श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय २

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय २                                    

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय २ "हिरण्याक्ष का वध होने पर हिरण्यकशिपु का अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय २

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: द्वितीय अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय २                                                        

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ७ अध्यायः २                                                           

श्रीमद्भागवत महापुराण सातवाँ स्कन्ध दूसरा अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय २ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् सप्तमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ सप्तमस्कन्धः ॥

॥ द्वितीयोऽध्यायः २ ॥

नारद उवाच

भ्रातर्येवं विनिहते हरिणा क्रोडमूर्तिना ।

हिरण्यकशिपू राजन् पर्यतप्यद्रुषा शुचा ॥ १॥

आह चेदं रुषा घूर्णः सन्दष्टदशनच्छदः ।

कोपोज्ज्वलद्भ्यां चक्षुर्भ्यां निरीक्षन् धूम्रमम्बरम् ॥ २॥

करालदंष्ट्रोग्रदृष्ट्या दुष्प्रेक्ष्यभ्रुकुटीमुखः ।

शूलमुद्यम्य सदसि दानवानिदमब्रवीत् ॥ ३॥

भो भो दानवदैतेया द्विमूर्धंस्त्र्यक्ष शम्बर ।

शतबाहो हयग्रीव नमुचे पाक इल्वल ॥ ४॥

विप्रचित्ते मम वचः पुलोमन् शकुनादयः ।

श्रृणुतानन्तरं सर्वे क्रियतामाशु मा चिरम् ॥ ५॥

सपत्नैर्घातितः क्षुद्रैर्भ्राता मे दयितः सुहृत् ।

पार्ष्णिग्राहेण हरिणा समेनाप्युपधावनैः ॥ ६॥

तस्य त्यक्तस्वभावस्य घृणेर्मायावनौकसः ।

भजन्तं भजमानस्य बालस्येवास्थिरात्मनः ॥ ७॥

मच्छूलभिन्नग्रीवस्य भूरिणा रुधिरेण वै ।

रुधिरप्रियं तर्पयिष्ये भ्रातरं मे गतव्यथः ॥ ८॥

तस्मिन् कूटेऽहिते नष्टे कृत्तमूले वनस्पतौ ।

विटपा इव शुष्यन्ति विष्णुप्राणा दिवौकसः ॥ ९॥

तावद्यात भुवं यूयं विप्रक्षत्रसमेधिताम् ।

सूदयध्वं तपोयज्ञस्वाध्यायव्रतदानिनः ॥ १०॥

विष्णुर्द्विजक्रियामूलो यज्ञो धर्ममयः पुमान् ।

देवर्षिपितृभूतानां धर्मस्य च परायणम् ॥ ११॥

यत्र यत्र द्विजा गावो वेदा वर्णाश्रमाः क्रियाः ।

तं तं जनपदं यात सन्दीपयत वृश्चत ॥ १२॥

इति ते भर्तृनिर्देशमादाय शिरसाऽऽदृताः ।

तथा प्रजानां कदनं विदधुः कदनप्रियाः ॥ १३॥

पुरग्रामव्रजोद्यानक्षेत्रारामाश्रमाकरान् ।

खेटखर्वटघोषांश्च ददहुः पत्तनानि च ॥ १४॥

केचित्खनित्रैर्बिभिदुः सेतुप्राकारगोपुरान् ।

आजीव्यांश्चिच्छिदुर्वृक्षान् केचित्परशुपाणयः ।

प्रादहन् शरणान्येके प्रजानां ज्वलितोल्मुकैः ॥ १५॥

एवं विप्रकृते लोके दैत्येन्द्रानुचरैर्मुहुः ।

दिवं देवाः परित्यज्य भुवि चेरुरलक्षिताः ॥ १६॥

हिरण्यकशिपुर्भ्रातुः सम्परेतस्य दुःखितः ।

कृत्वा कटोदकादीनि भ्रातृपुत्रानसान्त्वयत् ॥ १७॥

शकुनिं शम्बरं धृष्टं भूतसन्तापनं वृकम् ।

कालनाभं महानाभं हरिश्मश्रुमथोत्कचम् ॥ १८॥

तन्मातरं रुषाभानुं दितिं च जननीं गिरा ।

श्लक्ष्णया देशकालज्ञ इदमाह जनेश्वर ॥ १९॥

नारद जी ने कहा ;- युधिष्ठिर! जब भगवान् ने वराहावतार धारण करके हिरण्याक्ष को मार डाला, तब भाई के इस प्रकार मारे जाने पर हिरण्यकशिपु रोष से जल-भुन गया और शोक से सन्तप्त हो उठा। वह क्रोध से काँपता हुआ अपने दाँतों से बार-बार होठ चबाने लगा। क्रोध से दहकती हुई आँखों की आग के धुएँ से धूमिल हुए आकाश की ओर देखता हुआ वह कहने लगा।

उस समय विकराल दाढ़ों, आग उगलने वाली उग्र दृष्टि और चढ़ी हुई भौंहों के कारण उसका मुँह देखा न जाता था। भरी सभा में त्रिशूल उठाकर उसने द्विमूर्धा, त्र्यक्ष, शम्बर, शतबाहु, हयग्रीव, नमुचि, पाक, इल्वल, विप्रचित्ति, पुलोमा और शकुन आदि को सम्बोधन करके कहा- दैत्यों और दानवों! तुम सब लोग मेरी बात सुनो और उसके बाद जैसे मैं कहता हूँ, वैसे करो। तुम्हें यह ज्ञात है कि मेरे क्षुद्र शत्रुओं ने मेरे परम प्यारे और हितैषी भाई को विष्णु से मरवा डाला है। यद्यपि वह देवता और दैत्य दोनों के प्रति समान है, तथापि दौड़-धूप और अनुनय-विनय करके देवताओं ने उसे अपने पक्ष में कर लिया है। यह विष्णु पहले तो बड़ा शुद्ध और निष्पक्ष था, परन्तु अब माया से वराह आदि रूप धारण करने लगा है और अपने स्वभाव से च्युत हो गया है। बच्चे की तरह जो उसकी सेवा करे, उसी की ओर हो जाता है। उसका चित्त स्थिर नहीं है। अब मैं अपने इस शूल से उसका गला काट डालूँगा और उसके खून की धारा से अपने रुधिरप्रेमी भाई का तर्पण करूँगा। तब कहीं मेरे हृदय की पीड़ा शान्त होगी। उस मायावी शत्रु के नष्ट होने पर, पेड़ की जड़ कट जाने पर डालियों की तरह सब देवता अपने-आप सूख जायेंगे। क्योंकि उनका जीवन तो विष्णु ही है।

इसलिये तुम लोग इसी समय पृथ्वी पर जाओ। आजकल वहाँ ब्राह्मण और क्षत्रियों की बहुत बढ़ती हो गयी है। वहाँ जो लोग तपस्या, यज्ञ, स्वाध्याय, व्रत और दानादि शुभ कर्म कर रहे हों, उन सबको मार डालो। विष्णु की जड़ है द्विजातियों का धर्म-कर्म; क्योंकि यज्ञ और धर्म ही उसके स्वरूप हैं। देवता, ऋषि, पितर, समस्त प्राणी और धर्म का वही परम आश्रय है। जहाँ-तहाँ ब्राह्मण, गाय, वेद, वर्णाश्रम और धर्म-कर्म हों, उन-उन देशों में तुम लोग जाओ, उन्हें जला दो, उजाड़ डालो

दैत्य तो स्वभाव से ही लोगों को सताकर सुखी होते हैं। दैत्यराज हिरण्यकशिपु की आज्ञा उन्होंने बड़े आदर से सिर झुकाकर स्वीकार की और उसी के अनुसार जनता का नाश करने लगे। उन्होंने नगर, गाँव, गौओं के रहने के स्थान, बगीचे, खेत, टहलने के स्थान, ऋषियों के आश्रम, रत्न आदि की खानें, किसानों की बस्तियाँ, तराई के गाँव, अहीरों की बस्तियाँ और व्यापार के केन्द्र बड़े-बड़े नगर जला डाले। कुछ दैत्यों ने खोदने के शस्त्रों से बड़े-बड़े पुल, परकोटे और नगर के फाटकों को तोड़-फोड़ डाला तथा दूसरों ने कुल्हाड़ियों से फले-फूले, हरे-भरे पेड़ काट डाले। कुछ दैत्यों ने जलती हुई लकड़ियों से लोगों के घर जला दिये। इस प्रकार दैत्यों ने निरीह प्रजा का बड़ा उत्पीड़न किया। उस समय देवता लोग स्वर्ग छोड़कर छिपे रूप से पृथ्वी में विचरण करते थे।

युधिष्ठिर! भाई की मृत्यु से हिरण्यकशिपु को बड़ा दुःख हुआ था। जब उसने उसकी अन्त्येष्टि क्रिया से छुट्टी पा ली, तब शकुनि, शम्बर, धृष्ट, भूतसन्तापन, वृक, कालनाभ, महानाभ, हरिश्मश्रु और उत्कच अपने इन भतीजों को सान्त्वना दी। उनकी माता रुषाभानु को और अपनी माता दिति को देश-काल के अनुसार मधुर वाणी से समझाते हुए कहा।

हिरण्यकशिपुरुवाच

अम्बाम्ब हे वधूः पुत्रा वीरं मार्हथ शोचितुम् ।

रिपोरभिमुखे श्लाघ्यः शूराणां वध ईप्सितः ॥ २०॥

भूतानामिह संवासः प्रपायामिव सुव्रते ।

दैवेनैकत्र नीतानामुन्नीतानां स्वकर्मभिः ॥ २१॥

नित्य आत्माव्ययः शुद्धः सर्वगः सर्ववित्परः ।

धत्तेऽसावात्मनो लिङ्गं मायया विसृजन् गुणान् ॥ २२॥

यथाम्भसा प्रचलता तरवोऽपि चला इव ।

चक्षुषा भ्राम्यमाणेन दृश्यते चलतीव भूः ॥ २३॥

एवं गुणैर्भ्राम्यमाणे मनस्यविकलः पुमान् ।

याति तत्साम्यतां भद्रे ह्यलिङ्गो लिङ्गवानिव ॥ २४॥

एष आत्मविपर्यासो ह्यलिङ्गे लिङ्गभावना ।

एष प्रियाप्रियैर्योगो वियोगः कर्मसंसृतिः ॥ २५॥

सम्भवश्च विनाशश्च शोकश्च विविधः स्मृतः ।

अविवेकश्च चिन्ता च विवेकास्मृतिरेव च ॥ २६॥

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।

यमस्य प्रेतबन्धूनां संवादं तं निबोधत ॥ २७॥

उशीनरेष्वभूद्राजा सुयज्ञ इति विश्रुतः ।

सपत्नैर्निहतो युद्धे ज्ञातयस्तमुपासत ॥ २८॥

विशीर्णरत्नकवचं विभ्रष्टाभरणस्रजम् ।

शरनिर्भिन्नहृदयं शयानमसृगाविलम् ॥ २९॥

प्रकीर्णकेशं ध्वस्ताक्षं रभसा दष्टदच्छदम् ।

रजःकुण्ठमुखाम्भोजं छिन्नायुधभुजं मृधे ॥ ३०॥

उशीनरेन्द्रं विधिना तथा कृतं

पतिं महिष्यः प्रसमीक्ष्य दुःखिताः ।

हताः स्म नाथेति करैरुरो भृशं

घ्नन्त्यो मुहुस्तत्पदयोरुपापतन् ॥ ३१॥

रुदत्य उच्चैर्दयिताङ्घ्रिपङ्कजं

सिञ्चन्त्य अस्रैः कुचकुङ्कुमारुणैः ।

विस्रस्तकेशाभरणाः शुचं नृणां

सृजन्त्य आक्रन्दनया विलेपिरे ॥ ३२॥

अहो विधात्राकरुणेन नः प्रभो

भवान् प्रणीतो दृगगोचरां दशाम् ।

उशीनराणामसि वृत्तिदः पुरा

कृतोऽधुना येन शुचां विवर्धनः ॥ ३३॥

त्वया कृतज्ञेन वयं महीपते

कथं विना स्याम सुहृत्तमेन ते ।

तत्रानुयानं तव वीर पादयोः

शुश्रूषतीनां दिश यत्र यास्यसि ॥ ३४॥

एवं विलपतीनां वै परिगृह्य मृतं पतिम् ।

अनिच्छतीनां निर्हारमर्कोऽस्तं सन्न्यवर्तत ॥ ३५॥

तत्र ह प्रेतबन्धूनामाश्रुत्य परिदेवितम् ।

आह तान् बालको भूत्वा यमः स्वयमुपागतः ॥ ३६॥

हिरण्यकशिपु ने कहा ;- मेरी प्यारी माँ, बहू और पुत्रो! तुम्हें वीर हिरण्याक्ष के लिये किसी प्रकार का शोक नहीं करना चाहिये। वीर पुरुष तो ऐसा चाहते ही हैं कि लड़ाई के मैदान में अपने शत्रु के सामने उसके दाँत खट्टे करके प्राण त्याग करें; वीरों के लिये ऐसी ही मृत्यु श्लाघनीय होती है। देवि! जैसे प्याऊ पर बहुत-से लोग इकट्ठे हो जाते हैं, परन्तु उनका मिलना-जुलना थोड़ी देर के लिये ही होता है-वैसे ही अपने कर्मों के फेर से दैववश जीव भी मिलते और बिछुड़ते हैं। वास्तव में आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध, सर्वगत, सर्वज्ञ और देह-इन्द्रिय आदि से पृथक् है। वह अपनी अविद्या से ही देह आदि की सृष्टि करके भोगों के साधन सूक्ष्म शरीर को स्वीकार करता है। जैसे हिलते हुए पानी के साथ उसमें प्रतिबिम्बित होने वाले वृक्ष भी हिलते-से जान पड़ते हैं और घुमायी जाती हुई आँख के साथ सारी पृथ्वी ही घूमती-सी दिखायी देती है।

कल्याणी! वैसे ही विषयों के कारण मन भटकने लगता है और वास्तव में निर्विकार होने पर भी उसी के समान आत्मा भी भटकता हुआ-सा जान पड़ता है। उसका स्थूल और सूक्ष्म-शरीरों से कोई भी सम्बन्ध नहीं है, फिर भी वह सम्बन्धी-सा जान पड़ता है। सब प्रकार से शरीर रहित आत्मा को शरीर समझ लेना-यही तो अज्ञान है। इसी से प्रिय अथवा अप्रिय वस्तुओं का मिलना और बिछुड़ना होता है। इसी से कर्मों के साथ सम्बन्ध हो जाने के कारण संसार में भटकना पड़ता है। जन्म, मृत्यु, अनेकों प्रकार के शोक, अविवेक, चिन्ता और विवेक की विस्मृति-सबका कारण यह अज्ञान ही है। इस विषय में महात्मा लोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास मरे हुए मनुष्य के सम्बन्धियों के साथ यमराज की बातचीत है। तुम लोग ध्यान से उसे सुनो।

उशीनर देश में एक बड़ा यशस्वी राजा था। उसका नाम था सुयज्ञ। लड़ाई में शत्रुओं ने उसे मार डाला। उस समय उसके भाई-बन्धु उसे घेरकर बैठ गये। उसका जड़ाऊ कवच छिन्न-भिन्न हो गया था। गहने और मालाएँ तहस-नहस हो गयी थीं। बाणों की मार से कलेजा फट गया था। शरीर खून से लथपथ था। बाल बिखर गये थे। आँखें धँस गयी थीं। क्रोध के मारे दाँतों से उसके होठ दबे हुए थे। कमल के समान मुख धूल से ढक गया था। युद्ध में उसके शस्त्र और बाँहें कट गयी थीं। रानियों को दैववश अपने पतिदेव उशीनर नरेश की यह दशा देखकर बड़ा दुःख हुआ। वे हा नाथ! हम अभागिनें तो बेमौत मारी गयीं।यों कहकर बार-बार जोर से छाती पीटती हुई अपने स्वामी के चरणों के पास गिर पड़ीं। वे जोर-जोर से इतना रोने लगीं कि उनके कुच-कुंकुम से मिलकर बहते हुए लाल-लाल आँसुओं से प्रियतम के पादपद्म पखार दिये। उनके केश और गहने इधर-उधर बिखर गये। वे करुण-क्रन्दन के साथ विलाप कर रही थीं, जिसे सुनकर मनुष्यों के हृदय में शोक का संचार हो जाता था।

हाय! विधाता बड़ा क्रूर है। स्वामिन्! उसी ने आज आपको हमारी आँखों से ओझल कर दिया। पहले तो आप समस्त देशवासियों के जीवनदाता थे। आज उसी ने आपको ऐसा बना दिया कि आप हमारा शोक बढ़ा रहे हैं।

पतिदेव! आप हमसे बड़ा प्रेम करते थे, हमारी थोड़ी-सी सेवा को भी बड़ी करके मानते थे। हाय! अब आपके बिना हम कैसे रह सकेंगी। हम आपके चरणों की चेरी हैं। वीरवर! आप जहाँ जा रहे हैं, वहीं चलने की हमें भी आज्ञा दीजिये। वे अपने पति की लाश पकड़कर इसी प्रकार विलाप करती रहीं। उस मुर्दे को वहाँ से दाह के लिये जाने देने की उनकी इच्छा नहीं होती थी। इतने में ही सूर्यास्त हो गया। उस समय उशीनर राजा के सम्बन्धियों ने जो विलाप किया था, उसे सुनकर वहाँ स्वयं यमराज बालक के वेष में आये और उन्होंने उन लोगों से कहा।

यम उवाच

अहो अमीषां वयसाधिकानां

विपश्यतां लोकविधिं विमोहः ।

यत्रागतस्तत्र गतं मनुष्यं

स्वयं सधर्मा अपि शोचन्त्यपार्थम् ॥ ३७॥

अहो वयं धन्यतमा यदत्र

त्यक्ताः पितृभ्यां न विचिन्तयामः ।

अभक्ष्यमाणा अबला वृकादिभिः

स रक्षिता रक्षति यो हि गर्भे ॥ ३८॥

य इच्छयेशः सृजतीदमव्ययो

य एव रक्षत्यवलुम्पते च यः ।

तस्याबलाः क्रीडनमाहुरीशितु-

श्चराचरं निग्रहसङ्ग्रहे प्रभुः ॥ ३९॥

पथि च्युतं तिष्ठति दिष्टरक्षितं

गृहे स्थितं तद्विहतं विनश्यति ।

जीवत्यनाथोऽपि तदीक्षितो वने

गृहेऽभिगुप्तोऽस्य हतो न जीवति ॥ ४०॥

भूतानि तैस्तैर्निजयोनिकर्मभि-

र्भवन्ति काले न भवन्ति सर्वशः ।

न तत्र हात्मा प्रकृतावपि स्थितस्तस्या

गुणैरन्यतमो निबध्यते ॥ ४१॥

इदं शरीरं पुरुषस्य मोहजं

यथा पृथग्भौतिकमीयते गृहम् ।

यथौदकैः पार्थिवतैजसैर्जनः

कालेन जातो विकृतो विनश्यति ॥ ४२॥

यथानलो दारुषु भिन्न ईयते

यथानिलो देहगतः पृथक् स्थितः ।

यथा नभः सर्वगतं न सज्जते

तथा पुमान् सर्वगुणाश्रयः परः ॥ ४३॥

यमराज ने कहा ;- बड़े आश्चर्य की बात है। ये लोग तो मुझसे सयाने हैं। बराबर लोगों का मरना-जीना देखते हैं, फिर भी इतने मूढ़ हो रहे हैं। अरे! यह मनुष्य जहाँ से आया था, वहीं चला गया। इन लोगों को भी एक-न-एक दिन वहीं जाना है। फिर झूठमूठ ये लोग इतना शोक क्यों करते हैं? हम तो तुमसे लाख गुने अच्छे हैं, परम धन्य हैं; क्योंकि हमारे माँ-बाप ने हमें छोड़ दिया है। हमारे शरीर में पर्याप्त बल भी नहीं है, फिर भी हमें कोई चिन्ता नहीं है। भेड़िये आदि हिंसक जन्तु हमारा बाल भी बाँका नहीं कर पाते। जिसने गर्भ में रक्षा की थी, वही इस जीवन में भी हमारी रक्षा करता रहता है। देवियों! जो अविनाशी ईश्वर अपनी मौज से इस जगत् को बनाता है, रखता है और बिगाड़ देता है-उस प्रभु का यह एक खिलौना मात्र है। वह इस चराचर जगत् को दण्ड या पुरस्कार देने में समर्थ है। भाग्य अनुकूल हो तो रास्ते में गिरी हुई वस्तु भी ज्यों-की-त्यों पड़ी रहती है। परन्तु भाग्य के प्रतिकूल होने पर घर के भीतर तिजोरी में रखी हुई वस्तु भी खो जाती है। जीव बिना किसी सहारे के दैव की दयादृष्टि से जंगल में भी बहुत दिनों तक जीवित रहता है, परन्तु दैव के विपरीत होने पर घर में सुरक्षित रहने पर भी मर जाता है।

रानियों! सभी प्राणियों की मृत्यु अपने पूर्वजन्मों की कर्मवासना के अनुसार समय पर होती है और उसी के अनुसार उनका जन्म भी होता है। परन्तु आत्मा शरीर से अत्यन्त भिन्न है, इसलिये वह उसमें रहने पर भी उसके जन्म-मृत्यु आदि धर्मों से अछूता ही रहता है। जैसे मनुष्य अपने मकान को अपने से अलग और मिट्टी का समझता है, वैसे ही यह शरीर भी अलग और मिट्टी का है। मोहवश वह इसे अपना समझ बैठता है। जैसे बुलबुले आदि पानी के विकार, घड़े आदि मिट्टी के विकार और गहने आदि स्वर्ण के विकार समय पर बनते हैं, रूपान्तरित होते हैं तथा नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही इन्हीं तीनों के विकार से बना हुआ यह शरीर भी समय पर बन-बिगड़ जाता है।

जैसे काठ में रहने वाली व्यापक अग्नि स्पष्ट ही उससे अलग है, जैसे देह में रहने पर भी वायु का उससे कोई सम्बन्ध नहीं है, जैसे आकाश सब जगह एक-सा रहने पर भी किसी के दोष-गुण से लिप्त नहीं होता-वैसे ही समस्त देहेन्द्रियों में रहने वाला और उनका आश्रय आत्मा भी उनसे अलग और निर्लिप्त है।

सुयज्ञो नन्वयं शेते मूढा यमनुशोचथ ।

यः श्रोता योऽनुवक्तेह स न दृश्येत कर्हिचित् ॥ ४४॥

न श्रोता नानुवक्तायं मुख्योऽप्यत्र महानसुः ।

यस्त्विहेन्द्रियवानात्मा स चान्यः प्राणदेहयोः ॥ ४५॥

भूतेन्द्रियमनोलिङ्गान् देहानुच्चावचान् विभुः ।

भजत्युत्सृजति ह्यन्यस्तच्चापि स्वेन तेजसा ॥ ४६॥

यावल्लिङ्गान्वितो ह्यात्मा तावत्कर्म निबन्धनम् ।

ततो विपर्ययः क्लेशो मायायोगोऽनुवर्तते ॥ ४७॥

वितथाभिनिवेशोऽयं यद्गुणेष्वर्थदृग्वचः ।

यथा मनोरथः स्वप्नः सर्वमैन्द्रियकं मृषा ॥ ४८॥

अथ नित्यमनित्यं वा नेह शोचन्ति तद्विदः ।

नान्यथा शक्यते कर्तुं स्वभावः शोचतामिति ॥ ४९॥

लुब्धको विपिने कश्चित्पक्षिणां निर्मितोऽन्तकः ।

वितत्य जालं विदधे तत्र तत्र प्रलोभयन् ॥ ५०॥

कुलिङ्गमिथुनं तत्र विचरत्समदृश्यत ।

तयोः कुलिङ्गी सहसा लुब्धकेन प्रलोभिता ॥ ५१॥

सासज्जत सिचस्तन्त्र्यां महिषी कालयन्त्रिता ।

कुलिङ्गस्तां तथाऽऽपन्नां निरीक्ष्य भृशदुःखितः ।

स्नेहादकल्पः कृपणः कृपणां पर्यदेवयत् ॥ ५२॥

मूर्खों! जिसके लिये तुम सब शोक कर रहे हो, वह सुयज्ञ नाम का शरीर तो तुम्हारे सामने पड़ा है। तुम लोग इसी को देखते थे। इसमें जो सुनने वाला और बोलने वाला था, वह तो कभी किसी को नहीं दिखायी पड़ता था। फिर आज भी नहीं दिखायी दे रहा है, तो शोक क्यों?

(तुम्हारी यह मान्यता कि प्राण ही बोलने या सुनने वाला था, सो निकल गयामूर्खतापूर्ण है; क्योंकि सुषुप्ति के समय प्राण तो रहता है, पर न वह बोलता है न सुनता है।) शरीर में सब इन्द्रियों की चेष्टा का हेतुभूत जो महाप्राण है, वह प्रधान होने पर भी बोलने या सुनने वाला नहीं है; क्योंकि वह जड है। देह और इन्द्रियों के द्वारा सब पदार्थों का द्रष्टा जो आत्मा है, वह शरीर और प्राण दोनों से पृथक् है। यद्यपि वह परिच्छिन्न नहीं है, व्यापक है-फिर भी पंचभूत, इन्द्रिय और मन से युक्त नीचे-ऊँचे (देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि) शरीरों को ग्रहण करता और अपने विवेक बल से मुक्त भी जो जाता है। वास्तव में वह इन सबसे अलग है। जब तक वह पाँच प्राण, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, बुद्धि और मन-इन सत्रह तत्त्वों से बने हुए लिंग शरीर से युक्त रहता है, तभी तक कर्मों से बँधा रहता है और इस बन्धन के कारण ही माया से होने वाले मोह और क्लेश बराबर उसके पीछे पड़े रहते हैं।

प्रकृति के गुणों और उनसे बनी हुई वस्तुओं को सत्य समझना अथवा कहना झूठमूठ का दुराग्रह है। मनोरथ के समय की कल्पित और स्वप्न के समय की दीख पड़ने वाली वस्तुओं के समान इन्द्रियों के द्वारा जो कुछ ग्रहण किया जाता है, सब मिथ्या है। इसलिये शरीर और आत्मा का तत्त्व जानने वाले पुरुष न तो अनित्य शरीर के लिये शोक करते हैं और न नित्य आत्मा के लिये ही। परन्तु ज्ञान की दृढ़ता न होने के कारण जो लोग शोक करते रहते हैं, उनका स्वभाव बदलना बहुत कठिन है।

किसी जंगल में एक बहेलिया रहता था। वह बहेलिया क्या था, विधाता ने मानो उसे पक्षियों के कालरूप में ही रच रखा था। जहाँ-कहीं भी वह जाल फैला देता और ललचाकर चिड़ियों को फँसा लेता। एक दिन उसने कुलिंग पक्षी के एक जोड़े को चारा चुगते देखा। उनमें से उस बहेलिये ने मादा पक्षी को तो शीघ्र ही फँसा लिया। कालवश वह जाल के फंदों में फँस गयी। नर पक्षी को अपनी मादा की विपत्ति को देखकर बड़ा दुःख हुआ। वह बेचारा उसे छुड़ा तो सकता न था, स्नेह से उस बेचारी के लिये विलाप करने लगा।

अहो अकरुणो देवः स्त्रियाकरुणया विभुः ।

कृपणं मानुशोचन्त्या दीनया किं करिष्यति ॥ ५३॥

कामं नयतु मां देवः किमर्धेनात्मनो हि मे ।

दीनेन जीवता दुःखमनेन विधुरायुषा ॥ ५४॥

कथं त्वजातपक्षांस्तान् मातृहीनान् बिभर्म्यहम् ।

मन्दभाग्याः प्रतीक्षन्ते नीडे मे मातरं प्रजाः ॥ ५५॥

एवं कुलिङ्गं विलपन्तमारा-

त्प्रियावियोगातुरमश्रुकण्ठम् ।

स एव तं शाकुनिकः शरेण

विव्याध कालप्रहितो विलीनः ॥ ५६॥

एवं यूयमपश्यन्त्य आत्मापायमबुद्धयः ।

नैनं प्राप्स्यथ शोचन्त्यः पतिं वर्षशतैरपि ॥ ५७॥

उसने कहा ;- ‘यों तो विधाता सब कुछ कर सकता है। परन्तु है वह बड़ा निर्दयी। यह मेरी सहचरी एक तो स्त्री है, दूसरे मुझ अभागे के लिये शोक करती हुई बड़ी दीनता से छटपटा रही है। इसे लेकर वह करेगा क्या। उसकी मौज हो तो मुझे ले जाये। इसके बिना मैं अपना यह अधुरा विधुर जीवन, जो दीनता और दुःख से भरा हुआ है, लेकर क्या करूँगा। अभी मेरे अभागे बच्चों के पर भी नहीं जमे हैं। स्त्री के मर जाने पर उन मातृहीन बच्चों को मैं कैसे पालूँगा? ओह! घोंसले में वे अपनी माँ की बाट देख रहे होंगे

इस तरह वह पक्षी बहुत-सा विलाप करने लगा। आँसुओं के मारे उसका गला रूँध गया था। तब तक काल की प्रेरणा से पास ही छिपे हुए उसी बहेलिये ने ऐसा बाण मारा कि वह भी वहीं पर लोट गया। मूर्ख रानियों! तुम्हारी भी यही दशा होने वाली है। तुम्हें अपनी मृत्यु तो दीखती नहीं और इसके लिये रो-पीट रही हो। यदि तुम लोग सौ बरस तक इसी तरह शोकवश छाती पीटती रहो, तो भी अब तुम इसे नहीं पा सकोगी।

हिरण्यकशिपुरुवाच

बाल एवं प्रवदति सर्वे विस्मितचेतसः ।

ज्ञातयो मेनिरे सर्वमनित्यमयथोत्थितम् ॥ ५८॥

यम एतदुपाख्याय तत्रैवान्तरधीयत ।

ज्ञातयोऽपि सुयज्ञस्य चक्रुर्यत्साम्परायिकम् ॥ ५९॥

ततः शोचत मा यूयं परं चात्मानमेव च ।

क आत्मा कः परो वात्र स्वीयः पारक्य एव वा ।

स्वपराभिनिवेशेन विनाज्ञानेन देहिनाम् ॥ ६०॥

हिरण्यकशिपु ने कहा ;- उस छोटे से बालक की ऐसी ज्ञान पूर्ण बातें सुनकर सब-के-सब दंग रह गये। उशीनर-नरेश के भाई-बन्धु और स्त्रियों ने यह बात समझ ली कि समस्त संसार और इसके सुख-दुःख अनित्य एवं मिथ्या हैं। यमराज यह उपाख्यान सुनाकर वहीं अन्तर्धान हो गये। भाई-बन्धुओं ने भी सुयज्ञ की अन्त्येष्टि-क्रिया की। इसलिये तुम लोग भी अपने लिये या किसी दूसरे के लिये शोक मत करो। इस संसार में कौन अपना है और कौन अपने से भिन्न? क्या अपना है और क्या पराया? प्राणियों को अज्ञान के कारण ही यह अपने-पराये का दुराग्रह हो रहा है, इस भेद-बुद्धि का और कोई कारण नहीं है।

श्रीनारद उवाच

इति दैत्यपतेर्वाक्यं दितिराकर्ण्य सस्नुषा ।

पुत्रशोकं क्षणात्त्यक्त्वा तत्त्वे चित्तमधारयत् ॥ ६१॥

नारद जी ने कहा ;- युधिष्ठिर! अपनी पुत्रवधू के साथ दिति ने हिरण्यकशिपु की यह बात सुनकर उसी क्षण पुत्रशोक का त्याग कर दिया और अपना चित्त परमतत्त्वस्वरूप परमात्मा में लगा दिया।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे दितिशोकापनयनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥

शेष जारी-आगे पढ़े............... सप्तम स्कन्ध: तृतीयोऽध्यायः

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