श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
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प्रेतकल्प अध्याय २
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
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प्रेतकल्प अध्याय २ मरणासन्न व्यक्ति के कल्याण के लिये किये
जानेवाले कर्म, मृत्यु से पूर्व की स्थिति तथा कर्मविपाक का
वर्णन
गरुडपुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः २
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय २
Garud mahapuran dharmakand pretakalpa part 2
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
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प्रेतकल्प दूसरा अध्याय
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय २ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) द्वितियोऽध्यायः
श्रीगरुडमहापुराणम् २
श्रीकृष्ण उवाच ।
साधु पृष्टं त्वया भद्र मानुषाणां
हिताय वै ।
शृणुष्वावहितो भूत्वा
सर्वमेवौर्ध्वदैहिकम् ॥ २,२.१ ॥
सम्यग्विभेदरहितं
श्रुतिस्मृतिसमुद्धृतम् ।
यन्न दृष्टं सुरैः
सेन्द्रैर्योगिभिर्योगचिन्तकैः ॥ २,२.२
॥
गुह्यद्गुह्यतरं तच्च नाख्यातं
कस्यचित्क्वचित् ।
भक्तस्त्वं हि महाभाग वैनतेयं
ब्रवीमि ते ॥ २,२.३ ॥
अपुत्रस्य गतिर्नास्तु स्वर्गो नैव
च नैव च ।
येन केनाप्युपायेन कार्यं जन्म
सुतस्य हि ॥ २,२.४ ॥
तारयेन्नरकात्पुत्त्रो यदि मोक्षो न
विद्यते ।
स्कन्धः पुत्रेण कर्तव्यो
ह्यग्निदाता च पौत्रकः ॥ २,२.५
॥
तिलदर्भैश्च भूम्यां वै कुटी ऋतुमती
भवेत् ।
पञ्च रत्नानि वक्त्रे तु येन जीवः
प्ररोहति ॥ २,२.६ ॥
यदा पुष्पं प्रनष्टं हि क्व तदा
गर्भधारणम् ।
आदराच्च ततो भूमौ येन गर्भं
प्रधार्यते ॥ २,२.७ ॥
लेप्या तु गोमयैर्भूमिस्तिलान्दर्भान्विनिः
क्षिपेत् ।
तस्यामेवातुरो मुक्तः सर्वं दहति
किल्बिषम् ॥ २,२.८ ॥
दर्भतूली नयेत्स्वर्गमातुरस्य न
संशयः ।
दर्भांस्तत्र क्षिपेद्वाथ
तूलीगेन्दुकमध्यतः ॥ २,२.९ ॥
सर्वत्र वसुधापूता यत्र लेपो न
विद्यते ।
यत्र लेपः स्थितस्तत्र पुनर्लेपेन
शुध्यति ॥ २,२.१० ॥
यातुधानाः पिशाचाश्च राक्षसाः
क्रूरकर्मिणः ।
अलेपं ह्यातुरं मुक्तं विशन्त्येते
वियोनयः ॥ २,२.११ ॥
नित्यहोमस्तथा श्राद्धं पादशौचं
द्विजे तथा ।
मण्डलेन विना भूम्यामातुरो मुच्यते
न हि ॥ २,२.१२ ॥
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च
श्रीर्हुताशस्तथैव च ।
मण्डले चोपतिष्ठन्ति तस्मात्कुर्वीत
मण्डलम् ॥ २,२.१३ ॥
अन्यथा म्रियते वालो
वृद्धस्तार्क्ष्ययुवाथवा ।
योन्यन्तरं न गच्छेत्स क्रीडते
वायुना सह ॥ २,२.१४ ॥
मिश्रितं लोहितामिश्रं तदेवं जन्म
जीयते ।
तस्यैव वायुभूतस्य न श्राद्धं
नोदकक्रिया ॥ २,२.१५ ॥
श्रीकृष्ण ने कहा- हे भद्र! आपने
मनुष्यों के हित में बहुत ही अच्छी बात पूछी है। सावधान होकर इस समस्त और्ध्वदैहिक
क्रिया को भलीभाँति सुनें।
हे गरुड ! जो सम्यक् रूप से भेदरहित
है,
जिसका वर्णन श्रुतियों और स्मृतियों में हुआ है, जिसको इन्द्रादि देवता, योगीजन और योगमार्ग का
चिन्तन करनेवाले विद्वान् नहीं देख सके हैं, जो
गुह्यातिगुह्य है, ऐसे उस प्रधान तत्व को जिसे मैंने अभी तक
किसी अन्य से नहीं कहा है, तुम मेरे भक्त हो, इसलिये मैं तुम्हें बता रहा हूँ।
हे वैनतेय! इस संसार में पुत्रहीन
व्यक्ति की गति नहीं है, उसको स्वर्ग
प्राप्त नहीं होता है अतः शास्त्रानुसार यथायोग्य उपाय से पुत्र उत्पन्न करना ही
चाहिये। यदि मनुष्य को मोक्ष नहीं मिलता है तो पुत्र नरक से उसका उद्धार कर देता
है। पुत्र और पौत्र को मरे हुए प्राणी को कन्धा देना चाहिये तथा उसका यथाविधान
अग्निदाह करना चाहिये। शव के नीचे पृथ्वी पर तिल के सहित कुश बिछाने से शव की
आधारभूत भूमि उस ऋतुमती नारी के समान हो जाती है, जो प्रसव की
योग्यता रखती है मृतक के मुख में पञ्चरत्न डालना बीजवपन के समान है, जिससे आगे जीव की शुभगति का निश्चय होता है। जैसे पुष्प (ऋतुकाल में
स्त्रियों का रजोदर्शन) न होने पर गर्भधारण सम्भव नहीं है, वैसे
ही शवभूमि भी तिल-कुश आदि के बिना जीव की शुभ योनि में कारण नहीं बन पाती। इसीलिये
श्रद्धापूर्वक तिल, कुश, पञ्चरत्न आदि का
यथाविधान विनियोग आवश्यक है।
गोबर से भूमि को सबसे पहले लीपना
चाहिये,
तदनन्तर उसके ऊपर तिल और कुश बिछाना चाहिये। उसके बाद आतुर व्यक्ति को
भूमि पर कुशासन के ऊपर सुला देना चाहिये। ऐसा करने से वह प्राणी अपने समस्त पापों को
जला कर पापमुक्त हो जाता है। शव के नीचे बिछाये गये कुशसमूह निश्चित ही
मृत्युग्रस्त प्राणी को स्वर्ग ले जाते हैं, इसमें संशय नहीं
है। जहाँ पृथ्वी पर मल-मूत्रादि का लेप (सम्बन्ध) नहीं है यहाँ वह सदा पवित्र है
और जहाँ (मल मूत्रादि का) लेप (सम्बन्ध) है, वहाँ (मल
मूत्रादि का अपसारण करके) गोमय से लेप करने पर वह शुद्ध होती है। गोबर से बिना
लिपी हुई भूमि पर सुलाये गये मरणासन्न व्यक्ति में यक्ष, पिशाच
एवं राक्षस कोटि के क्रूरकर्मी दुष्ट लोग प्रविष्ट हो जाते हैं। मरणासन्न की मुलि के
लिये उसे जल से बनाये गये मण्डलवाली भूमि पर ही सुलाना चाहिये, क्योंकि नित्य होम, श्राद्ध, पादप्रक्षालन,
ब्राह्मणों की अर्चा एवं भूमि का मण्डलीकरण मुक्ति के हेतु माने गये
हैं। बिना लिपी पुती मण्डलहीन भूमि पर मरणासन्न व्यक्ति को नहीं सुलाना चाहिये।
भूमि पर बनाये गये ऐसे मण्डल(यहाँ मण्डल का तात्पर्य है- जल से प्रोक्षण के बाद जल
से गोलाकार रेखा बना देना और चौक आदि पूरना।) में ब्रह्मा, विष्णु,
रुद्र, लक्ष्मी तथा अग्नि आदि देवता विराजमान हो जाते हैं,
अतः मण्डल का निर्माण अवश्य करना चाहिये। मण्डलविहीन भूमि पर प्राण
त्याग करने पर वह चाहे बालक हो, चाहे वृद्ध हो और चाहे जवान
हो, उसको अन्य योनि नहीं प्राप्त होती है। हे तार्क्ष्य उसकी
जीवात्मा वायु के साथ भटकती रहती है। उस प्रकार की वायुभूत जीवात्मा के लिये न तो
श्राद्ध का विधान है और न तो जलतर्पण की क्रिया ही बतायी गयी है।
मम स्वेदसमुद्भूतास्तिलास्तार्क्ष्य
पवित्रकाः ।
असुरा दानवा दैत्या विद्रवन्ति
तिलैस्तथा ॥ २,२.१६ ॥
तिलाः श्वेतास्तिला कृष्णास्तिला
गोमूत्रसंन्निभाः ।
दहन्तु ते मे पापानि शरीरेण कृतानि
वै ॥ २,२.१७ ॥
एक एव तिलो दत्तो हेमद्रोणतिलैः समः
।
तर्पणे दानहोमेषु दत्तो भवति
चाक्षयः ॥ २,२.१८ ॥
दर्भा रोमसमुद्भूतास्तिलाः स्वेदेषु
नान्यथा ।
देवता दानवास्तृप्ताः श्राद्धेन
पितरस्तथा ॥ २,२.१९ ॥
प्रयोगविधिना ब्रह्मा विश्वं
चाप्युपजीवनाम् ।
अपसव्यादितो ब्रह्मा पितरो
देवदेवताः ॥ २,२.२० ॥
तेन ते पितरस्तृप्ता अपसव्ये कृते
सति ।
हे गरुड! तिल मेरे पसीने से उत्पन्न
हुए हैं। अतः तिल बहुत ही पवित्र हैं। तिल का प्रयोग करने पर असुर दानव और दैत्य
भाग जाते हैं। तिल श्वेत, कृष्ण और
गोमूत्रवर्ण के समान होते हैं। वे मेरे शरीर के द्वारा किये गये समस्त पापों को
नष्ट करें।' ऐसी भावना करनी चाहिये। एक ही तिल का दान स्वर्ण
के बत्तीस सेर तिल के दान के समान है। तर्पण, दान एवं होम में
दिया गया तिल का दान अक्षय होता है। कुश मेरे शरीर के रोमों से उत्पन्न हुए हैं और
तिल की उत्पत्ति मेरे पसीने से हुई है। इसीलिये देवताओं की तृप्ति के लिये
मुख्यरूप से कुश की और पितरों की तृप्ति के लिये तिल की आवश्यकता होती है देवताओं
और पितरों की तृप्ति विश्व के लिये उपजीव्य (रक्षक) होने के कारण विश्व की तृप्ति
हेतु है। अतः अपसव्य आदि श्राद्ध की जो विधियाँ बतायी गयी हैं, उन्हीं विधियों के अनुसार मनुष्य को ब्रह्मा, देवदेवेश्वर
तथा पितॄजनों को संतृप्त करना चाहिये। अपसव्य आदि होकर [तिल का उपयोग करने से]
ब्रह्मा, पितर और देवेश्वर तृप्त होते हैं। अपसव्य होकर कर्म
करने से पितरों की संतृप्ति होती है।
दर्भमूले स्थितो ब्रह्मा मध्ये देवो
जनार्दनः ॥ २,२.२१ ॥
दर्भाग्रे शङ्करं विद्यात्त्रयो
देवाः कुशे स्मृताः ।
विप्रा मन्त्राः कुशा वह्निस्तुलसी
च खगेश्वर ॥ २,२.२२ ॥
नैते निर्माल्यतां यान्ति
क्रियमाणाः पुनः पुनः ।
तुलसी ब्राह्मणा गावो विष्णुरेकादशी
खग ॥ २,२.२३ ॥
पञ्च प्रवहणान्ये भवाब्धौ मज्जतां
नृणाम् ।
विष्णुरेकादशी गीता तुलसी
विप्रधेनवः ॥ २,२.२४ ॥
असारे दुर्गसंसारे षट्पदी
मुक्तिदायिनी ।
कुश के मूलभाग में ब्रह्मा,
मध्यभाग में विष्णु तथा अग्रभाग में शिव को जानना चाहिये; ये तीनों देव कुश में प्रतिष्ठित माने गये हैं। हे पक्षिराज! ब्राह्मण,
मन्त्र, कुश, अग्नि और
तुलसी- ये बार-बार समर्पित होने पर भी पर्युषित नहीं माने जाते, कभी निर्माल्य अर्थात् बासी नहीं होते। इनका पूजा में बारम्बार प्रयोग
किया जा सकता है। हे खगेन्द्र तुलसी, ब्राह्मण, गौ, विष्णु तथा एकादशीव्रत ये पाँचों संसारसागर में
डूबते हुए लोगों को नौका के समान पार कराते हैं। हे पक्षिश्रेष्ठ! विष्णु
एकादशीव्रत, गीता, तुलसी, ब्राह्मण और गौ-ये छ: इस असार संसार में लोगों को मुक्ति प्रदान करने के
साधन हैं, यह षट्पदी कहलाती है।
तिलाः पवित्रमतुलं दर्भाश्चापि
तुलस्यथ ॥ २,२.२५ ॥
निवारयन्ति चैतानि दुर्गतिं
यान्तमातुरम् ।
जैसे तिल की पवित्रता अतुलनीय होती
है,
उसी प्रकार कुश और तुलसी भी अत्यन्त पवित्र होते हैं। ये तीनों
पदार्थ मरणासन्न व्यक्ति को दुर्गति से उबार लेते हैं।
हस्ताभ्यामुद्धरेद्दर्भांस्तोयेन
प्रोक्षयेद्भुवि ॥ २,२.२६ ॥
मृत्युकाले
क्षिपेद्दर्भान्करयोरातुरस्य च ।
दर्भैस्तु क्षिप्यते योऽसौ
दर्भैस्तु परिवेष्टितः ॥ २,२.२७
॥
विष्णुलोके स वै याति मन्त्रहीनोऽपि
मानवः ।
तूलीं कृत्वा कृतौ पादौ संस्थितौ
क्षितिपृष्ठतः ॥ २,२.२८ ॥
प्रायाश्चित्तं विशुद्धाग्नौ
संसारेऽसारसागरे ।
गोमयेनोपलिम्पेत्तु
दर्भास्तरणसंस्थिते ॥ २,२.२९ ॥
यने दत्तेन दानेन सर्वं पापं
व्यपोहति ।
लवणं तद्रसं दिव्यं सर्वकामप्रदं
नृणाम् ॥ २,२.३० ॥
यस्मादन्नरसाः सर्वे नोत्कटा लवणं
विना ।
पितॄणां च प्रियं भव्यं तस्मात्स्वर्गप्रदं
भवेत् ॥ २,२.३१ ॥
विष्णुदेहसमुद्भूतो यतोऽयं लवणो रसः
।
एतत्सलवणं दानं तेन शंसन्ति योगिनः
॥ २,२.३२ ॥
ब्राह्मणक्षत्त्रियविशां स्त्रीणां
शूद्रजनस्य च ।
आतुरस्य यदा प्राणा न यान्ति
वसुधातले ॥ २,२.३३ ॥
लवणं तु तदा देयं द्वारस्योद्वाटनं
दिवः ।
अन्यच्च शृणु पक्षीन्द्र मृत्यो
रूपं प्रपञ्चतः ॥ २,२.३४ ॥
यस्य कालेन नो यायाद्वियोगः
प्राणदेहयोः ।
प्राणिनश्च स्वसमये
मृत्युरत्यन्तविस्मृतिः ॥ २,२.३५
॥
यथा वायुर्जलधरान्विकर्षति यतस्ततः
।
तद्वज्जलदवत्तार्क्ष्य कालस्यैव
वशानुगाः ॥ २,२.३६ ॥
सात्त्विका राजसाश्चैव तामसा ये च
केचन ।
भावाः कालात्मकाः सर्वे प्रवर्तन्ते
हि जन्तुषु ॥ २,२.३७ ॥
आदित्यश्चन्द्रमाः शम्भुरापो वायुः
शतक्रतुः ।
अग्निः खं पृथिवी मित्र ओषध्यो
वसवस्तथा ॥ २,२.३८ ॥
सरितः सागराश्चैव भावाभावौ च
सर्पहन् ।
सर्वे कालेन सृज्यन्ते
संक्षिप्यन्ते यथा पुनः ॥ २,२.३९
॥
कालेन संह्रियन्ते च नृनं
मृत्यावुपस्थिते ।
दैवयोगात्त्दा व्याधिः
कश्चिदुत्पद्यते खग ॥ २,२.४० ॥
वैकल्यमिन्द्रियाणां च बलौ जोरंहसां
भवेत् ।
युगपद्वश्चिककोटिशूकदंशो भवेद्यदि ॥
२,२.४१ ॥
तदानुमीयते तेन पीडा मृत्युभवा खग ।
ततः क्षणेन चैतन्ये विकले जडतां गते
॥ २,२.४२ ॥
प्रिचाल्यन्ते ततः प्राणा
याम्यैर्निकटवर्तिभिः ।
बीभत्सं तु तदा रूपं प्राणैः
कण्ठगतैर्भवेत् ॥ २,२.४३ ॥
फेमुद्गिरते सोऽथ मुखं लालाकुलं
भवेत् ।
अङ्गुष्ठमात्रपुरुषो हाहा
कुर्वंस्ततस्तनोः ॥ २,२.४४ ॥
तदैव नीयते
द्वतैर्याम्यैर्वोक्षन्स्वकं गृहम् ।
भूय एव हिते तात मृत्युकालदशामिमाम्
॥ २,२.४५ ॥
अष्मा प्रकुपितः काये
तीव्रवायुसमीरितः ।
भिनत्ति मर्मस्थानानि दीप्यमानो
निरिन्धनः ॥ २,२.४६ ॥
उदानो नाम पवनस्ततश्चोर्ध्वं
प्रवर्तते ।
भक्तानामबुभुक्षाणामधोगतिनिरोधकृत्
॥ २,२.४७ ॥
यैर्नानृतानि चोक्तानि प्रीतिभेदः
कृतो न च ।
आस्तिकः श्रद्दधानश्च स सुखं
मृत्युमृच्छति ॥ २,२.४८ ॥
यो न कामान्न संरंभान्न
द्वेषाद्धर्ममुत्सृजेत् ।
यथोक्तकारी सौम्यश्च स सुखं
मृत्युमृच्छति ॥ २,२.४९ ॥
मोहज्ञानप्रदातारः प्राप्नुवन्ति
महत्तमः ।
कूटसाक्षी मृषावादी ये च
विश्वासघातकाः ॥ २,२.५० ॥
ते मोहं मृत्युमृच्छन्ति तथा ये
वेदनिन्दकाः ।
विभीषकाः पूतिगन्धा
यष्टिमुद्गरपाणयः ॥ २,२.५१ ॥
आगच्छन्ति दुरात्मानो यमस्य
पुरुषास्तदा ।
प्राप्ते त्वीदृक्पथे घोरे जायते
तस्य वेपथुः ॥ २,२.५२ ॥
क्रन्दत्यविरतं सोऽपि
पितृमातृसुतानपि ।
सास्य वागस्फुटा यत्नेनैकवर्णा
विभासते ॥ २,२.५३ ॥
दृष्टिर्वै भ्राम्यते
त्रासाच्छ्वासाच्छुष्यति चाननम् ।
स ततो वेदनाविष्टस्तच्छरीरं
विमुञ्चति ॥ २,२.५४ ॥
अस्पृश्यं कुत्सनीयं च तत्क्षणादेव
जायते ।
उक्तं मृत्योः स्वरूपं तु
प्रसङ्गादन्यदप्यथ ॥ २,२.५५ ॥
वैचित्र्यस्योत्तरं प्रश्रे द्वितीयस्य
वदामि ते ।
कर्मणां प्राक्तनानां तु
तदसत्त्वेनं भदेतः ॥ २,२.५६ ॥
भवेद्भोगस्य वैचित्र्यं भ्राम्यतां
प्राणिनामिह ।
देवत्वमसुरत्वं च
यक्षत्वादिसुखप्रदम् ॥ २,२.५७ ॥
मानुषत्वं पशुत्वं च
पक्षित्वाद्यतिदुः खदम् ।
कर्मणां तारतम्येन भवतीह खगेश्वर ॥
२,२.५८ ॥
अत्र ते कीर्तयिष्यामि विपाकं
कर्मणामहम् ।
वैचित्र्यस्य स्पुटत्वाययैर्जोवः
संसरत्ययम् ॥ २,२.५९ ॥
महापातकजान्घोरान्नरकान्प्राप्य
दारुणान् ।
कर्मक्षयात्प्रजायन्ते महापातकिनः
क्षितौ ॥ २,२.६० ॥
जायन्ते लक्षणैर्यैस्तुतानि मे शृणु
सत्तम ।
मृगाश्वसूकरोष्ट्राणां ब्रह्महा
योनिमृच्छति ॥ २,२.६१ ॥
कृमिकीटपतङ्गत्वं स्वर्णहारी
समाप्नुयात् ।
तृणगुल्मतात्वं च क्रमशो गुरुतल्पगः
॥ २,२.६२ ॥
ब्रह्महा क्षयरोगी स्यात्सुरापः
श्यावदन्तकः ।
हेमहारी तु कुनखी दुश्चर्मा
गुरुतल्पगः ॥ २,२.६३ ॥
यो येन संवसत्येषां स
तल्लिङ्गोऽभिजायते ।
संवत्सरेण पतति पतितेन सहाचरन् ॥ २,२.६४ ॥
दोनों हाथों से कुश उखाड़ना चाहिये
और उसे पृथ्वी पर रखकर जल से प्रोक्षित करना चाहिये तथा मृत्युकाल में मरणासन्न के
दोनों हाथों में रखना चाहिये। जिसके हाथों में कुशाएँ हैं और जो कुश से परिवेष्टित
कर दिया जाता है, वह मन्त्रहीन होने पर
(उसकी समन्त्रक क्रियाएँ न हो पायी हों, तब भी) विष्णुलोक को
प्राप्त करता है। इस असार संसारसागर में भूमि को गोबर से लीपकर उस पर मृत मनुष्य को
सुलाने से और कुशासन पर स्थित करने से तथा विशुद्ध अग्नि में दाह करने से उसके
समस्त पापों का नाश हो जाता है।
लवण और उसका रस दिव्य (उत्तम लोक का
प्रापक) है, वह प्राणियों की समस्त कामनाओं को
सिद्ध करनेवाला है। लवण के बिना अन्न रस उत्कट अर्थात् न अभिव्यक्त होते हैं और न
सुस्वादु होते हैं। इसीलिये लवण रस पितरों को प्रिय होता है और स्वर्ग को प्रदान
करनेवाला है। यह लवण-रस भगवान् विष्णु के शरीर से उत्पन्न हुआ है। इस बात को
जाननेवाले योगीजन, लवण के साथ दान करने को कहते हैं। इस
पृथ्वी पर यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,
स्त्री तथा शूद्र वर्ण के आतुर व्यक्ति के प्राण न निकलते हों तो
उसके लिये स्वर्ग का द्वार खोलने के लिये लवण का दान देना चाहिये।
हे पक्षीन्द्र ! अब मृत्यु के
स्वरूप को विस्तारपूर्वक सुनें। मृत्यु ही काल है, उसका समय आ जाने पर जीवात्मा से प्राण और देह का वियोग हो जाता है। मृत्यु
अपने समय पर आती है। मृत्युकष्ट के प्रभाव से प्राणी अपने किये कर्मों को एकदम भूल
जाता है। हे गरुड! जिस प्रकार वायु मेघमण्डलों को इधर-उधर खींचता है, उसी प्रकार प्राणी काल के वश में रहता है। सात्त्विक, राजस और तामस ये सभी भाव काल के वश में हैं। प्राणियों में वे काल के
अनुसार अपने- अपने प्रभाव का विस्तार करते हैं। हे सर्पहन्ता गरुड! सूर्य, चन्द्र, शिव, वायु, इन्द्र, अग्नि, आकाश, पृथ्वी, मित्र, औषधि, आठों वसु, नदी, सागर और भाव
अभाव- ये सभी काल के अनुसार यथासमय उद्भूत होते हैं, बढ़ते
हैं, घटते हैं और मृत्यु के उपस्थित होने पर काल के प्रभाव से
विनष्ट हो जाते हैं।
हे पक्षिन् ! जब मृत्यु आ जाती है
तो उसके कुछ समय पूर्व दैवयोग से कोई रोग प्राणी के शरीर में उत्पन्न हो जाता है।
इन्द्रियाँ विकल हो जाती हैं और बल, ओज
तथा वेग शिथिल हो जाता है। है खग प्राणियों को करोड़ों बिच्छुओं के एक साथ काटने का
जो अनुभव होता है, उससे मृत्युजनित पीड़ा का अनुमान करना
चाहिये। उसके बाद ही चेतनता समाप्त हो जाती है, जड़ता आ जाती
है। तदनन्तर यमदूत उसके समीप आकर खड़े हो जाते हैं और उसके प्राणों को बलात् अपनी
ओर खींचना शुरू कर देते हैं उस समय प्राण कण्ठ में आ जाते हैं। मृत्यु के पूर्व
मृतक का रूप बीभत्स हो उठता है। वह फेन उगलने लगता है। उसका मुँह लार से भर जाता
है। उसके बाद शरीर के भीतर विद्यमान रहनेवाला वह अङ्गुष्ठ परिमाण का पुरुष हाहाकार
करता हुआ तथा अपने घर को देखता हुआ यमदूतों के द्वारा यमलोक ले जाया जाता है।
मृत्यु के समय शरीर में प्रवाहित
वायु प्रकुपित होकर तीव्र गति को प्राप्त करता है और उसी की शक्ति से अग्नितत्त्व
भी प्रकुपित हो उठता है। बिना ईंधन के प्रदीप्त ऊष्मा प्राणी के मर्मस्थानों का
भेदन करने लगती है, जिसके कारण प्राणी को
अत्यन्त कष्ट की अनुभूति होती है। परंतु भक्तजनों एवं भोग में अनासक्त जनों की
अधोगति का निरोध करनेवाला उदान नामक वायु ऊर्ध्वगतिवाला हो जाता है।
जो लोग झूठ नहीं बोलते,
जो प्रीति का भेदन नहीं करते, आस्तिक और
श्रद्धावान् हैं, उन्हें सुखपूर्वक मृत्यु प्राप्त होती है
जो काम, ईर्ष्या और द्वेष के कारण स्वधर्म का परित्याग न करे,
सदाचारी और सौम्य हो, वे सब निश्चित ही
सुखपूर्वक मरते हैं।
जो लोग मोह और अज्ञान का उपदेश देते
हैं,
वे मृत्यु के समय महान्धकार में फँस जाते हैं जो झूठी गवाही
देनेवाले, असत्यभाषी, विश्वासघाती और
वेदनिन्दक हैं, वे मूर्च्छारूपी मृत्यु को प्राप्त करते हैं।
उनको ले जाने के लिये लाठी एवं मुद्गर से युक्त दुर्गन्ध से भरपूर एवं भयभीत
करनेवाले दुरात्मा यमदूत आते हैं। ऐसी भयंकर परिस्थिति देखकर प्राणी के शरीर में
भयवश कम्पन होने लगता है। उस समय वह अपनी रक्षा के लिये अनवरत माता-पिता और पुत्र को
यादकर करुण क्रन्दन करता है। उस क्षण प्रयास करने पर भी ऐसे जीव के कण्ठ से एक
शब्द भी स्पष्ट नहीं निकलता। भयवश प्राणी की आँखें नाचने लगती हैं। उसकी साँस बढ़
जाती है और मुँह सूखने लगता है। उसके बाद वेदना से आविष्ट होकर वह अपने शरीर का
परित्याग करता है और उसके बाद ही वह सबके लिये अस्पृश्य एवं घृणायोग्य हो जाता है।
हे गरुड ! इस प्रकार मैंने
यथाप्रसंग मृत्यु का स्वरूप सुना दिया। अब आपके उस दूसरे प्रश्न का उत्तर जो बड़ा
ही विचित्र है, उसे सुना रहा हूँ। हे पक्षिराज!
पूर्वजन्म में किये गये भाँति-भाँति के भोगों को भोगता हुआ प्राणी यहाँ भ्रमण करता
रहता है देव, असुर और यक्ष आदि योनियाँ भी प्राणी के लिये
सुखप्रदायिनी हैं। मनुष्य, पशु-
पक्षी आदि योनियाँ अत्यन्त
दुःखदायिनी हैं। हे खगेश्वर ! प्राणी को कर्म का फल तारतम्य से इन योनियों में
प्राप्त होता है। अब मैं इसी प्रसंग में आपसे कर्मविपाक का वर्णन भी करूँगा।
हे गरुड! प्राणी अपने सत्कर्म एवं
दुष्कर्म के फलों की विविधता का अनुभव करने के लिये इस संसार में जन्म लेता है। जो
महापातकी ब्रह्महत्यादि महापातकजन्य अत्यन्त कष्टकारी रौरवादि नरकलोकों का भोग
भोगकर कर्मक्षय के बाद पुनः इस पृथ्वी पर जिन लक्षणों से युक्त होकर जन्म लेते हैं,
उन लक्षणों को आप मुझसे सुनें।
हे खगेन्द्र ब्राह्मण की हत्या
करनेवाले महापातकी को मृग, अश्व, सूकर और ऊँट की योनि प्राप्त होती है। स्वर्ण की चोरी करनेवाला कृमि,
कीट और पतंग योनि में जाता है, गुरुपत्नी के
साथ सहवास करनेवाले का जन्म क्रमश:- तृण, लता और गुल्म-योनि में
होता है। ब्रह्मघाती क्षयरोग का रोगी, मद्यपी विकृतदन्त,
स्वर्णचोर कुनखी और गुरुपत्नीगामी चर्मरोगी होता है जो मनुष्य जिस
प्रकार के महापातकियों का साथ करता है, उसे भी उसी प्रकार का
रोग होता है। प्राणी एक वर्षपर्यन्त पतित व्यक्ति का साथ करने से स्वयं पतित हो
जाता है।
संलापस्पर्शनिः श्वाससहयानाशनासनात्
।
याजनाध्यापनाद्यौनात्पापं संक्रमते
नृणाम् ॥ २,२.६५ ॥
परस्पर वार्तालाप करने तथा स्पर्श,
निःश्वास, सहयान, सहभोज,
सहआसन, याजन, अध्यापन
तथा योनि-सम्बन्ध से मनुष्यों के शरीर में पाप संक्रमित हो जाते हैं।
गत्वा दारान्परेषाञ्च
ब्रह्मस्वमपहृत्य च ।
अरण्ये निर्जने देशे जायते
ब्रह्मराक्षसः ॥ २,२.६६ ॥
हीनजातौ प्रजायेत रत्नानामपहारकः ।
पत्रं च शाखिनो हृत्वा
गन्धांश्छुच्छुन्दरी पुमान् ॥ २,२.६७
॥
मूषको धान्यहारी स्याद्यानमुष्ट्रः
फलं कपिः ।
निर्मन्त्रभोजनात्काको गृध्रो
हृत्वा ह्युपस्करम् ॥ २,२.६८ ॥
मधुदंशः फलं गृध्रो गां गोधाग्निं
बकस्तथा ।
स्याच्छ्वेतकुष्ठी स्त्रीवस्त्र
ह्यरुची रसहारकः ॥ २,२.६९ ॥
कांस्यहारी तु हंसः स्यात्परस्वस्य
च हारकः ।
अपस्मारी गुरोर्हन्ता
क्रूरकृद्वामनो भवेत् ॥ २,२.७० ॥
धर्मपत्नीं त्यजञ्छब्दवेधी प्राणी
भवेत्क्षितौ ।
देवविप्रस्वापहारी पाण्डुरः
परमांसभुक् ॥ २,२.७१ ॥
भक्ष्याभक्ष्यो गण्डमाली महारोगी
प्रजायते ।
न्यासापहारी काणः स्यास्त्रीजीवः
खञ्जको भवेत् ॥ २,२.७२ ॥
कौमारदारत्यागी च दुर्भगोऽथै
कमिष्टभुक् ।
वातगुल्मी विप्रयोषिद्गामी वा
जम्बुको भवेत् ॥ २,२.७३ ॥
शय्याहर्ता क्षपणकः पतङ्गो
वस्त्रहारकः ।
मात्सर्यादपि जात्यन्धो कपाली
दीपहारकः ॥ २,२.७४ ॥
कौशिको मित्रहन्ता च क्षयी
पित्रादिनिन्दकः ।
स्खलद्वागनृतवादी कूटसाक्षी जलोदरी
॥ २,२.७५ ॥
मशकः सोऽथ चछिन्नोष्ठो विवाहे विघ्नकृद्भवेत्
।
स्याद्वाथ वृषलः सोऽयं चत्वरे वै
विण्मूत्रकृत् ॥ २,२.७६ ॥
मूत्रकृच्छ्री दूषकस्तु कन्यायाः
क्लीबतामियात् ।
द्वीपी स्याद्वेदविक्रेता
वराहोऽयाज्ययाजकः ॥ २,२.७७ ॥
यतस्ततोऽश्रन्मार्जारो खद्योतो
वहदाहकः ।
कृमिः पर्युषितादः स्यान्मत्सरी
भ्रमरो भवेत् ॥ २,२.७८ ॥
अग्न्युत्सादी तु कुष्ठी
स्याददत्ताऽदानतो वृषः ।
सर्पो गोहारकोऽन्नस्य हारकः
स्यादजीर्णवान् ॥ २,२.७९ ॥
जलहारी तु मत्स्यः स्यात्क्षीरहारी
बलाकिका ।
अन्नं पर्युषितं विप्रे
प्रददत्कुब्जतां व्रजेत् ॥ २,२.८०
॥
फलानि हरते यस्तु सन्ततिर्म्रियते
खग ।
अदत्त्वा भक्ष्यमश्राति ह्यनपत्यो
भवेन्नरः ॥ २,२.८१ ॥
प्रवज्यागमनाद्राजन्
भवेन्मरुपिशाचकः ।
चातको जलहर्ता स्याज्जन्मान्धः
पुंस्तकं हरन् ॥ २,२.८२ ॥
प्रतिश्रुत्य
द्विजेभ्योर्ऽथमददज्जम्बुको भवेत् ।
परिवादादिजातीनां लभते काच्छपीं
तनुम् ॥ २,२.८३ ॥
दुर्भगः फलविक्रेता वृकश्च
वृषलीपतिः ।
मार्जारोऽग्निं पदा स्पृष्ट्वा
रोगवान्परमांसभुक् ॥ २,२.८४ ॥
जलप्रस्त्रवणं यस्तु
भिन्द्यान्मत्स्यो भवेन्नरः ।
हरेः कथां न शृण्वन्ति ये न
साधुजनस्तवम् ॥ २,२.८५ ॥
तान्नरान्कर्णमूलोऽयं
व्याप्नुयान्नेतराञ्जनान् ।
परस्याननसंस्थं यो ग्रासं हरि
मन्दधीः ॥ २,२.८६ ॥
देवोपकरणान्येनं गण्डमालिनमीहते ।
दम्भेनाचरते धर्मं गजचर्मा भवेत्तु
सः ॥ २,२.८७ ॥
शिरोऽर्तिप्रमुखा रोगा यान्ति
विश्वासघातकम् ।
लिङ्गपीडी शिवस्वं च
शिवनिर्माल्यमेव च ॥ २,२.८८ ॥
स्त्रियोऽप्यनेन मार्गेण हृत्वा
दोषमवाप्नुयुः ।
एतेषामेव जन्तूनां
भार्यात्वमुपजायते ॥ २,२.८९ ॥
भोगान्ते नरकस्यैतत्सर्वमित्यवधारय
।
खघ प्रदर्श्यमेतत्तु मयोक्तं ते
समासतः ।
द्रव्यप्रकारा हि यथा तथैव
प्राणिजातयः ॥ २,२.९० ॥
एवं विचित्रैर्निजकर्मभिर्नृणां
सुखस्य दुः खस्य च जन्मनामपि ।
वैचित्र्यमुक्तं शुभकर्मतः शुभं तथाशुभाच्चाशुभमीरयन्ति
॥ २,२.९१ ॥
एतत्ते सर्वंमाख्यातं
यत्पृष्टोऽहमिह त्वया ॥ २,२.९२ ॥
दूसरे की स्त्री के साथ सहवास करने
और ब्राह्मण का धन चुराने से मनुष्य को दूसरे जन्म में अरण्य तथा निर्जन देश में
रहनेवाले ब्रह्मराक्षस की योनि प्राप्त होती है। रत्न की चोरी करनेवाला निकृष्ट
योनि में जन्म लेता है। जो मनुष्य वृक्ष के पत्तों की और गन्ध की चोरी करता है,
उसे छछुंदर की योनि में जाना पड़ता है। धान्य की चोरी करनेवाला चूहा,
यान चुरानेवाला ऊँट तथा फल की चोरी करनेवाला बंदर की योनि में जाता
है। बिना मन्त्रोच्चार के भोजन करने पर कौआ, घर का सामान
चुरानेवाला गिद्ध, मधु की चोरी करने पर मधुमक्खी, फल की चोरी करने पर गिद्ध, गाय की चोरी करने पर गोह
और अग्नि की चोरी करने पर बगुले की योनि प्राप्त होती है। स्त्रियों का वस्त्र
चुराने पर श्वेत कुष्ठ और रस का अपहरण करने पर भोजन आदि में अरुचि हो जाती है।
काँसे की चोरी करनेवाला हंस, दूसरे के धन का हरण करनेवाला
अपस्मार रोग से ग्रस्त होता है तथा गुरुहन्ता क्रूरकर्मा बौना और धर्मपत्नी का
परित्याग करनेवाला शब्दवेधी होता है। देवता और ब्राह्मण के धन का अपहरण करनेवाला,
दूसरे का मांस खानेवाला पाण्डुरोगी होता है भक्ष्य और अभक्ष्य का
विचार न रखनेवाला अगले जन्म में गण्डमाला नामक महारोग से पीड़ित होता है। जो दूसरे
की धरोहर का अपहरण करता है, वह काना होता है जो स्त्री के बल
पर इस संसार में जीवन यापन करता है, वह दूसरे जन्म में
लँगड़ा होता है जो मनुष्य पतिपरायणा अपनी पत्नी का परित्याग करता है, वह दूसरे जन्म में दुर्भाग्यशाली होता है। अकेला मिष्टान्न खानेवाला
वातगुल्म का रोगी होता है। कोई व्यक्ति यदि किसी ब्राह्मणपत्नी के साथ सहवास करे
तो श्रृंगाल, शय्या का हरण करनेवाला दरिद्र, वस्त्र का हरण करनेवाला पतंग होता है। मात्सर्य दोष से युक्त होने पर
प्राणी जन्मान्ध, दीपक चुरानेवाला कपाली होता है। मित्र की
हत्या करनेवाला उल्लू होता है। पिता आदि श्रेष्ठ जनों की निन्दा करने से प्राणी
क्षय का रोगी होता है। असत्यवादी हकला कर बोलनेवाला और झूठी गवाही देनेवाला जलोदर
रोग से पीड़ित रहता है।
विवाह में विघ्न पैदा करनेवाला पापी
मच्छर की योनि में जाता है। यदि कदाचित् उसे पुनः मनुष्य की योनि प्राप्त भी होती
है तो उसका ओठ कटा होता है जो मनुष्य चतुष्पथ पर मल-मूत्र का परित्याग करता है,
वह वृषल (अपशूद्र) होता है कन्या को दूषित करनेवाले प्राणी को
मूत्रकृच्छ्र और नपुंसकता का विकार होता है जो वेद बेचने का अधर्म करता है,
वह व्याघ्र होता है। अयाज्य का यज्ञ करानेवाले को सुअर की योनि
प्राप्त होती है। अभक्ष्य- भक्षण करनेवाला व्यक्ति बिलौटा और वनों को जलानेवाला
खद्योत (जुगनू) होता है। बासी एवं निषिद्ध भोजन करनेवाले को कृमि तथा मात्सर्य दोष
से युक्त प्राणी को भ्रमर की योनि मिलती है। घर आदि में आग लगानेवाला कोढ़ी और
अदत्त का आदान(यदि कोई व्यक्ति किसी वस्तु को देना नहीं चाहे तब भी उसको उससे ले
लेनेवाला अदत्तादान कहा जाता है।) करने से मनुष्य बैल होता है। गायों की चोरी करने
पर सर्प तथा अन्न की चोरी करने पर प्राणी को अजीर्ण रोग होता है। जल की चोरी करने पर
मछली, दूध की चोरी करने से बलाकिका और ब्राह्मण को दान में
बासी भोजन देने से कुबड़े की योनि प्राप्त होती है। हे पक्षिन्! जो मनुष्य फल
चुराता है, उसकी संतति मर जाती है। बिना किसी को दिये अकेले
भोजन करनेवाला व्यक्ति दूसरे जन्म में संतानहीन होता है। संन्यासाश्रम का परित्याग
करनेवाला (आरूढ़पतित) पिशाच होता है। जल की चोरी करने से चातक और पुस्तक की चोरी
करने से प्राणी जन्मान्ध होता है। ब्राह्मणों को देने की प्रतिज्ञा करके जो नहीं
देते हैं, उन्हें सियार की योनि प्राप्त होती है। झूठी
निन्दा करनेवाले लोगों को कछुए की योनि में जाना पड़ता है। फल बेचनेवाला दूसरे
जन्म में भाग्यहीन होता है। जो ब्राह्मण शूद्रकन्या से विवाह कर लेता है, वह भेड़िये की योनि प्राप्त करता है। अग्नि को पैर से स्पर्श करने पर
प्राणी बिलौटा और जीवों का मांस खाने पर रोगी होता है। जो मनुष्य जल के स्रोत को
विनष्ट करते हैं, वे मछली होते हैं। जो लोग भगवान् हरि की
कथा और साधुजनों की प्रशस्ति नहीं सुनते, उन मनुष्यों को
कर्णमूल रोग होता है। जो व्यक्ति पराये के मुँह में स्थित अन्न का अपहरण करता है,
वह मन्दबुद्धि होता है।
जो देवपूजन में प्रयुक्त होनेवाले
पात्रादिक उपकरणों का अपहारक है, उसे गण्डमाला
रोग होता है। दम्भ के वशीभूत होकर जो प्राणी धर्माचरण करता है, उसको गजचर्म का रोग होता है। विश्वासघाती मनुष्य के शरीर में शिरोऽर्ति
रोग होता है। शिव के धन और निर्माल्य का सेवन करनेवाला व्यक्ति शिश्नपीड़ा से
ग्रसित रहता है। स्त्रियाँ पाप की भागिनी होती हैं और उन्हें इन्हीं जन्तुओं की
भार्या होना पड़ता है। उक्त कर्मो के कुफल से प्राप्त नरक का भोग करने के बाद मनुष्य
इन्हीं सब योनियों में प्रविष्ट होता है, ऐसा निश्चय समझना चाहिये।
हे खगपते। जिस प्रकार इस संसार में
नाना भाঁति
के द्रव्य विद्यमान हैं, उसी प्रकार
प्राणियों की विभिन्न जातियाँ भी हैं। वे सभी अपने-अपने विभिन्न कर्मों के प्रतिफल
रूप में सुख-दुःख एवं नाना योनियों का भोग करते हैं। तात्पर्य यही है कि प्राणी को
शुभ कर्म करने से शुभ फल को प्राप्ति और अशुभ कर्म करने से अशुभ फल की प्राप्ति
होती है।
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे द्वितीयांशे प्रेत(खण्डे) श्रीकृष्णगरुडसंवादे और्ध्वदेहिकविधिकर्मविपाकयोर्वर्णनं
नाम द्वितीयोऽध्यायः॥
शेष जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय 3
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