सतीखण्ड अध्याय ९
शिवमहापुराण के द्वितीय रुद्रसंहिता
के द्वितीयखण्ड सतीखण्ड के अध्याय ९ में कामदेव द्वारा भगवान् शिव को विचलित न कर
पाना,
ब्रह्माजी द्वारा कामदेव के सहायक मारगणों की उत्पत्ति; ब्रह्माजी का उन सबको शिव के पास भेजना, उनका वहाँ
विफल होना, गणोंसहित कामदेव का वापस अपने आश्रम को लौटने का
वर्णन किया गया है।
रुद्रसंहिता सतीखण्ड अध्याय ९
Sati
khand chapter 9
शिवपुराणम् संहिता २ (रुद्रसंहिता) खण्डः २ (सतीखण्डः) अध्यायः ९
शिवपुराणम्
रुद्रसंहिता सतीखण्डः नवमोऽध्यायः
शिवमहापुराण द्वितीय रुद्रसंहिता द्वितीय-सतीखण्ड नौवाँ अध्याय
शिवमहापुराण –
द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय
९
ब्रह्मोवाच ।।
तस्मिन् गते सानुचरे शिवस्थानं च
मन्मथे ।।
चरित्रमभवच्चित्रं तच्छृणुष्व
मुनीश्वर ।। १ ।।
गत्वा तत्र महावीरो मन्मथो मोहकारकः
।।
स्वप्रभावं ततानाशु मोहयामास
प्राणिनः।।२।।
वसंतोपि प्रभावं स्वं चकार हरमोहनम्
।।
सर्वे वृक्षा एकदैव प्रफुल्ला
अभवन्मुने ।। ३ ।।
विविधान्कृतवान्यत्नान् रत्या सह
मनोभवः ।।
जीवास्सर्वे वशं यातास्सगणेशश्शिवो
न हि ।। ४ ।।
ब्रह्माजी बोले —
हे मुनीश्वर ! अनुचरों के साथ उस काम के शिवस्थान में पहुँच जाने पर
अद्भुत चरित्र हुआ, उसे सुनिये ॥ १ ॥ सभी लोगों को मोहित
करनेवाले उस महावीर काम ने वहाँ पहुँचकर अपना प्रभाव फैला दिया और सभी प्राणियों
को मोहित कर लिया ॥ २ ॥ हे मुने ! वसन्त ने भी महादेवजी को अपना मोहित करनेवाला
प्रभाव दिखाया, जिससे समस्त वृक्ष एक साथ ही फूलों से लद गये
। उस समय काम ने रति के साथ [शिव को मोहित करने के लिये] अनेक यत्न किये, जिससे सभी जीव उसके वशीभूत हो गये, किंतु गणों सहित
शिवजी उसके वश में नहीं हुए ॥ ३-४ ॥
समधोर्मदनस्यासन्प्रयासा निप्फला
मुने ।।
जगाम स मम स्थानं निवृत्त्य
विमदस्तदा ।।५।।
कृत्वा प्रणामं विधये मह्यं गद्गदया
गिरा ।।
उवाच मदनो मां चोदासीनो विमदो मुने
।।६।।
हे मुने ! [इस प्रकार चेष्टा करते
हुए] जब वसन्तसहित उस काम के समस्त प्रयत्न निष्फल हो गये,
तब वह अहंकाररहित हो गया और लौटकर अपने स्थान पर चला गया । हे मुने
! मुझ ब्रह्मा को प्रणामकर उदासीन तथा अभिमानरहित वह कामदेव गद्गद वाणी से मुझसे
कहने लगा — ॥ ५-६ ॥
काम उवाच ।।
ब्रह्मन् शंभुर्मोहनीयो न वै
योगपरायणः ।।
न शक्तिर्मम नान्यस्य तस्य शंभोर्हि
मोहने ।। ७ ।।
समित्रेण मया ब्रह्मन्नुपाया
विविधाः कृताः ।।
रत्या सहाखिलास्ते च निष्फला
अभवञ्च्छिवे ।।८।।
शृणु ब्रह्मन्यथाऽस्माभिः कृतां हि
हरमोहने ।।
प्रयासा विविधास्तात गदतस्तान्मुने
मम ।।९।।
काम बोला —
हे ब्रह्मन् ! शिव को मोहित नहीं किया जा सकता; क्योंकि वे योगपरायण हैं । उन शिव को मोहित करने की शक्ति न मुझमें है और
न अन्य किसी में है ॥ ७ ॥ हे ब्रह्मन् ! मैंने मित्र वसन्त तथा रति के साथ उन्हें
मोहित करने के अनेक उपाय किये, किंतु शिव में वे सभी निष्फल
हो गये । हे ब्रह्मन् ! हमलोगों ने शिवजी को मोहित करने के लिये जिन उपायों को
किया, उन विविध उपायों को मैं बता रहा हूँ, हे मुने ! हे तात ! आप सुनिये — ॥ ८-९ ॥
यदा समाधिमाश्रित्य
स्थितश्शंभुर्नियंत्रितः ।।
तदा सुगंधिवातेन शीतलेनातिवेगिना ।।
१० ।।
उद्वीजयामि रुद्रं स्म नित्यं
मोहनकारिणा ।।
प्रयत्नतो महादेवं समाधिस्थं
त्रिलोचनम् ।। ११ ।।
जब शिवजी संयमित होकर समाधि लगाकर
बैठे हुए थे, तब मैं मोहित करनेवाली वेगवान्,
सुगन्धयुक्त तथा शीतल वायु से त्रिनेत्र महादेव रुद्र को विचलित
करने लगा ॥ १०-११ ॥
स्वसायकांस्तथा पंच समादाय शरासनम्
।।
तस्याभितो भ्रमंतस्तु मोहयंस्तद्ग
णानहम् ।। १२ ।।
मम प्रवेशमात्रेण
सुवश्यास्सर्वजंतवः ।।
अभवद्विकृतो नैव शंकरस्सगणः प्रभुः
।। १३ ।।
मैं अपने धनुष तथा पाँचों
पुष्प-बाणों को लेकर उनके चारों ओर छोड़ता हुआ उनके गणों को मोहित करने लगा। [उस
प्रदेश में] मेरे प्रवेश करते ही समस्त प्राणी मोहित हो गये,
किंतु गणोंसहित भगवान् शिव विकारयुक्त नहीं हुए ॥ १२-१३ ॥
यदा हिमवतः प्रस्थं स गतः
प्रमथाधिपः ।।
तत्रागतस्तदैवाहं सरतिस्समधुर्विधे
।। १४ ।।
यदा मेरुं गतो रुद्रो यदा वा
नागकेशरम् ।।
कैलासं वा यदा यातस्तत्राहं
गतवाँस्तदा ।। १५ ।।
यदा त्यक्तसमाधिस्तु हरस्तस्थौ
कदाचन ।।
तदा तस्य पुरश्चक्रयुगं रचितवानहम्
।। ।। १६ ।।
तच्च भ्रूयुगलं ब्रह्मन् हावभावयुतं
मुहुः ।।
नानाभावानकार्षीच्च
दांपत्यक्रममुत्तमम् ।। १७ ।।
हे विधे ! जब वे प्रमथाधिपति शिव
हिमालय के शिखर पर गये, तब मैं भी वसन्त और
रति के साथ वहाँ पहुँच गया ॥ १४ ॥ जब वे मेरु पर्वत पर और नागकेसर पर्वत पर गये,
तो मैं वहाँ भी गया । जब वे कैलास पर्वत पर गये, तब मैं भी वहाँ पर गया ॥ १५ ॥ जब वे किसी समय समाधि से मुक्त हो गये,
तो मैंने उनके सामने दो चक्र रचे । वे दोनों चक्र स्त्री के
हावभावयुक्त दोनों कटाक्ष थे । मैंने दाम्पत्यभाव का अनुकरण करते हुए उन नीलकण्ठ
महादेव के सामने नाना प्रकार के भाव उत्पन्न किये ॥ १६-१७ ॥
नीलकंठं महादेवं सगणं
तत्पुरःस्थिताः ।।
अकार्षुमोहितं भावं मृगाश्च
पक्षिणस्तथा ।। १८ ।।
मयूरमिथुनं तत्राकार्षीद्भावं
रसोत्सुकम् ।।
विविधां गतिमाश्रित्य पार्श्वे तस्य
पुरस्तथा ।। १९ ।।
नालभद्विवरं तस्मिन् कदाचिदपि
मच्छरः ।।
सत्यं ब्रवीमि लोकेश मम शक्तिर्न
मोहने ।। २० ।।
पशुओं तथा पक्षियों ने भी उनके
सामने स्थित होकर गणोंसहित शिवजी को मोहित करने के लिये मोहकारी भाव प्रदर्शित
किये ॥ १८ ॥ रसोत्सुक हुए मयूर के जोड़े ने अनेक प्रकार की गतियों का सहारा लेकर
विविध प्रकार के भाव उनके आगे-पीछे प्रदर्शित किये, किंतु मेरे बाणों को कभी भी अवकाश नहीं मिला, मैं यह
सत्य कह रहा हूँ । हे लोकेश ! शिवजी को मोहित करने की शक्ति मुझमें नहीं है ॥
१९-२० ॥
मधुरप्यकरोत्कर्म युक्तं यत्तस्य मोहने
।।
तच्छृणुष्व महाभाग सत्यं सत्यं
वदाम्यहम् ।। २१ ।।
चंपकान्केशरान्वालान्कारणान्पाटलांस्तथा
।।
नागकेशरपुन्नागान्किंशुकान्केतकान्करान्
।। २२ ।।
मागंधिमल्लिकापर्णभरान्कुरवकांस्तथा
।।
उत्फुल्लयति तत्र स्म यत्र तिष्ठति
वै हरः ।।२३।।
इस वसन्त ने भी उन्हें मोहित करने
के लिये जो-जो उचित उपाय किये हैं, हे
महाभाग ! उन्हें आप सुनें, मैं सत्य-सत्य कह रहा हूँ ॥ २१ ॥
इस वसन्त ने श्रेष्ठ चम्पक, केसर, बाल
[इलायची], कटहल, गुलाब, नागकेसर, पुन्नाग, किंशुक,
केतकी, मालती, मल्लिका,
पर्णभार एवं कुरबक आदि पुष्पों को जहाँ भी शिवजी बैठते थे, वहीं विकसित कर दिया ॥ २२-२३ ॥
सरांस्युत्फुल्लपद्मानि वीजयन्
मलयानिलैः ।।
यत्नात्सुगंधीन्यकरोदतीव
गिरिशाश्रमे ।। २४ ।।
लतास्सर्वास्सुमनसो दधुरंकुरसंचयान्
।।
वृक्षांकं चिरभावेन वेष्टयंति स्म
तत्र च ।। २५ ।।
तान्वृक्षांश्च सुपुष्पौघान् तैः सुगंधिसमीरणैः
।।
दृष्ट्वा कामवशं याता मुनयोपि परे
किमु ।। २६ ।।
एवं सत्यपि शंभोर्न दृष्टं मोहस्य
कारणम् ।।
भावमात्रमकार्षीन्नो कोपो मय्यपि
शंकरः ।। २७ ।।
इस वसन्त ने शिवजी के आश्रम में
तालाब के सभी फूले हुए कमलों को मलय पवनों से यत्नपूर्वक अत्यन्त सुगन्धित कर दिया
॥ २४ ॥ सभी लताएँ फूल से युक्त और अंकुर-समूह के साथ सन्निकट के वृक्षों में बड़े
प्रेम से लिपट गयीं ॥ २५ ॥ सुगन्धित पवनों से खिले हुए फूलों से युक्त उन वृक्षों
को देखकर मुनि भी काम के वशीभूत हो गये, फिर
अन्य की तो बात ही क्या ! ॥ २६ ॥ इतना होने पर भी मैंने शंकरजी के मोहित होने का न
कोई लक्षण देखा, न तो उनमें कोई काम का भाव ही उत्पन्न हुआ ।
[इतना सब कुछ करनेपर भी] शंकर ने मेरे ऊपर रंचमात्र भी क्रोध नहीं किया ॥ २७ ॥
इति सर्वमहं दृष्ट्वा ज्ञात्वा तस्य
च भावनाम् ।।
विमुखोहं शंभुमोहान्नियतं ते
वदाम्यहम् ।।२८।।
तस्य त्यक्तसमाधेस्तु क्षणं नो
दृष्टिगोचरे ।।
शक्नुयामो वयं स्थातुं तं रुद्रं को
विमोहयेत् ।। २९ ।।
ज्वलदग्निप्रकाशाक्षं
जट्टाराशिकरालिनम् ।।
शृंगिणं वीक्ष्य कस्स्थातुं
ब्रह्मन् शक्नोति तत्पुरः ।। ३० ।।
इस प्रकार सब कुछ देखकर तथा उनकी
भावना को जानकर मैं शिवजी को मोहित करने के प्रयास से विरत हो गया,
उसका कारण आपसे निवेदन कर रहा हूँ ॥ २८ ॥ समाधि छोड़ देने पर हमलोग
उनकी दृष्टि के सामने क्षणमात्र भी टिक नहीं सकते, उन रुद्र
को कौन मोहित कर सकता है ? ॥ २९ ॥ हे ब्रह्मन् ! जलती हुई
अग्नि के समान प्रकाशित नेत्रोंवाले तथा जटा धारण करने से महाविकराल उन
कैलासपर्वतनिवासी शिवजी को देखकर उनके सामने कौन खड़ा रह सकता है ? ॥ ३० ॥
।। ब्रह्मोवाच ।।
मनो भववचश्चेत्थं श्रुत्वाहं
चतुराननः ।।
विवक्षुरपि नावोचं चिंताविष्टोऽभवं
तदा ।।३१।।
मोहनेहं समर्थो न हरस्येति मनोभवः
।।
वचः श्रुत्वा महादुःखान्निरश्वसमहं
मुने ।। ३२ ।।
निश्श्वासमारुता मे हि नाना
रूपमहाबलः ।।
जाता गता लोलजिह्वा
लोलाश्चातिभयंकराः ।। ३३ ।।
अवादयंत ते सर्वे
नानावाद्यानसंख्यकान् ।।
पटहादिगणास्तांस्तान्
विकरालान्महारवान् ।।३४।।
अथ ते मम निश्श्वाससंभवाश्च महागणाः
।।
मारयच्छेदयेत्यूचुर्ब्रह्मणो मे
पुरः स्थिताः ।। ३५ ।।
ब्रह्माजी बोले –
इस प्रकार काम के वचन को सुनकर मैं चतुरानन ब्रह्मा चिन्तामग्न हो
गया और बोलने की इच्छा करते हुए भी कुछ बोल न सका ॥ ३१ ॥ मैं कामदेव शिव को मोहित
करने में समर्थ नहीं हूँ । हे मुने ! उसका यह वचन सुनकर मैं बड़े दुःख के साथ उष्ण
श्वास लेने लगा ॥ ३२ ॥ उस समय मेरे निःश्वास अनेक रूपोंवाले, महाबलवान्, लपलपाती जीभवाले, चंचल
तथा अत्यन्त भयंकर गणों के रूप में परिणत हो गये ॥ ३३ ॥ उन गणों ने भेरी, मृदंग आदि अनेक प्रकार के असंख्य विकराल, महाभयंकर
बाजे बजाना प्रारम्भ किया । मेरे निःश्वास से उत्पन्न वे महागण मुझ ब्रह्मा के
सामने ही मारो, काटो – ऐसा बोलने लगे ॥
३४-३५ ॥
तेषां तु वदतां'
तत्र मारयच्छेदयेति माम् ।।
वचः श्रुत्वा विधिं कामः
प्रवक्तुमुपचक्रमे ।। ३६ ।।
मुनेऽथ मां समाभाष्य तान् दृष्ट्वा
मदनो गणान् ।।
उवाच वारयन् ब्रह्मन्गणानामग्रतः
स्मरः ।। ३७ ।।
मारो, काटो – ऐसा बोलनेवाले उन गणों के शब्दों को सुनकर वह
काम मुझ ब्रह्मा से कहने लगा ॥ ३६ ॥ हे मुने! हे ब्रह्मन् ! इस प्रकार उस काम ने
मेरी आज्ञा लेकर उन सभी गणों की ओर देखकर उन्हें ऐसा करने से रोकते हुए गणों के
सामने ही मुझसे कहना प्रारम्भ किया — ॥ ३७ ॥
काम उवाच ।।
हे ब्रह्मन् हे प्रजानाथ
सर्वसृष्टिप्रवर्तक ।।
उत्पन्नाः क इमे वीरा विकराला
भयंकराः ।। ३८ ।।
किं कर्मैते करिष्यंति कुत्र
स्थास्यंति वा विधे ।।
किन्नामधेया एते तद्वद तत्र नियोजय
।। ३९ ।।
नियोज्य तान्निजे कृत्ये स्थानं
दत्त्वा च नाम च ।।
मामाज्ञापय देवेश कृपां कृत्वा
यथोचिताम् ।। ४० ।।
काम बोला —
हे ब्रह्मन् ! हे प्रजानाथ ! हे सृष्टि के प्रवर्तक ! ये कौन विकराल
एवं भयंकर वीर उत्पन्न हो गये ? ॥ ३८ ॥ हे विधे ! ये कौन-सा
कार्य करेंगे तथा कहाँ निवास करेंगे और इनका क्या नाम है ? उन्हें
आप मुझे बताइये तथा इनको कार्य में नियुक्त कीजिये ॥ ३९ ॥ हे देवेश ! इनको अपने
कार्य में नियुक्तकर और इनके नाम रखकर तथा स्थानों की व्यवस्था करके यथोचित कृपा
करके मुझे आज्ञा दीजिये ॥ ४० ॥
ब्रह्मोवाच ।।
इति तद्वाक्यमाकर्ण्य मुनेऽहं
लोककारकः ।।
तमवोचं ह मदनं तेषां कर्मादिकं
दिशन् ।। ४१ ।।
ब्रह्माजी बोले —
हे मुने ! उस काम की बात सुनकर उनके कार्य आदि का निर्देश करते हुए
लोककर्ता मैंने काम से कहा — ॥ ४१ ॥
ब्रह्मोवाच ।।
एत उत्पन्नमात्रा हि मारयेत्यवदन्
वचः ।।
मुहुर्मुहुरतोमीषां नाम मारेति
जायताम् ।। ४२ ।।
सदैव विघ्नं जंतूनां करिष्यन्ति गणा
इमे ।।
विना निजार्चनं काम नाना
कामरतात्मनाम् ।।४३।।
तवानुगमने कर्म मुख्यमेषां मनोभव ।।
सहायिनो भविष्यंति सदा तव न संशयः
।। ४४ ।।
यत्रयत्र भवान् याता स्वकर्मार्थं
यदा यदा ।।
गंता स तत्रतत्रैते सहायार्थं
तदातदा ।।४५।।
चित्तभ्रांतिं करिष्यंति
त्वदस्त्रवशवर्तिनाम् ।।
ज्ञानिनां ज्ञानमार्गं च
विघ्नयिष्यंति सर्वथा ।। ४६ ।।
हे काम ! उत्पन्न होते ही इन सबने
बारंबार मारय-मारय [मारो-मारो]-इस प्रकार का शब्द कहा है,
इसलिये इनका नाम ‘मार’ होना
चाहिये ॥ ४२ ॥ हे काम ! अपनी पूजा के बिना ये गण अनेक प्रकार की कामनाओं में रत
मनवाले प्राणियों के कार्यों में सर्वदा विघ्न किया करेंगे ॥ ४३ ॥ हे कामदेव !
तुम्हारे अनुकूल रहना ही इनका मुख्य कार्य होगा और ये तुम्हारी सहायता में सदा
तत्पर रहेंगे, इसमें संशय नहीं है ॥ ४४ ॥ जब-जब और जहाँ-जहाँ
तुम अपने कार्य के लिये जाओगे, तब-तब वहाँ-वहाँ ये तुम्हारी
सहायता के लिये जायँगे ॥ ४५ ॥ ये तुम्हारे अस्त्रों से वशवर्ती प्राणियों के चित्त
में सदैव भ्रान्ति उत्पन्न करेंगे और ज्ञानियों के ज्ञानमार्ग में विघ्न डालेंगे
॥४६॥
ब्रह्मोवाच ।।
इत्याकर्ण्य वचो मे हि
सरतिस्समहानुगः ।।
किंचित्प्रसन्नवदनो बभूव मुनिसत्तम
।।४७।।
श्रुत्वा तेपि गणास्सर्वे मदनं मां
च सर्वतः ।।
परिवार्य्य यथाकामं तस्थुस्तत्र
निजाकृतिम् ।। ४८ ।।
अथ ब्रह्मा स्मरं प्रीत्याऽगदन्मे
कुरु शासनम् ।।
एभिस्सहैव गच्छ त्वं पुनश्च हरमोहने
।।४९।।।
ब्रह्माजी बोले —
हे मुनिसत्तम ! मेरे इस वचन को सुनकर रति और वसन्तसहित वह कामदेव
कुछ प्रसन्नमुख हो गया ॥ ४७ ॥ मेरी बात को सुनकर वे सभी गण अपने-अपने स्वरूप से
मुझे तथा कामदेव को चारों ओर से घेरकर बैठ गये । इसके बाद मुझ ब्रह्मा ने काम से
प्रेमपूर्वक कहा — [हे मदन !] मेरी बात मानो, तुम इन गणों को साथ लेकर शिव को मोहित करने के लिये पुनः जाओ ॥ ४८-४९ ॥
मन आधाय यवाद्धि कुरु मारगणैस्सह ।।
मोहो भवेद्यथा शंभोर्दारग्रहणहेतवे
।। ५०।।
इत्याकर्ण्य वचः कामः प्रोवाच वचनं
पुनः।।
देवर्षे गौरवं मत्वा प्रणम्य विनयेन
माम् ।।५१।।
अब तुम इन मारगणों के साथ मन लगाकर
ऐसा प्रयत्न करो, जिससे स्त्री ग्रहण
करने के लिये शिवजी को मोह हो जाय । हे देवर्षे ! मेरी बात सुनकर काम गौरव का
ध्यान रखते हुए मुझे प्रणाम करके विनयपूर्वक मुझसे पुनः यह वचन कहने लगा – ॥ ५०-५१ ॥
काम उवाच ।।
मया सम्यक् कृतं कर्म मोहने तस्य
यत्नतः ।।
तन्मोहो नाभवत्तात न भविष्यति
नाधुना ।। ५२ ।।
तव वाग्गौरवं मत्वा दृष्ट्वा
मारगणानपि ।।
गमिष्यामि पुनस्तत्र सदारोहं
त्वदाज्ञया ।। ५३ ।।
मनो निश्चितमेतद्धि तन्मोहो न
भविष्यति ।।
भस्म कुर्यान्न मे देहमिति शंकास्ति
मे विधे ।। ५४ ।।
इत्युक्त्वा समधुः
कामस्सरतिस्सभयस्तदा ।।
ययौ मारगणैः सार्द्धं शिवस्थानं
मुनीश्वर ।। ५५ ।।
पूर्ववत् स्वप्रभावं च चक्रे
मनसिजस्तदा ।।
बहूपायं स हि मधुर्विविधां
बुद्धिमावहन् ।। ५६ ।।
उपायं स चकाराति तत्र मारगणोऽपि च
।।
मोहोभवन्न वै शंभोरपि
कश्चित्परात्मनः ।। ५७ ।।
काम बोला —
हे तात ! मैंने शिव को मोहित करने के लिये भली-भाँति यत्नपूर्वक
उपाय किये, किंतु उनको मोह नहीं हुआ, न
आगे होगा और वर्तमान में भी वे मोहित नहीं हैं ॥ ५२ ॥ किंतु आपकी वाणी का गौरव
मानकर इन मारगणों को देखकर आपकी आज्ञा से मैं पुनः वहाँ पत्नीसहित जाऊँगा ॥ ५३ ॥
हे ब्रह्मन् ! मैंने मन में यह निश्चय कर लिया है कि उन्हें मोह नहीं होगा और हे
विधे ! मुझे यह शंका है कि [इस बार] कहीं वे मेरे शरीर को भस्म न कर दें ॥ ५४ ॥ हे
मुनीश्वर ! ऐसा कहकर वह कामदेव वसन्त, रति तथा मारगणों को
साथ लेकर भयपूर्वक शिवजी के स्थान पर गया ॥ ५५ ॥ [वहाँ जाकर] कामदेव ने पहले के
समान ही अपना प्रभाव दिखाया तथा वसन्त ने भी अनेक प्रकार की बुद्धि का प्रयोग करते
हुए बहुत उपाय किये, मारगणों ने भी वहाँ बहुत उपाय किये,
किंतु परमात्मा शंकर को कुछ भी मोह न हुआ ॥ ५६-५७ ॥
निवृत्त्य पुनरायातो मम स्थानं
स्मरस्तदा ।।
आसीन्मारगणोऽगर्वोऽहर्षो मेपि
पुरस्थितः ।। ५८ ।।
कामः प्रोवाच मां तात प्रणम्य च
निरुत्सवः ।।
स्थित्वा मम पुरोऽगर्वो मारैश्च
मधुना तदा ।।५९।।
कृतं पूर्वादधिकतः कर्म तन्मोहने
विधे ।।
नाभवत्तस्य मोहोपि
कश्चिद्ध्यानरतात्मनः ।। ६० ।।
न दग्धा मे तनुश्चैव तत्र तेन
दयालुना ।।
कारणं पूर्वपुण्यं च निर्विकारी स
वै प्रभुः ।। ६१ ।।
चेद्वरस्ते हरो भार्यां
गृह्णीयादिति पद्मज ।।
परोपायं कुरु तदा विगर्व इति मे
मतिः ।। ६२ ।।
तब वह कामदेव लौटकर पुनः मेरे पास
आया । समस्त मारगण भी अभिमानरहित तथा उदास होकर मेरे सामने खड़े हो गये ॥ ५८ ॥ हे
तात ! तब उदास और गर्वरहित कामदेव ने मारगणों तथा वसन्त के साथ मेरे सामने खड़े
होकर प्रणाम करके मुझसे कहा — ॥ ५९ ॥ ‘हे विधे ! मैंने शिवजी को मोहित करने के लिये पहले से भी अधिक प्रयत्न
किया, किंतु ध्यानरत चित्तवाले उन शिव को कुछ भी मोह नहीं
हुआ ॥ ६० ॥ उन दयालु ने मेरे शरीर को भस्म नहीं किया, इसमें
मेरे पूर्वजन्म का पुण्य ही कारण है । वे प्रभु सर्वथा निर्विकार हैं । हे
ब्रह्मन् ! यदि आपकी ऐसी इच्छा है कि महादेवजी दारपरिग्रह करें, तो मेरे विचार से आप गर्वरहित होकर दूसरा उपाय कीजिये’ ॥ ६१-६२ ॥
ब्रह्मोवाच ।।
इत्युक्त्वा सपरीवारो ययौ
कामस्स्वमाश्रमम् ।।
प्रणम्य मां स्मरन् शंभुं गर्वदं
दीनवत्सलम् ।।६३।।
ब्रह्माजी बोले —
ऐसा कहकर कामदेव मुझे प्रणाम करके गर्व का खण्डन करनेवाले दीनवत्सल
शम्भु का स्मरण करता हुआ परिवारसहित अपने आश्रम को चला गया ॥ ६३ ॥’
इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां
रुद्रसंहितायां सतीखंडे सत्युपाख्याने कामप्रभावमारगणोत्पत्तिवर्णनो नाम
नवमोऽध्यायः ।।९।।
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के
अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में कामप्रभाव एवं
मारगणोत्पत्तिवर्णन नामक नौवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९ ॥
शेष जारी .............. शिवमहापुराण रुद्रसंहिता सतीखण्ड अध्याय 10
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