श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय ९

श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय ९  

श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय ९  

"ब्रम्हाजी का भगवद्धाम दर्शन और भगवान् के द्वारा उन्हें चतुःश्लोकी भागवत का उपदेश"

श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय ९

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः २ अध्यायः ९

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्धः नवम अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण दूसरा स्कन्ध नौवाँ अध्याय

द्वितीय स्कन्ध: · श्रीमद्भागवत महापुराण

                           {द्वितीय स्कन्ध:}

                        【नवम अध्याय:

श्रीशुक उवाच ।

(अनुष्टुप्)

आत्ममायामृते राजन् पन्परस्यानुभवात्मनः ।

न घटेतार्थसम्बन्धः स्वप्नद्रष्टुरिवाञ्जसा ॥ १ ॥

बहुरूप इवाभाति मायया बहुरूपया ।

रममाणो गुणेष्वस्या ममाहमिति मन्यते ॥ २ ॥

यर्हि वाव महिम्नि स्वे परस्मिन् कालमाययोः ।

रमेत गतसम्मोहः त्यक्त्वोदास्ते तदोभयम् ॥ ३ ॥

आत्मतत्त्वविशुद्ध्यर्थं यदाह भगवानृतम् ।

ब्रह्मणे दर्शयन् रूपं अव्यलीकव्रतादृतः ॥ ४ ॥

स आदिदेवो जगतां परो गुरुः

    स्वधिष्ण्यमास्थाय सिसृक्षयैक्षत ।

तां नाध्यगछ्रद्दृशमत्र सम्मतां

    प्रपञ्चनिर्माणविधिर्यया भवेत् ॥ ५ ॥

स चिन्तयन् द्व्यक्षरमेकदाम्भसि

    उपाशृणोत् द्विर्गदितं वचो विभुः ।

स्पर्शेषु यत्षोडशमेकविंशं

    निष्किञ्चनानां नृप यद्धनं विदुः ॥ ६ ॥

निशम्य तद्वक्तृदिदृक्षया दिशो

    विलोक्य तत्रान्यदपश्यमानः ।

स्वधिष्ण्यमास्थाय विमृश्य तद्धितं

    तपस्युपादिष्ट इवादधे मनः ॥ ७ ॥

दिव्यं सहस्राब्दममोघदर्शनो

    जितानिलात्मा विजितोभयेन्द्रियः ।

अतप्यत स्माखिललोकतापनं

    तपस्तपीयांस्तपतां समाहितः ॥ ८ ॥

तस्मै स्वलोकं भगवान् सभाजितः

    सन्दर्शयामास परं न यत्परम् ।

व्यपेतसङ्क्लेशविमोहसाध्वसं

    स्वदृष्टवद्‌भिः विबुधैरभिष्टुतम् ॥ ९ ॥

प्रवर्तते यत्र रजस्तमस्तयोः

    सत्त्वं च मिश्रं न च कालविक्रमः ।

न यत्र माया किमुतापरे हरेः

    अनुव्रता यत्र सुरासुरार्चिताः ॥ १० ॥

श्यामावदाताः शतपत्रलोचनाः

    पिशङ्गवस्त्राः सुरुचः सुपेशसः ।

सर्वे चतुर्बाहव उन्मिषन्मणि

    प्रवेकनिष्काभरणाः सुवर्चसः ।

प्रवालवैदूर्यमृणालवर्चसः

    परिस्फुरत्कुण्डल मौलिमालिनः ॥ ११ ॥

भ्राजिष्णुभिर्यः परितो विराजते

    लसद्विमानावलिभिर्महात्मनाम् ।

विद्योतमानः प्रमदोत्तमाद्युभिः

    सविद्युदभ्रावलिभिर्यथा नभः ॥ १२ ॥

श्रीर्यत्र रूपिण्युरुगायपादयोः

    करोति मानं बहुधा विभूतिभिः ।

प्रेङ्खं श्रिता या कुसुमाकरानुगैः

    विगीयमाना प्रियकर्म गायती ॥ १३ ॥

ददर्श तत्राखिलसात्वतां पतिं

    श्रियः पतिं यज्ञपतिं जगत्पतिम् ।

सुनंदनंदप्रबलार्हणादिभिः

    स्वपार्षदाग्रैः परिसेवितं विभुम् ॥ १४ ॥

भृत्यप्रसादाभिमुखं दृगासवं

    प्रसन्नहासारुणलोचनाननम् ।

किरीटिनं कुण्डलिनं चतुर्भुजं

    पीतांशुकं वक्षसि लक्षितं श्रिया ॥ १५ ॥

अध्यर्हणीयासनमास्थितं परं

    वृतं चतुःषोडशपञ्चशक्तिभिः ।

युक्तं भगैः स्वैरितरत्र चाध्रुवैः

    स्व एव धामन् रममाणमीश्वरम् ॥ १६ ॥

तद्दर्शनाह्लादपरिप्लुतान्तरो

    हृष्यत्तनुः प्रेमभराश्रुलोचनः ।

ननाम पादाम्बुजमस्य विश्वसृग्

    यत् पारमहंस्येन पथाधिगम्यते ॥ १७ ॥

तं प्रीयमाणं समुपस्थितं कविं

    प्रजाविसर्गे निजशासनार्हणम् ।

बभाष ईषत्स्मितशोचिषा गिरा

    प्रियः प्रियं प्रीतमनाः करे स्पृशन् ॥ १८ ॥

श्रीभगवानुवाच ।

(अनुष्टुप्)

त्वयाहं तोषितः सम्यग् वेदगर्भ सिसृक्षया ।

चिरं भृतेन तपसा दुस्तोषः कूटयोगिनाम् ॥ १९ ॥

वरं वरय भद्रं ते वरेशं माभिवाञ्छितम् ।

ब्रह्मञ्छ्रेयः परिश्रामः पुंसां मद्दर्शनावधिः ॥ २० ॥

मनीषितानुभावोऽयं मम लोकावलोकनम् ।

यदुपश्रुत्य रहसि चकर्थ परमं तपः ॥ २१ ॥

प्रत्यादिष्टं मया तत्र त्वयि कर्मविमोहिते ।

तपो मे हृदयं साक्षाद् आत्माऽहं तपसोऽनघ ॥ २२ ॥

सृजामि तपसैवेदं ग्रसामि तपसा पुनः ।

बिभर्मि तपसा विश्वं वीर्यं मे दुश्चरं तपः ॥ २३ ॥

ब्रह्मोवाच

भगवन् सर्वभूतानां अध्यक्षोऽवस्थितो गुहाम् ।

वेद ह्यप्रतिरुद्धेन प्रज्ञानेन चिकीर्षितम् ॥ २४ ॥

तथापि नाथमानस्य नाथ नाथय नाथितम् ।

परावरे यथा रूपे जानीयां ते त्वरूपिणः ॥ २५ ॥

यथात्ममायायोगेन नानाशक्त्युपबृंहितम् ।

विलुम्पन् विसृजन् गृह्णन् बिभ्रदात्मानमात्मना ॥ २६ ॥

क्रीडस्यमोघसङ्कल्प ऊर्णनाभिर्यथोर्णुते ।

तथा तद्विषयां धेहि मनीषां मयि माधव ॥ २७ ॥

भगवच्छिक्षितमहं करवाणि ह्यतन्द्रितः ।

नेहमानः प्रजासर्गं बध्येयं यदनुग्रहात् ॥ २८ ॥

यावत्सखा सख्युरिवेश ते कृतः

    प्रजाविसर्गे विभजामि भो जनम् ।

अविक्लबस्ते परिकर्मणि स्थितो

    मा मे समुन्नद्धमदोऽजमानिनः ॥ २९ ॥

श्रीभगवानुवाच ।

(अनुष्टुप्)

ज्ञानं परमगुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम् ।

सरहस्यं तदङ्गं च गृहाण गदितं मया ॥ ३० ॥

यावानहं यथाभावो यद् रूपगुणकर्मकः ।

तथैव तत्त्वविज्ञानं अस्तु ते मदनुग्रहात् ॥ ३१ ॥

अहमेवासमेकोऽग्रे नान्यत् यत्सदसत्परम् ।

पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥ ३२ ॥

ऋतेऽर्थं यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि ।

तद्विद्याद् आत्मनो मायां यथाभासो यथा तमः ॥ ३३ ॥

यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु ।

प्रविष्टानि अप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ॥ ३४ ॥

एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः ।

अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत्स्यात् सर्वत्र सर्वदा ॥ ३५ ॥

एतन्मतं समातिष्ठ परमेण समाधिना ।

भवान् कल्पविकल्पेषु न विमुह्यति कर्हिचित् ॥ ३६ ॥

श्रीशुक उवाच ।

सम्प्रदिश्यैवमजनो जनानां परमेष्ठिनम् ।

पश्यतः तस्य तद् रूपं आत्मनो न्यरुणद्धरिः ॥ ३७ ॥

अन्तर्हितेन्द्रियार्थाय हरये विहिताञ्जलिः ।

सर्वभूतमयो विश्वं ससर्जेदं स पूर्ववत् ॥ ३८ ॥

प्रजापतिर्धर्मपतिः एकदा नियमान् यमान् ।

भद्रं प्रजानामन्विच्छन् नातिष्ठत्स्वार्थकाम्यया ॥ ३९ ॥

तं नारदः प्रियतमो रिक्थादानामनुव्रतः ।

शुश्रूषमाणः शीलेन प्रश्रयेण दमेन च ॥ ४० ॥

मायां विविदिषन् विष्णोः मायेशस्य महामुनिः ।

महाभागवतो राजन् पितरं पर्यतोषयत् ॥ ४१ ॥

तुष्टं निशाम्य पितरं लोकानां प्रपितामहम् ।

देवर्षिः परिपप्रच्छ भवान् यन्मानुपृच्छति ॥ ४२ ॥

तस्मा इदं भागवतं पुराणं दशलक्षणम् ।

प्रोक्तं भगवता प्राह प्रीतः पुत्राय भूतकृत् ॥ ४३ ॥

नारदः प्राह मुनये सरस्वत्यास्तटे नृप ।

ध्यायते ब्रह्म परमं व्यासाय अमिततेजसे ॥ ४४ ॥

यदुताहं त्वया पृष्टो वैराजात्पुरुषादिदम् ।

यथासीत् तदुपाख्यास्ते प्रश्नान् अन्यांश्च कृत्स्नशः ॥ ४५ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

द्वितीयस्कंधे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥ 

श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध नवम अध्याय श्लोक का हिन्दी अनुवाद

श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- परीक्षित्! जैसे स्वप्न में देखे जाने वाले पदार्थों के साथ उसे देखने वाले का कोई सबंध नहीं होता, वैसे ही देहादि से अतीत अनुभव स्वरप आत्मा का माया के बिना दृश्य पदार्थों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता । विविध रूप वाली माया के कारण वह विविध रूप वाला प्रतीत होता है और जब उसके गुणों में रम जाता हूँ तब यह मैं हूँ, यह मेरा हैइस प्रकार मानने लगता है । किन्तु जब यह गुणों के क्षुब्ध करने वाले काल और मोह उत्पन्न करने वाली मायाइन दोनों से परे अपने अनन्त स्वरुप में मोह रहित होकर रमण करने लगता हैआत्माराम हो जाता है; तब यह मैं, मेराका भाव छोड़कर पूर्ण उदासीनगुणातीत हो जाता है ।

ब्रम्हाजी की निष्कपट तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् ने उन्हें अपने रूप का दर्शन कराया और आत्मतत्व के ज्ञान के लिये उन्हें परम सत्य परमार्थ वस्तु का उपदेश किया (वही बात मैं तुम्हें सुनाता हूँ) । तीनों लोकों के परम गुरु आदिदेव ब्रम्हाजी अपने जन्म स्थान कमल पर कमल पर बैठकर सृष्टि करने की इच्छा से विचार करने लगे। परन्तु जिस ज्ञान दृष्टि से सृष्टि का निर्माण हो सकता था और जो सृष्टि-व्यापार के लिये वांछनीय है, वह दृष्टि उन्हें प्राप्त नहीं हुई । एक दिन वे यही चिन्ता कर रहे थे कि प्रलय के समुद्र में उन्होंने व्यंजनों के सोलहवें एवं इक्कीसवें अक्षर तथा को—‘तप-तप’ (‘तप करो’) इस प्रकार दो बार सुना। परीक्षित्! महात्मा लोग इस तप को इस वक्ता को देखने की इच्छा से चारों ओर देखा, परन्तु वहाँ दूसरा कोई दिखायी न पड़ा। वे अपने कमल पर बैठ गये और मुझे तप करने की प्रत्यक्ष आज्ञा मिली हैऐसा निश्चय कर और उसी में अपना हित समझकर उन्होंने अपने मन को तपस्या में लगा दिया । ब्रम्हाजी तपस्वियों से सबसे बड़े तपस्वी हैं। उसका ज्ञान अमोघ है। उन्होंने एक समय एक सहस्त्र दिव्य वर्ष पर्यन्त एकाग्र चित्त से अपने प्राण, मन, कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रियों को वश में करके ऐसी तपस्या की, जिससे वे समस्त लोकों को प्रकाशित करने में समर्थ हो सके । उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् ने उन्हें अपना वह लोक दिखाया, जो सबसे श्रेष्ठ है और जिससे परे कोई दूसरा लोक नहीं है। उस लोक में किसी भी प्रकार के क्लेश, मोह और भय नहीं हैं। जिन्हें कभी एक बार भी उनके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वे देवता बार-बार उनकी स्तुति करते रहते हैं । वहाँ रजोगुण, तमोगुण और इनसे मिला हुआ सत्वगुण भी नहीं है। वहाँ न काल की दाल गलती है और न माया ही कदम रख सकती है; फिर माया के बाल-बच्चे तो जा ही कैसे सकते हैं। वहाँ भगवान् के वे पार्षद निवास करते हैं, जिनका पूजन देवता और दैत्य दोनों ही करते हैं । उनका उज्ज्वल आभा से युक्त श्याम शरीर शतदल कमल के समान कोअल नेत्र और पीले रंग के वस्त्र से शोभायमान है। अंग-अंग से राशि-राशि सौन्दर्य बिखरता रहता है। वे कोमलता की मूर्ति हैं। सभी के चार-चार भुजाएँ हैं। वे स्वयं तो अत्यन्त तेजस्वी हैं ही, मणिजटित सुवर्ण के प्रभामय आभूषण भी धारण किये रहते हैं। उनकी छवि मूँगे, वैदूर्यमणि और कमल के उज्ज्वल तन्तु के समान हैं। उनके कानों में कुण्डल, मस्तक पर मुकुट और कण्ठ में मालाएँ शोभायमान हैं ।

जिस प्रकार आकाश बिजली सहित बादलों से शोभायमान होता है, वैस ही वह लोक मनोहर कामिनियों की कान्ति से युक्त महात्माओं के दिव्य तेजोमय विमानों से स्थान-स्थान पर सुशोभित होता रहता है । उस वैकुण्ठ लोक में लक्ष्मीजी सुन्दर रूप धारण करके अपनी विविध विभूतियों के द्वारा भगवान् के चरणकमलों की अनेकों प्रकार से सेवा करती रहती हैं। कभी-कभी जब वे झूले पर बैठकर अपने प्रियतम भगवान् की लीलाओं का गायन करने लगती हैं, तब उनके सौन्दर्य और सुरभि से उन्मत्त होकर भौंरे स्वयं उन लक्ष्मीजी का गुण-गान करने लगते हैं । ब्रम्हाजी ने देखा कि उस दिव्य लोक में समस्त भक्तों के रक्षक, लक्ष्मीपति, यज्ञपति एवं विश्वपति भगवान् विराजमान हैं।

सुनन्द, नन्द, प्रबल और अर्हण आदि मुख्य-मुख्य पार्षदगण उन प्रभु की सेवा कर रहे हैं । उनका मुख कमल प्रसाद-मधुर मुसकान से युक्त हैं। आँखों में लाल-लाल डोरियों हैं। बड़ी मोहक और मधुर चितवन है। ऐसा जान पड़ता है कि अभी-अभी अपने प्रेमी भक्त को अपना सर्वस्व दे देंगे। सिर पर मुकुट, कानों में कुण्डल और कंधे पर पीताम्बर जगमगा रहे हैं। वक्षःस्थल पर एक सुनहरी रेखा के रूप में श्री लक्ष्मीजी विराजमान हैं और सुन्दर चार भुजाएँ हैं । वे एक सर्वोत्तम और बहुमूल्य आसन पर विराजमान हैं।

पुरुष, प्रकृति, महतत्व, अहंकार, मन, दस इन्द्रिय, शब्दादि पाँच तन्मात्राएँ और पंचभूतये पचीस शक्तियाँ मूर्तिमान् होकर उनके चारों ओर खड़ी हैं। समग्र ऐश्वर्य, धर्म, कीर्ति, श्री, ज्ञान और वैराग्यइन छः नित्य सिद्ध स्वरुपभूत शक्तियों से वे सर्वदा युक्त रहते हैं। उनके अतिरिक्त और कहीं भी ये नित्यरूप से निवास नहीं करतीं। वे सर्वेश्वर प्रभु अपने नित्य आनन्दमय स्वरुप में ही नित्य-निरन्तर निमग्न रहते हैं । उनका दर्शन करते ही ब्रम्हाजी का हृदय आनन्द के उद्रेक से लबालब भर गया। शरीर पुलकित हो उठा, नेत्रों में प्रेमाश्रु छलक आये। ब्रम्हाजी ने भगवान् के उन चरणकमलों में, जो परमहंसों के निवृत्ति मार्ग से प्राप्त हो सकते हैं, सिर झुकाकर प्रणाम किया । ब्रम्हाजी के प्यारे भगवान् अपने प्रिय ब्रम्हाको प्रेम और दर्शन के आनन्द में निमग्न, शरणागत तथा प्रजा-सृष्टि के लिये आदेश देने के योग्य देखकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने ब्रम्हाजी से हाथ मिलाया तथा मन्द मुसकान से अलंकृत वाणी में कहाश्रीभगवान् ने कहा ;- ब्रम्हाजी! तुम्हारे हृदय में तो समस्त वेदों का ज्ञान विद्यमान है। तुमने सृष्टि रचना की इच्छा से चिरकाल तक तपस्या करके मुझे भलीभाँति सन्तुष्ट कर दिया है। मन में कपट रखकर योग साधन करने वाले मुझे कभी प्रसन्न नहीं कर सकते । तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारी जो अभिलाषा हो, वही वर मुझसे माँग लग। क्योंकि मैं मुँह माँगी वस्तु देने में समर्थ हूँ।

ब्रम्हाजी! जीव के समस्त कल्याणकारी साधनों का विश्राम पर्यवसान मेरे दर्शन में ही है । तुमने मुझे देखे बिना ही उस सूने जल में मेरी वाणी सुनकर इतनी घोर तपस्या की है, इसी से मेरी इच्छा से तुम्हें मेरे लोक का दर्शन हुआ है । तुम उस समय सृष्टि रचना का कर्म करने में किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे। इसी से मैंने तुम्हें तपस्या मेरा करने की आज्ञा दी थी। क्योंकि निष्पाप! तपस्या मेरा ह्रदय है और मैं स्वयं तपस्या का आत्मा हूँ ।

मैं तपस्या से ही इस संसार की सृष्टि करता हूँ, तपस्या से ही इसका धारण-पोषण करता हूँ और फिर तपस्या से ही इसे अपने में लीन कर लेता हूँ। तपस्या मेरी एक दुर्लंघ्य शक्ति है । ब्रम्हाजी ने कहाभगवन्! आप समस्त प्राणियों के अन्तःकरण में साक्षी रूप से विराजमान रहते हैं। आप अपने अप्रतिहत ज्ञान से यह जानते ही हैं कि मैं क्या करना चाहता हूँ । नाथ! आप कृपा करके मुझ याचक की यह माँग पूरी कीजिये कि मैं रूप रहित आपके सगुण और निर्गुण दोनों ही रूपों को जान सकूँ । आप माया के स्वामी हैं, आपका संकल्प कभी व्यर्थ नहीं होता। जैसे मकड़ी अपने मुँह से जाला निकालकर उसमें क्रीड़ा करती है और फिर उसे अपने में लीन कर लेती है, वैसे ही आप अपनी माया का आश्रय लेकर इस विविध-शक्ति सम्पन्न जगत् की उत्पत्ति, पालन और संहार करने के लिये अपने-आपको ही अनेक रूपों में बना देते हैं और क्रीड़ा करते हैं।

 इस प्रकार आप कैसे करते हैंइस मर्म को मैं जान सकूँ, ऐसा ज्ञान आप मुझे दीजिये । आप मुझे पर ऐसी कृपा कीजिये कि मैं सजग रहकर सावधानी से आपकी आज्ञा का पालन कर सकूँ और सृष्टि की रचना करते समय भी कर्तापन आदि के अभिमान बँध न जाऊँ । प्रभो! आपने एक मित्र के समान हाथ पकड़कर मुझे अपना मित्र स्वीकार किया है। अतः जब मैं आपकी इस सेवासृष्टिरचना में लगूँ और सावधानी से पूर्वसृष्टि के गुण-कर्मानुसार जीवों का विभाजन करने लगूँ, तब कहीं अपने को जन्म-कर्म से स्वतन्त्र मानकर प्रबल अभिमान न कर बैठूँ ।

श्रीभगवान् ने कहा ;- अनुभव, प्रेमाभक्ति और साधनों से युक्त अत्यन्त गोपनीय अपने स्वरुप का ज्ञान मैं तुम्हें कहता हूँ; तुम उसे ग्रहण करो । मेरा जितना विस्तार है, मेरा जो लक्षण है, मेरे जितने और जैसे रूप, गुण और लीलाएँ हैंमेरी कृपा से तुम उनका तत्व ठीक-ठीक वैसा ही अनुभव करो । सृष्टि के पूर्व केवल मैं-ही-मैं था। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न तो दोनों का कारण अज्ञान। जहाँ यह सृष्टि है, वहाँ मैं-ही-मैं हूँ और इस सृष्टि के रूप में जो कुछ प्रतीति हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ और जो कुछ बच रहेगा, वह भी मैं ही हूँ । वास्तव में न होने पर भी जो कुछ अनिर्वचनीय वस्तु मेरे अतिरिक्त मुझ परमात्मा में दो चन्द्रमाओं की तरह मिथ्या ही प्रतीति हो रही है अथवा विद्यमान होने पर भी आकाश-मण्डल के नक्षत्रों में राहु की भाँति जो मेरी प्रतीति नहीं होती, इसे मेरी माया समझना चाहिये । जैसे प्राणियों के पंचभूतरहित छोटे-बड़े शरीरों में आकाशादि पंचमहाभूत उन शरीरों के कार्य रूप से निर्मित होने के कारण प्रवेश करते भी हैं और पहले से ही उन स्थानों और रूपों में कारण रूप से विद्यमान रहने के कारण प्रवेश नहीं भी करते, वैसे ही उन प्राणियों के शरीर की दृष्टि से मैं उनमें आत्मा के रूप से प्रवेश किये हुए हूँ और आत्मदृष्टि से अपने अतिरिक्त और कोई वस्तु न होने के कारण उनमें प्रविष्ट नहीं भी हूँ ।

यह ब्रम्ह नहीं, यह ब्रम्ह नहींइस प्रकार निषेध की पद्धति से, और यह ब्रम्ह है, यह ब्रम्ह हैइस अन्वय की पद्धति से यही सिद्ध होता है कि सर्वातीत एवं सर्वस्वरुप भगवान् ही सर्वदा और सर्वत्र स्थित हैं, वही वास्तविक तत्व हैं। जो आत्मा अथवा परमात्मा का तत्व जानना चाहते हैं, उन्हें केवल इतना ही जानने कि आवश्यकता है । ब्रम्हाजी! तुम अविचल समाधि के द्वारा मेरे इस सिद्धान्त में पूर्ण निष्ठा कर लो। इससे तुम्हें कल्प-कल्प में विविध प्रकार की सृष्टिरचना करते रहने पर भी कभी मोह नहीं होगा ।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- लोकपितामह ब्रम्हाजी को इस प्रकार उपदेश देकर अजन्मा भगवान् ने उनके देखते-ही-देखते अपने उस रूप को छिपा लिया । जब सर्वभूतस्वरुप ब्रम्हाजी ने देखा कि भगवान् ने अपने इन्द्रियगोचर स्वरुप को हमारे नेत्रों के सामने से हटा लिया है, तब उन्होंने अंजलि बाँधकर उन्हें प्रणाम किया और पहले कल्प में जैसी सृष्टि थी, उसी रूप में इस विश्व की रचना की । एक बार धर्मपति, प्रजापति ब्रम्हाजी ने सारी जनता का कल्याण हो, अपने इस स्वार्थ को पूर्ति के लिये विधिपूर्वक यम-नियमों को धारण किया । उस समय उनके पुत्रों में सबसे अधिक प्रिय, परम भक्त देवर्षि नारदजी ने मायापति भगवान् की माया का तत्व जानने की इच्छा से बड़े संयम, विनय और सौम्यता से अनुगत होकर उनकी सेवा की और उन्होंने सेवा से ब्रम्हाजी को ही सन्तुष्ट कर लिया ।

 परीक्षित्! जब देवर्षि नारद ने देखा कि मेरे लोक पितामह पिताजी मुझ पर प्रसन्न हैं, तब उन्होंने उनसे यही प्रश्न किया, जो तुम मुझसे कर रहे हो । उनके प्रश्न से ब्रम्हाजी और भी प्रसन्न हुए। फिर उन्होंने यह दस लक्षण वाला भागवतपुराण अपने पुत्र नारद को सुनाया, जिसका स्वयं भगवान् ने उन्हें उपदेश किया था । परीक्षित्! जिस समय मेरे परमतेजस्वी पिता सरस्वती के तट पर बैठकर परमात्मा के ध्यान में मग्न थे, उस समय देवर्षि नारदजी ने वही भागवत उन्हें सुनाया । तुमने मुझसे जो यह प्रश्न किया है कि विराट्पुरुष से इस जगत् की उत्पत्ति कैसे हुई तथा दूसरे भी जो बहुत-से प्रश्न किये हैं, उन सबका उत्तर मैं उसी भागवतपुराण के रूप में देता हूँ ।

इस प्रकार श्रीमद्‌भागवत महापुराण का  पारमहंस्या संहिताया द्वितीय स्कन्ध नवम अध्याय समाप्त हुआ ॥ ९ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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