विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय १२
विष्णु पुराण के प्रथम अंश के अध्याय
१२ में ध्रुव की तपस्या से प्रसन्न हुए भगवान का आविर्भाव और उसे ध्रुवपद –
दान का वर्णन है।
विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय १२
Vishnu Purana first part chapter
12
विष्णुपुराणम् प्रथमांशः द्वादशोऽध्यायः
विष्णुपुराणम्/प्रथमांशः/अध्यायः १२
श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश बारहवाँ अध्याय
श्रीपराशर उवाच
निशम्यैतदशेषेण मैत्रेय नृपते सुतः
।
निर्जगाम वनात्तस्मात्प्रणिपत्य स
तानृषीन् ॥ १,१२.१ ॥
श्रीपराशरजी बोले - हे मैत्रेय ! यह
सब सुनकर राजपुत्र ध्रुव उन ऋषियोंको प्रणामकर उस वनसे चल दिया ॥१॥
कृतकृत्यमिवात्मानं मन्यमानस्ततो
द्विज ।
मधुसंज्ञं महापुण्यं जगाम यमुनातटम्
॥ १,१२.२ ॥
पुनश्च मधुसंज्ञेन दैत्येनाधिष्ठितं
यतः ।
ततो मधुवनं नाम्ना ख्यातमत्र महीतले
॥ १,१२.३ ॥
और हे द्विज ! अपनेको कृतकृत्य सा
मानकर वह यमुनातटवर्ती अति पवित्र मधु नमक वनमें आया । आगे चलकर उस वनमें मधु नामक
दैत्य रहने लगा था, इसलिये वह इस
पृथ्वीतलमें मधुवन नामसे विख्यात हुआ ॥२-३॥
हत्वा च लवणं रक्षो मधुपुत्रं
महाबलम् ।
शत्रुघ्नो मधुरां नाम पुरीं यत्र
चकार वै ॥ १,१२.४ ॥
वहीं मधुके पुत्र लवण नामक महाबली
राक्षसको मारकर शत्रुघ्नने मधुरा ( मन्थर ) नामके पुरी बसायी ॥४॥
यत्र वै देवदेवस्य सान्निध्यं
हरिमेधसः ।
सर्वपापहरे तस्मिंस्तपस्तीर्थे चकार
सः ॥ १,१२.५ ॥
जिस ( मधुवन ) में निरन्तर देवदेव
श्रीहरिकी सन्निधि रहती है उसी सर्व्सपापापहारी तीर्थमें ध्रुवने तपस्या की ॥५॥
मरीचिमुख्यैर्मुनिभिर्यथोद्दिष्टमभूत्तथा
।
आत्मन्यशेपदेवेशं स्थितं
विष्णुममन्यत ॥ १,१२.६ ॥
मरीचि आदि मुनीश्वरोनें उसे जिस
प्रकार उपदेश किया था उसने उसी प्रकार अपने हृदयमें विराजमान निखिलदेवेश्वर श्रीविष्णुभगवानका
ध्यान करना आरम्भ किया ॥६॥
अनन्यचेतसस्तस्य ध्यायतो भगवान्हरिः
।
सर्वभूतगतो विप्र सर्वभावगतोऽभवत् ॥
१,१२.७ ॥
इस प्रकार हे विप्र ! अनन्य चित्त
होकर ध्यान करते रहनेसे उसके हृदयमें सर्वभूतान्तर्यामी भगवान हरि सर्वतोभावसे
प्रकट हुए ॥७॥
मनस्यवस्थिते तस्मिन्विष्णौ मैत्रेय
योगिनः ।
न शशाक धरा भारमुद्वोढुं भूतधारिणी
॥ १,१२.८ ॥
हे मैत्रेय ! योगी धुवके चित्तमें
भगवान विष्णुके स्थित हो जानेपर सर्वभुतोंको धारण करनेवाली पृथिवी उसका भार न सँभल
सकी ॥८॥
वामपादस्थिते तस्मिन्ननामार्धेन
मेदिनी ।
द्वितीयं च ननामार्धं
क्षितेर्दक्षिणतः स्थिते ॥ १,१२.९
॥
उसके बायें चरणपर खडे़ होनेसे
पृथ्विवीका बायाँ आधा भाग झुक गया और फिर दाँगे चरणपर खडे़ होनेसे दायाँ भाग झुक
गया ॥९॥
पादांगुष्ठेन संपीड्य यथा स वसुधां
स्थितः ।
तदा समस्ता वसुधा चचाल सह पर्वतैः ॥
१,१२.१० ॥
और जिस समय वह पैरके अँगूठेसे
पृथिवीको ( बीचसे ) दबाकर खड़ा हुआ तो पर्वतोंके सहित समस्त भूमण्डल विचलित खड़ा हुआ
तो पर्वतोंके सहित समस्त भूमण्डल विचलित हो गया ॥१०॥
नद्यो नदाः समुद्राश्च संक्षोभं
परमं ययुः ।
तत्क्षोभादमराः क्षोभं परं
जग्मुर्महामुने ॥ १,१२.११ ॥
हे महामुने ! उस समय नदी,
नद और समुद्र आदि सभी अत्यन्त क्षुब्ध हो गये और उनके क्षोभसे
देवताओंमें भी बडी़ हलचल मची ॥११॥
यामा नाम तदा देवा मैत्रेय
परमाकुलाः ।
इन्द्रेण सह संमन्त्र्य ध्यानभङ्गं
प्रचक्रमुः ॥ १,१२.१२ ॥
हे मैत्रेय । तब याम नामक देवताओंने
अत्यन्त व्याकुल हो इन्द्रके साथ परामर्श कर उसके ध्यानको भंग करनेका आयोजन किया
॥१२॥
कूष्माण्डा विविधै रूपैर्महेन्द्रेण
महामुने ।
समाधिभङ्गमत्यन्तमारब्धाः
कर्तुमातुराः ॥ १,१२.१३ ॥
हे महामुने ! इन्द्रके साथ अति आतुर
कूष्माण्ड नामक उपदेवताओंने नानारूप धारणकर उसकी समाधि भंग करना आरम्भ किया ॥१३॥
सुनीतिर्नाम तन्माता सास्त्रा
तत्पुरतः स्थिता ।
पुत्रेति करुणां वाचमाह मायामयी तदा
॥ १,१२.१४ ॥
पुत्रकास्मान्निवर्तस्व
शरीरात्ययदारुणात् ।
निर्बन्धतो मया लब्धो बहुभिस्त्वं
मनोरथै ॥ १,१२.१५ ॥
उस समय मायाहीसे रची हुई उनकी माता
सुनीति नेत्रोंमे आँसू भरे ऊसके सामने प्रकट हूई और हे पुत्र ! हे पुत्र ! ऐसा
कहकर करुणायुक्त वचन बोलने लगी ( उसने कहा ) बेटा ! तू शरीरको घुलानेवाले इस भयंकर
तपका आग्रह छोड़ दे । मैने बडी़ बड़ी कामना ओंद्वारा तुझे प्राप्त किया है ॥१४-१५॥
दीनामेकां परित्यक्तुमनाथां न
त्वमर्हसि ।
सपत्नीवचनाद्वत्स अगतेस्त्वं
गतिर्मम ॥ १,१२.१६ ॥
अरे ! मुझ अकेली,
अनाथा, दुखियाको सौतके कटु वाक्योंसे छोड़ देना
तुझे उचित नहीं है । बेटा ! मुझ आश्रयहीनाका तो एकमात्र तू ही सहारा है ॥१६॥
क्व च त्वं पञ्चवर्षीयः
क्वचैतद्दारूणं तपः ।
निवर्ततां मनः
कष्टान्निर्बन्धात्फलवर्जितात् ॥ १,१२.१७
॥
कहाँ तो पाँच वर्षका तू और कहाँ
तेरा यह अति उग्र तप ? अरे ! इस निष्फल
क्लेषकारी आग्रहसे अपना मन मोड़ ले ॥१७॥
कालः क्रीडनकानान्ते
तदन्तेऽध्ययनस्य ते ।
ततः समस्तभोगानां तदन्ते चेष्यते
तपः ॥ १,१२.१८ ॥
अभी ती तेरे खेलने कूदनेका समय है,
फिर अध्ययनका समय आयेगा, तदनन्तर समस्त
भोगोंके भोगनेका और फिर अन्तमें तपस्या करना भी ठिक होगा ॥१८॥
कालः क्रीडनकानां यस्तव बालस्य
पुत्रक ।
तस्मिंस्त्वमिच्छसि तपः किं
नाशायात्मनो रतः ॥ १,१२.१९ ॥
बेटा ! तुझ सुकुमार बालकका जो खेल
कूदका समय है उसीमें तू तपस्या करना चाहता है । तू इस प्रकार क्यों अपनें
सर्वनाशमें तप्तर हुआ है ? ॥१९॥
मत्प्रीतिः परमो धर्मो
वयोवस्थाक्रियाक्रमम् ।
अनुवर्तस्व मा
मोहान्निवर्तास्मादधर्मतः ॥ १,१२.२०
॥
तेरा परम धर्म तो मुझको प्रसन्न रखना
ही है,
अतः तू अपनी आयु और अवस्थाके अनुकूल कर्मोमें ही लगे, मोहका अनुवर्तन न कर और इस तपरूपी अधर्मसे निवृत्त हो ॥२०॥
परित्यजति वत्साध्य यध्येतन्न
भवांस्तपः ।
त्यक्ष्याम्यहमिह प्राणांस्ततो वै
पश्यतस्तव ॥ १,१२.२१ ॥
बेटा ! यदि आज तू इस तपस्याको च
छोड़ेगा तो देख तेरे सामने ही मैं अपने प्राण छोड़ दूँगी ॥२१॥
श्रीपराशर उवाच
तां प्रलापवतीमेवं
बाष्पाकुलविलोचनाम् ।
समाहितमना विष्णौ पश्यन्नपि न
दृष्टवान् ॥ १,१२.२२ ॥
श्रीपराशरजी बोले -हे मैत्रेय !
भगवान विष्णुमें चित्त स्थिर रहनेके कारण ध्रुवने उसे आँखोमें आँसू भरकर इस प्रकार
विलाप करती देखकर भी नहीं देखा ॥२२॥
वत्स वत्स सुघोराणि रक्षांस्येतानि
भीषणे ।
वनेऽभ्युद्यतशस्त्राणीः
समायान्त्यपगम्यताम् ॥ १,१२.२३ ॥
इत्युक्त्वा प्रययौ साथ
रक्षांस्याविर्बभुस्ततः ।
अभ्युद्यतोग्रशस्त्राणि
ज्वालामालाकुलैर्मुखैः ॥ १,१२.२४
॥
तब, अरे बेटा ! यहाँसे भाग-भाग ! देख, इस महाभंयकर वनमें
ये कैस घोर राक्षस अस्त्र शस्त्र उठाये आ रहे हैं – ऐसा कहती
हुई वह चली गयी और वहाँ जिनके मुखसे अग्निकी लपटें निकल रहीं थीं ऐसे अनेकीं
राक्षसगण अस्त्र शस्त्र सँभाले प्रकट हो गये ॥२३-२४॥
ततो नादानतीवोग्रन्राजपुत्रस्य ते
पुरः ।
मुमुचुर्दीप्तशस्त्राणि भ्रामयन्तो
निशाचराः ॥ १,१२.२५ ॥
शिवाश्च शतशो नेदुः सज्वालाः
कवलैर्मुखैः ।
त्रासाय तस्य बालस्य योगयुक्तस्य
सर्वदा ॥ १,१२.२६ ॥
हन्यतां दन्यतामेष छिद्यतां
छिद्यतामयम् ।
भक्ष्यतां भक्ष्यतां चाय
मित्युचुस्ते निशाचराः ॥ १,१२.२७
॥
ततो नानाविधान्नादान्
सिंहोष्ट्रमकराननाः ।
त्रासाय राजपुत्रस्य नेदुस्ते
रजनीचराः ॥ १,१२.२८ ॥
उन राक्षसोंने अपने अति चमकीले
शस्त्रोंको घुमाते हुए उस राजपुत्रके सामने बड़ा भयंकर कोलाहल किया ॥२५॥ उस नित्य
योगयुक्त बालकको भयभीत करनेके लिये अपने मुखसे अग्निकी लपटें निकालती हुई सैकडों
स्यारियाँ घोर नाद करने लगीं ॥२६॥ वे राक्षसगण भी इसको मारो-मारो काटो-काटो,
खाओ-खाओ' इस प्रकार चिल्लाने लगे ॥२७॥ फिर
सिंह, ऊँट और मकर आदिके से मुखवाले वे राक्षस राजपुत्रको
त्राण देनेके लिये नाना प्रकारसे गरजने लगे ॥२८॥
रक्षांसि तानि ते नादाः
शिवास्तान्यायुधानि च ।
गोविन्दासक्तचित्तस्य
ययुर्नन्द्रियगोचरम् ॥ १,१२.२९ ॥
एकाग्रचेताः सततं
विष्णुमेवात्मसंश्रयम् ।
दृष्टवान् पृथिवीनाथपुत्रो नान्यं
कथञ्चन ॥ १,१२.३० ॥
किन्तु उस भगवदासक्तचित्त बालकको वे
राक्षस उनके शब्द, स्यारियाँ और
अस्त्र शस्त्रादि कुछ भी दिखायीं नहीं दिये ॥२९॥ वह राजपुत्र एकाग्रचित्तसे
निरंन्तर अपने आश्रयभूत विष्णुभगवानको ही देखता रहा और उसने किसीकी और किसी भी
प्रकार दृष्टिपात नहीं किया ॥३०॥
ततः सर्वासु मायासु विलीनासु पुनः
सुराः ।
संक्षोभं परमं
जग्मुस्तत्पराभवशङ्किताः ॥ १,१२.३१
॥
ते समेत्य जगद्योनिमनादिनिधनं हरिम्
।
शरण्यं शरणं यातास्तपसा तस्य
तापिताः ॥ १,१२.३२ ॥
तब सम्पूर्ण मायाके लीन हो जानेपर
उससे हार जानेकी आशंकासे देवताओंको बड़ा भय हुआ ॥३१॥ अतः उसके तपसे सन्तप्त हो वे
सब आपसमें मिलकर जगत्के आदि-कारण, शरणागतवत्सल,
अनादि और अनन्त श्रीहरिकी शरणमें गये ॥३२॥
देवा ऊचुः
देवदेव जगन्नाथ परेश पुरुषोत्तम ।
ध्रुवस्य तपसा तप्तास्त्वां वयं
शरणं गताः ॥ १,१२.३३ ॥
दिने दिने कलालेशैः शशाङ्क पूर्यते
यथा ।
तथायं तपसा देव
प्रयात्यृद्धिमहर्निंशम् ॥ १,१२.३४
॥
औतानपादितपसा वयमित्थं जनार्दन ।
भीतास्त्वां शरणं यातास्तपसस्तं
निवर्तय ॥ १,१२.३५ ॥
नविद्मः किं स शक्रत्वं सूर्यत्वं
किमभीप्सति ।
वित्तपाम्बुपसोमानां साभिलाषः पदेषु
किम् ॥ १,१२.३६ ॥
तदस्माकं प्रसीदेश
हृदयाच्छल्यमुद्धर ।
उत्तानपादतनयं तपसः सन्निवर्तय ॥ १,१२.३७ ॥
देवता बोले - हे देवाधिदेव,
जगन्नाथ, परमेश्वर, पुरुषोत्तम
! हम सब ध्रुवकी तपस्यासे सन्तम होकर आपकी शरणमें आये हैं ॥३३॥ हे देव ! जिस प्रकर
चन्द्रमा अपनी कलाओंसे प्रतिदिन बढ़्ता है उसी प्रकार यह भी तपस्याके कारण रात दिन
उन्नत हो रहा है ॥३४॥ हे जनार्दन ! इस उत्तानपादके पुत्रकी तपस्यासे भयभीत होकर हम
आपकी शरणमें आये हैं, आप उसे तपसे निवृत्त किजिये ॥३५॥ हम
नहीं जानते, वह इन्द्रत्व चाहता है या सूर्यत्व अथवा उसे
कुबेर, वरूण या चन्द्रमाके पदकी अभिलाषा है ॥३६॥ अतः हे ईश !
आप हमपर प्रसन्न होइये और इस उत्तानपादके पुत्रको तपसे निवृत्त करके हमारे हृदयका
काँटा निकालिये ॥३७॥
श्रीभगवानुवाच
नेन्द्रत्वं न च सूर्यत्वं
नैवाम्बुपधनेशताम् ।
प्रार्थयत्येष यं कामं तं
करोम्यखिलं सुरा ॥ १,१२.३८ ॥
यात देवा यथाकाम स्वस्थानं
विगतज्वराः ।
निवर्तयाम्यहं बालं
तपस्यासक्तमानसम् ॥ १,१२.३९ ॥
श्रीभगवान् बोले - हे सुरगण ! उसे
इन्द्र,
सूर्य वरूण अथवा कुबेर आदि किसीके पदकीं अभिलाषा नहीं है, उसके३ए जो कुछ इच्छा है वह मैं सब पूर्ण करुँगा ॥३८॥ हे देवगण ! तुम
निश्चिन्त होकर इच्छानुसार अपने अपने स्थानोंको जाओ । मैं तपस्यामें लगे हुए उस
बालकको निवृत्त करता हूँ ॥३९॥
श्रीपराशर उवाच
इत्युक्ता देवदेवेन प्रणम्य
त्रिदशास्ततः ।
प्रययुः स्वानि धिष्ण्यानि
शतक्रतुपुरोगमाः ॥ १,१२.४० ॥
भगवानपि सर्वात्मा तन्मयत्वेन
तोषितः ।
गत्वा ध्रुवमुवाचेदं
चतुर्भुजवपुर्हरिः ॥ १,१२.४१ ॥
श्रीपराशरजी बोले - देवाधिदेव
भगवानके ऐसा कहनेपर इन्द्र आदि समस्त देवगण उन्हें प्रणामकर अपने अपने स्थानोंको
गये ॥४०॥ सर्वात्मा भगवान हरिने भी ध्रुवकी तन्मयतासे प्रसन्न है उसके निकट
चतुर्भुजस्वरूपसे जाकर इस प्रकार कहा ॥४१॥
श्रीभगवानुवाच
औत्तानपादे भद्रं ते तपसा परितोषितः
।
वरदोहमनुप्राप्तो वरं वरय सुव्रत ॥
१,१२.४२ ॥
ब्राह्यार्थनिरपेक्षं ते मयि चित्तं
यदा हितम् ।
तुष्टोहं भवतस्तेन तद्वृणीष्व वरं
परम् ॥ १,१२.४३ ॥
श्रीभगवान बोले - हे उत्तानापादके
पुत्र ध्रुव ! तेरा कल्याण हो । मैं तेरी तपस्यासे प्रसन्न होकर तुझे वर देनेके
लिये प्रकट हुआ हूँ, हे सुव्रत ! तू वर
माँग ॥४२॥ तुने सम्पूर्ण बाह्म विषयोंसे उपरत होकर अपने चित्तको मुझमें ही लगा
दिया है । अतः मैं तुझसे अति सन्तुष्ट हूँ । अब तू अपनी इच्छानुसार श्रेष्ठ वर
माँग ॥४३॥
पराशर उवाच
श्रुत्वेत्थं गदितं तस्य देवदेवस्य
बालकः ।
उन्मीलिताक्षो ददृशे ध्यानदृष्टं
हरिं पुरः ॥ १,१२.४४ ॥
शङ्खचक्रगदाशार्ङ्गवरासिधरमच्युतम्
।
किरीटिनं समालोक्य जगाम शिरसा महीम्
॥ १,१२.४५ ॥
रोमाञ्चिताङ्गः सहसा साध्वसं परमं
गतः ।
स्तवाय देवदेवस्य स चक्रे मानसं
ध्रुवः ॥ १,१२.४६ ॥
किं वदामि स्तुतावस्य केनोक्तेनास्य
संस्तुतिः ।
इत्याकुल मतिर्देवं तमेव शरणं ययौ ॥
१,१२.४७ ॥
श्रीपराशरजी बोले - देवाधिदेव
भगवानके ऐसे वचन सुनकर बालक ध्रुवने आँखें खोलीं और अपनी ध्यानावस्था में देखें
हुए भगवान हरिको साक्षात अपने सम्मुख खडे़ देखा ॥४४॥ श्रीअच्युतको किरीट तथा शड्ख
चक्र,
गदा शार्ड धनुष्य और खड्ग धारण किये देख उसने पृथिवीपर सिर रखकर
प्रणाम किया ॥४५॥ और सहसा रोमात्र्चित तथा परम भयभीत होकर उसने देवदेवकी स्तुति
करनेकी इच्छा की ॥४६॥ किन्तु 'इनकी स्तुतिके लिये मैं क्या
कहूँ ? क्या कहनेसे इनका स्तवन हो सकता है ?' यह न जाननेके कारण वह चित्तमें व्याकुल हो गया और अन्तमें उसने उन
देवदेवकी ही शरण ली ॥४७॥
ध्रुव उवाच
भगवन्यदि मे तोषं तपसा परमं गतः ।
स्तोतुं तदहमिच्छामि वरमेनं प्रयच्छ
मे ॥ १,१२.४८ ॥
(ब्रह्माद्यौर्यस्य
वेदज्ञैर्ज्ञायते यस्य नो गतिः ।
तं त्वां कथमहं देव स्तोतुं शक्रोमि
बालकः ।
त्वद्भक्तिप्रवणं ह्येतत्परमेश्वर
मे मनः ।
स्तोतुं प्रवृत्तं त्वत्पादौ तत्र
प्रज्ञां प्रयच्च मे)
ध्रुव ने कहा - भगवन् ! आप यदि मेरी
तपस्यासे सन्तुष्ट हैं तो मैं आपकी स्तुति करना चाहता हूँ,
आप मुझे यही वर दीजिये ( जिससे मैं स्तुति कर सकूँ ) ॥४८॥ ( हे देव
! जिनकी गति ब्रह्मा आदि वेदज्ञजन भी नहीं जानते; उन्हीं
आपका मैं बालक कैसे स्तवन कर सकता हूँ । किन्तु हे परम प्रभो ! आपकी भक्तिसे
द्रवीभूत हुआ मेरा चित्त आपके चरणोंकी स्तुति करनेमें प्रवृत्त हो रहा है । अतः आप
इस उसके लिये बुद्धि प्रदान किजिये ) ।
श्रीपराशर उवाच
शङ्खप्रान्तेन गोविन्दस्तं पस्पर्श
कृताञ्जलिम् ।
उत्तानपादतनयं द्विजवर्य जगत्पतिः ॥
१,१२.४९ ॥
अथ प्रसन्नवदनः स क्षणान्नृपनन्दनः
।
तुष्टाव प्रणतो भूत्वा
भूतधातारमच्युतम् ॥ १,१२.५० ॥
श्रीपराशरजी बोले -हे द्विजवर्य !
तब जगत्पति श्रीगोविन्दने अपने सामने हाथ जोड़े खड़े हुए उस उत्तानपादके पुत्रको
अपने ( वेदमय ) शड्खके अन्त ( वेदान्तमय ) भागसे छू दिया ॥४९॥ तब तो एक क्षणमें ही
वह राजकुमार प्रसन्न मुखसे अति विनीत हो सर्वभूताधिष्ठान श्रीअच्युतकी स्तुति करने
लगा ॥५०॥
ध्रुव उवाच
भूमिरापोनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव
च ।
भूतादिरादि प्रकृतिर्यस्य रूपं
नतोस्मि तम् ॥ १,१२.५१ ॥
शुद्धः सूक्ष्मोखिलव्यापी
प्रधानात्परतः पुमान् ।
यस्य रूपं नमस्तस्मै पुरुषाय
गुणात्मने ॥ १,१२.५२ ॥
भूतादीनां समस्तानां गन्धादीनां च
शाश्वतः ।
बुध्यादीनां प्रधानस्य पुरुषस्य च
यः परः ॥ १,१२.५३ ॥
तं ब्रह्मभूतमात्मानमशेषजगतः पतिम्
।
प्रपद्ये शरणं शुद्धं त्वद्रूपं परमेश्वर
॥ १,१२.५४ ॥
ध्रुव बोले - पृथिवी,
जल, अग्नि, वायू,
आकाश, मन बुद्धी अहंकार और मुल प्रकृति - यें
सब जिनके रूप हैं उन भगवानको मैं नमस्कार करता हूँ ॥५१॥ जो अति शुद्ध, सुक्ष्म, सर्वव्यापक और प्रधानसे भी परे हैं,
वह पुरुष जिनका रूप है उन गुण भोक्ता परमपुरुषको मैं नमस्कार करता
हूँ ॥५२॥ हे परमेश्वर ! पृथिवी आदि समस्त भूत, गन्धादि उनके
गुण, बुद्धि आदि अन्तः करण चतुष्टय तथा प्रधान और पुरुष (
जीव ) से भी परे जो सनातन पुरुष हैं, उन आप
निखिलब्रह्माण्डनायकके ब्रह्मभुत शुद्धस्वरूप आत्माकी मैं शरण हूँ ॥५३-५४॥
बृहत्त्वाद्बृंहणत्वाच्च यद्रूपं
ब्रह्मसंज्ञितम् ।
तस्मै नमस्ते
सर्वात्मन्योगिचिन्त्याविकारिणे ॥ १,१२.५५
॥
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः
सहस्रपात् ।
सर्वव्यापी भुवः
स्पर्शादत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ १,१२.५६
॥
हे सर्वात्मन ! हे योगियोकें
चिन्तनीय ! व्यापक और वर्धनशील होनेके कारण आपका जो ब्रह्मा नामक स्वरूप है,
उस विकाररहित रूपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥५५॥ हे प्रभो ! आप हजारों
मस्तकोंवाले, हजारों नेत्रोवाले और हजारों चरणोवाले परमपुरुष
हैं, आप सर्वत्र व्याप्त हैं और ( पृथिवी आदि आवरणोकें सहित
) सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको व्याप्त कर दस गुण महाप्रमाणसे स्थित हैं ॥५६॥
यद्भूतं यच्च वै भव्यं पुरूषोत्तम
तद्भवान् ।
त्वत्तौ
विराट्स्वराट्सम्राट्त्वत्तश्चप्यधिपूरुषः ॥ १,१२.५७ ॥
अत्यरिच्यत सोधश्च तिर्यगूर्ध्वं च
वै भुवः ।
त्वत्तो विश्वमिदं जातं त्वत्तौ
भूतं भविष्यति ॥ १,१२.५८ ॥
हे पुरुषोत्तम ! भूत और भविष्यत जो
कुछ पदार्थ है वे सब आप ही हैं तथ विराट, स्वराट
सम्राट और अधिपुरुष (ब्रह्म ) आदि भी सब आपहीसे उप्तन्न हुए हैं ॥५७॥ वे ही आप इस
पृथिवीके नीचे ऊपर और इधर उधर सब और बढे़ हुए हैं । यह सम्पूर्ण जगत् आपहीसे
उप्तन्न हुआ है तथा आपहीसे भूत और भविष्यत हुए है ॥५८॥
त्वद्रूपधारिणश्चान्तः सर्वभूतमिदं
जगत् ।
त्वत्तो यज्ञः सर्वहुतः पृषदाज्यं
पशुर्द्विधा ॥ १,१२.५९ ॥
यह सम्पर्ण जगत आपके स्वरूपभूत
ब्रह्माण्डके अन्तर्गत है ( फिर आपके अन्तर्गत होनेकी तो बात ही क्या है ) जिससें
सभी पुरोडाशोंका हवन होता है वह यज्ञ, पृषदाज्य
( दधि और घृत ) तथा ( ग्राम और वन्य ) दो प्रकारके पशु, आपहीसे
उप्तन्न हुए हैं ॥५९॥
त्वत्तो ऋचोथ सामानि
त्वत्तश्छन्दांसि जज्ञिरे ।
त्वत्तो यजूंष्यजायन्त
त्वत्तोश्वाश्चैकतो दतः ॥ १,१२.६०
॥
आपहीसे ऋक् आम और गायत्री आदि छन्द
प्रकट हुए हैं, आपहीसे यजुर्वेदका प्रादुर्भाव
हुआ है और आपहीसे अश्व तथा एक ओर दाँतवाले महिष आदि छन्द प्रकट हुए हैं , आपहीसे ऋक् साम और गायत्री आदि छन्द प्रकट हुए हैं, आपहीसे
यजुर्वेदका प्रादुर्भाव हुआ है और आपहीसे अश्व तथा एक और दाँतवाले महिषा आदि जीव
उप्तन्न हुए हैं ॥६०॥
गावस्त्वत्तः समुद्भूतास्त्व त्तोजा
अवयो मृगाः ।
त्वमन्मुखाद्ब्राह्मणा
बाह्वोस्त्वत्तो क्षत्रमजायत ॥ १,१२.६१
॥
वैश्वास्तवोरुजाः शूद्रास्तव
पद्भ्यां समुद्गताः ।
आक्ष्णोः सूर्योऽनिलः
प्राणाच्चन्द्रमा मनसस्तव ॥ १,१२.६२
॥
प्राणोन्तः मुषिराज्जातो मुखादग्निरजायत
।
नाभितो गगनं द्यौश्च शिरसः समवर्तत
॥ १,१२.६३ ॥
दिशः श्रोत्रात्क्षितिः पद्भ्यां
त्वत्तः सर्वमभूदिदिम् ॥ १,१२.६४
॥
आपहीसे गौओं बकरियों भेड़ों और
मृगोंकी उप्तत्ति हुई है; आपहीके मुखसे
ब्राह्मण, बाहुओंसे क्षत्रिय, जंघाओंसे
वैश्य और चरनोंसे शुद्र प्रकट हुए हैं तथा आपहीके नेत्रोंसे सूर्य , प्रणासे वायु, मनसे चन्द्रमा, भीतरी
छिद्र ( नासारन्ध्र ) से प्राण, मुखसे अग्नि, नाभिसे आकाश, सिरसे स्वर्ग, श्रोत्रसे
दिशाएँ और चरणोंसे पृथिवी आदि उप्तन्न हुए हैं; इस प्रकार हे
प्रभ ! यह सम्पूर्ण जगत् आपहीसे प्रकट हुआ है ॥६१-६४॥
न्यग्रोधः सुमहानल्पे यथा बीजे
व्यवस्थितः ।
संयमे विस्वमखिलं बीजभूते तथात्वायि
॥ १,१२.६५ ॥
बीजादङ्कुरसम्भूते न्यग्रोधस्तु
समुत्थितः ।
विस्तारं च यथा याति त्वत्तः सृष्टौ
तथा जगत् ॥ १,१२.६६ ॥
यथा हि कदली नान्या त्वक्पत्रादपि
दृस्यते ।
एवं विश्वस्य नान्यस्त्वं
त्वस्थयीश्वर दृश्येत ॥ १,१२.६७ ॥
जिस प्रकार नन्हेंसे बीजमें बड़ा
भारी वट वृक्ष रहता है उसी प्रकार प्रलय कालमें यह सम्पूर्ण जगत बीज स्वरूप
आपहीमें लीन रहता है ॥६५॥ जिस प्रकर बीजसे अंकुरूपमें प्रकट हुआ वट वृक्ष बढंकर
अत्यन्त विस्तारवाला हो जाता है उसी प्रकार सृष्टिकालमें यह जमत् आपहीसे प्रकट
होकर फैल जाता है ॥६६॥ हे ईश्वर ! जिस प्रकार केलेका पौधा छिलके और पत्तोसें अलग
दिखायी नहीं देता उसी प्रकार जगतके आप पृथक नही हैं, वह आपहीमें स्थित देखा जाता है ॥६७॥
ह्लादिनी संधिनी संवित्त्वय्येका
सर्वसंस्थितौ ।
ह्लादतापकरी मिश्रा त्वयि नो
गुणवर्जिते ॥ १,१२.६८ ॥
सबके आधारभूत आपके ह्लादिनी (
निरन्तर आह्लदित करनेवाली ) और सन्धिनी (विच्छेदरहित) संवित (विद्याशक्त)
अभिन्नरूपसे रहती हैं । आपमें ( विषयजन्य ) आह्लाद या ताप देनेवाली (सात्त्विकी
या तामसी) अथवा उभयमिश्रा (राजसी) कोई भी संवित नहीं हैं,
क्योकि आप निर्गुण हैं ॥६८॥
पृथग्भूतैकभूताय भूतभूताय ते नमः ।
प्रभूतभूतभूताय तुभ्यं भूतात्मने
नमः ॥ १,१२.६९ ॥
व्यक्तं प्रधानपुरुषौ
विराट्सम्राट्स्वराट्तथा ।
विभाव्यतेन्तःकरणे पुरुषेष्वक्षयो
भवान् ॥ १,१२.७० ॥
आप ( कार्यदृष्टिसे ) पृथक रूप और (
कारणदृष्टिसे ) एकरूप हैं । आप ही भूतसूक्ष्म है और आप ही नाना जीवरूप हैं । हे
भूतान्तरात्मन् ! ऐसे आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥६९॥ ( योगियोंके द्वारा )
अन्तःकरणमें आप ही महत्तत्त्व, प्रधान,
पुरुष विराट, सम्राट और स्वराट् आदि रूपोंसे
भावना किये जाते हैं, और ( क्षयशील ) पुरुषोंमें आप नित्य
अक्षय हैं ॥७०॥
सर्वस्मिन्सर्वभूतस्त्वं सर्वः
सर्वस्वरूपधृक् ।
सर्वं त्वत्तस्ततश्च त्वं नमः
सर्वात्मनेऽस्तु ते ॥ १,१२.७१ ॥
सर्वात्मकोसि सर्वेश सर्वभूतस्थितो
यतः ।
कथयामि ततः किं ते सर्वं वेत्सि हृति
स्थितम् ॥ १,१२.७२ ॥
सर्वात्मन्सर्वभूतेश
सर्वसत्त्वसमुद्भव ।
सर्वभूतो भवान्वेत्ति
सर्वसत्त्वमनोरथम् ॥ १,१२.७३ ॥
यो मे मनोरथो नाथ सफलः स त्वया कृतः
।
तपश्च तप्तं सफलं यद्दृष्टोऽसि
जगत्पते ॥ १,१२.७४ ॥
आकाशादि सर्वभूतोंमें सार अर्थात
उनके गुणरूप आप ही हैं; समस्त रूपोंको धारण
करनेवाले होनेसे सब कुछ आप ही है; सब कुछ आपहीसे हुआ है;
अतएव सबके द्वारा आप ही हो रहे है इसलिये आप सर्वात्माको नमस्कार है
॥७१॥ हे सर्वेश्वर ! आप सर्वात्मक हैं; क्योंकि सम्पूर्ण
भूतोंमें व्याप्त है; अतः मैं आपसे क्या कहूँ ? आप स्वयं ही सब हृदयस्थित बातोंकी आप्से क्या कहूँ ? आप स्वय ही सब हृदयस्थित बातोंको जानते हैं ॥७२॥ हे सर्वात्मन ! हे
सर्वभूतेश्वर ! हे सब भूतोंके आदि स्थान ! आप सर्वभूतरूपसे सभी प्राणियोंके
मनोरथोंको जानते हैं ॥७३॥ हे नाथ ! मेरा जो कुछ्फ़ मनोरथ था वह तो आपने सफल कर दिया
और हे जगत्पते ! मेरी तपस्या भी सफल हो गयी, क्योंकी मुझे
आपका साक्षात दर्शन प्राप्त हुआ ॥७४॥
श्रीभगवानुवाच
तपसस्तत्फलं यद्दृष्टोऽहं त्वया
ध्रुव ।
मदृर्शनं हि विफलं राजपुत्र न जायते
॥ १,१२.७५ ॥
वरं वरय तस्मात्त्वं यथाभिमतमात्मनः
।
सर्वं संपद्यते पुंसां मयि दृष्टिपथं
गते ॥ १,१२.७६ ॥
श्रीभगवान बोले - ध्रुव ! तुमको
मेरा साक्षात दर्शन प्राप्त हुआ, इससे अवश्य ही
तेरी तपस्या तो सफल हो गयी: परन्तु हे राजकुमार ! मेरा दर्शन भी तो कभी निष्फल
नहीं होता ॥७५॥ इसलिये तुझको जिस वरकी इच्छा हो वह माँग ले । मेरा दर्शन हो जानेपर
पुरुषको सभी कुछ प्राप्त हो सकता है ॥७६॥
ध्रुव उवाच
भगवन्भूतभव्येश सर्वस्यास्ते भवान्
हृदि ।
किमज्ञातं तव ब्रह्मन्मनसा
यन्मयेक्षितम् ॥ १,१२.७७ ॥
तथापि तुभ्यं देवेश कथयिष्यामि
यन्मया ।
प्रार्थ्यते दुर्विनीतेन
हृदयेनातिदुर्लभम् ॥ १,१२.७८ ॥
किं वा सर्वजगत्स्त्रष्टः प्रसन्ने
त्वयि दुर्लभम् ।
त्वत्प्रसादफलं भुङ्क्ते त्रैलोक्यं
मघ वानपि ॥ १,१२.७९ ॥
ध्रुव बोले- हे भूतभव्येश्वर भगवन्
! आप सभीके अन्तः करणोंमें विराजमान हैं । हे ब्रह्मन ! मेरे मनकी जो कुछ अभिलाषा
है वह क्या आपसे छिपी हुई है ? ॥७७॥ तो भी,
हे देवश्वर ! मैं दुर्विनीत जिस अति दुर्लभ वस्तुकी हृदयसे इच्छा
करता हूँ उसे आपकी आज्ञानुसार आपके प्रति निवेदन करूँगा ॥७८॥ हे समस्त संसारको
रचनेवाले परमेश्वर ! आपके प्रसन्न होनेपर ( संसारमें ) क्या दुर्लभ है ? इन्द्र भी आपके कृपाकटाक्षके फलरूपसे ही त्रिलोकीको भोगता है ॥७९॥
नैतद्राजासनं योग्यमजातस्य ममोदरात्
।
इति गर्वदवोचन्मां
सपत्नीमातुरुच्चकैः ॥ १,१२.८० ॥
आधारभूतं जगतः सर्वेषामुत्तमोत्तमम्
।
प्रार्थयामि प्रभो स्थानं
त्वत्प्रसादादतोव्ययम् ॥ १,१२.८१
॥
प्रभो ! मेरी सौतेली माताने गर्वसे
अति बुढ- बुढकर मुझसे यह कहा था कि ' जो
मेरे उदरसे उप्तन्न नहीं है उसके योग्य यह रजासह नहीं है' ॥८०॥
अतः हे प्रभो ! आपके प्रसादसे मैं उस सर्वोत्तम एवं अव्यय स्थानको प्राप्त करना
चाहता हूँ जो सम्पूर्ण विश्वका आधारभूत हो ॥८१॥
श्रीभगवानुवाच
यत्त्वया प्रार्थ्यते
स्थानमेतत्प्राप्स्यति वै भवान् ।
त्वयाहं तोषितः पूर्वमन्यजन्मनि
वालक ॥ १,१२.८२ ॥
त्वमासीर्ब्रह्मणः पूर्वं
मय्येकाग्रमतिः सदा ।
मातापित्रोश्च
शुश्रषुर्निजधर्मानुपालकः ॥ १,१२.८३
॥
कालेन गच्छता मित्रं
राजपुत्रस्तवाभवत् ।
योवनेखिलभोगाढ्यो
दर्शनीयोज्ज्वलाकृतिः ॥ १,१२.८४ ॥
तत्सङ्गात्तस्य तामृद्धिमवलोक्यादिदुर्लभाम्
।
भवेयं राजपुत्रोहमिति वाञ्छा त्वया
कृता ॥ १,१२.८५ ॥
श्रीभगवान बोले - अरे बालक ! तूने
अपने पूर्वजन्ममें भी मुझे सन्तुष्ट किया था, इसलिये
तू जिस स्थानकी इच्छा करता है उसे अवश्य प्राप्त करेगा ॥८२॥ पूर्व जन्ममें तू एक
ब्राह्मण था और मुझमें निरन्तर एकाग्रचित रहनेवाला, माता
पिताका सेवक तथा स्वधर्मका पालन करनेवाला था ॥८३॥ कालनतरमें एक राजपुत्र तेरा
मित्र हो गया । वह अपनी युवावस्थामें सम्पूर्ण भोगोंसे सम्पन्न और अति दर्शनीय
रूपलावण्ययुक्त भोगोंसे सम्पन्न और अति दर्शनीय रूपलावण्ययुक्त था ॥८४॥ उसके
संगमें उसके दुर्लभ वैभवको देखकर तेरी ऐसी इच्छा हुई कि 'मैं
भी राजपुत्र होऊँ ॥८५॥
ततो यथाभिलषिता प्राप्ता ते
राजपुत्रता ।
उत्तानपादस्य गृहे जातोसि ध्रुव
दुर्लभे ॥ १,१२.८६ ॥
अन्येषां दुर्लभं स्थानं कुले
स्वायम्भुवस्य यत् ॥ १,१२.८७ ॥
अतः हे ध्रुव ! तुझको अपनी
मनोवात्र्छित राजपुत्रता प्राप्त हूई और जिन स्वायम्भुवमनुके कुलमें और किसीको
स्थान मिलना अति दुर्लभ है, उन्हीकि घरमें तुने
उत्त्तानपादके यहाँ जन्म लिया ॥८६-८७॥
तस्यैतदपरं बाल येनाहं परितोषितः ।
मामाराध्य नरो
मुक्तिमवाप्नोत्यविलम्बिताम् ॥ १,१२.८८
॥
मय्यर्पितमना बाल किमु स्वर्गादिकं
पदम् ॥ १,१२.८९ ॥
अरे बालक ! ( औरोंके लिये यह स्थान
कितना ही दुर्लभ हो परन्तु ) जिसने मुझे सन्तुष्ट किया है उसके लिये तो यह अत्यन्त
तुच्छ है । मेरी आराधना करनेसे तो मोक्षपद भी तत्काल प्राप्त हो सकता है,
फिर जिसक चित्त निरन्तर मुझमें ही लगा हुआ है उसके लिये स्वर्गादि
लोकोंका तो कहना ही क्या है ? ॥८८-८९॥
त्रैलोक्यादधिके स्थाने
सर्वताराग्रहाश्रयः ।
भविष्यति न संदेहो
मत्प्रसादाद्भावन्ध्रुव ॥ १,१२.९०
॥
हे ध्रुव ! मेरी कॄपासे तू
निस्सन्देह उस स्थानमें, जो त्रिलोकीमें
सबसे उत्कृष्ट है, सम्पूर्ण ग्रह और तारामण्डलका आश्रय बनेगा
॥९०॥
सूर्यात्सोमात्तथा
भौमात्सोमपुत्राद्बृहस्पतेः ।
सितार्कतनयादीनां सर्वर्क्षाणां तथा
ध्रुवः ॥ १,१२.९१ ॥
सप्तर्षिणामशेषाणां ये च वैमानिकाः
सुराः ।
सर्वेषामुपरि स्थानं तव दत्तं मया
ध्रुव ॥ १,१२.९२ ॥
हे ध्रुव ! मैं तुझे वह धुव
(निश्चल) स्थान देता हूँ जो सूर्य, चन्द्र,
मंगल, बुध, बृहस्पति,
शुक्र और शनि आदि ग्रहों, सभी नक्षत्रों,
सप्तर्षियों और सम्पूर्ण विमानचारी देवगणों से ऊपर है ॥९१-९२॥
केचिच्चतुर्युगं
यावत्केचिन्मन्वन्तरं सुराः ।
तिष्ठन्ति भवतो दत्ता मया वै
कल्पसंस्थितिः ॥ १,१२.९३ ॥
सुनीतिरपि ते माता
त्वदासन्नातिनिर्मला ।
विमाने तारका भूत्वा तावत्कालं
निवत्स्यति ॥ १,१२.९४ ॥
ये च त्वां मानवाः प्रातः सायं च
सुसमाहि ताः ।
कीर्तयिष्यन्ति तेषां च महत्पुण्यं
भविष्यति ॥ १,१२.९५ ॥
देवताओं में से कोई तो केवल चार युगतक
और कोई एक मन्वन्तर तक ही रहते है; किन्तु
तुझे मैं एक कल्पतक की स्थिति देता हूँ ॥९३॥ तेरी माता सुनीति भी अति स्वच्छ
तारारूपसे उतने ही समयतक तेरे पास एक विमान पर निवास करेगी ॥९४॥ और जो लोग समाहित
चित्तसे सायड्काल और प्रातःकालके समय तेरा गुण कीर्तन करेंगे उनको महान् पुण्य
होगा ॥९५॥
श्रीपराशर उवाच
एवं पूर्वं
जगन्नाथाद्देवदेवाज्जनार्दनात् ।
वरं प्राप्य ध्रुवः स्थान मध्यास्ते
स महामते ॥ १,१२.९६ ॥
स्वयं
शुश्रूषणाद्धर्म्यान्मातापित्रोश्च वै तथा ।
द्धादशाक्षरमाहत्म्यात्तपसश्च
प्रभावतः ॥ १,१२.९७ ॥
तस्याभिमानमृद्धिं च महिमानं
निरिक्ष्य हि ।
देवासुराणामाचार्यः श्लोकमत्रोशना
जगौ ॥ १,१२.९८ ॥
श्रीपराशरजी बोले - हे महामते ! इस
प्रकार पूर्वकालमें जगत्पति देवाधिदेव भगवान् जनार्दनसे वर पाकर ध्रुव उस
अत्युत्तम स्थानमें स्थित हुए ॥९६॥ हे मुने ! अपने माता पिताकी धर्मपूर्वक सेवा
करनेसे तथा द्वादशाक्षर मन्त्रके माहात्म्य और तपके प्रभावसे उनके मान,
वैभव एवं प्रभावकी वृद्धि देखकर देव और असुरोंके आचार्य शुक्रदेवने
ये श्लोक कहे हैं ॥९७-९८॥
अहोस्य तपसो वीर्यमहोस्य तपसः फलम्
।
यदेनं पुरतः कृत्वा ध्रुवं
सप्तर्षयः स्थिताः ॥ १,१२.९९ ॥
ध्रुवस्य जननी चेयं सुनीतिर्नाम
सूनृता ।
अस्याश्च महिमानं कः शक्तो
वर्णयितुं भुवि ॥ १,१२.१०० ॥
त्रैलोक्यश्रयतां प्राप्तं परं
स्थानं स्तिरायति ।
स्थानं प्राप्ता परं धृत्वा या
कुक्षिविवरे ध्रुवम् ॥ १,१२.१०१ ॥
'अहो ! इस ध्रुवके तपका कैसा
प्रभाव है ? अहो ! इसकी तपस्याका कैसा अद्भुत फल हैं जो इस
ध्रुवको ही आगे रखकर सप्तार्षिगण स्थित हो रहे हैं ॥९९॥ इसकी यह सुनीति नामवाली
माती भी अवश्य ही सत्य और हितकर वचन बोलनेवाली है *
। संसारमें ऐसा कोण है जो इसकी महिमाका वर्णन कर सके ? जिसने
अपनी कोखमें उस ध्रुवको धारण करके त्रिलोकीका आश्रयभूत अति उत्तम स्थान प्राप्त कर
लिया, जो भविष्यमें भी स्थिर रहनेवाला है' ॥१००-१०१॥
* सुनीति ने ध्रुव को
पूण्योपर्जन करने का उपदेश दिया था, जिसके आचरण से उन्हें उत्तम लोक प्राप्त हुआ । अतएव 'सुनीति' सूनृता कही गयी है ।
यश्चैतत्कीर्तयेन्नित्यं
ध्रुवस्यारोहणं दिवि ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः स्वर्गलोके
महीयते ॥ १,१२.१०२ ॥
स्थानभ्रंशं न चाप्नोति दिवि वा यदि
वा भुवि ।
सर्वकल्याणसंयुक्तो दीर्घकालं स
जीवति ॥ १,१२.१०३ ॥
जो व्यक्ति ध्रुवके इस दिव्यलोक
प्राप्तिके प्रसंगक कीर्तन करता है वह सब पापंसे मुक्त होकर स्वर्गलोकमें पूजित
होता है ॥१०२॥ वह स्वर्गमें रहे अथवा पृथ्विवीमें कभी अपने स्थानसे च्युत नहीं
होता तथा समस्त मंगलोंसे भरपूर रहकर बहुत कालतक जीवित रहता है ॥१०३॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमांऽशे
द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण अध्याय 13
0 Comments:
Post a Comment
Please do not enter any spam link in the comment box