श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय १

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय १                                   

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय १"नारद-युधिष्ठिर-संवाद और जय-विजय की कथा"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय १

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: प्रथम अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय १                                                       

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ७ अध्यायः १                                                          

श्रीमद्भागवत महापुराण सातवाँ स्कन्ध पहला अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय १ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् सप्तमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ सप्तमस्कन्धः ॥

॥ प्रथमोऽध्यायः १ ॥

राजोवाच

समः प्रियः सुहृद्ब्रह्मन् भूतानां भगवान् स्वयम् ।

इन्द्रस्यार्थे कथं दैत्यानवधीद्विषमो यथा ॥ १॥

न ह्यस्यार्थः सुरगणैः साक्षान्निःश्रेयसात्मनः ।

नैवासुरेभ्यो विद्वेषो नोद्वेगश्चागुणस्य हि ॥ २॥

इति नः सुमहाभाग नारायणगुणान् प्रति ।

संशयः सुमहान् जातस्तद्भवांश्छेत्तुमर्हति ॥ ३॥

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन्! भगवान् तो स्वभाव से ही भेदभाव से रहित हैं-सम हैं, समस्त प्राणियों के प्रिय और सुहृद् हैं; फिर उन्होंने, जैसे कोई साधारण मनुष्य भेदभाव से अपने मित्र का पक्ष ले और शत्रुओं का अनिष्ट अरे, उसी प्रकार इन्द्र के लिये दैत्यों का वध क्यों किया? वे स्वयं परिपूर्ण कल्याणस्वरूप हैं, इसीलिये उन्हें देवताओं से कुछ लेना-देना नहीं है तथा निर्गुण होने के कारण दैत्यों से कुछ वैर-विरोध और उद्वेग भी नहीं है। भगवत्प्रेम के सौभाग्य से सम्पन्न महातमन्! हमारे चित्त में भगवान् के समत्व आदि गुणों के सम्बन्ध में बड़ा भारी सन्देह हो रहा है। आप कृपा करके उसे मिटाइये।

श्रीशुक उवाच

साधु पृष्टं महाराज हरेश्चरितमद्भुतम् ।

यद्भागवतमाहात्म्यं भगवद्भक्तिवर्धनम् ॥ ४॥

गीयते परमं पुण्यमृषिभिर्नारदादिभिः ।

नत्वा कृष्णाय मुनये कथयिष्ये हरेः कथाम् ॥ ५॥

निर्गुणोऽपि ह्यजोऽव्यक्तो भगवान् प्रकृतेः परः ।

स्वमायागुणमाविश्य बाध्यबाधकतां गतः ॥ ६॥

सत्त्वं रजस्तम इति प्रकृतेर्नात्मनो गुणाः ।

न तेषां युगपद्राजन् ह्रास उल्लास एव वा ॥ ७॥

जयकाले तु सत्त्वस्य देवर्षीन् रजसोऽसुरान् ।

तमसो यक्षरक्षांसि तत्कालानुगुणोऽभजत् ॥ ८॥

ज्योतिरादिरिवाभाति सङ्घातान्न विविच्यते ।

विदन्त्यात्मानमात्मस्थं मथित्वा कवयोऽन्ततः ॥ ९॥

यदा सिसृक्षुः पुर आत्मनः परो

रजः सृजत्येष पृथक् स्वमायया ।

सत्त्वं विचित्रासु रिरंसुरीश्वरः

शयिष्यमाणस्तम ईरयत्यसौ ॥ १०॥

कालं चरन्तं सृजतीश आश्रयं

प्रधानपुम्भ्यां नरदेव सत्यकृत् ।

य एष राजन्नपि काल ईशिता

सत्त्वं सुरानीकमिवैधयत्यतः ।

तत्प्रत्यनीकानसुरान् सुरप्रियो

रजस्तमस्कान् प्रमिणोत्युरुश्रवाः ॥ ११॥

अत्रैवोदाहृतः पूर्वमितिहासः सुरर्षिणा ।

प्रीत्या महाक्रतौ राजन् पृच्छतेऽजातशत्रवे ॥ १२॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- महाराज! भगवान् के अद्भुत चरित्र के सम्बन्ध में तुमने बड़ा सुन्दर प्रश्न किया; क्योंकि ऐसे प्रसंग प्रह्लाद आदि भक्तों की महिमा से परिपूर्ण होते हैं, जिसके श्रवण से भगवान् की भक्ति बढ़ती है। इस परम पुण्यमय प्रसंग को नारदादि महात्मागण बड़े प्रेम से गाते रहते हैं। अब मैं अपने पिता श्रीकृष्ण-द्वैपायन मुनि को नमस्कार करके भगवान् की लीला-कथा का वर्णन करता हूँ। वास्तव में भगवान् निर्गुण, अजन्मा, अव्यक्त और प्रकृति से परे हैं। ऐसे होने पर भी अपनी माया के गुणों को स्वीकार करके वे बाध्य-बाधक भाव को अर्थात् मरने और मारने वाले दोनों के परस्पर-विरोधी रूपों को ग्रहण करते हैं। सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण- ये प्रकृति के गुण हैं, परमात्मा के नहीं।

परीक्षित! इन तीनों गुणों की भी एक साथ ही घटती-बढ़ती नहीं होती। भगवान् समय-समय के अनुसार गुणों को स्वीकार करते हैं। सत्त्वगुण की वृद्धि के समय देवता और ऋषियों का, रजोगुण की वृद्धि के समय दैत्यों का और तमोगुण की वृद्धि के समय वे यक्ष एवं राक्षसों को अपनाते और उनका अभ्युदय करते हैं। जैसे व्यापक अग्नि काष्ठ आदि भिन्न-भिन्न आश्रयों में रहने पर भी उनसे अलग नहीं जान पड़ती, परन्तु मन्थन करने पर वह प्रकट हो जाती है-वैसे ही परमात्मा सभी शरीरों में रहते हैं, अलग नहीं जान पड़ते। परन्तु विचारशील पुरुष हृदय मन्थन करके-उनके अतिरिक्त सभी वस्तुओं का बोध करके अन्ततः अपने हृदय में ही अन्तर्यामीरूप से उन्हें प्राप्त कर लेते हैं। जब परमेश्वर अपने लिये शरीरों का निर्माण करना चाहते हैं, तब अपनी माया से रजोगुण की अलग सृष्टि करते हैं। जब वे विचित्र योनियों में रमण करना चाहते हैं, तब सत्त्वगुण की सृष्टि करते हैं और जब वे शयन करना चाहते हैं, तब तमोगुण को बढ़ा देते हैं। परीक्षित! भगवान् सत्य संकल्प हैं। वे ही जगत् की उत्पत्ति के निमित्त भूत, प्रकृति और पुरुष के सहकारी एवं आश्रयकाल की सृष्टि करते हैं। इसलिये वे काल के अधीन नहीं, काल ही उनके अधीन है।

राजन्! वे काल स्वरूप ईश्वर जब सत्त्वगुण की वृद्धि करते हैं, तब सत्त्वमय देवताओं का बल बढ़ाते हैं और तभी वे परमयशस्वी देवप्रिय परमात्मा देवविरोधी, रजोगुणी एवं तमोगुणी दैत्यों का संहार करते हैं। वस्तुतः वे सम ही हैं। राजन्! इसी विषय में देवर्षि नारद ने बड़े प्रेम से एक इतिहास कहा था। यह उस समय की बात है, जब राजसूय यज्ञ में तुम्हारे दादा युधिष्ठिर ने उनसे इस सम्बन्ध में एक प्रश्न किया था।

दृष्ट्वा महाद्भुतं राजा राजसूये महाक्रतौ ।

वासुदेवे भगवति सायुज्यं चेदिभूभुजः ॥ १३॥

तत्रासीनं सुरऋषिं राजा पाण्डुसुतः क्रतौ ।

पप्रच्छ विस्मितमना मुनीनां श्रृण्वतामिदम् ॥ १४॥

उस महान् राजसूय यज्ञ में राजा युधिष्ठिर ने अपनी आँखों के सामने बड़ी आश्चर्यजनक घटना देखी कि चेदिराज शिशुपाल सबके देखते-देखते भगवान् श्रीकृष्ण में समा गया। वहीं देवर्षि नारद भी बैठे हुए थे। इस घटना से आश्चर्यचकित होकर राजा युधिष्ठिर ने बड़े-बड़े मुनियों से भरी हुई सभा में; उस यज्ञमण्डप में ही देवर्षि नारद से यह प्रश्न किया।

युधिष्ठिर उवाच

अहो अत्यद्भुतं ह्येतद्दुर्लभैकान्तिनामपि ।

वासुदेवे परे तत्त्वे प्राप्तिश्चैद्यस्य विद्विषः ॥ १५॥

एतद्वेदितुमिच्छामः सर्व एव वयं मुने ।

भगवन्निन्दया वेनो द्विजैस्तमसि पातितः ॥ १६॥

दमघोषसुतः पाप आरभ्य कलभाषणात् ।

सम्प्रत्यमर्षी गोविन्दे दन्तवक्त्रश्च दुर्मतिः ॥ १७॥

शपतोरसकृद्विष्णुं यद्ब्रह्म परमव्ययम् ।

श्वित्रो न जातो जिह्वायां नान्धं विविशतुस्तमः ॥ १८॥

कथं तस्मिन् भगवति दुरवग्राहधामनि ।

पश्यतां सर्वलोकानां लयमीयतुरञ्जसा ॥ १९॥

एतद्भ्राम्यति मे बुद्धिर्दीपार्चिरिव वायुना ।

ब्रूह्येतदद्भुततमं भगवांस्तत्र कारणम् ॥ २०॥

युधिष्ठिर ने पूछा ;- अहो! यह तो बड़ी विचित्र बात है। परमतत्त्व भगवान् श्रीकृष्ण में समा जाना तो बड़े-बड़े अनन्य भक्तों के लिये भी दुर्लभ है; फिर भगवान् से द्वेष करने वाले शिशुपाल को यह गति कैसे मिली? नारदजी! इसका रहस्य हम सभी जानना चाहते हैं। पूर्वकाल में भगवान् की निन्दा करने के कारण ऋषियों ने राजा वेन को नरक में डाल दिया था। यह दमघोष का लड़का पापात्मा शिशुपाल और दुर्बुद्धि दन्तवक्त्र-दोनों ही जब से तुतलाकर बोलने लगे थे, तब से अब तक भगवान् से द्वेष ही करते रहे हैं। अविनाशी परब्रह्म भगवान् श्रीकृष्ण को ये पानी पी-पीकर गाली देते हैं। परन्तु इसके फलस्वरूप न तो इनकी जीभ में कोढ़ ही हुआ और न इन्हें घोर अन्धकारमय नरक की ही प्राप्ति हुई। प्रत्युत जिन भगवान् की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है, उन्हीं में ये दोनों सबके देखते-देखते अनायास ही लीन हो गये-इसका क्या कारण है? हवा के झोंके से लड़खड़ाती हुई दीपक की लौ के समान मेरी बुद्धि इस विषय में बहुत आगा-पीछा कर रही है। आप सर्वज्ञ हैं, अतः इस अद्भुत घटना का रहस्य समझाइये।

श्रीशुक उवाच

राज्ञस्तद्वच आकर्ण्य नारदो भगवानृषिः ।

तुष्टः प्राह तमाभाष्य श्रृण्वत्यास्तत्सदः ॥ २१॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- सर्वसमर्थ देवर्षि नारद राजा के ये प्रश्न सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने युधिष्ठिर को सम्बोधित करके भरी सभा में सबके सुनते हुए यह कथा कही।

नारद उवाच

निन्दनस्तवसत्कारन्यक्कारार्थं कलेवरम् ।

प्रधानपरयो राजन्नविवेकेन कल्पितम् ॥ २२॥

हिंसा तदभिमानेन दण्डपारुष्ययोर्यथा ।

वैषम्यमिह भूतानां ममाहमिति पार्थिव ॥ २३॥

यन्निबद्धोऽभिमानोऽयं तद्वधात्प्राणिनां वधः ।

तथा न यस्य कैवल्यादभिमानोऽखिलात्मनः ।

परस्य दमकर्तुर्हि हिंसा केनास्य कल्प्यते ॥ २४॥

तस्माद्वैरानुबन्धेन निर्वैरेण भयेन वा ।

स्नेहात्कामेन वा युञ्ज्यात्कथञ्चिन्नेक्षते पृथक् ॥ २५॥

यथा वैरानुबन्धेन मर्त्यस्तन्मयतामियात् ।

न तथा भक्तियोगेन इति मे निश्चिता मतिः ॥ २६॥

कीटः पेशस्कृता रुद्धः कुड्यायां तमनुस्मरन् ।

संरम्भभययोगेन विन्दते तत्सरूपताम् ॥ २७॥

नारद जी ने कहा ;- युधिष्ठिर! निन्दा, स्तुति, सत्कार और तिरस्कार-इस शरीर के ही तो होते हैं। इस शरीर की कल्पना प्रकृति और पुरुष का ठीक-ठीक विवेक न होने के कारण ही हुई है। जब इस शरीर को ही अपना आत्मा मान लिया जाता है, तब यह मैं हूँ और यह मेरा हैऐसा भाव बन जाता है। यही सारे भेदभाव का मूल है। इसी के कारण ताड़ना और दुर्वचनों से पीड़ा होती है। जिस शरीर में अभिमान हो जाता है कि यह मैं हूँ’, उस शरीर के वध से प्राणियों को अपना वध जान पड़ता है। किन्तु भगवान् में तो जीवों के समान ऐसा अभिमान है नहीं; क्योंकि वे सर्वात्मा हैं, अद्वितीय हैं। वे जो दूसरों को दण्ड देते हैं-वह भी उनके कल्याण के लिये ही, क्रोधवश अथवा द्वेषवश नहीं। तब भगवान् के सम्बन्ध में हिंसा की कल्पना तो की ही कैसे जा सकती है। इसलिये चाहे सुदृढ़ वैरभाव से या वैरहीन भक्तिभाव से, भय से, स्नेह से अथवा कामना से-कैसे भी हो, भगवान् में अपना मन पूर्ण रूप से लगा देना चाहिये। भगवान् की दृष्टि से इन भावों में कोई भेद नहीं है।

युधिष्ठिर! मेरा तो ऐसा दृढ़ निश्चय है कि मनुष्य वैरभाव से भगवान् में जितना तन्मय हो जाता है, उतना भक्तियोग से नहीं होता। भृंगी कीड़े को लाकर भीत पर अपने छिद्र में बंद कर देता है और वह भय तथा उद्वेग से भृंगी का चिन्तन करते-करते उसके-जैसा ही हो जाता है।

एवं कृष्णे भगवति मायामनुज ईश्वरे ।

वैरेण पूतपाप्मानस्तमापुरनुचिन्तया ॥ २८॥

कामाद्द्वेषाद्भयात्स्नेहाद्यथा भक्त्येश्वरे मनः ।

आवेश्य तदघं हित्वा बहवस्तद्गतिं गताः ॥ २९॥

गोप्यः कामाद्भयात्कंसो द्वेषाच्चैद्यादयो नृपाः ।

सम्बन्धाद्वृष्णयः स्नेहाद्यूयं भक्त्या वयं विभो ॥ ३०॥

कतमोऽपि न वेनः स्यात्पञ्चानां पुरुषं प्रति ।

तस्मात्केनाप्युपायेन मनः कृष्णे निवेशयेत् ॥ ३१॥

मातृष्वसेयो वश्चैद्यो दन्तवक्त्रश्च पाण्डव ।

पार्षदप्रवरौ विष्णोर्विप्रशापात्पदाच्च्युतौ ॥ ३२॥

यही बात भगवान् श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में भी है। लीला के द्वारा मनुष्य मालूम पड़ते हुए ये सर्वशक्तिमान् भगवान् ही तो हैं। इनसे वैर करने वाले भी इनका चिन्तन करते-करते पापरहित होकर इन्हीं को प्राप्त हो गये। एक नहीं, अनेकों मनुष्य काम से, द्वेष से, भय से और स्नेह से अपने मन को भगवान् में लगाकर एवं अपने सारे पाप धोकर उसी प्रकार भगवान् को प्राप्त हुए हैं, जैसे भक्त भक्ति से। महाराज! गोपियों ने भगवान् से मिलन के तीव्र काम अर्थात् प्रेम से, कंस ने भय से, शिशुपाल-दन्तवक्त्र आदि राजाओं ने द्वेष से, यदुवंशियों ने परिवार के सम्बन्ध से, तुम लोगों ने स्नेह से और हम लोगों ने भक्ति से अपने मन को भगवान् में लगाया है। भक्तों के अतिरिक्त जो पाँच प्रकार के भगवान् का चिन्तन करने वाले हैं, उनमें जो राजा वेन की तो किसी में ही गणना नहीं होती (क्योंकि उसने किसी भी प्रकार से भगवान् में मन नहीं लगाया था)। सारांश यह कि चाहे जैसे हो, अपना मन भगवान् श्रीकृष्ण में तन्मय कर देना चाहिये। महाराज! फिर तुम्हारे जैसे मौसेरे भाई शिशुपाल और दन्तवक्त्र दोनों ही विष्णु भगवान् के मुख्य पार्षद थे। ब्राह्मणों के शाप से इन दोनों को अपने पद से च्युत होना पड़ा था।

युधिष्ठिर उवाच

कीदृशः कस्य वा शापो हरिदासाभिमर्शनः ।

अश्रद्धेय इवाभाति हरेरेकान्तिनां भवः ॥ ३३॥

देहेन्द्रियासुहीनानां वैकुण्ठपुरवासिनाम् ।

देहसम्बन्धसम्बद्धमेतदाख्यातुमर्हसि ॥ ३४॥

राजा युधिष्ठिर ने पूछा ;- नारद जी! भगवान् के पार्षदों को भी प्रभावित करने वाला वह शाप किसने दिया था? वह कैसा था? भगवान् के अनन्य प्रेमी फिर जन्म-मृत्युमय संसार में आयें, यह बात तो कुछ अविश्वसनीय-सी मालूम पड़ती है। वैकुण्ठ के रहने वाले लोग प्राकृत शरीर, इन्द्रिय और प्राणों से रहित होते हैं। उनका प्राकृत शरीर से सम्बन्ध किस प्रकार हुआ, यह बात आप अवश्य सुनाइये।

नारद उवाच

एकदा ब्रह्मणः पुत्रा विष्णोर्लोकं यदृच्छया ।

सनन्दनादयो जग्मुश्चरन्तो भुवनत्रयम् ॥ ३५॥

पञ्चषड्ढायनार्भाभाः पूर्वेषामपि पूर्वजाः ।

दिग्वाससः शिशून् मत्वा द्वाःस्थौ तान् प्रत्यषेधताम् ॥ ३६॥

अशपन् कुपिता एवं युवां वासं न चार्हथः ।

रजस्तमोभ्यां रहिते पादमूले मधुद्विषः ।

पापिष्ठामासुरीं योनिं बालिशौ यातमाश्वतः ॥ ३७॥

एवं शप्तौ स्वभवनात्पतन्तौ तैः कृपालुभिः ।

प्रोक्तौ पुनर्जन्मभिर्वां त्रिभिर्लोकाय कल्पताम् ॥ ३८॥

जज्ञाते तौ दितेः पुत्रौ दैत्यदानववन्दितौ ।

हिरण्यकशिपुर्ज्येष्ठो हिरण्याक्षोऽनुजस्ततः ॥ ३९॥

हतो हिरण्यकशिपुर्हरिणा सिंहरूपिणा ।

हिरण्याक्षो धरोद्धारे बिभ्रता सौकरं वपुः ॥ ४०॥

हिरण्यकशिपुः पुत्रं प्रह्लादं केशवप्रियम् ।

जिघांसुरकरोन्नाना यातना मृत्युहेतवे ॥ ४१॥

सर्वभूतात्मभूतं तं प्रशान्तं समदर्शनम् ।

भगवत्तेजसा स्पृष्टं नाशक्नोद्धन्तुमुद्यमैः ॥ ४२॥

ततस्तौ राक्षसौ जातौ केशिन्यां विश्रवःसुतौ ।

रावणः कुम्भकर्णश्च सर्वलोकोपतापनौ ॥ ४३॥

तत्रापि राघवो भूत्वा न्यहनच्छापमुक्तये ।

रामवीर्यं श्रोष्यसि त्वं मार्कण्डेयमुखात्प्रभो ॥ ४४॥

तावेव क्षत्रियौ जातौ मातृष्वस्रात्मजौ तव ।

अधुना शापनिर्मुक्तौ कृष्णचक्रहतांहसौ ॥ ४५॥

वैरानुबन्धतीव्रेण ध्यानेनाच्युतसात्मताम् ।

नीतौ पुनर्हरेः पार्श्वं जग्मतुर्विष्णुपार्षदौ ॥ ४६॥

नारद जी ने कहा ;- एक दिन ब्रह्मा के मानसपुत्र सनकादि ऋषि तीनों लोकों में स्वच्छन्द विचरण करते हुए वैकुण्ठ में जा पहुँचे। यों तो वे सबसे प्राचीन हैं, परन्तु जान पड़ते हैं ऐसे मानो पाँच-छः बरस के बच्चे हों। वस्त्र भी नहीं पहनते। उन्हें साधारण बालक समझकर द्वारपालों ने उनको भीतर जाने से रोक दिया। इस पर वे क्रोधित-से हो गये और द्वारपालों को यह शाप दिया कि मूर्खों! भगवान् विष्णु के चरण तो रजोगुण और तमोगुण से रहित हैं। तुम दोनों इनके समीप निवास करने योग्य नहीं हो। इसलिये शीघ्र ही तुम यहाँ से पापमयी असुर योनि में जाओ। उनके इस प्रकार शाप देते ही जब वे वैकुण्ठ से नीचे गिरने लगे, तब उन कृपालु महात्माओं ने कहा- अच्छा, तीन जन्मों में इस शाप को भोगकर तुम लोग फिर इसी वैकुण्ठ में आ जाना

युधिष्ठिर! वे ही दोनों दिति के पुत्र हुए। उनसे बड़े का नाम हिरण्यकशिपु था और उससे छोटे का हिरण्याक्ष। दैत्य और दानवों के समाज में यही दोनों सर्वश्रेष्ठ थे। विष्णु भगवान् ने नृसिंह का रूप धारण करके हिरण्यकशिपु को और पृथ्वी का उद्धार करने के समय वराह अवतार ग्रहण करके हिरण्याक्ष को मारा। हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद को भगवत्प्रेमी होने कारण मार डालना चाहा और इसके लिये उन्हें बहुत-सी यातनाएँ दीं। परन्तु प्रह्लाद सर्वात्मा भगवान् के परम प्रिय हो चुके थे, समदर्शी हो चुके थे। उनके हृदय में अटल शान्ति थी। भगवान् के प्रभाव से वे सुरक्षित थे। इसलिये तरह-तरह से चेष्टा करने पर भी हिरण्यकशिपु उनको मार डालने में समर्थ न हुआ। युधिष्ठिर! वे ही दोनों विश्रवा मुनि के द्वारा केशिनी (कैकसी) के गर्भ से राक्षसों के रूप में पैदा हुआ। उनका नाम था रावण और कुम्भकर्ण। उनके उत्पातों से सब लोकों में आग-सी लग गयी थी। उस समय भी भगवान् ने उन्हें शाप से छुड़ाने के लिये रामरूप से उनका वध किया। युधिष्ठिर! मार्कण्डेय मुनि के मुख से तुम भगवान् श्रीराम का चरित्र सुनोगे। वे ही दोनों जय-विजय इस जन्म में तुम्हारी मौसी के लड़के शिशुपाल और दन्तवक्त्र के रूप में क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे। भगवान् श्रीकृष्ण के चक्र का स्पर्श प्राप्त हो जाने से उनके सारे पाप नष्ट हो गये और वे सनकादि के शाप से मुक्त हो गये। वैरभाव के कारण निरन्तर ही वे भगवान् श्रीकृष्ण का चिन्तन किया करते थे। उसी तीव्र तन्मयता के फलस्वरूप वे भगवान् को प्राप्त हो गये और पुनः उनके पार्षद होकर उन्हीं के समीप चले गये।

युधिष्ठिर उवाच

विद्वेषो दयिते पुत्रे कथमासीन्महात्मनि ।

ब्रूहि मे भगवन् येन प्रह्लादस्याच्युतात्मता ॥ ४७॥

युधिष्ठिर जी ने पूछा ;- भगवन्! हिरण्यकशिपु ने अपने स्नेहभाजन पुत्र प्रह्लाद से इतना द्वेष क्यों किया? फिर प्रह्लाद तो महात्मा थे। साथ ही यह भी बतलाइये कि किस साधन से प्रह्लाद भगवन्मय हो गये।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादचरितोपक्रमे प्रथमोऽध्यायः (१)

शेष जारी-आगे पढ़े............... सप्तम स्कन्ध: द्वितीयोऽध्यायः

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