसन्नतापूर्वक कहिये || ५० ५१ ||

ऋषय ऊचुः

राजपुत्र यथा विष्णोराराधनपरैर्नरैः ।

कार्यमाराधनं तन्नो यथावच्छ्रोतुमर्हसि ॥ ५२ ॥

बाह्यार्थादखिलाच्चित्तं त्याजयेत्प्रथमं नरः ।

तस्मिन्नेव जगद्धाम्नि ततः कुर्वित निश्चलम् ॥ ५३ ॥

एवमेकाग्रचित्तेन तन्मयेन धृतात्मना ।

जप्तव्यं यन्नि बोधैतत्तन्रः पार्थिवनन्दन ॥ ५४ ॥

हिरण्यगर्भपुरुषप्रधानव्यक्तरूपिणे ।

ओं नमो वासुदेवाय शुद्धज्ञानस्वरूपिमे ॥ ५५ ॥

एतज्जजाप भगवान् जप्यं स्वायंभुवो मनुः ।

पितामहस्तव पुरा तस्य तुष्टो जनार्दनः ॥ ५६ ॥

ददो यथाभिलषितां सिद्धिं त्रैलोक्यदुर्लभाम् ।

तथा त्वमपि गोविन्दं तोषयैतत्सदा जपन् ॥ ५७ ॥

ऋषिगण बोले ;– हे राजकुमार ! विष्णु भगवान की आराधना में तत्पर पुरुषों को जिसप्रकार उनकी उपासना करनी चाहिये वह तू हमसे यथावत श्रवण कर || ५२ || मनुष्य को चाहिये कि पहले सम्पूर्ण बाह्य विषयों से चित्त को हटावे और उसे एकमात्र उन जगदाधार में ही स्थिर कर दे || ५३ || हे राजकुमार ! इस प्रकार एकाग्रचित्त होकर तन्मय-भाव से जो कुछ जपना चाहिये, वह सुन || ५४ || ‘ॐ हिरण्यगर्भ, पुरुष, प्रधान और अव्यक्तरूप शुद्धज्ञानस्वरूप वासुदेव को नमस्कार है ‘ || ५५ || इस (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ) मन्त्र को पूर्वकाल में तेरे पितामह भगवान स्वायम्भुवमनुने जपा था | तब उनसे संतुष्ट होकर श्रीजनार्दन ने उन्हें त्रिलोकी में दुर्लभ मनोवांछित सिद्धि दी थी | उसी प्रकार तू भी इसका निरंतर जप करता हुआ श्रीगोविंद को प्रसन्न कर || ५६ ५७ ||

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमांऽशे एकादशोऽध्याय ॥११॥

आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण अध्याय 12

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