श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय १

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १ वैकुण्ठलोक का वर्णन, मरणकाल में और मरण के अनन्तर जीव के कल्याण के लिये विहित विभिन्न कर्तव्यों के बारे में गरुडजी के द्वारा किये गये प्रश्न, प्रेतकल्प का उपक्रम

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय १

गरुडपुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः १

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प पहला अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) प्रथमोऽध्यायः

श्रीगणेशाय नमः ।

श्रीगणेशजी को नमस्कार है।

तत्रादिमे द्वितीयांशे प्रेतकाण्डो धर्मकाण्डनामारभ्यते ।

ओं नमो भगवते वासुदेवाय ।

''कार से युक्त भगवान् वासुदेव हरि को प्रणाम है।

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।

देवीं सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत् ॥ २,१.म ॥

धर्मन्दृढबद्धमूलो वेदस्कन्धः पुराणशाखाढ्यः ।

क्रतुकुसुमो मोक्षफलो मधुसूदनपादपो जयति ॥ २,१.१ ॥

भगवान् श्रीनारायण, नरोत्तम नर एवं भगवती श्रीसरस्वती देवी को नमस्कार करके पुराण का वाचन करना चाहिये। जिन भगवान्‌ का धर्म ही मूल है, वेद जिनका स्कन्ध है, पुराणरूपी शाखा से जो समृद्ध हैं, यज्ञ जिनके पुष्प हैं, मोक्ष जिनका फल है - ऐसे भगवान् मधुसूदनरूपी कल्पवृक्ष की जय हो ।

नैमिषेऽनिमिषक्षेत्रे शौनकाद्या मुनीश्वराः ।

कर्मणामन्तरे सूतं स्वासीनमिदमब्रुवन् ॥ २,१.२ ॥

सूत जानासि सकलं वस्तु व्यासप्रसादतः ।

तेन नः सन्दिहानानां सन्देहं छेत्तुमर्हसि ॥ २,१.३ ॥

यथा तृणजलौकेति न्यायमा श्रित्य कञ्चन ।

देहिनोऽन्यतनुप्राप्तिं केचित्त्वेवं वदन्ति हि ॥ २,१.४ ॥

केचित्पुनर्यातनानां यामीनामुपभोगतः ।

पश्चाद्देहान्तरप्राप्तिं वदन्ति किमु तत्रसत् ॥ २,१.५ ॥

देवक्षेत्र नैमिषारण्य में शौनकादिक श्रेष्ठ मुनियों ने सुखपूर्वक विराजमान श्रीसूतजी महाराज से कहा- हे श्रीसूतजी ! आप श्रीवेदव्यासजी की कृपा से सब कुछ जानते हैं। अतः आप हम सभी के संदेह का निवारण करें। कुछ लोगों का कहना है कि जिस प्रकार कोई जोंक तिनके से तिनके का सहारा लेकर आगे बढ़ती है, उसी प्रकार शरीरधारी जीव एक शरीर के बाद दूसरे शरीर का आश्रय ग्रहण करता है। दूसरे विद्वानों का कहना है कि प्राणी मृत्यु के पश्चात् यमराज की यातनाओं का भोग करता है, तदनन्तर उसको दूसरे शरीर की प्राप्ति होती है- इन दोनों में क्या सत्य है? यह हमें बताने की कृपा करें।

। सूत उवाच ।

साधु पृष्टं महाभागाः शृणुध्वं भवतां पुनः ।

सन्देहो नोपपद्येत लोकार्थं किल पृच्छताम् ॥ २,१.६ ॥

तदहं कृष्णगरुडसंवादद्वारकं द्विजाः ।

अपाकरिष्ये सन्देहं भवतां भावितात्मनाम् ॥ २,१.७ ॥

नमः कृष्णाय मुनये य एनं समुपाश्रिताः ।

अञ्जस्तरन्ति संसारसागरं कुनदीमिव ॥ २,१.८ ॥

एकदा वैनतेयस्य लोकानां लोकनस्पृहा ।

बभूव सोऽथ बभ्राम तेषु नाम हरेर्गृणन् ॥ २,१.९ ॥

स पातालं भुवं स्वर्गं भ्रान्त्वालब्धशमाशयः ।

लोकदुः खेनातिदुः खी पुनर्वैकुण्ठमागमत् ॥ २,१.१० ॥

न रजो न तमश्चैव सत्त्वं ताभ्यां च मिश्रितम् ।

यत्र प्रवर्तते नैव सत्त्वमेव प्रवर्तते ॥ २,१.११ ॥

न यत्र माया नाशश्च न चै रागादयो मलाः ।

श्यामावदाताः सुरुचः शतपत्रविलोचनाः ॥ २,१.१२ ॥

सुरासुरार्चिता यत्र गणा विष्णोः सुपेशसः ।

पिशङ्गवस्त्राभारणा मणियुङ्निष्कभूषिताः ॥ २,१.१३ ॥

चतुर्भुजाः कुण्डलिनो मौलिनो मालिनस्तथा ।

भ्राजिष्णुभिर्विमानानां पङ्किभिर्ये महात्मनाम् ॥ २,१.१४ ॥

द्योतन्ते द्योतमानानां प्रमदानां च पङ्क्तिभिः ।

श्रीर्यत्र नानाविभवैर्हरेः पादौ मुदार्चति ॥ २,१.१५ ॥

हरिं गायति दोलास्थं गीयमानालिभिः स्वयम् ।

ददर्श श्रीहरिं तत्र श्रीपतिं सात्वतां पतिम् ॥ २,१.१६ ॥

जगत्पतिं यज्ञपतिं पार्षदैः परिषेवितम् ।

सुनन्दनन्दप्रबलार्हणमुख्यैर्निरन्तरम् ॥ २,१.१७ ॥

भृत्यप्रसादसुमुखमायतारुणलोचनम् ।

किरीटिनं कुण्डलिनं श्रिया वक्षसि लक्षितम् ॥ २,१.१८ ॥

पीतांशुकं चतुर्बाहुं प्रसन्नहसिताननम् ।

अभ्यर्हणासनासीनं ताभिः शक्तिभिरावृतम् ॥ २,१.१९ ॥

प्रधानपुरुषाभ्यां च महता चाहमा तथा ।

एकादशोन्द्रियैश्चैव पञ्चभूतैस्तथैव च ॥ २,१.२० ॥

स्वरूपेरममाणं तमीश्वरं विनतासुतः ।

तद्दर्शनाह्लादयुतस्वान्तो हृष्यत्तनूरुहः ॥ २,१.२१ ॥

लोचनाभ्यामश्रु मुञ्चन्प्रेममग्नो ननाम ह ।

नमागतं नतं स्वीय वाहनं विष्णुरब्रवीत् ।

भूमिः का लङ्घिता पक्षिंस्त्वयेयन्तमनेहसम् ॥ २,१.२२ ॥

सूतजी ने कहा- हे महाभाग ! आप लोगों ने अच्छा प्रश्न किया है। आप लोगों को संदेह हो यह असम्भव है। आप लोगों ने तो लोकहित से प्रेरित होकर ही ऐसा प्रश्न किया है। हे विप्रगणो! मैं आप सबके हृदय में अवस्थित उस संदेह को भगवान् श्रीकृष्ण और गरुड के बीच हुए संवाद के द्वारा दूर करूँगा। सर्वप्रथम मैं उन भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार करता हूँ, जिनका आश्रय लेकर मनुष्य इस भवसागर को एक क्षुद्र नदी की भाँति अनायास ही पार कर जाते हैं।

हे मुनियो एक बार विनतापुत्र गरुड के हृदय में इस ब्रह्माण्ड के सभी लोकों को देखने की इच्छा हुई। अतः हरिनाम का उच्चारण करते हुए उन्होंने सभी लोकों का भ्रमण किया। पाताल, पृथ्वीलोक तथा स्वर्गलोक का भ्रमण करते हुए वे पृथ्वीलोक के दुःख से अत्यन्त दुःखत एवं अशान्तचित होकर पुनः वैकुण्ठ लोक वापस आ गये।

वैकुण्ठ लोक में न रजोगुण की प्रवृत्ति है, न तमोगुण की ही प्रवृत्ति है, [मृत्युलोक के समान] रजोगुण तथा तमोगुण से मिश्रित सत्त्वगुण की भी प्रवृत्ति वहाँ नहीं है। वहाँ केवल शुद्ध सत्त्वगुण ही अवस्थित रहता है। वहाँ माया भी नहीं है, वहाँ किसी का विनाश नहीं होता। वहाँ राग-द्वेष आदि विकार भी नहीं हैं। वहाँ देव और असुर वर्ग द्वारा पूजित श्यामवर्ण की सुन्दर कान्ति से सुशोभित राजीवलोचन भगवान् विष्णु के पार्षद विराजमान रहते हैं, जिनके शरीर पीतवसन और मनोहारी आभूषणों से विभूषित हैं और मणियुक्त स्वर्ण के अलङ्करणों से सुशोभित हैं। भगवान्‌ के वे सभी पार्षद चार-चार भुजाओं से युक्त हैं। उनके कानों में कुण्डल और सिर पर मुकुट है। उनका वक्षःस्थल सुन्दर पुष्पों की माला से सुशोभित है। मन को मोहित करनेवाली अप्सराओं से युक्त, महात्माओं के चमकते हुए विमानों की पंक्ति की कान्ति से वे सभी सदा भास्वरित होते रहते हैं। वहाँ नाना प्रकार के वैभवों से समन्वित लक्ष्मी प्रसन्नतापूर्वक भगवान् श्रीहरि के चरणों की पूजा करती रहती हैं।

गरुडजी ने वहाँ देखा कि श्रीहरि झूले पर विराजमान हैं। सखियों द्वारा स्तुत्य लक्ष्मीजी झूले में स्थित भगवान्‌ की स्तुति कर रही हैं। अपने लाल-लाल बड़े-बड़े नेत्रों से युक्त प्रसन्नमुख देवों के अधिपति, श्रीपति, जगत्पति और यज्ञपति भगवान् श्रीहरि अपने नन्द, सुनन्द आदि प्रधान पार्षदों को देख रहे थे। उनके सिर पर मुकुट, कानों में कुण्डल और वक्ष:स्थल श्री से सुशोभित था। वे पीताम्बर से विभूषित थे। उनकी चार भुजाएँ थीं। प्रसन्नमुद्रा में हँसता हुआ उनका मुख था। बहुमूल्य आसन पर विराजमान वे हरि उस समय अपनी अन्यान्य शक्तियों से आवृत थे। प्रकृति, पुरुष, महत्, अहंकार, पञ्चकर्मेन्द्रिय, पञ्चज्ञानेन्द्रिय, मन, पञ्चमहाभूत तथा पंचतन्मात्राओं से निर्मित शरीरवाले अपने ही स्वरूप में रमण करते हुए उन भगवान् हरि का दर्शन करने से विनतासुत गरुड का अन्तःकरण आनन्दविभोर हो उठा। उनका शरीर रोमाञ्चित हो गया। उनके नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की धारा बहने लगी। आनन्दमग्न होकर उन्होंने प्रभु को प्रणाम किया। प्रणाम करते हुए अपने वाहन गरुड को देखकर भगवान् विष्णु ने कहा- हे पक्षिन्। आपने इतने दिनों में इस जगत्की किस भूमि का परिभ्रमण किया है?

। गरुड उवाच ।

तव प्रसादाद्वैकुण्ठ त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥ २,१.२३ ॥

मया विलोकितं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् ।

भूर्लोकात्सत्यपर्यन्तं पुरं याम्यं विना प्रभो ॥ २,१.२४ ॥

भूर्लोकः सर्वलोकानां प्रचुरः सर्वजन्तुषु ।

मानुष्यं सर्वभूतानां भुक्तिमुक्त्यालयं शुभम् ॥ २,१.२५ ॥

अतः सुकृतिनां लोको न भूतो न भविष्यति ॥ २,१.२६ ॥

गरुड ने कहा- भगवन्! आपकी कृपा से मैंने समस्त त्रिलोकी का परिभ्रमण किया है। उनमें स्थित जगत्के सभी स्थावर और जङ्गम प्राणियों को भी देखा। हे प्रभो! यमलोक को छोड़कर पृथ्वीलोक से सत्यलोक तक सब कुछ मेरे द्वारा देखा जा चुका है। सभी लोकों की अपेक्षा भूर्लोक प्राणियों से अधिक परिपूर्ण है। सभी योनियों में मानवयोनि ही भोग और मोक्ष का शुभ आश्रय है। अतः सुकृतियों के लिये ऐसा लोक न तो अभी तक बना है और न भविष्य में बनेगा। देवता लोग भी इस लोक की प्रशंसा में गीत गाते हुए कहते हैं- 'जो लोग पवित्र भारत की भूमि में जन्म लेकर निवास करते हैं, वे धन्य हैं। देवता लोग भी स्वर्ग एवं अपवर्गरूप फल की प्राप्ति के लिये पुनः भारतभूमि में मनुष्यरूप में जन्म लेते हैं-

गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ये भारतभूमिभागे ।

स्वर्गापवर्गस्य फलार्जनाय भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ॥ २,१.२७ ॥

प्रेतः कौक्षिप्यते कस्मात्पञ्चरत्नं मुखे कथम् ।

अधस्ताच्चालिता दर्भाः पादौ याम्यां व्यवस्थितौ ॥ २,१.२८ ॥

किमर्थं पुत्रपौत्राश्च तस्य तिष्ठन्ति चाग्रतः ।

किमर्थं दीयते दानं गोदानमपि केशव ॥ २,१.२९ ॥

बन्धुमित्राण्यमित्राश्च क्षमापयन्ति तत्कथम् ।

तिलालोहं हिरण्यं च कर्पासं लवणं तथा ॥ २,१.३० ॥

सप्तधान्यं क्षितिर्गावो दीयन्ते केनहेतुना ।

कथं हि म्रियते जन्तुर्मृतो वै कुत्र गच्छति ॥ २,१.३१ ॥

अतिवाहशरीरं च कथं हि श्रयते तदा ।

शवं स्कन्धे वहेत्पुत्रो अग्निदाता च पौत्रकः ॥ २,१.३२ ॥

आज्येनाभ्यञ्जनं कस्मात्कुत एकाहुतिक्रिया ।

वसुन्धरा किमर्थं च कुतः स्त्रीशब्दकीर्तनम् ॥ २,१.३३ ॥

यमसूक्तं किमर्थं च उदीच्या दिशमाहरेत् ।

पानीयमेकवस्त्रेण सूर्यबिम्बनिरीक्षणम् ॥ २,१.३४ ॥

यवसर्षपदूर्वास्तु पाषाणे निम्बपत्रकम् ।

वस्त्रं नरश्च नारी च विदध्यादधरोत्तरम् ॥ २,१.३५ ॥

अन्नाद्यं गृहमागत्य न भोक्तव्यं जनैः सह ।

नवकांश्चैव पिण्डांश्च किमर्थं ददते सुताः ॥ २,१.३६ ॥

किमर्थं चत्वरे दुग्धं यात्रे पक्वे च मृन्मये ।

काष्ठत्रयं गणाबद्धं कृत्वा रात्रौ चतुष्पथे ॥ २,१.३७ ॥

निशायां दीयते दीपो यावदब्दं दिनेदिन ।

दाहोदकं किमर्थं च किमर्थं च जनैः सह ॥ २,१.३८ ॥

भगवन्नाति वाहश्च नव पिण्डाः प्रदापयेत् ।

कथं देयं पितृभ्यश्च वाहस्यावाहनं कथम् ॥ २,१.३९ ॥

इदञ्चेत्क्रियते देव कस्मात्पिण्डं प्रदापयेत् ।

किं तत्प्रदीयते तस्य पिण्डदानाद्यनन्तरम् ॥ २,१.४० ॥

अस्थिसञ्चयनं चैव घटस्फोटं तथैव च ।

द्वितीयेऽह्नि कुतः स्नानं चतुर्थे साग्निके द्विजे ॥ २,१.४१ ॥

दशमे किं मलस्नानं कार्यं सर्वजनैः सह ।

कस्मात्तैलोद्वर्तनं च स्कन्धवाहगृहं नयेत् ॥ २,१.४२ ॥

तैलोद्वर्तनकं चापि दधुः स्थूलजलाशये ।

दशमेऽहनि यत्पिण्डं तद्दद्या दामिषेण तु ॥ २,१.४३ ॥

पिणाञ्चैकादशे कस्माद्वृषोत्सर्गादिपूर्वकम् ।

भाजनोपानहौ च्छत्रं वासांसि त्वङ्गुलीयकम् ॥ २,१.४४ ॥

त्रयोदशेऽह्नि देयं स्यात्पददानं किमर्थकम् ।

श्राद्धानि षोडशैतानि अब्दं यावत्कुतो घटः ॥ २,१.४५ ॥

अन्नाद्येनोदकेनैव षष्ट्याधिकशतत्रयम् ।

दिनेदिने च दातव्यं घटान्नं प्रेततृप्तये ॥ २,१.४६ ॥

प्राप्ते काले वै म्रियते अनित्या मानवाः प्रभो ॥ २,१.४७ ॥

छिद्रं तु नैव पश्यामि कुतो जीवः स निर्गतः ।

कुतो गच्छन्ति भूतानि पृथिव्यापो मनस्तथा ।

तेजो वदस्व मे नाथ वायुराकाशमेव च ॥ २,१.४८ ॥

कुतः कर्मेन्द्रियाणीह पञ्चबुद्धीन्द्रियाणि च ।

वायवश्चैव पञ्चैते कथं गच्छन्ति चात्ययम् ॥ २,१.४९ ॥

लोभमोहादयः पञ्च शरीरे चैव तस्कराः ।

तृष्णा कामो ह्यहङ्कारः कुतो यान्ति जनार्दना ॥ २,१.५० ॥

पुण्यं वाप्यथवापुण्यं यत्किञ्चित्सुकृतं तथा ।

नष्टे देहे कुतो यान्ति दानानि विविधानि च ॥ २,१.५१ ॥

सपिण्डनं किमर्थं च पूर्णे संवत्सरेऽपि वा ।

प्रेतस्य मेलनं केषां किंविधं तत्र कारयेत् ॥ २,१.५२ ॥

मूर्छनात्पननाद्वापि विपत्तिर्यदि जायते ।

ये दग्धा ये त्वदग्धाश्च पतिता ये नरा भुवि ॥ २,१.५३ ॥

यानि चान्यानि भूतानि तेषामन्ते भवेच्च किम् ।

पापिनो ये दुराचारा ये चान्ये गतबुद्धयः ॥ २,१.५४ ॥

आत्मघाती ब्रह्महा च स्तेयी विश्वासघातकः ।

कपिलायाः पिबेच्छूद्रो यः पठेदिदमक्षरम् ॥ २,१.५५ ॥

धारयेद्ब्रह्मसूत्रं वा का गतिस्तस्य माधव ।

शूद्रस्य ब्राह्मणी भार्या संगृहीता यदा भवेत् ॥ २,१.५६ ॥

भीतोऽहं पापिनस्तस्मात्तन्मे वद जगत्प्रभो ।

अन्यच्च शृणु विश्वात्मन्मया कौतुकिना रयात् ॥ २,१.५७ ॥

लोकांल्लोकयता लोके जगाहे विश्वमण्डलम् ।

तत्राजनि जनान्दृष्ट्वा दुः खेष्वेव निमज्जतः ॥ २,१.५८ ॥

स्वान्ते मे दुर्धरा पीडा तत्पीडातो गरीयसी ।

त्रिदिवे दितिजातेभ्यो भूमौ मृत्युरुगादिभिः ॥ २,१.५९ ॥

इष्टवस्तुवियो गैश्च पाताले मामकं भयम् ।

एवं न निर्भयं स्थानमन्यदीश भवत्पदात् ॥ २,१.६० ॥

असत्यं स्वप्नमायावत्कालेन कवलीकृतम् ।

तत्रापि भारते वर्षे बहुदुः खस्य भागिनः ॥ २,१.६१ ॥

जना दृष्टा मया रागद्वेषमोहादिविप्लुताः ।

केचिदन्धाः केकराक्षास्खलद्वाचस्तु पङ्गवः ॥ २,१.६२ ॥

खञ्जाः काणाश्च बधिरा मूकाः कुष्ठाश्च लोमशाः ।

नानारोगपरीताश्च खपुष्पाच्चाभिमानिनः ॥ २,१.६३ ॥

तेषां दोषस्य वैचित्र्यं मृत्योर्गोचरतामपि ।

दृष्ट्वा प्रसुमनाः प्राप्तः को मृत्युश्चित्रता कथम् ॥ २,१.६४ ॥

मृतिर्यस्य विधानेन मरणादप्यनन्तरम् ।

विधिनाब्दक्रिया यस्य न स दुर्गतिमाप्नुयात् ॥ २,१.६५ ॥

ऋषिभ्यस्तु मया पूर्वमिति सामान्यतः श्रुतम् ।

ज्ञानाय तद्द्विशेषस्य पृच्छामीदमिति प्रभो ॥ २,१.६६ ॥

म्रियमाणस्य किं कृत्यं किं दानं वासवानुज ।

वाहमृत्योरन्तराले को विधिर्दहनस्य च ॥ २,१.६७ ॥

सद्यो विलम्बतो वा किं देहमन्यं प्रपद्यते ।

संयमन्यां क्रम्यमाणमावर्षं का मृतिक्रिया ॥ २,१.६८ ॥

प्रायश्चित्तं दुर्मतेः किं पञ्चकादिमृतस्य च ।

प्रसादं कुरु मे मोहं छेत्तुमर्हस्यशेषतः ॥ २,१.६९ ॥

सर्वमन्तेमया पृष्टं ब्रूहि लोकहिताय वै ॥ २,१.७० ॥

हे प्रभो! आप यह बताने की कृपा करें कि मृत्यु को प्राप्त हुआ प्रेत किस कारण पृथ्वी पर डाल दिया जाता है? उसके मुख में पञ्चरत्न(सोना, चांदी, मोती, लाजावर्त (लाजवर्द) तथा मूंगा ये पाँच पञ्चरत्न कहलाते हैं।) क्यों डाला जाता है? मरे हुए प्राणी के नीचे लोग कुश किसलिये बिछा देते हैं? उसके दोनों पैर दक्षिण दिशा की ओर क्यों कर दिये जाते हैं? मरने के समय मनुष्य के आगे पुत्र-पौत्रादि क्यों खड़े रहते हैं? हे केशव ! मृत्यु के समय विविध वस्तुओं का दान एवं गोदान किसलिये दिया जाता है? बन्धुबान्धव, मित्र और शत्रु आदि सभी मिलकर क्यों क्षमा-याचना करते हैं? किससे प्रेरित होकर लोग मृत्युकाल में तिल, लोहा, स्वर्ण, कपास, नमक, सप्तधान्य( जौ, धान, तिल, कंगनी, मूंग, चना तथा सावा-ये सप्तधान्य कहलाते हैं।), भूमि और गौ का दान देते हैं? प्राणी कैसे मरता है और मरने के बाद कहाँ जाता है? उस समय वह आतिवाहिक शरीर (निराधार रूप में आत्मा को वहन करनेवाले शरीर) को कैसे प्राप्त करता है? अग्नि देनेवाले पुत्र और पौत्र उसे कन्धे पर क्यों ले जाते हैं? शव में घृत का लेप क्यों किया जाता है? उस समय एक आहुति देने की परम्परा कहाँ से चली है? शव को भूमि स्पर्श किसलिये करवाया जाता है? स्त्रियाँ उस मरे हुए व्यक्ति के लिये क्यों विलाप करती हैं? शव के उत्तर दिशा में 'यमसूक्त' का पाठ क्यों किया जाता है? मरे हुए व्यक्ति को पीने के लिये जल एक ही वस्त्र धारण करके क्यों दिया जाता है? उस समय सूर्य- बिम्ब-निरीक्षण, पत्थर पर स्थापित यव, सरसों, दूर्वा और नीम की पत्तियों का स्पर्श करने का विधान क्यों है? उस समय स्त्री एवं पुरुष दोनों नीचे ऊपर एक ही वस्त्र क्यों धारण करते हैं? शव का दाह संस्कार करने के पश्चात् उस व्यक्ति को अपने परिजनों के साथ बैठकर भोजनादि क्यों नहीं करना चाहिये? मरे हुए व्यक्ति के पुत्र दस दिन के पूर्व किसलिये पिण्डों का दान देते हैं? चबूतरे (वेदी) पर पके हुए मिट्टी के पात्र में दूध क्यों रखा जाता है? रस्सी से बँधे हुए तीन काष्ठ (तिगोड़िया) के ऊपर रात्रि में गाँव के चौराहे पर एकान्त में वर्षपर्यन्त प्रतिदिन दीपक क्यों दिया जाता है? शव का दाह संस्कार तथा अन्य लोगों के साथ जल तर्पण की क्रिया क्यों की जाती है? हे भगवन्! मृत्यु के बाद प्राणी आतिवाहिक शरीर में चला जाता है, उसके लिये नौ पिण्ड देने चाहिये, इसका क्या प्रयोजन है? किस विधान से पितरों को पिण्ड प्रदान करना चाहिये और उस पिण्ड को स्वीकार करने के लिये उनका आवाहन कैसे किया जाय ?

हे देव! यदि ये सभी कार्य मरने के तुरंत बाद सम्पन्न हो जाते हैं तो फिर बाद में पिण्डदान क्यों किया जाता है? पूर्व किये गये पिण्डदान के बाद पुनः पिण्डदान या अन्य क्रियाओं को करने की क्या आवश्यकता है? दाह-संस्कार के बाद अस्थि संचयन और घट फोड़ने का विधान क्यों है? दूसरे दिन और चौथे दिन साग्निक द्विज के स्नान का विधान क्यों है? दसवें दिन सभी परिजनों के साथ शुद्धि के लिये स्नान क्यों किया जाता है? दसवें दिन तेल एवं उबटन का प्रयोग क्यों किया जाता है। उस तेल और उबटन का प्रयोग भी एक विशाल जलाशय के तट पर होना अपेक्षित है, इसका क्या कारण है? दसवें दिन पिण्डदान क्यों करना चाहिये? एकादशाह के दिन वृषोत्सर्ग आदि के सहित पिण्डदान करने का क्या प्रयोजन है? पात्र, पादुका, छत्र, वस्त्र तथा अंगूठी आदि वस्तुओं का दान क्यों दिया जाता है ? तेरहवें दिन पददान क्यों दिया जाता है। वर्षपर्यन्त सोलह श्राद्ध क्यों किये जाते हैं तथा तीन सौ साठ सान्नोदक घट क्यों दिये जाते हैं। प्रेततृप्ति के लिये प्रतिदिन अन्न से भरे हुए एक घट का दान क्यों करना चाहिये ।

हे प्रभो मनुष्य अनित्य है और समय आने पर ही वह मरता है, किंतु मैं उस छिद्र को नहीं देख पाता है, जिससे जीव निकल जाता है? प्राणी के शरीर में स्थित किस छिद्र से पृथ्वी, जल, मन, तेज, वायु और आकाश निकल जाते हैं? हे जनार्दन! इसी शरीर में स्थित जो पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा पाँच वायु हैं, वे कहाँ से निकल जाते हैं। लोभ, मोह, तृष्णा, काम और अहंकाररूपी जो पाँच चोर शरीर में छिपे रहते हैं, वे कहाँ से निकल जाते हैं।

हे माधव प्राणी अपने जीवनकाल में पुण्य अथवा पाप जो कुछ भी कर्म करता है, नाना प्रकार के दान देता है, ये सब शरीर के नष्ट हो जाने पर उसके साथ कैसे चले जाते हैं। वर्ष के समाप्त हो जाने पर भी मरे हुए प्राणी के लिये सपिण्डीकरण क्यों होता है? उस प्रेतकृत्य में (सपिण्डन ) प्रेतपिण्ड का मिलन किसके साथ किस विधि से होना चाहिये, इसे आप बताने की कृपा करें।

हे हरे! मूर्च्छा से अथवा पतन से जिनकी मृत्यु होती है, उनके लिये क्या होना चाहिये जो पतित मनुष्य जलाये गये अथवा नहीं जलाये गये तथा इस पृथ्वी पर जो अन्य प्राणी हैं, उनके मरने पर अन्त में क्या होना चाहिये। जो मनुष्य पापी, दुराचारी अथवा हतबुद्धि हैं, मरने के बाद वे किस स्थिति को प्राप्त करते हैं? जो पुरुष आत्मघाती, ब्रह्महत्यारा, स्वर्णादि की चोरी करनेवाला, मित्रादि के साथ विश्वासघात करनेवाला है, उस महापातकी का क्या होता है? हे माधव! जो शूद्र कपिला गौ का दूध पीता है अथवा प्रणव महामन्त्र का जप करता है या ब्रह्मसूत्र अर्थात् यज्ञोपवीत को धारण करता है तो मृत्यु के बाद उसकी क्या गति होती है? हे संसार के स्वामी! जब कोई शूद्र किसी ब्राह्मणी को पत्नी बना लेता है तो उस पापी से मैं भी डरता हूँ आप बतायें कि उस पापी की क्या दशा होती है? साथ ही उस पापकर्म के फल को बताने की भी कृपा करें।

हे विश्वात्मन्! आप मेरी दूसरी बात पर भी ध्यान दें। मैं कौतूहलवश वेगपूर्वक लोकों को देखता हुआ सम्पूर्ण जगत्में जा चुका हूँ, उसमें रहनेवाले लोगों को मैंने देखा है कि वे सभी दुःख में ही डूब रहे हैं। उनके अत्यन्त कष्टों को देखकर मेरा अन्तःकरण पीड़ा से भर गया है। स्वर्ग में दैत्यों की शत्रुता से भय है पृथ्वीलोक में मृत्यु और रोगादि से तथा अभीष्ट वस्तुओं के वियोग से लोग दुःखित हैं। पाताललोक में रहनेवाले प्राणियों को मेरे भय से दुःख बना रहता है'।(पाताललोक में नाग को गरुड का भय रहता है।) हे ईश्वर! आपके इस वैष्णव पद (वैकुण्ठ)- के अतिरिक्त अन्यत्र किसी भी लोक में ऐसी निर्भयता नहीं दिखायी देती। काल के वशीभूत इस जगत्‌ की स्थिति स्वप्न की माया के समान असत्य है। उसमें भी इस भारतवर्ष में रहनेवाले लोग बहुत से दुःखों को भोग रहे हैं। मैंने वहाँ देखा है कि उस देश के मनुष्य राग-द्वेष तथा मोह आदि में आकण्ठ डूबे हुए हैं। उस देश में कुछ लोग अन्धे हैं, कुछ टेढ़ी दृष्टिवाले हैं, कुछ दुष्ट वाणीवाले हैं, कुछ लूले हैं, कुछ लँगड़े हैं, कुछ काने हैं, कुछ बहरे हैं, कुछ गूँगे हैं, कुछ कोढ़ी हैं, कुछ लोमश (अधिक रोमवाले) हैं, कुछ नाना रोग से घिरे हैं और कुछ आकाश कुसुम की तरह नितान्त मिथ्या अभिमान से चूर हैं। उनके विचित्र दोषों को देखकर तथा उनकी मृत्यु को देखकर मेरे मन में जिज्ञासा उत्पन्न हो गयी है कि यह मृत्यु क्या है? इस भारतवर्ष में यह कैसी विचित्रता है? ऋषियों से मैंने पहले ही इस विषय में सामान्यतः यह सुन रखा है कि जिसकी विधिपूर्वक वार्षिक क्रियाएँ नहीं होती हैं, उसकी दुर्गति होती है। फिर भी हे प्रभो! इसकी विशेष जानकारी के लिये मैं आपसे पूछ रहा हूँ।

हे उपेन्द्र मनुष्य की मृत्यु के समय उसके कल्याण के लिये क्या करना चाहिये? कैसा दान देना चाहिये। मृत्यु और श्मशान भूमि तक पहुँचने के बीच कौन-सी विधि अपेक्षित है चिता में शव को जलाने की क्या विधि है ? तत्काल अथवा विलम्ब से उस जीव को कैसे दूसरी देह प्राप्त होती है, यमलोक (संयमनी नगरी) को जानेवाले के लिये वर्षपर्यन्त कौन-सी क्रियाएँ करनी चाहिये। दुर्बुद्धि अर्थात् दुराचारी व्यक्ति को मृत्यु होने पर उसका प्रायश्चित्त क्या है? पञ्चक आदि में मृत्यु होने पर पञ्चकशान्ति के लिये क्या करना चाहिये। हे देव! आप मेरे ऊपर प्रसन्न हों। आप मेरे इस सम्पूर्ण भ्रम को विनष्ट करने में समर्थ हैं। मैंने आपसे यह सब लोकमङ्गल की कामना से पूछा है, मुझे बताने की कृपा करें।

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशाख्ये धर्मकाण्डे (प्रेतखण्डे) श्रीकृष्णगरुडसंवादे प्रश्रप्रपञ्चो नाम प्रथमोऽध्यायः॥

शेष जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 2

No comments:

Post a Comment

Please do not enter any spam link in the comment box